''आरक्षण के बारे में
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''आरक्षण फिल्म के आरक्षण के बारे में कम भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अधिक है। इस फिल्म को देखने के बाद ही प्रदेश सरकारों का भ्रम दूर हुआ होगा। बौद्धिक हलकों में चल रही बहसों पर अब पटाक्षेप हो जाना चाहिए क्योंकि यह फिल्म आरक्षण के विरुद्ध तो कतर्इ नहीं। फिल्म का प्रारम्भ अवश्य मण्डल कमीशन के मामले से होता है मगर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, मुददा बदलता जाता है। फिल्म के केन्द्र में आ जाता है शिक्षा का व्यवसायीकरण। फिल्म इस मुददे पर कुछ विकल्प भी सुझाती है। मुझे ये विकल्प तो लचर टार्इप के लगे। उपचारात्मक शिक्षा ही रामबाण नहीं है। वास्तव में शिक्षा को लेकर सरकार के दृषिटकोण को ही बदलना होगा और यह मामूली बात नहीं।
फिलहाल यह फिल्म किसी भी विषय पर हो, इसे प्रतिबंधित किया जाना तो बिल्कुल ही गलत था। शायद सरकारें दंगाइयों और उनकी राजनीति से इतना घबराती है कि वे पहले किताबों, फिल्मों पर रोक लगाती है। पढ़ती, देखती या सोचती बाद में है। वास्तव में उन्हें ये कार्य पहले करने चाहिए। इस पूरे प्रकरण में फायदा तो फिल्म का ही हुआ। मुफत के प्रचार से बेहतर लाभ किसी फिल्म को क्या हो सकता है? लेकिन प्रकाश झा को कम से कम इस बात के लिए बधार्इ दी जानी चाहिए कि उन्होंने शिक्षा व्यवस्था पर एक विचारोत्तेजक बम्बर्इया फिल्म बनायी है।
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