Friday, August 31, 2007

लेखक और प्रकाशक

लेखक और प्रकाशक

हिन्दी जगत में लेखक और प्रकाशक के बीच बनते बिगड़ते सम्बन्धों पर अक्सर अनौपचारिक चर्चाएँ होती रही हैं। बातचीत के दौरान लेखकगण पारिश्रमिक कम मिलने या न मिलने की शिकायत करते रहे हैं। इसके विपरीत प्रकाशक पुस्तकों के न बिकने का रोना रोते रहते हैं। वे यह दलील देते रहे हैं कि पुस्तकें बिकतीं ही नहीं हैं अत: पारिश्रमिक वे दें भी तो कैसे? इधर रायल्टी के मुद्दे पर गगन गिल और महाश्वेतादेवी के वक्तव्यों को लेकर लेखकों और प्रकाशकों के बीच के सम्बन्ध पुन: बहस में आ गये हैं। इस प्रकरण को किसी एक हिन्दी प्रकाशक से जोड़कर देखने के बजाय हिन्दी जगत की सामान्य समस्या के रूप में देखा ताना चाहिए। मेरे विचार से प्रकाशकों की ओर से इस विषय पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करने की जरूरत है।

साहित्य के समुचित विकास के लिए लेखकों और प्रकाशकों के बीच सकारात्मक सम्बन्ध होना जरूरी है। साहित्य जगत में प्रकाशन एक व्यवसाय है, मगर यह अन्य व्यवसायों से थोड़ा अलग होना चाहिए क्योंकि साहित्य स्वयं में आदर्शों की वकालत करता है। यदि आदर्श शब्द थोड़ा पुरातनपंथी लगे तो मूल्य की बात की जा सकती है। जीवन मूल्यों के संवाहक साहित्य के प्रकाशकों में लेखकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है।

यह विचित्र सी बात है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी के प्रकाशक बेहतर पारिश्रमिक देते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि अंग्रेजी पुस्तकों का व्यापार अधिक लम्बा-चौड़ा है जिसके चलते वे अच्छा पारिश्रमिक दे लेते हैं। लेकिन यह कोई बहुत मतलब का तर्क नहीं क्योंकि हिन्दी पुस्तकों की खरीद कोई कम नहीं। पुस्तकालयों और सरकारी खरीद ही काफी होती है। अंग्रेजी प्रकाशकों के यहाँ पुस्तक प्रकाशन के समय जहाँ सारी बातें लिखित तौर पर होती हैं वहाँ हिन्दी में अधिकांशत: यह सारा कार्यकलाप मौखिक और आश्वासनधर्मी होता है। एक अंग्रेजी के लेखक ने बताया कि वह पहले हिन्दी में ही लिखता था लेकिन प्रकाशकों का रवैया ऐसा था कि उसने अंग्रेजी में लिखना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वहाँ पैसा ही नहीं सम्मान भी अधिक है।

प्रसिध्द आलोचक डॉ मैनेजर पाण्डेय ने एक बार कहा था कि हिन्दी के प्रकाशक वस्तुत: हिन्दी के अन्धकारक हैं। कारण यह कि वे बिक्री के लिए पाठकों पर बहुत निर्भर नहीं करते। इधर वितरण की एक ऐसी व्यवस्था विकसित हुई है जिसमें पाठक आनुसंगिक महत्व का रह गया है। पाठक के महत्व के घटने के साथ-साथ लेखक का महत्व भी घट गया है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक भारी सांस्कृतिक समस्या है जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी है। प्रकाशक यह समझता है कि जब सब काम वही कर रहा है तो फिर लेखक को पैसे क्यों दिये जाँय।

हिन्दी के एक लेखक ने जब अपने प्रकाशक से रायल्टी का हिसाब माँगा तो उसने उत्तर में लिखा कि यदि लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तकों की सभी प्रतियाँ खरीद ले तो वह रायल्टी दे देगा। यह बेहद अपमानजनक उत्तर था जो किसी भी तरह से उचित नहीं। रायल्टी के लफड़े से तंग आकर बहुत से हिन्दी लेखक अब 'लंप सम' मांगते हैं क्योंकि पुस्तकों की बिक्री का कुछ भी पता लगा पाना लेखक के लिए संभव नहीं होता।

सवाल यह है कि जिन लेखकों को प्रकाशकगण छापते हैं, उनके अधिकारों और सम्मान का ख्याल रखना क्या उनका भी धर्म नहीं है?

डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान

डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान

अभिमत


डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान 2005

रघुवंशमणि के आलोचना सम्बन्धी लेखों में जो बात हमें विशेष रूप से आकर्षित करती है वह रचनात्मक ढंग से माक्र्सवादी दृष्टि का विकास है, जिसके आलोक में हम न केवल तत्काल लिखे जा रहे साहित्य, विशेषकर कविता को देखकर समृध्द होते हैं, बल्कि पहले के लिखे साहित्य को भी समझने का एक दृष्टि-विस्तार पाते हैं। इसी तरह चुनी हुई विदेशी आलोचना का जो अनुवाद वे प्रस्तुत करते हैं, वह हमारी दृष्टि और तर्क को बलवती बनाती है। इस तरह समकालीन आलोचना में उनका स्थान मौलिक होता नजर आता है, जो आगे और भी पुष्ट होगा और रामविलास शर्मा की आलोचना पध्दति से और गहराई से जुड़ेगा। इसी को दृष्टि में रखकर उन्हें यह डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान 2005 प्रदान किया जा रहा है।

बाँदा, दिनांक 9 अप्रैल 2006

निर्णायक समिति

श्रीप्रकाश मिश्र
पृष्ठपोषक
रा.वि.श.आ.स.


नरेन्द्र पुण्डरीक
संयोजक
रा.वि.श.आ.स.

Tuesday, August 28, 2007

रघुवंशमणि का आलोचनाकर्म

स्वप्निल श्रीवास्तव

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का एक बहुपठित वाक्य है जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जाएगा कविकर्म कठिन होता जायेगा। यह बात आज की आलोचना पर भी लागू होती है। थोड़ा आगे चलकर कहा जा सकता है कि साहित्य की सभी विधाओं के समक्ष खतरे और चुनौतियाँ हैं। आलोचना एक गंभीर कर्म है। आलोचक, लेखक और पाठक के बीच सम्पर्क मार्ग की तरह है। हमारे समय की महत्वपूर्ण कृतियाँ आलोचकों के जरिये पाठकों तक पहुँचती रही हैं, चाहे वह मुक्तिबोध का कामायनी का पुनर्मूल्यांकन हो अथवा डॉ रामविलास शर्मा की निराला की साहित्य साधना। वस्तुत: आलोचक ही पाठकों को महत्वपूर्ण कृतियों से परिचित कराता है, आलोचक अपनी अन्तर्दृष्टि से रचना को सही परिप्रेक्ष्य में देखता है और उसका मूल्यांकन करता है।

इधर के जिन युवा आलोचकों ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है उनमें रघुवंशमणि प्रमुख हैं। वे ऐसे आलोचक हैं जिनके पास चीजों को देखने की एक वैचारिक दृष्टि है। वे विचार से होकर आलोचना की दुनिया में आये हैं। अभी हाल में प्रकाशित उनकी पुस्तक समय में हस्तक्षेप इस तथ्य की पुष्टि करती है। यह पुस्तक हमारे समय के महत्वपूर्ण विचारक एडोर्नो, हाबरमास, फ्रेडरिक जेम्सन एवं एजाज अहमद के महत्वपूर्ण लेखों का अनुवाद है। ये सभी हमारे समय के उन प्रसिध्द विचारकों में से हैं जिन्होने साहित्य और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला है। रघुवंशमणि ने अनुवाद करते समय मूल आशय को अनूदित करने की कोशिश की है, इसलिए इन लेखों की पठनीयता बनी रहती है।

रघुवंशमणि समय और समाज के ज्वलंत प्रश्नों से टकराते हैं और अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता उनका प्रिय विषय है। आजादी के बाद इन पर इतनी बहस हो चुकी है कि ये शब्द अपना मूल अर्थ खो चुके हैं। साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता ऐसे शब्द हैं जिनकी व्याख्या पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक अपने सीमित स्वार्थो को ध्यान में रखकर करते हैं। ये दोनो शब्द दंगों के पहले और दंगों के बाद प्रयोग किये जाने वाले शब्द हैं, इसलिए आजादी के इतने वर्षों बाद असंदिग्ध नहीं हो पाये हैं। अपने लेख धर्मनिरपेक्षता की संस्कृति में रघुवंशमणि कहते हैं किसी भी शब्द के अर्थ को नष्ट करने का सबसे कारगर तरीका है उसे गलत अर्थ प्रदान कर देना। सही अर्थ न मिलने की स्थिति में वह स्वयं बेमतलब हो जायेगा।

रघुवंशमणि धर्मनिरपेक्षता का उद्गम खोजते हैं, उसकी विभिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विस्तृत व्याख्या करते है। वह बताते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का अवसरवादी संसदीय राजनीति में किस तरह इस्तेमाल किया जाता है, किस तरह वोटों की राजनीति के चलते इस शब्द का सरलीकरण हुआ, कैसे धर्मनिरपेक्षता आधुनिकता से अलग है। धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद के अन्तर्सम्बंध क्या हैं। यह भी कि मुस्लिमों के हिन्दुस्तान में आने के बाद धर्मनिरपेक्षता शब्द का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है।

अपने एक अन्य लेख साम्प्रदायिकता संस्कृति के वस्त्र पहनकर आती है में वे तफसील से बताते हैं कि किस प्रकार फासिस्ट शक्तियाँ हमारे सांस्कृतिक जीवन को नष्ट कर रही हैं। उनकी यह भी स्थापना है कि इराक पर अमेरिकी हमले और गुजरात के नरसंहार की घटनाओं को अलग-अलग न देखकर उन्हें एक क्रम में देखा जाना चाहिये। दोनों में नाभिनाल सम्बन्ध है।

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता जैसे विषयों को समझने से ज्यादा विरूपित किये जाने के प्रयास किये गये हैं। ये दोनों शब्द राजनीति के अचूक उपकरण हैं।

भीष्म साहनी के उपन्यास तमस पर लिखा गया उनका लेख दास्ताने खिजर उर्फ शैतानियत की ऑंखें अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह साम्प्रदायिकता की समस्या और उसके मूल कारणों को सम्यक परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास है। उनका यह लेख आलोचना के गुरुडम को तोड़ता है और एक किस्सागो शैली में शुरू होता है। तमस पर विचार करते समय वे विभाजन की त्रासदी की भयावहता को हमारे सामने लाते हैं और उसे गुजरात के दंगों से जोड़कर तमस की प्रासंगिकता को सिध्द करते हैं। उनका मानना है कि साम्प्रदायिक उन्माद के वातावरण को जन्म देने और उसे हवा देने में सामाजिक कारक उतने महत्वपूर्ण नहीं होते जितने कि राजनीतिक।

भीष्म साहनी का तमस हमारे आसपास मौजूद है, चाहे वह अयोध्या की घटना हो अथवा गुजरात का नरसंहार। रघुवंशमणि तमस का मूल्यांकन एक कृति के रूप में ही नहीं, एक इतिहास के रूप में भी करते हैं और बताते हैं कि तमस हमारे सामने बहुत सारे राजनीतिक प्रश्न उठाता है।

दरअस्ल एक आलोचक का सरोकार किसी कृति की समीक्षा नहीं बल्कि उसे अपने समाज में जानना है, उसकी प्रासंगिकता पर नये सिरे से विचार करना है। यदि आलोचक का विजन स्पष्ट नहीं है तो उससे यह माँग नहीं की जा सकती। रघुवंशमणि आलोचना में हस्तक्षेप करते हैं और उसे सार्थक अभीष्ट तक पहुँचाते हैं।

रघुवंशमणि ने हावर्ड फास्ट, वी.एस. नायपाल और राही मासूम रज़ा पर अपने ढंग से विचार किया है। नायपाल पर लिखते समय वे एन एरिया ऑफ डार्कनेस में मुस्लिम और ब्राहमण सम्बन्धी अवधारणाओं पर ज्यादा उलझते नहीं हैं, बल्कि अपना ध्यान नायपाल के साहित्यिक अवदान पर ही केन्द्रित करते हैं। वे नायपाल का मूल्यांकन करते हुए यह बताते हैं कि नायपाल के भारत सम्बन्धी लेखन को उनकी स्वयम् की वैचारिक अवस्थिति के सापेक्ष देखते हुए सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। आग्रहों और अवस्थिति के तमाम उलझे सवालों के बीच नायपाल की भारत सम्बंधी कृतियों को सच के रूप में स्वीकार करने के अपने खतरे होंगे।

इसी तरह राही मासूम रजा के अत्यंत विवादास्पद उपन्यास टोपी शुक्ला के नायक के जीवन की त्रासद और विडंबनापूर्ण स्थिति की समीक्षा करते हुए वे साम्प्रदायिक सवालों से टकराते हैं। वे बताते हैं कि टोपी शुक्ला न हिन्दू बन पाता है और न मुसलमान। समाज में उसके मनुष्य रह कर जीने की सम्भावना भी नहीं रह जाती।

किसी आलोचक के काम का मूल्यांकन करते हुए यह जानना जरूरी है कि वह किस प्रकार की कृतियों और लेखकों का चुनाव करता है। रघुवंशमणि यदि नायपाल भीष्म साहनी , राही मासूम रज़ा का चुनाव करते हैं तो उनकी प्रतिबध्दता में सन्देह नहीं रह जाता।

रघुवंशमणि ने समकालीन कविता पर अपनी आलोचना को केन्द्रित किया है। समकालीन कविता को समझने के लिए उनकी प्रस्थापनाएँ काम आ सकती हैं। अपने लेख क्यों नहीं समझ में आती कविता में कविता के उत्स, पाठक संसार और सम्प्रेषणीयता पर वे सम्यक विचार करते हैं। आज की कविता को ठीक से जानने बूझने के लिए इस लेख में विचार सूत्र मिल सकते हैं। वे मानते हैं, 'हिन्दी कविता अपने सूक्ष्म अर्थो में अतिशय राजनीतिक है और संसदीय राजनीति की आक्रामक और हिंसक मानव विरोधी भाषा के स्थान पर एक विनम्र मगर सघन मानवीय प्रयास में लगी है। यह सब कुछ कविता के उपलब्ध सामाजिक, साँकृतिक क्रिया कलापों की सीमा में हो रहा है।'

हम जिस तरह के खतरनाक समय में रह रहे हैं, उसमें राजनीति से बचा नहीं जा सकता है, वह जीवन हो या कविता, आज के समय में लिखी जा रही कविताओं में नक्सलबाड़ी के दौर की कविताओं से ज्यादा स्पष्ट राजनीतिक आशय हैं। 1980 के आसपास माँ, चिड़िया, बच्चे, घर, व फूल जैसी कविताओं में राजनीतिक विचार सूत्र दिखाई देते हैं।

हमारे सामने फासिज्म के खतरे हैं। साँस्कृतिक साम्राज्यवाद अपने पंख फैला रहा है। मीडिया का प्रभामंडल लगातार विस्तृत हो रहा है। चीजों का मूलस्वभाव बदल रहा है। जीवन में बाजार का प्रवेश हो गया है। किताबों की दुनिया से पाठक अनुपस्थित हो रहे हैं। साहित्य के स्थान पर सूचना का एक प्रतिसंसार निर्मित हो रहा है। इधर उत्तरआधुनिकता का भी हो हल्ला है। केवल समय ने छलांग नहीं लगाायी है, साहित्य की दुनिया भी बदली है। कुरू कुरू स्वाहा, दीवार में एक खिड़की थी, आखिरी कलाम, कलिकथा वाया बाइपास जैसे उपन्यासों का मूल्यांकन क्या आलोचना की पुरानी रीति पर किया जायेगा या उसके उपकरण बदले जायेंगे? कुल मिलाकर यह सोचना कि क्या आलोचना के सौदर्यशास्त्र को बदलना जरूरी है?

मेरी जिज्ञासाओं का कुछ जवाब रघुवंशमणि के लेख सौन्दर्यशास्त्र की समस्याग्रस्तता से मिल जाता है। लेकिन बहुत सारे सवाल फिर भी जीवित रहते हैं। दरअस्ल यह हम जैसे पाठकों के सवाल हैं जिसका जवाब रघुवंशमणि जैसे युवा आलोचकों के पास खोजा जाना चाहिये।

अयोध्या काण्ड और गुजरात के नरसंहार के बाद बहुत सारा पानी और खून सरजू नदी में बह चुका है। सत्ताएँ मृतकों के ढेर पर अपना सिंहासन रखकर सत्ता का संचालन कर रही हैं। यह एक जादुई यथार्थ है कि कुछ लोग भजन कीर्तन करते हुए आये और सत्ता बदल गयी।

इस प्रश्नगत दौर में सत्ता और ईश्वर के बारे में अत्यंत गंभीर विमर्श हुए हैं। मंदिरों में रहने वाले ईश्वर को बाजार में खड़ा कर दिया गया है। राजनीति ने ईश्वर को एक वस्तु में बदल दिया है। इस संदर्भ में रघुवंशमणि के विचारोत्तेजक लेख ईश्वर सत्ता और कविता को पढ़ना एक दिलचस्प अनुभव हो सकता है। इस लेख में नागार्जुन, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह, ऋतुराज, अष्टभुजा शुक्ल और अनिल कुमार सिंह के ईश्वर विषयक कविताओं की चर्चा की गयी है। हिन्दी कविता में ईश्वर की उपस्थितियाँ अनेक रूपों में प्रकट होती हैं। यह भी पता चलता है कि किस तरह सत्ताएँ अपने हित के लिए ईश्वर का इस्तेमाल करती हैं।

रघुवंशमणि ने विष्णु खरे, पंकज सिंह, ऋतुराज जैसे कवियों पर भी लिखा है। वे विष्णु खरे की कविता में गद्यात्मकता को अपरंपरागत काव्यविषयों की स्वीकृति मानते हैं। लेकिन अभी विष्णु खरे जैसे कवियों की कविता की प्रयोगधर्मिता पर विस्तृत चर्चा की जानी है भले ही यह उत्कट यथार्थ का मामला हो। लेकिन कविता में जब सम्प्रेषणीयता का सवाल उठेगा बहुत सारे सवालों के जवाब दिये जाने होंगे।

पंकज सिंह के संग्रह पर विचार करते समय वे पंकज सिंह की कविता के उत्स नक्सलबाड़ी आन्दोलन में खोजते हैं और उनके समकालीनों के काव्य सरोकारों का जायजा लेते हैं। दरअस्ल नक्सलबाड़ी की वैचारिक पृष्ठभूमि और इस आन्दोलन से जुड़े हुए कवियों के सरोकारों पर अभी तक सम्यक विचार नहीं हो पाया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि रघुवंशमणि किसी कृति की आलोचना करते वक्त उसके समय और संस्कृति के बारे में भी गंभीर टिप्पणी करते हैं, इससे एकांगी आलोचना का खतरा नहीं रहता है। उनकी समग्र आलोचना की पद्वति उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। आलोचना उनके लिए तात्कालिक कर्म नहीं एक उत्तरदायित्व है।

आज के आलोचक के लिए अतिक्रमण औंर हस्तक्षेप बहुत आवश्यक है, लेकिन इसे सार्थक रूप में ही संभव किया जाना चाहिए ताकि अराजक स्थिति न पैदा हो। आलोचक यदि अभिव्यक्ति के खतरे नहीं उठाता है तो उसकी साहित्य में मुक्ति संभव नहीं है।

मुझे उम्मीद है रघुवंशमणि अभिव्यक्ति के खतरे उठायेंगे और अपने आलोचनात्मक विमर्श को विस्तृत करेंगे।




बाँदा
9.4.2006

Tuesday, August 21, 2007

शान्ति की मीनार पर मंडराती चीलें

डायरी

शान्ति की मीनार पर मंडराती चीलें

इधर फिल्म परजानियाँ देखने का अवसर मिला। यह फिल्म तो काफी पहले आ चुकी थी, मगर मैं इसे देख नहीं सका। कुछ तो इस कारण की मेरे नन्हे शहर फैज़ाबाद में यह फिल्म लगी नहीं। फिर इसका काम्पैट डिस्क उपलब्ध नहीं हुआ। हिन्दी के युवा कवि और मेरे मित्र भाई विशाल श्रीवास्तव के सौजन्य से जब इस फिल्म की डी.वी.डी. प्राप्त हुई तो देखने का मौका मिल ही गया। इधर आयी तमाम फिल्मों की तरह यह फिल्म भी अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं का मिला जुला काम है।

यह फिल्म गुजरात के दंगों पर आधारित होने के नाते चर्चा में रही और जब इसे देखने का उपक्रम कर रहा था तो यह बात दिमाग में थी कि कहीं बाम्बे जैसी मसालेदार फिल्म न देखने को मिल जाय जिसमें दंगों की कुछ क्लिप्स का इस्तेमाल करके राट्रीय एकता का पाठ पढ़ा दिया गया हो। मगर आखिर मणिरत्नम और इस फिल्म के निर्देशक राहुल ढोलकिया में कुछ तो फर्क होगा ही। फिल्म ने निराश नहीं किया। फिल्म की कहानी इसे मेलोड्रामेटिक होने से बचा लेती है। कहानी के केन्द्र में मुस्लिम समुदाय न होकर पारसी समुदाय है जो मुस्लिम लोगों के बीच रहता है। यह परिवार चार सदस्यीय है जिसमें परजान नाम का एक बच्चा भी है। उसके पिता सायरस यानि नसीरुद्दीन शाह हैं जो सिनेमा चलाते हैं। उसकी माँ शहनाज/सारिका है जो घर का काम करती है। परजान की एक मासूम बहन भी है जिसे वह परजानियाँ नाम के जगह के बारे में बताकर खेल खेलता है।

एक बुजुर्ग गाँधीवादी हैं जिनके पास एलन नाम का एक अमेरिकी गाँधी पर शोध करने आता है। वह जबर्दस्त शराब पीता है और गालियाँ बकता है। छोटू अखबार बेचनेवाला। चाय बेचनेवाला आसिफ मुस्लिम है जो कहता है कि बिगड़े नौजवान देश के मुसलमानों का नाम खराब कर रहे हैं।

ये सारे लोग गुजरात में होने वाले दंगे से प्रभावित होते हैं। जब दंगा होता है तो सायरस फिल्म चला रहा होता है। वह वापस लौटता है तो पूरा मोहल्ला नष्ट हो चुकता है। भागदौड़ में परजान नहीं मिलता। बाकी सारी फिल्म भर बाप, माँ और बहन परजान को खोजते रहते हैं। उन्हें विश्वास है कि परजान उन्हें जरूर मिलेगा। मगर बाद में यह विश्वास टूटने लगता है। अंत में अपने ख्याल में पिता अपने पुत्र की लाश को टावर आफ साइलेंस पर पड़ा देखता है जिसकी ओर चीलें उतर रही हैं।

फिल्म का एक प्रभावशाली दृश्य वह है जिसमें दंगों के पीड़ित लोग दंगाइयों के डर के मारे बयान नहीं देते। मगर एक बार जब डर टूटता है तो सभी अपने-अपने कष्ट बताने लगते हैं।

फिल्म में नसीरुद्दीन शाह का अभिनय तो प्रभावकारी है ही, मगर ध्यान आकृष्ट करती है सारिका जो लम्बे समय बाद इस फिल्म में दिखाई दी है। भावप्रवण अभिनेत्री होने के बाद भी बम्बई ने सारिका के लिए खराब फिल्में ही दीं। कुछ फिल्मों में तो उसे अंग प्रदर्शन के लिए ही रखा जाता था। कमाल हसन से विवाह के बाद तो वह फिल्म जगत से गायब ही हो गयी थी। मगर लगता है कि अपनी दूसरी पारी में वे कुछ अच्छी फिल्में देंगी। फिल्म की कहानी और कहानी के साथ निर्देशक का वर्ताव ऐसा है कि यह एक सीधी सपाट प्रचार फिल्म न बन कर मानवीय पीड़ा का एक वृत्तांत बन जाती है।

Tuesday, August 14, 2007

बाल ठाकरे की सींगें

डायरी

बाल ठाकरे की सींगें

आजादी प्राप्त होने की साठवीं वर्ष गााँठ की पूर्वसन्ध्या पर शिवसेना के सिपाहियों ने आउटलुक के दफ्तर पर हमला किया और काफी नुकसान पहुँचाया। यानि कि स्वतंत्रता के साथ बलात्कार। बात केवल इतनी थी कि इस साप्ताहिक पत्रिका ने खलनायक नाम से छपे एक लेख में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का जिक्र किया था। उसमें एक कार्टून भी था जिसमें बाल ठाकरे को हिटलरी अंदाज में दिखाया गया था। बस लगता है कि पुराने कार्टूनिष्ट को अपना यह कार्टून पसंद नहीं आया। उनके गणों ने आउटलुक आफिस में पहुँच कर हंगामा किया और तोड़फोड़ की। लगता है तिनका कहीं दाढ़ी में उलझ गया था।

फिलहाल आउटलुक में प्रकाशित बाल ठाकरे की नन्ही सी प्रोफाइल देखिये:

''इस पूर्व व्यंगचित्रकार और शिवसेना प्रमुख ने लोकतांत्रिक राजनीति को अपने कामकाज की शैली और बड़बोलेपन से एक बेहूदा मजाक बनाकर रख दिया है। सबसे पहले मुम्बई में रहने वाला दक्षिण भारतीय उनकी नफरत का पात्र बना, उसके बाद उनकी यह नफरत मुसलमानों के लिए हो गई।''

इत्यलम्।

पर इतना भी किसी को बर्दाश्त कैसे हो सकता है। विशेषकर जब वह सत्ता और शक्ति के मद में चूर हो। अब यह तो पूछा ही जा सकता है कि क्या हिटलर के सींगें थी?

जी नहीं साहब। उसकी भी पहचान अपने सैनिकों की कारस्तानियों से होती थी।

तितलियाँ

कविता

तितलियाँ


पंख फड़फड़ाती उड़ती हैं तितलियाँ
रोककर अपने पर एकाएक
हो जाती हैं आखों से ओझल

इन्हें पकड़ना कोई कठिन नहीं
अगर ये फूलों पर बैठी हों

मेरे कोट पर आकर बैठ जाती है
मटमैली, सफेद या चमकीली तितली
भूल से या शायद आश्वस्त भाव से

घर नहीं होते तितलियों के
वे फूलों पर ही सो जाती हैं
छत्ते नहीं बनाती हैं शहद के

खुली वादियों में अक्सर
श्रंग बिखेरती हैं तितलियाँ
वतावरएा को खुशनुमा बनातीं


रघुवंशमणि

Sunday, August 12, 2007

यह सब बेहद शर्मनाक है

डायरी

यह सब बेहद शर्मनाक है

हैदराबाद में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन की कारस्तानियों ने पूरे देश को शर्र्मसार कर दिया है। उनके विवेकहीन नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जिस तरह से तसलीमा पर आक्रमण करने की कोशिश की और एक विमोचन कार्यक्रम में उत्पात मचाया वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इस कार्यक्रम में अयोजकों और पत्रकारों ने किसी प्रकार लेखिका को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। इस सब में हाल के शीशे फोड़ दिये गये और कई फोटोग्राफर और पत्रकार घायल हुए।

लेकिन यह सब काफी नहीं था। इस्लाम को बदनाम करने वाले इन हिंसक लोगों ने बंगला लेखिका पर हमला करने की घटना के बाद लेखिका का सर कलम करने की धमकी भी दी है। इस को क्या कहा जाय? इसे बर्बर, धर्मांध, असहिष्णु और विवेकहीन ही कहा जा सकता है। संभवत: ये शब्द भी कम कड़े ही कहे जायेंगे। सबसे शर्मसार करने वाली बात यह है कि ये लोग कानून बनाने वाले राजनेता हैं।

सबसे अजीब बात यह है कि कांग्रेस सरकार के साथ इनका गठजोड़ है।

अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों की बुध्दि पर तरस ही खाया जा सकता है। उनके अनुसार मुसलमानों को राजनेताओं और कार्यकर्ताओं के कृत्यों पर गर्व है। ये मियाँ पूरे मुस्लिम समुदाय के स्वयम्भू नेता बन बैठे हैं। अब इन्हें कौन समझाये की भाई आप इतने ही बड़े नेता होते तो आपको 294 सीटों की असेम्बली में 5 सीटें ही क्यों मिलती? फिलहाल अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू बनने में क्या परेशानी है। जिन तीन विधायकों ने यह काम किया था उन्हें कानून ने जमानत पर छोड़ दिया। और उनका स्वागत धर्मधुरन्धरों ने मालाओं के साथ किया। कानून ने औपचारिकताएँ पूरी कीं।

मगर देश भर के मुस्लिम नेताओं ने इस कृत्य का अपनी-अपनी तरह से विरोध किया। जमायते उलेमा-ए-हिन्द के जनरल सेक्रेटरी मौलाना महमूद मदानी ने कहा कि यह विरोध प्रकट करने का सही तरीका नहीं है। उन्होने कहा कि इस्लाम इस प्रकार के प्रदर्शनों की इजाजत नहीं देता। लेकिन उन्होने यह भी कहा कि जमायत के अनुसार तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे लोंगों को देश में रहने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने हमेशा इस्लाम और मुस्लिमों को बदनाम करने की चेष्टा की है। एक दूसरे देवबंदी विद्वान मौलाना वारिस मजहरी ने भी इस घटनाकी निन्दा की है और कहा है कि यह सब इस्लाम की शिक्षाओं के प्रतिकूल है।

मुस्लिम बुध्दिजीवियों का एक बड़ा समूह भी तस्लीमा पर हुए हमले की निन्दा करने के लिए आगे आया। हबीब तनवीर और असगर वजाहत ने इसकी घोर निन्दा की। शबनम हाशमी ने कहा कि इन मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन के नेताओं को क्षमा माँगनी चाहिए। मुसलिम सोशल फोरम ने भी इस घटनाकी आलोचना की।

विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी इस घटना की भर्त्सना की।



तस्लीमा को 1994 में लज्जा के प्रकाशन के बाद हुए कट्टरतावादी विरोध और हत्या की धमकियों के बाद बंगलादेश छोड़ना पड़ा था। लेखन समूह पेन और एमनेस्टी इण्टरनेशनल की मदद से वे बाहर जा सकीं। उन्हे स्वीडन में शरण मिली। तब से वे जर्मनी फ्रांस और अमेरिका में बतौर शरणार्थी रह चुकी हैं। भारत में तस्लीमा को दो वर्ष पहले अस्थायी शरण दी गयी है और इस प्रकार वे हिन्दुस्तान में एक शरणार्थी या अतिथि के रूप में हैं। इस तथ्य को देखते हुए यह घटना और भी शर्मनाक लगती है।

सरकार ने कहा है कि वह उनके वीजा पर पुनर्विचार करेगी। अब यदि तस्लीमा को विश्व की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी में शरण नहीं मिलेगी तो कहाँ मिलेगी। तस्लीमा ने यह कहा कि वह भारत में एक प्रजातंत्रवादी अर्थात डेमोक्रेट के रूप में रहना चाहती हैं जिसका सीधा अर्थ यह है कि वे भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ रहना चाहती हैं। फिलहाल वे पूरे विश्व भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गयी हैं जिनकी तमाम पुस्तकों पर बैन है और उन्हे अनेक अवसरों पर मौत की धमकियाँ मिलती रही हैं। लखनउ के ही कुछ कट्टरपंथियों ने उनकी हत्या करने वाले के लिए 12000 अमेरिकी डालर का इनाम घोषित किया था। लेकिन वे कभी भी कट्टरपंथियों के सामने झुकी नहीं हैं और कट्टरतावाद के विरुध्द लगाातार लिखती रही हैं।

भारत में मुस्लिमों का एक बड़ा समुदाय है जो कट्टरतावादियों के क्रिया कलापों के विरुध्द है और यह मानता है कि इस प्रकार की हिंसक गतिविधियाँ गलत हैं। मगर वहाँ भी तस्लीमा के लेखन को स्वीकार नहीं किया जाता। उनका मानना है कि तसलीमा के भारत में रहने से समस्याएँ बरकरार रहेंगी। उदाहरण के लिए कलकत्ता के इमाम नूरुल रहमान बरकती का यह कहना है कि तस्लीमा को मारा नहीं जाना चाहिए मगर वह भारत में एक परेशानी का कारण हैं। उनके अनुसार वह एक भयानक महिला हैं और उनका भारत से बाहर निकल जाना ही देश के लिए बेहतर होगा।

यह एक ऐसा विचार बिन्दु है जहाँ इस्लाम के प्रति कट्टरतावादी हिन्दुओं को आलोचना का अवसर मिलता है। भाजपा जैसे दल यही कहते हैं कि भारत के मुसलमान किसी भी कीमत पर अपने धर्म की आलोचना सुनने को तैयार नहीं। तस्लीमा ने हिन्दू धर्म के विरुध्द भी काफी कुछ लिखा है।

यह बड़ी अजीब और विडम्बना से भरी बात है कि वे कट्टर मुस्लिम जो लोग आर. एस. एस. और बी. जे.पी. की आलोचना करते हैं, वे अपने व्यवहार में वैसे ही हैं और प्रजातांत्रिक तत्वों का समर्थन नहीं करते। वे तभी तक सेकुलर हैं जब तक वह उनकी सुरक्षा का मामला रहता है। जब मामला दूसरे की सुरक्षा का हो तो वे अपने विरोधियों जितने ही कट्टर दिखाई पड़ते हैं। इसलिए उदारवादी मुस्लिमों को इन कट्टरपंथियों का विरोध करना ही होगा।

इधर यह देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल थोड़े से राजनीतिक लाभ के लिए कट्टरपंथी ताकतों के साथ हो लेते हैं। मगर इस के परिणाम भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक सिध्द होते हैं क्योंकि ये ताकतें प्रगतिशील मानसिकता वाले लोगों पर हावी हो जाती हैं। पिछले कुछ वर्षें में किसी प्रगतिशील मुस्लिम को प्रतिनिधि मुस्लिम के रूप में प्रस्तुत न करके मुस्लिम धार्मिक नेताओं को ही मुस्लिमों के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है जिसका दुष्परिणाम हमारे सामने है। ऐसा करने के पीछे वोट बटोरने की राजनीति रही है। इस तरह की तदर्थ राजनीति की जरूरत राजनीति में कमजोर विचारों और कमजोर नैतिक प्रतिबध्दताओं की वजह से रही है। राजनीतिक दलों की स्थिति यह है कि वे ऐसी परंपरावादी विचारधारा वाले लोगों का विरोध करने के बजाय वे उनका समर्थन ही करते हैं। हिन्दू कट्टरता के विरुध्द जिन लोगों को आगे किया जाता रहा है वे सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे हैं। कुछ अर्थों में वे असहिष्णु भी हो जाते हैं। राजनीतिक दल ऐसा करते हैं तो सिर्फ तात्कालिक लाभ के लिए।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बगैर किसी प्रकार के लोकतंत्र की कल्पना करना ही संभव नहीं। जहाँ स्वतंत्ररूप से विचार की अभिव्यक्ति संभव नहीं होगी, वहाँ लोकतंत्र कैसे आगे बढ़ सकेगा। तस्लीमा पर आक्रमण का प्रयास करने वालों को भारत के संविधान में विश्वास नहीं । वे कहते हैं कि वे पहले मुसलमान हैं और फिर विधायक। वास्तव में वे मुसलमान भी नहीं हैं वे कट्टरतावादी और आतंक के समर्थक हैं। यदि आप इंसा नही नही ंतो फिर मुसलमान कैसे हो सकते हैं। उनसे सरकार को कानूनी ढंग से निपटना चाहिए। भारत में मुस्लिम कट्टरता को निरुत्साहित करना जरूरी है। केवल हिन्दू कट्टरता का सामना ही काफी नहीं। इस प्रकार के कट्टर मुस्लिम संगठनों से हिन्दू कट्टरतावादियों को वैचारिक समर्थन मिलता है।

मगर कानून का इस्तेमाल हमारे देश में कौन करता है। इस पूरे प्रकरण में कानून का इस्तेमाल सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिए किया गया। दूसरी तरफ कट्टरतावादियों ने कानून का इस्तेमाल करते हुए तस्लीमा पर मुकदमा दायर कर दिया जिसे पुलिस ने तत्परता से स्वीकार कर लिया। इसके पीछे भी राजनीतिक दबाव और स्वार्थ ही काम कर रहा है।

भारत सरकार को इस मामले में स्पष्टत: तस्लीमा का समर्थन करना चाहिए। ऐसे तमाम अवसरों पर कमजोरी का प्रर्दशन कट्टरवादियों के समर्थन में गया है। हम शाहबानों और सलमान रुश्दी के मामलों को याद कर सकते हैं जिसमें भारत सरकार द्वारा दिखलायी गयी कमजोरी का लाभ हिन्दू कट्टरपंथियों को मिला था। मुसलमानो का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है सरकार को उस वर्ग को आगे आने देने का अवसर देना चाहिये। लेकिन लगता है कि सरकार कट्टरतावादियों को ही संतुष्ट करना चाहती है। कम से कम कांग्रेस सरकार का मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन से गठजोड़ यही दर्शाता है। कांग्रेस को ऐसे कट्टरतावादी संगठनों से तुरंत सम्पर्क खत्म करना चाहिए और उनके खिलाफ कानूनी कारर्वाही करनी चाहिए।


रघुवंशमणि
12/8/2007


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Friday, August 10, 2007

समकालीन कविता की भाषा

व्याख्यान

समकालीन कविता की भाषा


सम्मानित अध्यक्ष मंडल के सदस्यगण और दोस्तो,


सबसे पहले मैं केदारनाथ अग्रवाल सम्मान समिति के प्रति, और विशेष तौर पर भाई श्रीप्रकाश मिश्र और नरेन्द्र पुण्डरीक के प्रति, अपना आभार व्यक्त करना चाहॅूंगा जिन्होंने मुझे यहाँ बाँदा के प्रबुध्द श्रोताओं के समक्ष अपने विचार रखने का एक अवसर प्रदान किया है. नीलेश रघुवंशी को केदारनाथ अग्रवाल सम्मान और श्रीराम त्रिपाठी को डाँ रामविलास शर्मा सम्मान प्रदान किये जाने के अवसर पर मैं उन्हें हार्दिक बधाई देना चाहूँगा.

काव्यभाषा कविता का एक तत्व है, मगर एक मात्र तत्व नहीं। ठीक वैसे ही जैसे भाषा का एक तत्व है भाषा, मगर वह भाषा का एक मात्र तत्व नहीं। जिस प्रकार भाषा के ऐतिहासिक, सामाजिक,और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य हैं, वैसे ही काव्यभाषा के भी हैं।

अरस्तू ने साहित्य को शब्दों के माध्यम से होने वाला अनुकरण कहा था तो वह जिसकी अनुकृति है वह भाषा के बाहर ही है, भले ही उसकी अभिव्यक्ति साहित्य में मात्र भाषा में ही होती हो। यह बात समकालीन कविता के बारे में भी उतनी ही सही है जितनी कि अरस्तू के युग की कविता के बारे में अथवा किसी भी युग की कविता के परिप्रेक्ष्य में। परिप्रेक्ष्य के अभाव में कविता कहाँ खड़ी होगी? शून्य की भीत्ति कोई भी लिखावट संभव नहीं, यह एक कल्पित अवधारणा मात्र हो सकती है।

शास्त्रीय शब्दावली में यह सवाल इस तरह पूछा जा सकता है कि कविता के मामले में काव्यार्थ कहाँ से प्राप्त होता है? निश्चित रूप से समय के परिप्रेक्ष्य ही कविता को अर्थ देते हैं और भाषा का अस्तित्व भी इतिहास और समय सापेक्ष ही है। कविता के सामान्य पाठकों से लेकर विदग्ध आलोचकों तक को 'वाक्' और 'अर्थ' को मिलाकर जिस वस्तु की प्रतिपत्ति होती है उसकी प्रक्रिया का सम्बन्ध इतिहास और समय से अवश्य होता है। 'वाक्' और 'अर्थ' के बीच होता क्या है? किसी पृष्ठ पर अंकित काले अक्षर समकालीन कविता में बदलते ही क्यों हैं? वे किसी और युग की कविता क्यों नहीं हो जाते? ये सब ऐसे प्रश्न हैं जो हमें कविता की भाषा से सम्बन्धित ठोस प्रश्नों की ओर ले जायेंगे। शब्द और अर्थ के बीच ढेर सा व्यापार वह है जिसकी जानकारी हमें कविता की समझ की ओर ले जाती है। अपने समय की घटनाएं, उनका संदर्भ, कवि की उपस्थिति, समाज संस्कृति, राजनीति वगैरह। और यह विश्व परिप्रेक्ष्य हमें कविता का अर्थ अर्जित कराता है।

काव्यभाषा ही वह अन्तिम या सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार नहीं जिसके द्वारा कविता के संघटन को समझने की चेष्टा की जा सकती हो। ऐसे और भी बहुत से तत्व हैं- ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक इत्यादि जिनके अभाव में कविता का संघटन को नहीं समझा जा सकेगा। कम से कम समकालीन कविता के संघटन को तो बिलकुल नहीं। अत: र्सिॅ भाषा के आधार पर कविता के बारे में कुछ कहना उपयुक्त न होगा। काव्य भाषा के अध्ययन को लेकर भी आलोचकीय सतर्कता जरूरी हैं क्योंकि महज भाषा का अध्ययन संभव है कि समकालीन कविता के काव्यार्थ के तमाम महत्वपूर्ण पक्षों से वंचित कर दे। लेकिन इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि ऐसा अध्ययन किसी गहरे आलोचकीय पूर्वाग्रहों की ओर लेजाय जो कविता को समझने के सामान्य विवेक को ही धुंधला करे या नष्ट ही कर दे।

इसी कारण काव्य भाषा पर विचार करते समय कविता के अन्य तत्वों का भी ध्यान बना रहना चाहिए जो कविता के अर्थ को अनुकूलित करते हों। इस इतिहासबध्दता से आलोचक का सरोकार होना ही चाहिए खासकर समकालीन कविता के अध्ययन के सिलसिले में बीते हुए समय की कविता का निर्वचन इस इतिहासबद्वतासे परे जाता है तो इसका कारण सीधा यह है कि आज वह अपने तात्कालिक समय से अलग हटकर पढ़ी जा रही है। कविताओं की बदलती व्याख्याएँ स्वयं इस इतिहास बद्वता का प्रमाण हैं।

काव्यभाषा के अध्ययन के सिलसिले में भी यह ऐतिहासिकता देखनें योग्य है। भाषा के अध्ययन के तरीके बदलते रहे हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में गुण, अलंकार, वक्रोक्ति और ध्वनि कुल मिलाकर भाषा को ही देखने के तरीके रहे हैं। आज की कविता के लिए, उसके अध्ययन के लिए यदि ये शस्त्र बहुत कारगर नहीं बचे तो उसके ऐतिहासिक कारण हैं। काव्यभाषा के संदर्भ में व्यक्तिगत अभिरूचि के भी तत्व किसी पाठक अथवा आलोचक के लिए महत्वपूण्र् ा हो सकते हैं जिसके उदाहरण मिलते ही हैं। मगर इन तत्वों को एक सीमा से आगे खींचने के अपने आलोचकीय खतरे हैं।

इसी संदर्भ में हम काव्यभाषा के निर्वचन की सापेक्षिक स्वतंत्रता का सवाल उठा सकते हैं। किसी कवि की विशिष्ट भाषा को लेकर विभिन्न समयों या एक ही समय में भिन्न भिन्न प्रकार के विचार बन ही सकते हैं। कबीर की काव्यभाषा को लेकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार अलग अलग थे ही।हमारे समय में भी एक ही प्रकार की काव्यभाषा को लेकर अलग अलग विचार दिखाई दे सकते हैं।

कविता की सापेक्षिक स्वतंत्रता के साथ कविता के मूल्यांकन की भी सापेक्षिकता दुर्निवार है। यह ऐतिहासिक अनिवार्यता किसी भी प्रकार के काव्य मूल्यांकन की सीमा होगी। सवाल यह उठता है कि ऐसे में एक आलोचक की क्या भूमिका होगी? ऐसे में कविता की आलोचना क्या एक प्रकार का 'डिटर्मिनिज्म' होगी ? मूल्यांकन की सापेक्षिकता मूल्यांकन की सीमा भी होगी । आलोचक की महत्तर भूमिका इस बात मे निहित होती है कि वह कविता के साथ चलते चलते कितना वस्तुनिष्ठ हो सकता है । यहाँ वस्तुनिष्ठता का मतलब उस प्रयोगिक वस्तुनिष्ठता से कतई नहीं जो वैज्ञानिक प्रयोगों में वांक्षित होती है। यह 'डिसइन्टरेस्टेड इन्डिवर' इस बात में है कि आलोचक किसी कृति के पाठ के सिलसिले में उसकी जो पुर्नरचना करता है वह मूल के कितनी करीब है। यह एक आदर्श ही है क्योंकि अक्सर विचारकों / आलोचकों की अपनी अवस्थिति भी उसके पाठ और मूल्यांकन को गहराई से प्रभावित करती है। अक्सर वह रचनाके मूल से निर्वचन की दूरी भी तय करती है।

इस प्रकार विषय और माध्यम के साथ निर्वचन भी उपस्थित होता है और माध्यम की मीमांसा दरकार होती है। भाषा और कथ्य के बीच बनते संबन्ध निश्चित तौर पर अघ्ययन की विषय वस्तु हैं । अत: भाषा का प्रश्न अपनी महत्ता बनाये रखता है। भाषा कविता में सिर्फ विषयवस्तु को पाठक तक पहुँचाने का साधन भर नहीं रहती वह और भी बहुत कुछ उद्धाटित करती है। आलोचक द्वारा काव्यभाषा के अध्ययन का महत्व इसमें निहित है कि वह कविता की रचनाप्रक्रिया और सम्प्रेषण प्रक्रिया में भाषा की भूमिका को रेखांकित कर सके। ऐसी आलोचना प्रक्रिया विश्लेषणात्मक होने के साथ साथ सर्जनात्मक होने के लिए मजबूर है।

समकालीन कविता के संदर्भ में यह मजबूरी ज्यादा बड़ी है क्योंकि यह कविता किसी अखंडता अथवा ऐकांतिकता की अवधारणा में निर्मित न होकर समय के साथ होते संवाद और टकराहट की प्रक्रिया का परिणाम है। इसलिए समकालीन कविता के आलोचक के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वह अपनी व्याख्याओं के लिए मूल कृति के निकटतम रहे। आलोचनात्मक अतियों क िबीच उसे कविता के साथ रहना होगा। जाहिर है कि यह भी आलोचना की स्वायत्तता न होकर उसकी सापेक्षिक स्वायत्तता है। यह अतियों के बीच संतुलन की चेष्टा है जो किसी संवाद की ओर ले जा सकती है। उदाहरण के लिए स्त्री विमर्श और दलित विमर्श की अतियों के बीच आलोचना की एक सार्थक भूमिका हो सकती है?

भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा किसी भाव, विचार अथवा सामाजिक स्थिति की अभिव्यक्ति होती है। लेकिन इस भाषा के माध्यम को कथ्य से बिल्कुल काटकर अलग नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार कथ्य अथवा विषयवस्तु को माघ्यम से के बिना नहीं जाना जा सकता है, उसी प्रकार माध्यम की उपलब्धि भी बिना विषयवस्तु के कैसे होगी? भषा यदि कविता का फार्म बनाती है तो कन्टेन्ट के बग़ैर वह अमूर्त ही रहेगी। कविता के निर्वचन के लिए दोनों की आवश्यकता होगी। दोनों को एक दूसरे द्वारा ही समझा जा सकता है और हम उन दोनों के द्वारा तीसरे तक पहुँचते हैं। यह तीसरा क्या है? संभवत: यही सारी आलोचना का उद्देश्य है।

आलोचना में विसंगतियाँ अक्सर इसी त्रिकोणीय असंतुलन के कारण होती है। जिन पर कुछ प्रकाश डॉ नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक 'कविता के नये प्रतिमान' में डाला था। (देखें पृष्ठ 102)। नामवर जी का यह ऐतिहासिक विवेचन बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन यह उनका बहुत पहले का विमर्श है। इतने समय बाद उसमें काफी कुछ और जोड़ने की आवश्यकता है।

फैज़ाबाद में रहने वाले हिन्दी के प्रसिध्द आलोचक डॉ रमाशंकर तिवारी कहा करते थे कि हिन्दी के अधिकांश आलोचक कविता के चारो तरफ तलवार भाँजते हैं। वे कविता के भीतर प्रवेश करने का साहस नहीं करते हैं। वास्तव में अपने रूपकात्मक वक्तव्य के द्वारा वे इस ओर इंगित करना चाहते थे कि हिन्दी के आलोचक कविता की अंदरूनी संरचना और उसकी भाषिक प्रकृति से दो चार नहीं होना चाहते। यह एक महत्वपूर्ण बात है। भाषा के अध्ययन के द्वारा हम ऐसी चीजों तक पहुँच सकते है, जिन तक कवि के जीवन चरित, उसके परिवेश, और सरोकारों के अध्ययन द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता। इन बाह्य साक्ष्यों का अघ्ययन सरल भी है और इस कारण आलोचकगण सुविधापूर्वक स्वयं को वहीं तक सीमित कर देते हैं। वास्तव में भाषा और कविता के बाह्य साक्ष्यों को एक साथ रखकर ही कविता की एक पूरी समझ विकसित हो सकती है।

कविता के बारे में कोई भी संतुलित निर्णय तभी दिया जा सकता है जब हम भाषा, कथ्य और संदर्भ को एक साथ प्रस्तुत कर सकें। यह निश्चित है कि भाषा के माध्यम से हम कविता के प्रभावशाली होने अथवा न होने का मूल्यांकन कर सकते हैं। भाषा के तत्वों द्वारा ही हम कविता में उपस्थित कवि के अनुभव की सही व्याख्या कर सकते हैं। उसकी शक्ति को भी सही-सही माप सकते हैं। कवि की अवस्थिति को भी इसी प्रकार पुष्ट किया जा सकता है। मगर यदि यह सब कथ्य और सन्दर्भ को त्याग कर भाषा अध्ययन की ऐकांतिकता में होता है तो उसके खतरे बने रहते हैं।


अज्ञेय ने तारसप्तक में अपना एक प्रसिद्व वक्तव्य दिया था कि कविता ही कवि का परम वक्तव्य है। कवियों के लिए इसका कुछ भी अर्थ रहा हो, आलोचना के लिए इसका सीधा अर्थ यह निकलेगा कि कविता से ही कवि की ओर यात्रा होनी चाहिए, न कि कवि से कविता की ओर। अर्थात कविता के अध्ययन में भाषा की सर्जनात्मकता महत्वपूर्ण है क्योंकि अर्थनिष्पत्ति का वह प्रस्थान बिन्दु है। लेकिन इस सिध्दान्त की अति ने रचना के क्षेत्र में रहस्यवादी भाषा को प्रश्रय दिया। आलोचना में इसकी अति ने रूपवाद की ओर उन्मुख किया जिसके अन्तर्गत 'कविता का व्योम' और 'व्योम की कविता' जैसी संरचनावादी टीपें प्रचलित हुईं। रचना के मामले में भाषा के अभिनव प्रयोगों का महत्व कम नहीं होता क्योंकि अक्सर रहस्यवादी लगने वाली भाषा यथार्थोन्मुखी होती है और यह तथ्य आलोचना के सामने चुनौती बनती है। केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी और यहाँ तक कि देवीप्रसाद मिश्र तक की कुछ कविताएँ भाषा के स्तर पर सरलीकृत आलोचना के लिए खतरा पैदा करतीं हैं। मुक्तिबोध की कविताओं को लेकर तो आलोचकीय गलतफहमियों ने जोरदार बहसों को जन्म दिया ही था।

आलोचना का भाषा से जूझना एक बात है और भाषा तक सीमित रहना बिल्कुल दूसरी बात। पहली क्रिया द्वन्द्वात्मकता कि ओर ले जाती है और दूसरी स्वांतर्ग्रथित सरंचनावाद, कलावाद अथवा रूपवाद की ओर। हिन्दी आलोचना का यह सौभाग्य ही है कि मदन सोनी और वगीश शुक्ल जैसे चन्द आलोचकों को छोडकर हमें ऐसे कम ही आलोचक मिलते हैं जो इस दिशा में प्रवृत्त हुए। रचना के संदर्भ में यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि नयी भाषा का अन्वेषण, नये अनुभवों या नई वास्जविकताओं की ओर जाना भी होता है और नये गीतों को नये वाद्ययंत्रों की आवश्यकता होती है। समकालीन कविता की एक सीमा यह है कि अक्सर पुराने अनुभवों को दुहराकर सुविधाजनक कविता बना ली जाती है और कवियों की भाषा एक जैसी लगती है। अक्सर कोई विषय या कोई खास तरह का फार्म अथवा किसी खास तरह की भाषा प्रचलन की तरह आती है और परिदृश्य को उबाउ बना देती है।


काव्यसंदर्भ अक्सर काव्यभाषा के साथ मिलकर नया अर्थालोक पैदा करते हैं। यह बात सिर्फ भाषा को पकड़ने से नहीं समझ में आती। उदाहरण के लिए स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता साधु में भाषा के प्रयोग को शब्दों की प्रकृति में नहीं पकड़ा जा सकता क्योंकी भाषासीधी खड़ी बोली ही है। मगर परिप्रेक्ष्य का आश्रय लें ता ेयह ऐसी अभिव्यक्ति भंगिमा को लेकर आती है जो आध्यात्मिकों की है जो संसार को मायाजाल समझते हैं। मगर कविता की विषयवस्तु है विस्थापन और यह स्वयं में ऐसे काव्य संदर्भों को लेकर चलती है जिसके चलते भाषा में नया रंग उभरता है। इस कविता की संरचना अपने संदर्भ के चलते दूसरी तरह से पाठक में उतरती चलती है। कविता का अलग प्रभाव इस प्रकार का है कि विस्थापन की विषयवस्तु से आगे निकलकर कविता व्यापक प्रश्नों को घेरती है।

'साधु
पृथ्वी से विदा हो रही
है शान्ति
आसमान से रंग
जमीन से गंध
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बुरे लोग प्रतिष्ठित हैं
अच्छे लोग दुखी और संतप्त'

बेहद राजनीतिक कविताओं के इस दौर में यह ध्यातव्य है कि किस प्रकार एक कवि अपनी कविता की भाषिक संरचना से एक जैसी लगने वाली भाषा को बिल्कुल ही नया शेड देता है और प्रभावशाली शिल्प निकाल लेता है। 'साधु' कविता में न केवल संतों की भाषा है बल्कि डामेटिक मोनोलॉगके शिल्प में दूसरे भावों का भी आत्मभाव है जिसके लिए कभी परकाया प्रवेश जैसे रहस्यमय पद प्रयुक्त होता था। यदि स्वप्निल की कविताओं में जड़ से उखड़े और गायब होते लोगों की दुनियॉ के पीड़ाजनक अनुभव हैं तो वे दूसरे के दर्द को आत्मसात कर पाने के कारण है जो कवि में 'सफरर' अर्थात दुख झेलने वाले को सर्जक से अलग करती है। ऐसा अलग होना गहरी संपृक्ति के बाद ही संभव है।

इसी प्रकार की सर्जनात्मक दूरी को हम एक दूसरी कविता के परिप्रेक्ष्य में देख सकते हैं जिसकी भाषा दिखने में समकालीन कविता में सामान्यत: प्रयुक्त होने वाली भाषा से बिल्कुल अलग न होते हुए भी अपना अलग प्रभाव रखती है। यह कविता भी डामेटिक मोनोलॉग के शिल्प में है लेकिन यह एक बच्चे को जन्म देती मजदूरनी को संबोधित है। 'बाई दरद ले' शीर्षक इस कविता में कवि ऐसी मजदूरनी को संबोधित करता है जिसके नसीब में 'पत्थर तोड़ने वाले दिन थे' अब वह वलात्कार के बाद माँ बनने जा रही है।

'बाई! तुझे दरद लेना है
जिन्दगी भर पहाड़ ढोये तूने
मुश्किल नहीं है तेरे लिए
दरद लेना
जल्दीकर होश में आ
वरना उसके सिर पर जोर पड़ेगा
पता नहीं कितनी देर बाद रोए
या न भी रोए
फटी ऑंख से मत देख
भूल जा जोर जबर्दस्ती की रात
अंधेरे के हमले को भूल जा बाई'

आगे यह कविता बताती है कि स्त्री का धर्म बरदाश्त करना है। पृथ्वी कितना दर्द सहती है, तभी सब कुछ हरा भरा रहता है। 'आकास पाताल में अट नहीं सकता / इतना है औरत जात का दुख'। स्त्री जाति की सीता ने कहा था कि धरती फट जाय। कविता की भाषा में खड़ी बोली के बीच बीच में देशज शब्दों के प्रयोग बेहद प्रभावशाली हैं। वे हमें शिष्ट और सामान्य स्त्री दोनों के अनुभव जगत में ले जाते हैं। सीता का संदर्भ स्त्री के दुख को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। यहाँ सिर्फ भाषा ही नहीं बल्कि उसका परिप्रेक्ष्य भी 'भावार्थ' की ओर ले जाता है। आलोचकगण इस घिसे पिटे शब्द के प्रयोग के लिए मुझे क्षमा करेंगे। फिलहाल कविता की अंतिम पंक्तियाँ :

'बाई! दरद ले
सुन बहते पानी की आवाज
हाँ ऐसे ही देख उपर हरी पत्तियाँ
सुन उसके रोने की आवाज़
जो अभी होने को है
जिन्दा हो जायेगी तेरी देह
झरने लगेगा दूध
दो नन्हे होठों के लिए

बाई! दरद ले'

चन्द्रकांत देवताले की इस कविता में व्यंग्यार्थों के इतने शेड्स हैं कि गिनना कठिन। क्या यह कविता सिर्फ को सम्बोधित है? फिर कविता की भाषा में कुछ शब्दों का प्रयोग भर कितने संस्तरों पर अथोत्पत्ति करता है? धरती पर जीव का आना सृष्टि है और असके लिए कवि स्त्री को दुख भूल कर तैयार होने के लिए कहता है। मगर क्या इस नये आने वाले से दुख कम होगा? पीड़ा और दुख में सीझी यह कविता किसी भी स्त्री विमर्श की तेज तर्रार कविता से अधिक प्रभावकारी है। 'बाई ! दरद ले' की पुनरावृत्ति में ही पूरी कविता नयी अर्थकान्ति प्राप्त करती है जिसके कई संस्तर हैं। विवशता है तो रुदन और आक्रोश भी। 'दरद' शब्द भर पूरी कविता को अलग अर्थालोक से भर देता है। यह सब भाषा के उस परिप्रेक्ष्य से संभव होता दिखाई देता है जिसे जीवन में भाषा के प्रयोगों से ही प्राप्त किया जा सकता है।

कविता में भाषा के अभिनव प्रयोगों का यह अर्थ नहीं कि बिल्कुल अलग दिखाई देने वाली भाषा का उपयोग किया जाय, जबर्दस्ती गाँव देहात के शब्द ठॅँस कर नवीनता का बोध कराया जाय। कोई एक शब्द भी कविता को नये भावान्वेषण की ओर ले जा सकता है बशर्ते कवि को उस शब्द के परिप्रेक्ष्य का भान हो और वह उसे सर्जनात्मक रुप देने में समर्थ हो।

Sunday, August 05, 2007

आई.आई.टी. में क्या न करें

डायरी

आई.आई.टी. में क्या न करें

इधर चेतन भगत का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। उपन्यास का शीर्षक है फाइव प्वाइंट समवन और उपशीर्षक है व्हाट नॉट टू डू एट आई आई टी। पुस्तक की भूमिका में ही चेतावनी दी हुई है कि यह पुस्तक आई. आई. टी. में प्रवेश पाने की कोई गाईड नहीं है। आई. आई. टी. दिल्ली एक ऐसी संस्था है जिसमें इन्जीनियरिंग के विद्यार्थी प्रवेश पाने की होड़ लगाये रहते हैं, अत: यह लिखना लेखक को जरूरी लगा होगा।

फिलहाल यह उपन्यास तीन मित्रों की कहानी है जो एक साथ भारत की इस लब्धप्रतिष्ठ संस्था में प्रवेश पाते हैं। तीनों अलग-अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से आये हैं। आलोक एक गरीब परिवार से है जिसके पिता बीमार हैं, माँ किसी तरह घर का काम चलाती है और उसे एक बहन की शादी करनी है। हरी अर्थात कहानी का नैरेटर मध्यवर्गीय है और उसमें पारिवारिक कारणों से आत्मविश्वास का अभाव है। रियान सम्पन्न घर का है और थोड़ा विद्रोही है।

रियान दोनों को रैगिंग से बचाता है और यहीं से एक मित्रता शुरू होती है जिसका नतीजा अच्छा नहीं निकलता दिखता। मौज मास्ती में तीनों मित्रों के ग्रेड खराब होने लगते हैं और वे उसे बचाने के लिए उल्टे सीधे काम करने लगते हैं। बीच में प्रोफेसर चेरियन की बेटी नेहा है जिसके प्रेमपाश में फंस कर हरी प्रोफेयर के क्रोध का शिकार होता है। कुल मिलाकर मामला बंटाधार।

फाइव प्वाईट समवन का सबसे जोरदार पक्ष है उसका कथानक जो अंत तक बाँधे रहता है। घटनाएँ उटपटांग ढंग से घटित होती हैं और इसका परिणाम है हास्य ही हास्य। हाशिए पर शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी भी है जो है तो आई. आई. टी. पर मगर लागू होंगी पूरी शिक्षा व्यवस्था पर। उपन्यास में प्रोफेसर चेरियन का काल्पनिक भाषण लेखक के अपने विचारों की अभिव्यक्ति है। उपन्यास की अंग्रेजी एकदम टटकी है।

इस उपन्यास को रूपा प्रकाशन ने छापा है।


रघुवंशमणि

05/08/2007

Saturday, August 04, 2007

इंगमार बर्गमान और छोटा शहर

डायरी

इंगमार बर्गमान और छोटा शहर

इंगमार बर्गमान के बड़े फिल्म निर्देशक होने में तो कोई सन्देह नहीं। उनके निधन पर अखबारों ने यह बात और पक्की कर दी। परिणामत: उनके निधन पर गहरा दुख हुआ। पूरी दुनिया ने यह स्वीकार किया कि वे फिल्म जगत की एक बहुत बड़ी शख्सियत थे। फिल्म जगत को उनका योगदान अनूठा था। फिल्म तकनीक के विकास में यदि बर्गमान न होते तो काफी कुछ अधूरा रह जाता। बर्गमान के बारे में ये सारी बातें कही-सुनी जा रही हैं। और ये सब बातें क्या गलत है? गलत क्यों होगी? लेकिन मेरा दुख दूसरी तरह का है।

बर्गमैन महोदय के बारे में कम उम्र से ही सुनता रहा हूँ। पढ़ता भी रहा हूँ। एक बार सत्यजीत राय के साथ उनका ठहाके लगाता चित्र भी देखा था। अभी भी याद है कि वह जेन्टिलमैन नामक अंग्रेजी पत्रिका में छपा था। उन पर कुछ लेख भी पढ़े। उनकी प्रसिध्द फिल्म का नाम भी जानता हूँ 'द सेवेन्थ सील'। आप चाहें तो इसकी कहानी पर भी कुछ प्रकाश डाल सकता हूँ। इतनी जानकारी कुछ कम नहीं होती। मगर...........

मगर उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद जैसे छोटे शहर में रहने का दुख यह है कि मै बर्गमान महोदय की कोई भी फिल्म न देख सका। ये फिल्में मेरे बेचारे छोटे शहर के किसी थियेटर में लगेंगी इसकी तो कोई उम्मीद ही नहीं। उनको बॉलीवुड से फुर्सत ही नहीं। यहाँ तो केवल व्यावसायिक फिल्में ही जगह पाती हैं। वैसे भी ये टूटते टाकीज खतरे में हैं और कभी भी बन्द हो सकते हैं। ज्यादातर थियेटर बंद ही पडे हैं। यहाँ कोई मल्टीप्लेक्स भी नहीं। यद्यपि कभी किसी मल्टीप्लेक्स में किसी कला फिल्म के चलने की बात थोड़ा अजीब है। वैसे मैने अभी तक मल्टीप्लेक्स में एक मात्र फिल्म देखी है सरकार। वह भी कानपुर में अपने मित्र कवि पंकज चतुर्वेदी और संध्या के साथ। कानपुर को भी फिलहाल फैजाबाद जैसे शहर की तुलना में महानगर ही समझें।

किसी चैनल पर हो सकता हो कभी बर्गमान की कोई फिल्म आयी हो। कह नहीं सकता क्योंकि टीवी के सामने ज्यादा देर तक नहीं बैठता। अब पहले से पता हो कि फलां फिल्म आ रही है तो बात ही कुछ और है। यहाँ के सी.डी. कैसेट विक्रेता भी कुल मारधाड़ की ही फिल्में रखते हैं। नेट की खरीदारी पर पूरा भरोसा नही ंजम सका है अभी तक।

ऐसे में कोई क्या करे?

मैं समझता हॅूं कि मेरा यह दुख नितांत व्यक्तिगत नहीं। बहुत से नेटी मित्र इस दुख से प्रताड़ित होंगे। इसीलिए मैं इसे अपनी इस सार्वजनिक डायरी में जगह दे रहा हूँ। इस प्रकार अब मेरा दुख आपके हवाले है। दुख कहने से दुख कम हो जाता है, ऐसा लोगों का कहना है। कभी-कभी तो इसका निदान भी हो जाता है। बहरहाल यदि आप में से किसी खुशनसीब ने बर्गमान की फिल्में देखी हों तो मदद करें। क्या आप में से किसी के पास वह काम्पेक्ट डिस्क है जिसकी मुझे तलाश है?


रघुवंशमणि

Thursday, August 02, 2007

बस-4

कविता


बस-4

नानी देखती थी बस
फूटे चश्में से

नाना देखते थे
ऑंखों पर हाथ छा कर

बच्चे दौड़ते थे
बस के साथ-साथ

नाना हो गये खाक
नानी गयीं मर
बच्चे हो गये बड़े

जाने कहाँ खो गयी
वह धूल उड़ाती बस




रघुवंशमणि

बस-3

कविता


बस-3



पीछे की सवारियाँ
ध्यान से सुनें

पीछे की सवारियाँ
टिकट खरीद लें
पैसे आगे बढ़ा दें

पीछे की सवारियाँ
अपना सामान पीछे ले जाँय

पीछे की सवारियाँ
झटकों के लिए तैयार रहें
हिचकोले खाती है बस

बाद की सवारियाँ
पीछे जाकर बैठें

पीछे की सवारियाँ
पीछे की सवारियों की तरह रहें।


रघुवंशमणि

बस-2

कविता


बस-2


''बड़ी भीड़ है
साँस लेना भी
कठिन है

गाड़ी मत रोको
तेज़ चलने पर
लगती है हवा''

कड़ी है धूप
हिलता है राह में
एक बेचारा हाथ

रुकती है बस
चढ़ता है एक
गरियाते हैं सौ

बस में होने
और बाहर होने में
यही फर्क है।



रघुवंशमणि

Wednesday, August 01, 2007

बस-1

कविता

बस-1


बिगड़ गयी है बस
खड़ी है किनारे

ठुक-ठुक
लगाए है ड्राइवर
गाड़ी के नीचे
उत्सुकता से झुके हैं
कुछ लोग

चाय की दुकान
की तलाश में
दस-पाँच

करीब की सवारियाँ
सड़क पर
दो-चार
रोकती हैं आते
जाते वाहन

बाकी कुछ अंदर
झल रहे हैं
उबाउ अखबार

बता गया है परिचालक
टिकट का पैसा
वापस नहीं होगा।



रघुवंशमणि