Saturday, December 22, 2007

मंदी और मसीहा

डायरी

मंदी और मसीहा

19.12.2007 को विकास परिषद को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वैश्विक मंदी की संभावना व्यक्त की और आगाह किया कि आने वाले समय में भारत भी इससे प्रभावित हो सकता है। अमेरिका और दूसरे बड़े विकसित देशों में अर्थव्यवस्था की मंदी है जिसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है। ऐसे में कीमतें बढ़ सकती हैं। इन परिस्थितियों में निर्यातकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि खाद्य संरक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। अनाज, दाल, और खाद्य तेलों का भंडारण होना चाहिए। लेकिन उन्होने यह भी कहा कि इस वैश्विक मंदी के डर से निराश नहीं होना चाहिए। विकास और वृध्दि के लक्ष्यों को लेकर कम महत्वाकांक्षी होने की जरूरत नहीं है। उन्होने कहा कि इस संकट से देश को आगाह करना उनका कर्तव्य है।

डॉ. मनमोहन सिंह सिर्फ देश के प्रघानमंत्री ही नहीं है बल्कि एक विद्वान अर्थशास्त्री भी हैं। उनकी छवि एक इमानदार व्यक्ति की है। अत: उनके द्वारा कही गयी ये बातें ऐसी है कि उन्हें बहुत गंभीरतापूर्वक लिया जाय। वैसे भी पश्चिमी देशों में घटती विकास दर कोई ऐसी बात नहीं जो छिपी हुई हो। इस घटती विकास दर के ही चलते विकसित देश अपनी पूँजी को कम विकसित देशों के बाजार में लगााना चाहते हैं। इसी कारण वे विश्वबैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से विकासशील देशों की नीतियों को बदलने का प्रयास करते रहे हैं। इस काम में उन्हें सफलता भी मिलती रही है। इस प्रयास में वे कभी एशियन टाइगर्स को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्सहित करते रहे हैं, तो कभी भारत और चीन जैसे देशों को जिनके यहाँ पूॅजी के निवेश और विस्तार की संभावनाएँ बनी हुई हैं।

वैश्विक मंदी से तात्पर्य किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद में कमी या वास्तविक आर्थिक प्रगति की नकारात्मकता है। यह वास्तविक आर्थिक गतिविधियों का घटना या गिरना है। इससे रोजगार निवेश और कारपोरेट क्षेत्र के लाभों में गिरावट आ सकती है। इसमें दाम बड़ी तेजी से बढ़ते या घटते हैं जिसे स्फीति या विस्फीति कहते हैं। इस प्रक्रिया को निष्पंदन कहते हैं। सामान्य शब्दों में यह एक प्रकार का आर्थिक अवरोध है जिसमें रोजगाार के अवसर कम होते हैं और सामान्य जनता के लिए जीवन दूभर हो जाता है। याद करने की बात है कि अमेरिका की प्रसिध्द मंदी के सन्दर्भ में ही जॉन मेनयार्ड केन्स का कल्याणकारी राज्य का सिध्दांत आया था जिसमें उन्होने राज्य के हस्तक्षेप की वकालत की थी। उन्होने यहाँ तक लिखा था कि यदि राज्य के पास कोई काम न हो तो उसे चाहिए कि वह दिन में गङ्ढा खोदने का कार्य करावे और रात में उसे पटवा दे। तात्पर्य यह कि हर प्रकार से राज्य को आर्थिक गतिविधियों में अपनी कल्याणकारी भूमिका निभानी चाहिए।

मगर आज हमारे देश में राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका लगातार कम करता जा रहा है। अब तो शिक्षा जैसे क्षेत्र से भी वह पल्ला झाड़ने जा रहा है। तो फिर मंदी आने पर क्या होगा? किसको आयेगी मसीहाई?