Sunday, July 29, 2007

कंक्रीट में गुलाब

कविता

कंक्रीट में गुलाब


साफ धुली ठण्डी फर्श पर
उससे भी कठोर कंक्रीट का गमला
जिसमें भूमि का भ्रम पैदा करती थोड़ी सी मिट्टी
जंगल का भ्रम पैदा करती हरी पत्तियाँ और टहनी
उसकी चोटी पर एक गुलाब

घर के बाहर है गुलाब
मगर सड़क की असुरक्षा में नहीं
हवाओं के विरुध्द जीवन बीमा है चहारदीवारी
पशुओं के विरुध्द जी. पी. एफ. है गेट
थोड़ी सी खाद मिलती है मंहगाई भत्ते की तरह
हल्का सा पानी ओवरटाइम की तरह
जरूरत के मुताबिक

इसी के लिए बनाया गया है दो कमरे का फ्लैट
एक में सोते हैं बच्चे
दूसरे में पति-पत्नी
दिन में जो हो जाता है ड्राइंगरूम
इसी गुलाब की खातिर
पति रोज भीड़ चीरता जाता है आफिस
पत्नी करती है दिन भर काम
बच्चों को भेजा जाता है स्कूल

पति, पत्नी और बच्चे के बीच उगा
यह गुलाब चमकता है
आफिस से लौटे थके पति की मुस्कान में
बोर हुई पत्नी की औपचारिकताओं में
किताबों में दबे बच्चे की अस्वाभाविक हँसी में

हफ्ते में सण्डे की तरह है यह गुलाब
दीवारों पर टंगे इच्छाओं के चित्र की तरह
थकान के बाद साथ चाय पीते मित्र की तरह
समय निकाल कर देखे गये मैटिनी शो जैसा
गर्मी में बच्चे की एक आइसक्रीम की तरह

मित्रों के सामने मुस्काता है
अतिथि के सामने खिसियाता है
अफसर के आगे बिछ जाता है
तेज हवा चलने पर
मगर थोड़ा सा हिलता है

पुलिस के डण्डे की तरह है यह
हमारे और पागल कर देने वाली वानस्पतिक गंध के बीच
जो जंगलों की सघनता में ही जनमती है
जिसकी एक छाया भर नहीं है यह

हमारे और इन्द्रधनुषी रंगों के बीच
किसी शासनादेश की तरह टंकित है
धरती की सोंधी प्रफुल्लित बरसाती महक के
विस्तार के चारो ओर काँटेदार
बाड़े की तरह

एक डायवर्जन भर है
कंक्रीट में उगा
लगभग कंक्रीट सा
यह गुलाब



रघुवंशमणि

Monday, July 23, 2007

व्याख्यान

एक कदम पीछे


सम्मानित अध्यक्ष मंडल के सदस्यगण और दोस्तो,


सबसे पहले मैं केदारनाथ अग्रवाल सम्मान समिति के प्रति, और विशेष तौर पर भाई नरेन्द्र पुण्डरीक के प्रति, अपना आभार व्यक्त करना चाहॅूंगा जिन्होंने मुझे यहाँ बाँदा के प्रबुध्द श्रोताओं के समक्ष अपने विचार रखने का एक अवसर प्रदान किया है.भाई हेमन्त कुकरेती को केदारनाथ अग्रवाल सम्मान प्रदान किये जाने के अवसर पर मैं उन्हें हार्दिक बधाई देना चाहूँगा.वे मेरे इधर के कुछ पसंदीदा कवियों मे से एक रहे हैं.ऐसा इसलिये कि जिस विशिष्ट मानववाद की ओर वापसी की बात मैं सांप्रदायिकता के बरक्स करता रहा हॅू, वही मानववाद उनकी कविताओं में अपने पूरे ताब के साथ उपस्थित दिखाई देता है.मै समझता हॅूं कि केदार बाबू के नाम से जुड़ा यह पुरस्कार पाकर वे स्वयं को सच्चे अर्थो मे सम्मानित अनुभव कर रहे होंगे.

आज जब हत्यारों और गद्दारों के नाम पर पुरस्कार वितरित हो रहे हैं और लोग उन्हें ग्रहण कर रहे हैं तो बाँदा जैसी जगह से दिया जाने वाला यह छोटी राशि का सम्मान और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह सम्मान हिन्दी के एक ऐसे अविस्मरणीय कवि के नाम पर दिया जाता है जिसने कभी अपने अवाम को धोखा नहीं दिया. केदार बाबू अपनी सचाई और सरलता के लिए जाने जाते रहे. आपकी कविता तथा आपके जीवन में कोई फाँक नहीं थी.यहाँ वह अवसरवादी द्वैत नहीं था जो आज के तमाम कवियों औेर उनकी कविताओं के बीच साफ दिखलाई देता है. हिन्दी साहित्य के ऐसे अप्रतिम सर्जक बाबू केदारनाथ अग्रवाल जी का स्मरण करते हुए मैं समकालीन हिन्दी कविता पर विनम्रतापूर्वक अपने कुछ विचार आप सबके समक्ष रखने का उपक्रम कर रहा हूँ. आप सभी का ध्यान चाहॅूंगा.

विषय तो है 'कविता की दशा और दिशा', पर इस व्यापक विषय पर एक छोटे से व्याख्यान का कोई फोकस नहीं बन सकेगा. इस कारण कविता के किसी एक पक्ष पर ही केन्द्रित करना चाहॅूगा. आज का यह परिप्रेक्ष्य चूंकि हेमन्त कुकरेती के चलते बना है, इस कारण उनकी कविता में बैठे उस मानववाद से ही प्रारंभ करता हूँ जिसको मेरे विचार से इधर की लिखी जा रही हिन्दी कविता के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखा जा सकता है. ऐसा नहीं कि यह मानववाद एकाएक कहीं आसमान से टपक पड़ा है.यह हिन्दी कविता में पहले भी किसी न किसी रूप में अस्तित्वमान था. लेकिन इसकी उपस्थिति और अवस्थिति आज के दौर में मार्के की है- पहले के दौर से सर्वथा अलग. हेमन्त कुकरेती की एक कविता के उदाहरण से बात को पुष्ट करना चाहूँगा;


'जो रक्त मुझमें बह रहा है
खूब भटकने के बाद यहाँ बसा है

प्रेम का जन्म
और घृणा के विकास के बीच संघर्ष की सदियाँ गुजरती गईं
यहाँ वहाँ जाने कहाँ गिरकर उठा मेरा रक्त
मै यह नहीं कहता कि यह सदा संत रहा
हिंसा की हद तक विनम्र यह उद्दाम भी हुआ
और मानव शरीर की बैचैन शिराओं से
यह पारे की तरह गिरा

जिन्हें लोहा खाने की आदत थी उन्हें भी इसने तृप्त किया
जुल्म ने इसे लड़ाकू बनाया दुखों ने सहनशील'


यह कविता स्पष्टत: उस मानववादी पक्ष के प्रति स्वयं को समर्पित करती है जो मनुष्य को केन्द्र में रखता है.यहॉ बाँदा के प्रबुद्व श्रोताओं के समक्ष मैं इस सैध्दान्तिक विवेचन की कोई आवश्यकता नहीं समझता कि मानवतावाद और मानववाद में क्या फर्क है और कहाँ पर ये दोनों चीजें एकाकार होती हैं्र.इस कविता के लिए यही काफी है कि कवि स्वयं को सबसे पहले एक मनुष्य मानता है और यह बात उसे अनश्वर बनाती है.'सबसे पहले' कविता की कुछ पंक्तियाँ बात को साफ करेंगी:


'मै एक मनुष्य हूँ
शरीर के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ
. . . . . . . . .
मै मनुष्य से मनुष्य की तरह मिलता हूँ
उस शरीर के साथ जो मेरे बाद भी दूसरों मं जीवित रहेगा'

यहाँ जो बात कही गयी है वह मनुष्यता की चरम उपलब्धि का रहस्य है.लेकिन यही नहीं, वे 'मैं धरती की साँस' कविता में लिखते हैं:

'मुझे बनाने में बहुत समय लगा है
कई आदमी खर्च हुए हैं मुझे पूरा करने में
ऐसे ही कैसे नष्ट कर सकते हैं आप'

हेमंत कुकरेती की इस मनुष्यता के प्रति प्रतिबध्दता की तुलना यदि हम दशकों पहले की नागार्जुन द्वारा वाम के प्रति की गयी प्रतिबध्दता-घोषणा से करें तो परिस्थितियों का अंतर स्पष्ट हो जाता है. नागार्जुन स्वयं को वामपंथ के प्रति प्रतिबध्द घोषित करते हैं पर हेमंत मनुष्यता के प्रति.यह विचार करने योग्य बात है कि आखिर इसकी वजह क्या है? नागार्जुन और हेमंत के समय के बीच ऐसा क्या बड़ा फर्क आ गया है कि इतनी व्यापक प्रतिबध्दता की घोषणा आवश्यक लगे.जाहिर तौर पर इसके पीछे उस साम्प्रदायिकता की काली छाया ही है जिसने लगभग ढाई दशकों से इस देश को डस रखा है.

हेमंत कुकरेती की कविता को लेकर एक बात घ्यान देने लायक है कि गुजरात के दंगों के बाद उनकी कविता का साम्प्रदायिकताविरोधी स्वर मुखर हुआ है.यह सिर्फ उन्हीं की कविता की विशेषता नहीं, इसे गुजरात के दंगों के बाद की हिन्दी कविता का एक महत्वपूर्ण तथ्य स्वीकार किया जाना चाहिये.बद्रीनारायण जैसे रागात्मकता के कवियों ने भी स्पष्ट साम्प्रदायिकताविरोधी कविताएँ लिखीं. हिन्दी कविता में साम्प्रदायिकता के इस विरोध को दो चरणों में बाँट कर देख सकते हैं.एक तो मंडल-कमंडल आन्दोलन के बाद बढ़ी उस साम्प्रदायिकता के सापेक्ष लिखी गयी कविता, जिसकी चरम परिणति बाबरी मस्जिद ध्वंस में हुई. इस दौर की कविताएं साम्प्रदायिकता के प्रति विभिन्न प्रकार की गंभीर प्रतिक्रियाएं प्रस्तुत करती हैं.दूसरा चरण गुजरात के दंगों के बाद आयी कविताएँ हैं जो साम्प्रदायिकता के विरोध में हैं लेकिन थोड़ी दूसरी अवस्थिति से लिखी गयीं हैं.


अपने अग्रज, मित्र और 'उन्नयन' पत्रिका के सम्पादक श्रीप्रकाश मिश्र जी के अनुरोध पर मैने गुजरात के दंगों से काफी पहले एक लेख प्रस्तुत किया था जिसका शीर्षक था 'जब मैने लिखना शुरू किया'.यह लेख एक प्रकार से समकालीन कविता पर एक संक्षिप्त टिप्पणी था.वहाँ मैने इस बात को रेखांकित किया था कि साम्प्रदायिकता के विरुध्द खड़ा होना हिन्दी कविता में प्रतिरोध का एक अन्यतम उदाहरण था क्योंकि भारत विभाजन के समय उभरी साम्प्रदायिकता का नंगा नाच बहुत स्थूल था.उस समय के साहित्यकारों ने इस विषय पर काफी कुछ लिखा था.लेकिन हमारे समय में साम्प्रदायिकता बड़े सूक्ष्म और कुटिल रूप में उभरकर आयी है.इस अर्थ में हिन्दी कविता की प्रतिरोधी परंपरा का अपना अलग ही महत्व है.

लेकिन तब से अब तक काफी कुछ बदल चुका है. बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात के दंगों के बीच का समय भारत में साम्प्रदायिक शक्तियों के बढ़ने और फासीवाद की सीमा तक पहँचने का समय रहा है.इस कालावधि में साम्प्रदायिक राष्टवाद के समर्थकों ने तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं पर बलपूर्वक कब्जा जमाया और सांस्कृतिक संस्थाओं को भगवा पहनाने का प्रयत्न किया.इस प्रयत्न में वे राजनीतिक प्रतिरोध की कमी के चलते सफल भी रहे. जनता में साम्प्रदायिक तत्वों के प्रभाव के बढ़ने का यह एक बड़ा कारण था. शिक्षा और राजनीति में सफलता पाने के बाद अब वे साहित्य में भी अपना दबदबा बनाने की कोशिश कर रहे हैं.लेकिन साहित्य जगत में मानवीय मूल्यों के विरोध मे कुछ कह पाना सरल नहीं, अत: यहाँ पर राजनीति जैसा प्रभाव बना पाना संभव नहीं हुआ है.राजनीति, समाज और संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में सीधा समर्पण देखा गया है.ऐसा अक्सर स्वार्थवश या भयवश हुआ है.मगर हिन्दी साहित्य में अधिकांश साहित्यकारों ने ऐसा समर्पण नहीं किया है.


दिसंबर, 1992 के आसपास लिखी गयी तमाम कविताएँ दो तथ्यों को रेखांकित करती हैं.एक तो यह कि जो कवि पहले से कविताएँ लिख रहे थे, उन्होंने इस विषय पर प्रमुखता से कविताएँ लिखीं. दूसरा यह कि नये कवियों के लिए, जो इस दौर की ही उपज थे या थोड़ा पहले से लिख रहे थे, बाबरी मस्जिद ध्वंस के दौर का साम्प्रदायिक उभार एक महत्वपूर्ण विषय बना,इतना महत्वपूर्ण कि लगभग सभी जानेमाने कवियों ने इस मुद्दे पर कविताएँ लिखीं.इसर् दुघटना ने दोनों पीढ़ियों के कवियों की संवेदना को गहराई से झकझोरा.यहीं पर हम मानववाद की ओर होने वाली वापसी को देख सकते हैं जिसने साम्प्रदायिकता के विरोध में एक व्यापक जमीन की तलाश प्रारंभ की.


गुजरात के दंगों के बाद लिखी गयी कविताएँ अधिक विचलित करने वाली हैं.यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि राजनीति में यह दौर धर्मनिरपेक्षता के प्रवक्ताओं के पतन का दौर था और एक गहरा अवसरवाद यहाँ साफ परिलक्षित हुआ.जो नेता साम्प्रदायिकता का जमकर विरोध करते थे, वे पतित होकर धर्म की राजनीति करने वालों के खेमें मे शामिल हो गये. केन्द्र मे बनी राजग सरकार में तमाम सहायक और मंत्री वही बने जो जोर-शोर से साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए संसद मे आये थे.अपनी घोर अवसरवादी राजनीति के चलते वे कुर्सियाँ पकड़े रहे और गुजरात के मुद्दे पर एक मुर्दा चुप्पी साधे रहे.पत्रकारिता से लेकर अन्य मीडिया रूपों तक में साम्प्रदायिकता का भारी मात्रा में आभ्यन्तरीकरण हुआ.लेकिन हिन्दी कविता ने इस साम्प्रदायिकता का अधिक संवेदनात्मक प्रबलता से विरोध किया.यह नोट करने लायक तथ्य है कि 1992 के आसपास जिन कवियों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया था उनमें से अधिकांश आज भी साम्प्रदायिकता के विरोध में खड़े हैं. उम्होने अपने स्तर पर साम्प्रदायिकता और फासीवाद को कोई स्वीकृति प्रदान नहीं की है.इस दौर में ऐसी कविताएँ लिखी गयीं जिन्हें लम्बे समय तक नहीं भुलाया जा सकेगा.

संवेदना को हिला देने वाले गुजरात के दंगों के बाद हिन्दी कविता के मुखर होते स्वरों के पीछे स्पष्ट कारण था, इस बात का बिल्कुल स्पष्ट हो जाना कि सत्ता का नया चरित्र और उसकी गतिविधि क्रूर और मनुष्यविरोधी हो चुकी है.यही कारण है कि गुजरात के भीषण नरसंहार के बाद हेमन्त को स्पष्टत: अपनी मनुष्यता के प्रति प्रतिबध्दता को उच्च स्वरो में घोषित करना पड़ता है.ऋतुराज से लेकर नरेन्द्र पुण्डरीक तक की ईश्वरविरोधी कविताएँ इसी दौर में आती हैं, बस थोड़ा आगे-पीछे होकर. पूरे बीस चौबीस साल के इस दौर में साम्प्रदायिकता विरोधी कविताओं और कवियों की संख्या इतनी अधिक है कि उनके नाम गिनाने में ही सारा समय गुजर जाएगा इसलिये सिर्फ दिशावाहक रचनाओं का ही जिक्र करूंगा.

यदि इन दोनों समयों की कविताओं के बीच के फर्क को रेखांकित करना हो तो देवीप्रसाद मिश्र की दो कविताओं को आमने-सामने रखा जा सकता है.एक कविता है 'मुसलमान' और दूसरी है 'जनगणमन बेगाना'.'मुसलमान' कविता में यदि रेटारिक का बल कविता के अंत तक जारी रहता है तो 'जनगणमन बेगाना' टूटे और बिखरे स्वरों का एक मार्मिक कोलाज है.'मुसलमान' कविता भारत में मुसलमानों के आने से लेकर उनके जीवन के विभिन्न मक्षों के बारे मे अपवादों का निषेध करती हुई इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि वे कोई ढेले-पत्थर नहीं कि उन्हें देश से बाहर किया जा सके.ध्यातव्य है कि यह कविता गुजरात के दंगों से पहले की लिखी हुई है. लेकिन गुजरात के दंगों के बाद लिखी गयी 'जनगणमन बेगाना' की भूमि बेहद विचलित करने वाली और बिखरे शिल्प वाली है.देवीप्रसाद मिश्र की दस भागों में विभक्त यह कविता कई दिशाओं से गुजरात के भयावह दंगों को देखने का प्रयास करती है.कवि की संवेदनशीलता,घटती हुई घटनाएँ,राजनीतिक वक्तव्य,स्वयं की ओर लौटते विचार और बेचारगी सब मिलकर एक साथ कविता में उभरते डूबते हैं:

'अन्यायी जूतों
के नीचे
कमजोरों का दाना देखा

जयहिंद जयहिंद
थाने भर में
हत्यारों का गाना देखा

खद्दर औ'
खादी से होकर
लोकतंत्र का
जाना देखा

रोती स्त्री
और रो पड़ी
जनगणमन बे-
गाना देखा'

अपने प्रचलित मुहावरों से अलग देवीप्रसाद मिश्र की यह कविता पाठकों को एक ऐसे कविता जगत से गुजारती है जहाँ सब कुछ टूटा-फूटा है और संवेदना की किरचियाँ बटोरे बिना काम पूरा नहीं होता. हाहाकारी अमानवीय घटनाओं के कवि के संवेदनशील चिटकते मन पर पड़ते प्रभावों को यह कविता कई आयामों से प्रस्तुत करती है.


इधर दो दशकों की हिंदी कविता के लिए साम्प्रदायिकता का प्रतिरोध एक बड़ी सीमा तक पहचान करने का तत्व बन गया है. यह बात भी सही है कि बहुत से कवि कैरियर बनाने के लिए और पत्रिकाओं मे स्थान पाने के लिए भी ऐसी कविताएँ लिखते रहे हैं. मगर गहराई और सच्चाई से भरे स्वर कम नहीं रहे.ये स्वर सतही नारेबाजी से परे एक ऐसी जमीन तलाशते हैं जहाँ मनुष्य केन्द्र में रहे.
इस सिलसिले में विमल कुमार जैसे वरिष्ठ होते कवियों और पवन करण,सर्वेन्द्र विक्रम जैसे युवा कवियों की कविताएँ भी द्रष्टव्य हैं.डॉ परमानन्द श्रीवास्तव के नवीनतम कविता संग्रह 'एक अ-नायक का वृत्तांत' का तो मूलस्वर ही साम्प्रदायिकता विरोधी है.इन सभी कवियों के संदर्भों को ग्रहण करें तो पायेंगे कि हिन्दी कविता का यह मानववाद बेहद आलोचनात्मक है और मानववाद की पिछली परम्पराओं से अलग है.उदाहरण के लिए जब हेमंत कुकरेती मनुष्य की बात करते है तो वह अमूर्त मनुष्य न होकर आज का साम्प्रदायिकता के विरुध्द खड़ा मनुष्य है.अपने प्रतिरोध के तत्व के चलते यह मानववाद अपनी प्रकृति में क्रान्तिकारी भी है.


देखें तो विष्णु खरे की कविताएँ इस अर्थ में किसी दस्तावेज से कम नहीं. विष्णु खरे की कविता 'शिविर में शिशु' एक अतिचर्चित कविता रही है जो गुजरात के दंगों के दौरान जन्मे कुछ शिशुओं के एक फोटोग्राफ को लेकर प्रारंभ होती है और विभिन्न मोड़ों पर अलग-अलग सवाल उठाती-बढ़ती है.सद्य:प्रसूत इन बच्चों को देखकर उनके हिन्दू अथवा मुस्लिम होने को नहीं जाना जा सकता है.लेकिन यह तथ्य जिस ओर संकेत करता है, उसे इस जंगल समय में समझाना बहुत कठिन है. आदमी को बचाने के जज्बे का इस कदर संकटग्रस्त हो जाना कि उसे कहने में भी असहजता जैसी व्यर्थता लगे, हमारे समय की एक गहरी विडंबना है.

विष्णु खरे अपनी कविताओं में साम्प्रदायिकता का एक व्यावहारिक विकल्प भी तलाशने का प्रयास करते हैं. 'नेहरू-गाँघी परिवार के साथ मेरे रिश्ते' कविता अपनी लम्बी यात्रा के बाद साम्प्रदायिकता की समस्या पर आकर टिकती है कि 'हिटलर के हिन्दुस्तानी वंशज' बढ़े आ रहे हैं.ऐसे में सर्वाधिक महत्व का मुद्दा यह है कि इन बर्बरों का कुछ करना चाहिये. इस बडे सवाल के सामने कवि बाकी सवालों को छोड़ने को तैयार है. उन पर बाद में विचार किया जायेगा.यह कविता हमारे खतरनाक और विकल्पहीन लगते समय में विकल्प की एक राजनीतिक अवस्थिति बनाने का उपक्रम है जिसको कांग्रेस की अन्यथा तारीफ के रूप में भी ग्रहण किया गया है.यह सही बात नहीं है.

उन्हीं की कविता 'चुनौती' सामान्य अभिवादन में घुस आये फासीवाद को रेखांकित करती है.दैनंदिन में उतरने वाली और अक्सर अदृश्य रहने वाली इस फासीवादी प्रवृत्ति को यह कविता बखूबी सामने लाती है.देख जाय तो समाज में बहुत-सी ऐसी रिक्तियॉ और चोर दरवाजे हैं जहॉ साम्प्रदायिकता निवास करती और पोषण पाती है.'हिटलर की वापसी' नाजीवाद के बहाने फासीवाद के अपने समय में संस्कृति के उद्योग के रूप में बदलने की ओर संकेत है जो खतरनाक है.विष्णु खरे शिल्प के स्तर पर कविता को एक लम्बी चिंतनवर्णना में ढालते हैं जिसका विचार विमर्श अक्सर किसी महत्वपूर्ण पड़ाव पर ले जाता है.'न हन्यते' जैसी कविता तो एक साम्प्रदायिक हत्यारे की ईश्वर भक्ति की ओर वापसी का भयानक वर्णन है क्योंकि यहाँ हत्याओं और अपराधों के प्रति कोई पछतावा नहीं है और साम्प्रदायिकता के प्रति निष्ठा ऐसी है कि अपराध स्वयं में अपराध नहीं लगता और उसका अपराधबोध तो दूर दूर तक कहीं नहीं.देखा जाय तो विष्णु खरे अपनी कविता की आलोचनात्मकता में एक ऐसी मानववादी जमीन की तलाश में रहते हैं जिसकी अपनी एक राजनीति तक संभव हो.

इस सिलसिले में राजनीति से सीथे जुड़ी कवि कात्यायनी की कविता 'गुजरात 2002' का जिक्र जरूरी होगा.इस कविता में कात्यायनी का यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि 'क्या अहिंसा से कायल किये जा सके हैं कभी लुटेरे और आततायी'.इस प्रश्न को वे आगे बढ़ाते हुए लिखती हैं:

'यदि ऐसा हो पाता तो दुनिया में आज
फिलिस्तीन,अफगानिस्तान और इराक की तबाहियों की जगह
हवा में लहराते उड़ते रुमाल,रंगीन पन्नियाँ और पतंगें होतीं'


कात्यायनी साम्प्रदायिकता के इस विरोध को रस्मी मानती हैं जब तक कि राजनीतिक तैयारी को ठोस रूप से सम्पन्न करने का प्रयास न हो.बात सही है.साम्प्रदायिकता हमारे दौर में महज एक विचार नहीं, वह एक ठोस और मूर्त वास्तविकता है.इसका सामना सिर्फ विचार या कविता से संभव नहीं.


फिलहाल हिन्दी कविता साम्प्रदायिकता के परिप्रेक्ष्य में अपनी अवस्थिति को एक कदम पीछे करती है.वह एक ऐसे मानववाद की ओर बढ़ती है जिससे उसे व्यापक वैचारिक और संवेदनात्मक भूमि प्राप्त हो सके.इस तत्व के चलते कविताओं में द्वंद्वात्मकता बढ़ती गयी है जिसने कविता की भूमि को उर्वर बनाया है. यह जमीन वास्तव में एक दौर में विवेक और तर्क की जननी रही है.वही तर्क और विवेक जिससे धर्मान्धता और अमानवीयता सदैव डरती रही हैं.यहाँ लोकतंत्र और समाजवाद से लेकर माक्र्सवाद तक के लिए स्पेस है और ये तत्व निकले भी तो इसी पृष्ठभूमि से हैं.हेमन्त कुकरेती की कविताओं में आने वाली उनकी मनपसंद क्रिकेट की इमेजरी का सहारा लेना हो तो हम कह सकते हैं कि हिन्दी कविता साम्प्रदायिकता के परिप्रेक्ष्य मे बैकफुट पर जाती है ताकि साम्प्रदायिकता की गेद पर आखिरी समय तक निगाह रख सके और उसे सही दिशा में जोर से हिट कर सके.




रघुवंशमणि
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