Thursday, November 04, 2010

आर. के. सिंह की कुछ अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद

आर. के. सिंह की कुछ अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद

1.

वह पागल घोषित है
पाॅंव बॅंधे हैं उसके
गली में सरकती है
वह आगे पीछे

नंगी भूखी वह
ठिठुरती है दिसम्बर में
नाली के पास सिकुड़ी

फुटपाथियों की उपेक्षिता
कागज, लकड़ी और चीथड़ों से
आग जलाने की कोशिश है

पुल के नीचे चाय की चुस्कियाॅं लेते
मैं राजघाट की घंटियाॅं सुनता हूॅं
तीर्थयात्री ट्रेन पकड़ने की जल्दी में हैं।


2.

दो सूखे वृक्षों के बीच अनन्त सौंदर्य सी खड़ी
दुपहरी में गुजरतेे मछुवारों को देखती
उसकी आॅंखें भी तो मछलियाॅं हैं
पर परवाह किसे है उनकी
गिरकर शांत होती हैं फड़फड़ाती पत्तियाॅं
लपटों के शांत होने पर देखती है
टीलों के उच्चावच पर अपनी टूटी चूड़ियाॅं
और एक बिलखता गुलाब सफेद साड़ी में
छिपा लेती है वह

3.

चेहरे पर जर्द पर्त
राख में तलाशती अंगुलियाॅं
पिछवाड़े बागान के करीब ही
बिनती हैं जले हुए कोयले
कल का खाना बनाने के लिए

4.

ग्ंगा यमुना का संगम
एक समलैंगिक मिलाप है
सुन्दर परन्तु बंजर

मेरे मित्र को पता है
स्वर्ग का रास्ता
इन सर्पीली नदियों से होकर नहीं जाता

5.

सूरज के फैलते मकड़जाली चक्र मेरे
मेरे अस्तित्व और चीजों को धुंधलाते हैं
सुबह से शाम तक मेरे चारो तरफ
मिथक स्वयं को दोहराता है

मेरे अंदर की उभरती रोशनी
कागजी भगवान का आभामण्डल
चारो तरफ सभी कुछ आन्दोलित करती
जीवन और मृत्यु का समीकरण है

इस वक्त का सशंकित सन्नाटा
षडयन्त्र है एक गंभीर दृश्य को आभामण्डित करने का
भावनाओं को प्रतिबिम्बित करने में
अंधभावनाओं और लघुदृष्टियों की पूर्णता में

6.

यह नहीं कि कुछ पैसे मैं
रिक्शे पर खर्च नहीं कर सकता
नहीं खरीद सकता कार या स्कूटर
मैं जुड़ा रहा चाहता हूॅं
धरती और धूल से
अपने भार के साथ
अकेले चलना चाहता हूॅं
मेरे कन्धे पर सब्जियाॅं और सामान
चालीस साल पहले जैसी लटकी हैं
सोचता हूॅं बिना किसी शर्म के
स्वाभिमान और पसीने के साथ
दूरियाॅं तय कर सकता हूॅं
और कह सकता हूॅं खुद से
देखो मैं उनसे जुदा हूॅं

पैसे से होने दो उनका मूल्यांकन
जिसको वे अपनी टांॅगों के बीच या सपनोें में
छिपाकर रखते हैं
मुझे मेरे कामों से जाना जाय
मेरी मेहनत से जिसने किसी का अपकार नहीं किया
और कल जब मैं इतना बूढ़ा हो जाऊ
कि खड़ा न रह सकूॅं अपने पैरो पर, चल न सकूॅं
तो याद करूॅंगा कि जमा कर रखे थे मैंने
अपने पैर जमीन पर
और उन सबको जाना था
जिन्होंने बेदिली से अपना हाथ बढ़ाया था

वे किसी को शाप न दें अगर
उनके गिरने पर ध्यान न दे कोई


7.

जब फूल सूख जाएॅंगे
शहद के लिए मण्डराती
मक्खियों को कौन जीवित रखेगा
या उन हाथों को महसूसेगा
जो नारंगी के बागों में लगे
छत्तों को संवारते हैं

वे तब मिलकर
अपने स्वर्णिम दिनों को
याद कर सकती हैं

या इस टोने को
खत्म करने के लिए
कोई राग गुनगुना सकती हैं

या जिस भी वजह से
धुवांसे सन्नाटे में
उनका छत्ता जला हो

लेकिन पता है मुझे अब
मधुमक्खियाॅं नहीं लौटेंगी
नग्न वृक्षों की ओर

8.

जाति बदलना संभव न था
उसने अपना धर्म बदल डाला
फिर भी वे न बदले
न ही बदली उनकी संकीर्ण दुनिया

भेड़िये, लोमड़ी और कौए
उस प्रबोधन की परेशानी को
न बदल सके आसमान के साथ
जो देवताओं का पर्दा है

पिंजरा अभी भी भागता फिरता है
एक पंछी की तलाश में
और वह सूरज की आशा में
अकेली लड़ाई लड़ता है

9.

मौन फुटपाथ है
ध्यानियों की शरणस्थली
दूधिया सन्नाटे में

गुजरती सुन्दरियाॅं
पानी में नग्न होतीं
सिकुड़ती चमड़ी

कार्तिक में गंगा पर
आदि ईश्वर हॅंसता है
उनकी नंगी पीठ के पीछे

घायल कर देने वाली शीत में
ऊॅं वासनाओं के लिए
सुविधाजनक है

और अश्वपति नहीं अब बस
दो श्वेत चन्द्रवृत्तों के पीछे
जेट से भागते लटके हैं वे

10.

इच्छाओं को त्याग दूॅं तो भी नहीं खत्म होता यह सब
दुःख का न होना निर्वाण की कुंजी नहीं

व्यतीत को प्रेम न करने और वासनाओं
और नये मानसिक भ्रमों और भयों के जंजाल में

अहसास की खुजली, बदलती गिरावट
अस्तित्व के द्वीप की धुॅंधलाती रौशनी में

जीवन बस जमता जाता, रुके तालाब की दुर्गन्ध
फिर भी खिलता है आशा का कमल

11.

मैने उपवास नहीं रखा
मेरे लिए नहीं है नौरोज़

न होली ही है
अब मैं हिन्दू नहीं रहा

बहुत पहले इसाइयों ने भी
मेरी आस्था और प्रेम पर संदेह किया था

मुस्लिम इतने कट्टर हैं कि
एक सेकुलर को अस्वीकार कर दें

अब मैं अकेला देखता हूॅं
रंगों की त्रासदी

मैं उत्सव मनाता हूॅं
भिन्नता और आत्मा की स्वतंत्रता का

पर वे मेरे जन्म पर सवाल उठाते हैं
और मुझे ढोंगी बताते हैं


12.

मैं यीशू तो नहीं
पर सूली पर चढ़ने की
पीड़ा समझता हूॅं

एक सामान्य आदमी की तरह
सब झेलता जो उन्होंने झेला था
वही जीवन जीता

कभी विनती करता और रोता
प्रेम के अभाव में भी
आगे अच्छे दिनों की आशा करता

घटती सामथ्र्य, असफलता
बोरियत और अनकिये अपराधों के
दोशारोपणों के साथ

मैं जीसस नहीं हूॅं
मगर मैं सूॅघ सकता हूॅं
हवा में जहर और धुॅंवा

मनुष्यता के लिए अनुभव करता हूॅं
उन्हीं की तरह सलीब ढोता
अपने स्वप्नों को पुनः जीता

मैं यीशू तो नहीं
पर सूली पर चढ़ने का
दर्द समझता हूॅं

13.

यह मकान ढह सकता है कभी भी
इसकी दीवारें फटी हैं
नींव पर दरारें खुली हैं
पर कोई परवाह नहीं करता

वे चुप्पी साधे रहते हैं
सतही चिप्पियों की सुरक्षा में
और धीरज रखने की बात करते हैं
स्वार्थ सिद्धि के लिए करते हैं छद्म

अपनी अधमता को रहस्यमय बनाते
विवेक और भविष्य की चिन्ता दबाते
चहारदीवारी के बीच मास्टरों की
चुप्पियाॅं खरीदते

14.

हम कहाॅं पहुॅंचेंगे आखिर
ताबूत में यात्रा करते

या इन्द्रधनुषी सिंहद्वार के परे
लंगर डालने की कल्पना करते

सुनहरी और चमकती राख
मरजीवों को फिर जीवित नहीं करेगी

मिथकों और कहानियों में खोये
हमे वापस लाना होगा

जीवन तत्वों का संतुलन
नये सूरज बनाने के लिए

और चन्द्रमाओं के लिए
गुफाओं को रौशन करेें

जो नये भविष्य की शुरुवात करें

15.

यदि दुनिया नहीं हुई
मेरी नौजवानी की सोच जैसी
तो मैं क्या करूॅं। मैं था
निर्भर अपने पिता पर

स्वनिर्मित मैं
धाराओं के विरुद्ध पढ़ न सका
आसमान और उसके मजबूत इलाकों को

गंगा की बालू पर बने निशान
इन्द्रधनुष की तरह धुॅंधला गये
समय की बरसात
पैरों में चुभती है

दाॅंत के खोड़र
और अंधत्व करते हैं आक्रान्त
और कामचिन्ताएॅं सताती हैं
निद्रा और स्वप्नहीन रातों को

मेरे गंजे होते सिर के गिरते बाल
उस हॅंसी को प्रतिबिम्बत करते हैं
जिन पर अब ध्यान नहीं देता

अब मैं नहीं करता
चालाक और अविश्वसनीय
मित्रों को बेपर्दा

अपने अस्तित्व और भविष्य
पर खीजता नहीं और
प्रभाव नहीं बना पाता

फिर भी सुनिश्चित है जब मैं विराम लूॅंगा
तो बहुत बुरा तो नहीं रहेगा
मेरी दृष्टि फिर भी रहेगी ठीक
ताजी हवा में साॅंस लेता रहूॅंगा

16.

अकेले में रहना
द्वीप बनाता है

घुलती मिलती परछाइयों को
पानी में देखना

पुनर्मिलन की आशा जगाता
तारों के टूटने पर

ज्वार की तरफ आॅंख मूदकर
नया झूठ बुनना है

17.

फौलादी बहाव के साथ
बहता हुआ पानी
पत्थर को भेदता है
उन्हें सितारों की शक्ल देता

सूरज और चाॅंद भी नहीं पा सकते
वैसा तीखापन
चट्टानों का विलाप
बदलता है नदी के गीत में

18.

क्या वे स्वयं को या अपनी सच्चाई को
देखते हैं अन्तर्दर्पण में

बहुत घृणा और क्रोध उपजाते
मनुष्यों और घरों को जलाते हैं

कुछ नहीं सीखते कभी मगर
साम्प्रदायिकता का पत्ता फेकते, अधिकारों के लिए

जो किसी ईश्वर ने नहीं दिया उन्हें। उनकी
अधम राजनीति सन्नाटे की विकृति है



अंग्रेजी से अनुवाद रघुवंशमणि
.......................... ........................... .

Monday, October 25, 2010

दिगंबरी योग

डायरी

दिगंबरी योग

सारा ज्या अण्डरवुड का नाम हिन्दुस्तान में किसे मालूम था! न तो वह कोई जानी-मानी नेत्री थी न अभिनेत्री। मगर राष्ट्ीय स्वयं सेवक संघ जैसी संस्थाओं की सत्ता ऐसी व्यापक कि जिसे चाहें रातों-रात स्टार बना दें। सारा के दिगंबरी योग के बाद उनका जो विरोध हुआ तो फिर उसकी वीडियो क्लिप के चक्कर में हिन्दुस्तान का बिगड़ैल युवा वर्ग पागल हो गया। उसे देखने के लिए लोग पूरा नेट छान मार रहे हैं और प्लेब्वाय की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। एक जिम्मेदार सज्जन को तो यहाॅं तक कहना पड़ा कि योगासनों का धर्म से कुछ लेना देना नहीं। अब इसका धर्म से कुछ लेना देना हो या न हो, वार तो उल्टा गया। सारा की लोकप्रियता ही बढ़ी और दिगंबरी योग के विरोध में कोई बड़ी वारदात नहीं हो सकी। जो लोग कुछ विरोध कर भी रहे थे, मन में उनके उत्सुकता उस वीडियो को ठीक तरह से देख लेने की थी। वाइज की बातें कौन मानता है और फिर हर बात का जवाब हिंसक वक्तव्य तो नहीं होते। इस बात को अब तो समझ ही लेना चाहिए। चित्तवृत्ति पर नियंत्रण की जरूरत दक्षिणपंथियों को ज्यादा है। वे चाहें तो एक आॅंख झपकाने वाले योग गुरु रामदेव जी की शरण में जाॅंय, चाहे दिगंबरी सारा के। उत्सुकता यह है कि ज्यादातर लोग किसकी ओर जाना पसंद करेंगे?

Friday, August 13, 2010

क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?

मेरे ब्लाग पर छद्म नाम से टिप्पणी लिखने वाले एक टिप्पणीकार मित्र ने मुझसे कबीर के स्त्री सम्बन्धी विचारो पर बहस चलने के लिए कहा! मुझे लगता है कि बहुत से लोगो के समान वे भी यह सोचते है कि कबीर स्त्री विरोधी है! तो आइये इस विषय पर भी विचार करे!


क्या कबीर स्त्री विरोधी थे?

Saturday, August 07, 2010

टिप्पणीकारो से निवेदन

टिप्पणीकारो से निवेदन है कि छद्म नामो से टिप्पणी न भेजा करे! उन्हे प्रकाशित करना सम्भव न हो सकेगा! Chadma namo se prakashit purani tippaniya bhi dheere dheere hatayi ja rahi hain.

Sunday, July 25, 2010

क्या कबीर वर्णव्यवस्था के समर्थक थे??

डायरी

क्या कबीर वर्णव्यवस्था के समर्थक थे??

१८. ७. २१

फैज़ाबाद में मेरे आवास पर हुई चर्चा के दौरान डा वागीश शुक्ल ने कबीर को वर्णव्यवस्था समर्थक का सिद्ध करने के लिए कबीर की ही साखी प्रस्तुत की।

॑॑ सकल बरण एकत्र् ह`वै सकति पूजि मिलि खांहि।
हरिदर्शन की भ्रान्ति करि केवल जमपुर जॉंहि।। ॔॔

कबीर की यह साखी अपेक्षाकृत कम प्रचलित है, इसलिए मेरे सहित वहॉं उपस्थित हिन्दी युवा कवि विशाल श्रीवास्तव, संस्कृत विद्वान महेश मिश्र, वरिठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव और उर्दू साहित्य की विदुषी बुशरा खातून ने उनकी बात को बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया। लेकिन बाद में इस साखी का अर्थ देखने पर पता चला कि इसका वर्णव्यवस्था से कोई मतलब ही नहीं है। वास्तव में इस साखी का अर्थ तो निम्नवत` है

"॑॑ समस्त वर्ण् के लोग शक्तिपूजा के नाम पर इकठ`ठे होकर मॉंस भक्षण करते हैं, वे सिर्फ़ हरिभक्त होने की भ्रान्ति पैदा करते हैं। वे वास्तव में भक्त नहीं होते। वे केवल यमपुर की यात्रा करते हैं।॔॔

कबीर, ग्रंथावली, संपादक रामकिशोर शर्मा, लोकभारती, २६, पृ. २२३.

कबीर की इस साखी को शक्तिपूजा या मॉंस भक्षण के सन्दर्भ में तो प्रस्तुत किया जा सकता है, मगर वर्णव्यवस्था के समर्थन के लिए इसका इस्तेमाल बिलकुल गलत है। वास्तव में इस दोहे का वर्णव्यवस्था से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। सवाल यह है कि दूसरों के संदेहों और अज्ञान का फायदा उठाकर उन्हें गलत जानकारी देने वाले डा वागीश शुक्ल जैसे विद्वानों का क्या किया जाय?? वे उन्हीं मध्यकालीन ब्राह`मणों के समान हैं जो वेद के नाम पर जनता को कुछ भी समझा दिया करते थे।

फिलहाल मेरा सवाल यह है कि क्या आपको लगता है कि कबीर वर्णव्यवस्था के समर्थक थे?? क्या आपको कबीर की कोई ऎसी प्रमाणिक पंक्ति याद आती है जिसमें वे वर्णव्यवस्था के समर्थक लगते हों?? आपके विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।

Sunday, February 28, 2010

होली की एक स्मृति

मॉरीशस में होली बहुत अच्छी तरह से मनायी जाती है। 1968 के आस पास की घटना है। जब हम मारीशस में थे तो होली मनाने के लिए बो बासें चले जाते थे जहाँ चाचा ठाकुर प्रसाद मिश्र जी रहा करते थे। एक बार होली के दिन उनके यहँा कोई बुजुर्ग मेहमान आये हुए थे। वे कुर्सी पर बैठे हुए थे तो चाचा जी कमर पर एक बड़ा सा भगोना रखे हुए अंदर से निकले।

उन्होंने अतिथि महोदय से पूछा

''क्या आप चाय पियेंगे''

बुजुर्ग सज्जन थोड़ा संकोच में पड़े, पर फिर संभलकर कहा

''हाँ हाँ पी लेगे''

अतिथि जी के इतना कहते ही चाचा जी ने पूरा भगोना उनके सिर पर उड़ेल दिया। वे सिर से पैर तक रंग से भीग गये।

होली की यह रंगीनियत उसकी खास बात है। मुझे यह त्योहार सांस्कृतिक अधिक और धार्मिक कम लगता है। यही वजह है कि मुझे अपने तमाम मुस्लिम दोस्तों की भी शुभकामनाएॅ इस अवसर पर मिलती रहती हैं।

यह रंग का उत्सव प्रकृति से भी जुड़ने का उत्सव होता है। शायद बाहर की प्रकृति से उतना नहीं जितना की अंदर की प्रकृति से। इस मामले में यह त्योहार कुछ कम फा्यडियन नहीं। इस अवसर पर ढेर सारी वर्जनाएँ अलग रख दी जाती हैं। हमारी प्रकृति पर जो दबाव हैं वे इस अवसर पर कम हो जाते हैं।

Saturday, February 13, 2010

कल के लिए

सम्मान्य महोदय/महोदया,


हमारा समय एक कठिन दौर रहा है जिसमें समाज और संस्कृति को अनेकानेक समस्याओं से रूबरू होना पड़ रहा है। अपसंस्कृति, साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, आर्थिक और सामाजिक विसंगतियाँ लेखन को सामाजिक दायित्व समझने वाले हमारे-आप जैसें लेखकों के समक्ष कठिन चुनौतियों के रूप में रही हैं जिनसे हम लगातार जूझते रहे हैं। कल के लिए इन ज्वलंत प्रश्नों को सामने रखकर निकलने वाली अपने समय की एक महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। इसे आप जैसे प्रबुध्द साथियों का प्यार और सहयोग लगाातार प्राप्त होता रहा है जिसके चलते इस पत्रिका ने अपने संस्थापक-सम्पादक श्री जयनारायण के कुशल नेतृत्व में सफलतापूर्वक अपने सोलह वर्ष पूरे किये हैं।

पत्रिका आज भी अपनी इन्ही प्रतिबध्दताओं से जुड़ी रहते हुए समकालीन सृजनात्मकता को समृध्द करने के कार्य में सन्नध्द है। मगर भाई जयनारायण जी की स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं को देखते हुए मुझे और भाई अम्बर बहराईची को उनके द्वारा संयुक्त रूप से पत्रिका को सम्पादकीय सहयोग प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। उर्दू साहित्य से जुड़ी सामग्री का सम्पादन अम्बर बहराईची करेंगे। मुझे पत्रिका के लिए हिन्दी सामग्री का सम्पादन कार्य देखना है।

इस गुरुतर दायित्व का निर्वहन आप जैसे शुभेच्छु मित्रों और प्रतिबध्द एवं समर्थ लेखकों के सहयोग के बिना संभव नहीं है। पत्रिका के पहले से प्रकाश्य अगले दो विशेषांक शीघ्र ही आपके हाथो में होंगे। उसके बाद प्रकाशित होने वाले सामान्य अंकों के लिए आपके सहयोग के हम आकांक्षी हैं। विश्वास है कि आप अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ हमें प्रेषित कर पत्रिका को अपना रचनात्मक सहयोग प्रदान करेंगे।ं

सहयोग की आशा के साथ,

आपका


रघुवंशमणि

कार्यकारी सम्पादक
कल के लिए

Friday, February 12, 2010

बाल ठाकरे को अनायास मिली चुनौती

यह संभवत: इस समय विचार का विषय नहीं है कि शाहरुख खान की फिल्म
माई नेम इज खान
किस प्रकार की फिल्म है? कला की दृष्टि से वह ठीक ठाक है या नहीं? उसकी विषयवस्तु क्या है या उसका मैसेज कैसा है? फिल्म में विषय या कहानी के साथ निर्देशक का ट्रीटमेंन्ट कैसा है? यानि कि फिल्म कैसी है यह फिलहाल महत्वपूर्ण नहीं है। हो सकता है एक सप्ताह बाद ही यह फिल्म टिकट खिड़की पर दम तोड़ दे। होने को तो इसका उल्टा भी हो सकता है, मगर इस समय इस बात का कोई मतलब नहीं है। मतलब सिर्फ इस बात का है कि यह फिल्म रिलीज हो गयी है और इसे देखने के लिए लोग बड़ी तादाद में थियेटरों में पहुँचे हैं।

लोग शिवसेना की धमकियों के बाद भी सिनेमाघरों में पहुँच रहे हैं और यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि वे बाल ठाकरे जैसे कट्टरपंथी नेताओं से अधिक महत्व अपने सिने स्टारों को देते हैं। वे फिल्म को देखने के प्रतीकात्मक प्रतिरोध का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। शायद सामान्य परिस्थितियों में इस फिल्म को इतनी अच्छी शुरुवात न मिलती। दिल्ली में तो सिनेमाघरों में कई दिनों की एडवांस बुकिंग चल रही है। फिल्मों के इस पराभव के दौर में जब किसी एक शो का हाउस फुल जाना मुश्किल हो जाता है, यह वाकई जबर्दस्त बात है।

बाल ठाकरे और शिवसेना को यह चुनौती अनायास ही मिल गयी है। शायद स्वयं शाहरुख ने भी यह न सोचा होगा कि एक सामान्य टिप्पणी पर शिवसेना इस प्रकार प्रतिक्रिया करेगी। बात सिर्फ इतनी सी रही होगी कि उन्हे अपनी खेल सम्बन्धी सामान्य सी टिप्पणी को वापस लेना अपमानजनक लगा होगा। लेकिन यह भी उनके पक्ष में महत्वपूर्ण है क्योंकि शिवसेना की धमकी के बाद फिल्म उद्योग में शाहरुख का खुला समर्थन नहीं किया गया। कलाकारों से लेकर वितरकों तक ने संभल-संभल कर टिप्पणियाँ कीं क्योंकि उन्हे तरह-तरह के व्यावसायिक डर सता रहे थे। अभिषेक बच्चन जैसे कलाकारों ने तो साफ कहा कि वे महज कलाकार हैं और वे इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। निश्चितरुप से शाहरुख ने इन परिस्थितियों में कुछ अकेलापन जरूर महसूस किया होगा।

वैसे भी फिल्मी दुनिया में ठाकरे का आर्शिवाद चलता था। यह दादागीरी वाला आर्शीवचन हुआ करता था। फिल्मी दुनिया ने भी सरकार और सरकार राज जैसी फिल्में बना कर बाल ठाकरे को नायक का दर्जा देने में कोई कमीं नहीं रखी थी।

शाहरुख खान की इस प्रतिक्रिया को, जिसे बहादुरी कहना गलत न होगा, को हम बाल ठाकरे का अंत नहीं मान सकते। जनता की प्रतिक्रिया उन्हें गुड नाइट कहने जैसी भी नहीं है। बम्बई में ही उनके बहुत से समर्थक जरूर होंगे जो बदला लेने को उतावले होंगे। मगर इस घटना ने अनायास ही उनको एक बड़ी चुनौती दे दी है और जनता को एक प्रतीक नायक मिल गया है।