कविता
प्रकाश
कितनी आकाश गंगाएँ
कितने नक्षत्र
कितने कितने सौरमण्डल
ग्रह-उपग्रह और
तम के अगणित प्रकाशवर्ष
सबके बीच से हम तुम तक पहुँचे
ऐसा आसान भी नहीं था
सीधे नहीं रहे हमारे रास्ते
किरणों और तरंगों के बीच जीते
हम तुम तक पहुँचे
शुक्र करो
कि हमें नहीं ग्रसा किसी काले ग्रह ने
और हम पहुँचे
तिमिराच्छन्न अनन्त को भेदते
पिण्डों से बचते
उनके गुरुत्वाकर्षण में मुड़ते
देखो हमारे परावर्तन में
सब्ज पत्तियाँ, फूल और फल
दृश्य और चीजें
इन्द्रधनुषों के रंग
धरती, समुद्र, आकाश
वैसे तो सारे रंग तुम्हारी आखों में हैं
और हमारा अपना कोई रंग नहीं
रघुवंशमणि
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1 comment:
कहीं बहुत गहरे उतरे भाव हैं, हम तो नहीं नाप पाये मगर लगता है कि दमदार हैं. बधाई.
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