Tuesday, October 18, 2011

फैज़ाबाद में इप्टा की इकार्इ का पुनर्गठन

फैज़ाबाद में इप्टा की इकार्इ का पुनर्गठन





फैज़ाबाद। 16 अक्टूबर। नाटक, गीत और लेखन स्वभावत: सामूहिक गतिविधियां हैं। सृजन की ये यात्राएं 'मैं से 'हम की तरफ जाती हैं। इप्टा का अर्थ जनता से जुड़ना और जनता को जोड़ना है। बाजारवाद से लेकर साम्प्रदायिकता तक के विरुद्ध प्रतिरोध को इसी प्रकार विकसित किया जा सकता है।



ये उदगार भारतीय जन नाटय संघ इप्टा के प्रान्तीय सचिव राकेश जी ने स्थानीय तरंग सभागार में इप्टा की औपचारिक स्थापना के लिए आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किये। वे इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता और मुख्य अतिथि थे। उन्होंने यह भी कहा कि इप्टा को ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर भी अपने कार्यक्रम करने चाहिए।अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ आगे बढ़ते हुए नयी पीढ़ी को अपने साथ जोड़ना चाहिए। कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिए यह जरूरी है कि वे जनता से जुड़ी नैतिकता एवं जीवनमूल्यों को अर्जित करें ताकि इस प्रकार वे अपने संस्कृतिकर्म के द्वारा जनता के हृदय को छू सकें। उन्होंने कहा कि फैज़ाबाद की सांस्कृतिक जमीन जनजागरण के लिए जरखे़ज है।



इससे पहले डा. रघुवंश मणि ने फैज़ाबाद में इप्टा के पिछले कार्यो को याद किया और नाटकों के सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित किया। साहित्यकार आर. डी. आनन्द ने अपने वक्तव्य में आज के समय को समस्याग्रस्त और कठिन बताते हुए संस्कृतिकर्म के जोखिम और उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आज की परिसिथतियां इप्टा के प्रारमिभक दौर के समय की अपेक्षा अधिक कठिन और दुरूह हैं। ऐसे में संस्कृतिकर्म की भूमिका ज्यादा बड़ी है।



गोरखपुर से पधारे इप्टा पर्यवेक्षक शहजाद रिजवी ने यह आशा व्यक्त की कि फैजाबाद की इप्टा इकार्इ भविष्य में मजबूत होगी और अपनी अलग पहचान बनाएगी।



कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अतुल सिंह ने इप्टा के बीते दिनों को याद किया और कहा कि इप्टा का मतलब समाज की विकृतियों को सामने लाना है ताकि उन्हें समाज से उन्मूलित किया जा सके। उन्होंने कहा कि गीत और नाटकों का किताबों या भाषणों की तुलना में सीधा प्रभाव पड़ता है।



कार्यक्रम के दूसरे चरण में आराधना दूबे द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक दहेज का मंचन हुआ जिसमें आराधना दूबे, आरती वर्मा , अनीता वर्मा, पूनम वर्मा, रेनू वर्मा, सुमन निषाद, अंतिमा शर्मा, इजा अग्रहरि, पूजा अग्रहरि, सोनी यादव, सीमा यादव, नीरज कनौजिया, अंजनीराम और शालिनी तिवारी ने भाग लिया। प्रेम सागर, सुरेश तिवारी एवं बद्री प्रसाद विश्वकर्मा ने जनगीत प्रस्तुत किये।

Wednesday, August 17, 2011

''आरक्षण के बारे में

''आरक्षण के बारे में

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''आरक्षण फिल्म के आरक्षण के बारे में कम भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अधिक है। इस फिल्म को देखने के बाद ही प्रदेश सरकारों का भ्रम दूर हुआ होगा। बौद्धिक हलकों में चल रही बहसों पर अब पटाक्षेप हो जाना चाहिए क्योंकि यह फिल्म आरक्षण के विरुद्ध तो कतर्इ नहीं। फिल्म का प्रारम्भ अवश्य मण्डल कमीशन के मामले से होता है मगर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, मुददा बदलता जाता है। फिल्म के केन्द्र में आ जाता है शिक्षा का व्यवसायीकरण। फिल्म इस मुददे पर कुछ विकल्प भी सुझाती है। मुझे ये विकल्प तो लचर टार्इप के लगे। उपचारात्मक शिक्षा ही रामबाण नहीं है। वास्तव में शिक्षा को लेकर सरकार के दृषिटकोण को ही बदलना होगा और यह मामूली बात नहीं।



फिलहाल यह फिल्म किसी भी विषय पर हो, इसे प्रतिबंधित किया जाना तो बिल्कुल ही गलत था। शायद सरकारें दंगाइयों और उनकी राजनीति से इतना घबराती है कि वे पहले किताबों, फिल्मों पर रोक लगाती है। पढ़ती, देखती या सोचती बाद में है। वास्तव में उन्हें ये कार्य पहले करने चाहिए। इस पूरे प्रकरण में फायदा तो फिल्म का ही हुआ। मुफत के प्रचार से बेहतर लाभ किसी फिल्म को क्या हो सकता है? लेकिन प्रकाश झा को कम से कम इस बात के लिए बधार्इ दी जानी चाहिए कि उन्होंने शिक्षा व्यवस्था पर एक विचारोत्तेजक बम्बर्इया फिल्म बनायी है।

Thursday, June 09, 2011

शस्त्र, शास्त्र और गाॅधीवाद

रघुवंशमणि



योगगुरु बाबा रामदेव कुछ दिनों पूर्व तक बेहद सफल व्यक्तित्व नज़र आ रहे थे। उन्होंने योगाभ्यास और आयुर्वेदिक स्वास्थ औषधियों की शानदार व्यवसायिक पैकेजिंग की थी और पूरी दुनियाॅं में अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिये थे। फिर उन्होंने पूरे देश में यात्रा करके बाकायदा अपनी भारतीय स्वाभिमान पार्टी के लिए पृष्ठभूमि भी तैयार कर ली थी। दिल्ली में अनशन के अभियान के समय तो ऐसा लगा कि सरकार उनके सामने झुक गयी है। मगर उसके बाद की राजनीतिक गतिविधियों के दौरान बाबा रामदेव विचलित नज़र आये और उनके वक्तव्यों से यह जाहिर होने लगा कि योगाभ्यास के दौरान योगासनों पर उनका कितना भी अभ्यास क्यों न रहा हो, राजनीति के आसन पर वे अभी ठीक से बैठने का अभ्यास नहीं कर पाये हैं।

कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली दिल्ली की सत्ता ने पूलिसिया बल प्रयोग के द्वारा जब उन्हें रामलीला मैदान से हटाया तो मीडिया ने बाबा को जबर्दस्त एक्सपोजर दिया। अन्ना हजारे ने अपने पुराने सहयोगी के समर्थन में और पुलिसिया गतिविधि के विरोध में गाॅंधी जी की समाधि पर आठ घंटे का अनशन रखा। आर. एस. एस. और बी.ज.ेपी. को तो स्वामी जी का समर्थन करना ही था। पूरे देश में बुद्धिजीवियों ने भी रामदेव के साथ हुई इस घटना की भूरि-भूरि निन्दा की। यह सब बाबा के समर्थन में ही हुआ। यहाॅं तक कि साम्यवादी दलों के समर्थकों ने भी बाबा का समर्थन न करते हुए भी इस घटना की निन्दा की और सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। इस प्रकार बाबा को मिलने वाला यह बड़ा समर्थन था।

मगर बाबा रामदेव ने हरिद्वार पहुॅंचने के बाद जिस प्रकार के वक्तव्य दिये वे किसी राजनीतिक नेता के लिए बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहे जायेंगे। उनकी स्थिति स्व. टिकैत या योगी आदित्यनाथ से बेहतर नहीं थी जो मौके-मौके पर कैमरे के सामने रोते रहे हैं। किसी भी नेता के पीछे चलने वाली जनता अपने नेताओं के आॅंसुओं से भावुक तो हो सकती है, मगर वास्तव में वह अपने नेताओं को विपरीत परिस्थितियों में भी मजबूत और दृढ़ देखना चाहती है। बाबा रामदेव का यह कहना कि सरकार उनकी हत्या कराना चाहती है, किसी के भी गले से नीचे उतरने वाली बात नहीं थी क्योंकि यदि सरकार उन्हें मारना-मरवाना चाहती तो उसके पास काफी वक्त था। फिर बाबा का यह कहना कि उनके 5000 कार्यकत्र्ता गायब हैं, निहायत ही अविश्वसनीय बात थी।

लेकिन सबसे राजनीतिक गैरसमझदारी से भरी बात उन्होंने तब कही जब उन्होंने अपने शिष्यों से शास्त्र सीखने के साथ शस्त्र उठाने की भी बात कही। अभी चार दिन पहले तक गाॅंधीवादी तरीके से अहिंसक आन्दोलन और अनशन करने वाले बाबा रामदेव का क्या अपने सिद्धान्तों से इतनी जल्दी मोहभंग हो गया? गाॅंधी जी ने अपने लगभग तीन दशकों की अहिंसात्मक लड़ाई में बहुत बार गिरफतारियाॅं दीं, उनके समर्थक मारे पीटे गये, जेल में ठूॅंसे गये, मगर उन्होंने कभी भी अपनी अहिंसा की राजनीति पर अविश्वास नहीं व्यक्त किया। उन्होंने अपने अहिंसात्मक संघर्ष के तरीके पर केवल एक बार अविश्वास जाहिर किया था। वह समय था साम्प्रदायिक दंगों के उभरने का, जब बिहार और बंगाल खून से रंग गये थे। मगर यह उनके लिए अपनों से पराजित होने जैसी स्थिति थी। किसी राजनीतिक सत्ता के अत्याचार के सामने तो वे अपने अहिंसात्मक शस्त्र के साथ हमेशा डट कर खड़े रहे।

मगर बाबा रामदेव के समक्ष गाॅंधी जी जैसी कोई स्थिति नहीं थी। दिल्ली के रामलीला मैदान की घटना की निन्दा तो सभी ने की, मगर उन्हें जलियाॅंवाला बाग की घटनाओं के समान कहना अतिरेकपूर्ण ही होगा। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि बाबा पूरी तरह से विचलित हो गये और अहिंसा से हिंसा के रास्तेे पर उतर आये? वे हर जिले से आने वाले 20 स्वयंसेवकों को लाठी ही नहीं जूडो-कराटे भी सिखाने का संकल्प ले रहे हैं। यह उनके जैसे स्थपित व्यक्तित्व के लिए उचित नहीं और उनके राजनीतिक कच्चेपन का सबूत है। भारत का संविधान और उसकी मुख्यमार्गी राजनीति पार्टियाॅं परोक्षरूप से भले ही हिंसा का इस्तेमाल कर ले, वे इस प्रकार खुलेआम हिंसा का समर्थन नहीं करती।

बाबा रामदेव के इस प्रकार के वक्तव्यों से उन पर लगने वाले कांग्रेसी आरोपों की ही पुष्टि होती है कि वे दिल्ली में गड़बड़ी फैलाना चाहते थे। इससे यह भी प्रमाणित किया जायेगा कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह की ही राजनीति कर रहे हैं।

आज के दौर में अहिंसा की राजनीति करना आसान काम नहीं। यह एक दुधारी तलवार पर चलने जैसा काम है। इसके लिए सिर्फ मीडिया का समर्थन काफी नहीं होता। गाॅंधी स्वयं दृढ़प्रतिज्ञ थे और सत्याग्रह को चलाने की बुद्धिमत्ता भी उनमें कूट कूटकर भरी हुई थी। ये सभी बातें फिलहाल तो बाबा रामदेव में नहीं हैं।