Sunday, September 30, 2007

प्रजातंत्र के पराभव की कहानी

समीक्षा



प्रजातंत्र के पराभव की कहानी

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रघुवंशमणि

हिंदी साहित्य में व्यंग लेखन की स्थिति पहले से ही बहुत अच्छी नहीं रही है। इसलिए यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा रहा है और अक्सर व्यंग के नाम पर बेहद सतही चीजें ही सामने आती रही हैं। हिन्दी व्यंग लेखन को समृध्द करने वाले हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के दिवंगत होने के बाद इस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंगकारों में से एक हैं। श्रीलाल शुक्ल के नाम राग दरबारी जैसा उपन्यास है जिसकी स्थिति व्यंग की उनकी अपनी भंगिमा के कारण हिन्दी उपन्यासों में बिल्कुल अलग रही है। राजकमल प्रकाशन ने हाल में उनके लेखों का एक संग्रह जहालत के पचास साल प्रकाशित किया है जिसमें शुक्ल जी के छोटे बड़े व्यंगों को इकठ्ठा छापा गया है। उनके द्वारा पिछले पचास सालों में लिखे गये इन लेखो को पढने का एक अलग ही आनन्द है। साथ ही हिन्दी के एक महत्वपूर्ण व्यंगकार के रचनात्मक विकास के विभिन्न पक्षों को देखने समझने का अवकाश भी यह संग्रह देता है। यह जरूर है कि श्रीलाल शुक्ल के पुराने पाठकों को इसमें प्रकाशित बहुत सी रचनाएँ पूर्व परिचित ही लगेंगी। अंगद के पाँव, यहाँ से वहाँ, उमराव नगर में कुछ दिन, कुछ जमीन की कुछ हवा में, आओ बैठें कुछ देर जैसी चर्चित और पठित रचनाओं के पाछकों के लिए जहालत के पचास साल व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल का कलेक्टेड वर्क जैसा होगाा। इस अर्थ में इसका प्रकाशन वास्तव में एक घटना है।

जहालत के पचास साल के व्यंग काफी व्यापक जमीन रखते हैं। वे वाकई पिछले पचास सालों के बारे में काफी कुछ कह जाते हैं। बातें टुकड़ों में अवश्य आती हैं क्योंकि व्यंगों की साइज आम तौर पर छोटी हैं लेकिन दुकड़ों 2 में ही देश के पिछले पचास साले का अच्छा खासा लेख जोखा है। भ्रष्टाचार और कुशिक्षा अधिकतर व्यंगों के मूल में है। नौकरशाही से पूरी तरह परिचित और उसी में जीवन गुजारने वाले शुक्ल जी का यह प्रिय विषय है। जाहिर है कि इस संग्रह में ऐसे व्यंग बहुतायत में हैं जिनका नौकरशाही से किसी न किसी प्रकार लेना देना है। राजनीति तो ऐसी चीज हो गयी है कि उसपर कलम चलाए बिना किसी भी व्यंगकार को मुक्ति नहीं। श्रीलाल शुक्ल किसी राजनीतिक प्रतिबध्दता से जुड़े रचनाकार नहीं हैं मगर सामाजिक यथार्थ से वे बचने का प्रयास कतई नहीं करते। वे वस्तुस्थितियों में भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियों की खोज करने वाले लेखक हैं, अपनी सारी विनोदप्रियता और मस्ती के बाद भी वे हिन्दी समाज के इस बुरे पक्ष को प्रस्तुत करने से बच नहीं पाते। ये विसंगतियॉ अंतत: सामान्य आदमी को ही अपना शिकार बनाती हैं। जहालत के पचास साल भारतीय प्रजातंत्र के पिछले पचास सालों की पतनगाथा है।

ऐसा लगता है कि श्रीलाल शुक्ल इस बात का ध्यान रखते हैं कि रचना में वैचारिकता का बोझ न आने पाये, मगर अपनी सामाजिक चेतना के चलते वे विचारात्मकता को अपनी रचनाओं मेें स्थान देते हैं। वे स्वयं ऐसा मानते रहे हैं कि उनकी प्रारंभिक रचनाओं में सामग्री ऐसी थी जिससे किसी का बहुत नफा नुकसान नहीं होना था। मगर बाद की रचनाओं में व्यंग पर सान प्रखर वैचारिकता ही चढ़ा सकी है। जहालत के पचास साल की रचनाएँ इस ओर संकेत करती हैं कि श्रीलाल शुक्ल के व्यंग लेखन का रास्ता एक यात्रा की तरह है जिसमें विभिन्न पड़ाव हैं। इन पड़ावों को कोई भी सूक्ष्मपाठ रेखांकित कर सकता है। शुरू के व्यंगों का हार्स लाफ्टर बाद में गंभीर होता गया है और उमरावनगर में कुछ दिन तक पहुँचते पहुँचते रचना में एक गहरा अनुशासन झलकने लगता है। इस प्रकार दृष्ठि और शैली दोनों के फर्क लेखक के विकास की दिशा को संकेतित करते हैं

श्रीलाल शुक्ल के काफी व्यंग ऐसे हैं जिनमें विषयवस्तु साहित्य है और साहित्य में भी खासकर कविता। यह कविता का एक व्यंग लेखक द्वारा किया गया पाठ है। यदि यह कविता का उत्तरपाठ है तो इसे हास्योत्तरपाठ कहना बेहतर होगा। आधुनिक कविता का भक्तिकाल, धुड़सरी का काव्यपाठ, साहित्योद्यानसुमनगुच्छा आदि कविता की संस्कृति की बखिया उधेड़ते हैं। निराला के बहाने साहित्य चर्चा में उनका निशाना साहित्य की सत्तावादी संस्कृति है जिसका शिकार स्वयं निराला का साहित्य हो गया है। साहित्यिक सन्दर्भ श्रीलाल जी के यहाँ भरे पड़े हैं और वे उन्हे जमकर व्यंग और हास्य के स्त्रोत के रूप में करते हैं। 'स्वर्णग्रंाम और वर्षा','बया और बन्दर की कहानी','कालिदास का संक्षिप्त इतिहास' जैसे व्यंग यह बतातें हैं कि साहित्य को व्यंग के प्रहारो ंसे नहीं बचाया जा सकता क्योंकि विसंगतियाँ बहॉ कुछ कम नहीं। लेकिन यह सब उनके साहित्य के गंभीर पाठक होने के अगंभीर लगने वाले प्रमाण हैं।

व्यंग एक ऐसी चीज है जो विधाओं की सीमा को अतिक्रांत करती है यद्यपि यह एक सच है कि व्यंग अपने में गद्य की एक विधा भी है, यह उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि विधाओं में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करती रहती है। श्रीलाल शुक्ल का लेखन भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन उनके किसी भी सुधी पाठक के लिए वे मुख्यत: गल्प विधा के ही दायरे में व्यंग लिखने वाले लेखक हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो राग दरबारी ही होगा मगर जहालत के पचास साल में भी प्रमुखता इसी प्रकार के व्यंगों की है। उनके कुछ व्यंग जरूर शोध पत्र से लेकर आलोचना और समीक्षा तक की शैली में लिखे गये हैं। तथापि इस पुस्तक में संकलित तमाम व्यंग कहानी पढने जैसा आनन्द देते हैं। 'द ग्रैंड मोटर डाइविंग स्कूल', 'अंगद के पाँव','कुत्ते और कुत्ते',और 'धोखा' जैसे व्यंगों का पाठानन्द कहानी जैसा ही है। उमरावनगर में कुछ दिन तो लगभग उपन्यासिका जैसी चीज है। 'अंगद के पाँव' जैसी रचना में लोगों की प्रतिक्षण की मानसिकता को श्रीलाल शुक्ल किसी मनोवैज्ञानिक लेखक की तरह उकेरते जाते हैं।

श्रीलाल शुक्ल के व्यंगों में अक्सर हास्य के तत्व अधिक प्रबल हो जाते हैं। हास्य और व्यंग का मिश्रण तो सामान्य बात है और अक्सर इनमे फर्क कर पाना भी बहुत सरल नहीं होता। दोनों के लक्ष्य भी लगभग एक जैसे होते हैं। हास्य का पुट रचना को ज्यादा स्वीकृति योग्य बनाता है और लेखक के विरोधियों तक के लिए वह पठनीय हो जाती है। ऐसे में मनोरंजन के चलते जनसामान्य तक के लिए शुक्ल जी के निबन्ध अधिक ग्राह्य होजाते हैं। मगर इससे कहीं कहीं लेखन में गंभीरता की क्षति भी होती है। यही कारण है कि परसाई जैसे लेखक की ऊॅंचाई बनी रहती है। श्रीलाल शुक्ल में हर जगह ऐसा भी नहीं, वे गंभीर भी हैं जैसे अपने 'पंडित, ठाकुर, लाला, बाबू, मुशी आदि' जैसे व्यंग में, मगर इधर के हिन्दी व्यंगकारों को पढ़ते समय एक कमी सी महसूस होती है जिसका नाम हरिशंकर परसाई है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि व्यंग की धार नहीं बनी है। वह लगातार बनी रहती है और समाज की विसंगतियों पर लगाातार प्रहार करती रहती है। पिछले पचास वर्षें के भारतीय समाज की विसंगतियों की पूरी खोज खबर लेने वाले व्यंग, मूल्यों के लिए ही एक सीधा संघर्ष हैं। 'दि ग्रैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल' जैसी रचना का निरंतर हास्य, अंत में निहायत ही राजनीतिक हो जाता है जिसमें उस्ताद ट्रेनर कार के बोनट पर झुककर एक झटकू व्याख्यान दे डालते है कि हर जगह गलत आदमी है तो फिर उनके गलत होने पर आपत्ति क्यों? वाकई यथार्थ भी तो यही है। यह व्यंग यथार्थ का अन्वेषण कहाँ तक, किस तरह और कितने प्रभावी ढंग से कर पाता है, यही महत्वपूर्ण है। कहीं कहीं व्यंग की धार जोनाथन स्विफ्ट जैसे व्यंगकारों की याद दिला देती है। अगली शताब्दि का शहर का आफिसर अध्यक्ष रिहाइशी कालोनी में सुअरों की अनिवार्यता पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि रिटायरमेंट के बाद वे कालोनी में रहेंगे तो सुअरों की कमी पूरी हो जायेगी।

हास्य व्यंग की एक शैली के रूप में श्रीलाल शुक्ल कैरीकेचरिंग का इस्तेमाल करते हैं। वे पात्रों को विरुपित करते हैं और उनके अवगुणों को प्रस्तुत करने के लिए उन्हें इसी तरह सामने करते हैं। वे चीजों को कुछ इसतरह बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि पाठकों के समक्ष विद्रूप स्पष्ट हो जाते हैं। यह एक तरह से वास्तविकता का यथातथ्य चित्रण नहीं है अपितु उसे अपनी अवस्थिति से प्रस्तुत करना है। श्रीलाल शुक्ल के लेखन की एक विशेषता या गड़बडी यह होगी कि वे वस्तुस्थ्िति को इस परिहासप्रियता के साथ प्रस्तुत करते हैं कि साहित्य की आलोचनात्मक रूढ़ियों से परे वे समाज के पात्रों के साथ खडे होकर वर्चस्वी व्यवस्था की आलोचना करनें का प्रयास करते लगते हैं। इस कार्य में अक्सर उनकी परिहासप्रियता उन्हें इनसाइडर जैसा बनाये रखती है। परिणामत: पाठकों में व्यवस्था के प्रति विरक्ति के स्थान पर आनन्दभाव आ जाता है। मगर यदि पाठक विचारशील है तो वह हँसने के बाद सोचेगाा कि वह किस बात पर हंस रहा है। संभव है कि वह ऐसा न भी करे।

जहालत के पचास साल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संकलित व्यंगों को यदि एक तरफ से पढ़ा जाय तो हमें गुजरे पचास सालों की कुछ छायाएँ दिखाई देंगी। ये छायाएँ बीते हुए समय से इन व्यंगों में उतरती हैं। व्यंग लेखन वैसे भी ऐकांतिक नहीं होते मगर श्रीलाल के इन व्यंगों में इतिहास के निशान सीधे मिल जाते हैं। चन्द ख़तूत-जो हसीनों के नही हैं में सलमान रुश्दी के सैटनिक वर्सेज का हवाला आता है तो होरी और उन्नीस सौ चौरासी में जार्ज ऑरवेल के उपन्यास का जिक्र है जिसकी चर्चा 1984 में बड़े पैमाने पर हुई थी। लकीर का साँप में फैजाबाद के सहमत प्रदशर्नी का हवाला है जिसमें धर्मिक कट्टरतावादियों नें प्रदर्शनी पर हल्ला बोल दिया था। राजीव गााँधी, हर्षद मेहता, मंदिर आन्दोलन की सब्जी पूड़ी आदि का जिक्र श्री लाल शुक्ल के व्यंगों को समय की पृष्ठभूमि प्रदान करता है।


श्रीलाल शुक्ल की भाषा को लेकर काफी चर्चा होती रही है, विशेषकर उनके उपन्यास राग दरबारी की भाषा को लेकर। उनके वाक्य अक्सर सीधी गति में न चलकर सर्पीले रास्ते अख्तियार करते हैं। मगर कहीं सादगी भी पाठकों को लुभा जाती है। कहीं कहीं तो पूरी नाटकीयता वाक्य संरचना में ही दिखती है जिसकी तिर्यकता पाठकों को प्रभावित करती है। भाषा का प्रवाह कई जगह गल्पकारों जैसा सफल है और यह व्यंग की पठनीयता का प्रमुख कारण है। अलग अलग व्यंगों में भाषा का वैभिन्य होते हुए भी यहाँ अभिव्यक्ति का चुटीलापन प्रभावोत्पादक है। यह हिन्दी के उस पुष्ट गद्य का उदाहरण है जिसमें प्रयोगधर्मिता की कोई कमी नहीं। यह निहायत ही आश्चर्यजनक है कि इस पुस्तक में वर्तनी की बहुत सी अशुध्दियाँ रह गयी हैं। आखिर एक व्यंगकार की कुति में इतनी विडंबना के लिए स्थान बचना ही चाहिए वगर्ना बाकी लिखे पढ़े से फर्क ही कैसा?


आज के दौर में व्यंग लेखन एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयीं हैं कि व्यंग का प्रभाव कम होता जा रहा है। समाज में वास्तविक परिस्थितियाँ ही इतनी विडंबनापूर्ण हो गयी हैं कि व्यंग की धार को बनाये रखना बहुत कठिन होता जा रहा है। बार बार यह बात दिमाग में आती है कि अब नये शस्त्रों की जरूरत है। मगर यदि सामाजिक परिथितियाँ ही ऐसी हैं तो उसके लिए व्यंगकार को कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल के पिछले पचास सालों के दौरान लिखे गये ये व्यंग इसी ओर संकेत करते हैं कि समाज में जो सुधार होने चाहिए थे, वे नहीं हो पाये हैं। यह हमारे प्रजातंत्र का पराभव है, हमारे लेखक का नहीं।





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समीक्षित कृति: जहालत के पचास साल
रचनाकार: श्रीलाल शुक्ल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 395 रूपये मात्र
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