Friday, September 28, 2007

बिछलन भरी जमीन पर आलोचना का संतुलन

बिछलन भरी जमीन पर आलोचना का संतुलन

रघुवंशमणि

कुछ दिनों पहले हिन्दी साहित्य में ज्ञानोदय पत्रिका में प्रकाशित विजय कुमार के लेख पर लम्बा विवाद छिड़ा। इस विवाद में हिन्दी आलोचना के कई काले पक्ष नज़र आये। विवादों में न केवल अतिरेकपूर्ण बातें सामने आयीं बल्कि आपसी आरोप-प्रत्यारोप बढ़कर गाली-गलौज के स्तर तक पहुँचे। स्वस्थ वाद-विवाद किसी भी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण होता है पर अतिरेकपूर्ण वक्तव्यों और अपशब्दों तक पहुँचने वाले आरोपों-प्रत्यारोपों से साहित्य का कुछ भला नहीं होने वाला। बस होता इतना ही है कि कुछ लोग इस प्रकार चर्चा में आ जाने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में यदि कोई आलोचक चुपचाप और गंभीरतापूर्वक अपने कार्य में सन्नध्द है और अपने दायित्वों का जिम्मेदारी के साथ पालन कर रहा है तो यह सराहनीय है। आलोक गुप्त हिन्दी के ऐसे ही आलोचक हैं जो हिन्दी क्षेत्र से थोड़ा अलग बैठे आलोचना के कार्यभार का गंभीरतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।

आलोक गुप्त की इधर प्राकशित आलोचना पुस्तकों में मुक्तिबोध: युगचेतना की अभिव्यक्ति रेखांकित करने योग्य कृति है। इस आलोचना कृति में उन्होने मुक्तिबोध जैसे लेखक के विभिन्न पक्षों पर विचार किया है जिनकी रचनाएँ विवाद का विषय रही हैं। अक्सर मुक्तिबोध की रचनाओं को लेकर विभिन्न प्रकार के आलोचना विमर्श बनते रहे हैं। डॉ राम विलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह में मुक्तिबोध को लेकर मतान्तर रहे है। अपनी प्रतिबध्दताओं के साथ आलोक गुप्त मुक्तिबोध की कविताओं पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करते हैं।

यह कृति मुक्तिबोध के समस्त कृतित्व पर एक व्यवस्थित कार्य है जिसमें उनकी सर्जनात्मक कृतियों से लेकर उनकी आलोचनात्मक कृतियों तक को अध्ययन के दायरे में लाया गया है। आलोक गुप्त मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के लिए उसकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाते हैं। फिर वे मुक्तिबोध के साहित्य चिन्तन, उनकी कविता, उनके कथा साहित्य पर विचाार करते हुए उनके युगबोध तक पहुँचते हैं। यहाँ एक शोधकर्ता की सन्नध्दता और आलोचक का तीक्ष्ण विवेक दोनों एक साथ सक्रिय दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मुक्तिबोध के बारे में फैले कई आग्रहों का परिहार भी होता है।

आलोक गुप्त मुक्तिबोध की रचनाओं को वर्गीय चेतना के आधार पर देखते हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध मध्यवर्ग के लेखक हैं। मध्यवर्ग में भी निम्नमध्यवर्ग के। अपने वर्ग से गहराई से जुड़े होने के कारण ही वे उसकी सीमाओं और संभावनाओं को सही तरीके से जान सके हैं। उनके सामने मघ्यवर्ग का एक बड़ा समुदाय था जो अपनी जिजीविषा और मानवीयता के होते भी सुविधापरस्त होता जा रहा था। उसकी सुविधापरस्ती पर चिढ़ने या नाराज होने के बजाय मुक्तिबोध उसके कारणों की खोज करते हैं। इसी कारण वे इस जीवन के विभिन्न कोणों को पकड़ पाते हैं। सत्ता के भयानक चित्र भी इसी कारण उनकी कविताओं में आते हैं। क्लाडइथरली जैसी कहानियों में भी चेतनशील मनुष्य को पंगु बनाने वाली व्यवस्था है जो क्लाड ईथरली को एक बार हीरो का खिताब देती है और फिर पागलखाने में कैद कर देती है। परन्तु इस बोध के साथ साथ मुक्तिबोध में मनुष्य शक्ति के प्रति अनन्य आस्था भी है जो उन्हे सकारात्मक के चयन की ओर ले जाता है और उनके साहित्य में मनुष्य निरन्तर भीरुता को छोड़ता हुआ आगे बढ़कर अपना ऐतिहासिक दायित्व भी निभाता है।

मुक्तिबोध के प्रति अपनायी गयी यह संतुलित दृष्टि उनके अन्य आलोचनात्मक विमर्शों में भी दिखलायी पड़ती है। आलोक गुप्त छायावाद पर टिप्पणी करते हुए उसके अन्तर्विरोध के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि यह नयी शिक्षा और राजनीतिक आदर्शवाद तथा प्रतिष्ठित सामन्तीय मूल्यों का अन्तर्विरोध था जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी विद्रोह और निराशा में होती है। प्रगतिवाद को वे कहीं से भी विदेशी न मानते हुए उसे हिन्दी काव्य परम्परा की देन मानते हैं। उत्तरछायावाद की मस्ती और फक्कड़पन के तत्व बच्चन के हालावाद में हैं तो दिनकर की राष्ट्रीय चेतना की कविताओं में भी। वे आधुनिक कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसके लौकिक होने में देखते हैं।

एक आलोचक के रूप में आलोक गुप्त साहित्यिक आन्दोलनों को प्रतिक्रियाओं भर का परिणाम मानने से इंकार करते हैं। वे लिखते हैं:

'हिन्दी आलोचना में सामान्यत: नये आन्दोलनों को पुराने का प्रतिक्रियास्वरूप मान लिया जाता रहा है। जैसे छायावाद की अतिभावुकता और कल्पनाप्रवणता के प्रतिक्रियास्वरूप प्रगतिवाद और प्रगतिवाद की शुष्कता और नारेबाजी के प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवाद या नयी कविता। अब आलोचक इस सरलीकरण से बचने लगे हैं और मानने लगे हैं कि प्रतिक्रिया के अतिरिक्त आन्दोलन का एक ऐतिहासिक महत्व होता है। जिस प्रयोगवाद को प्रगतिवाद का प्रतिक्रियास्वरूप माना जाता है उसमें प्रगतिवाद के स्वरों की प्रबलता है।'

इसी परिप्रेक्ष्य में वे नयी कविता में सिर्फ नये मूल्य, नये भावबोध, नया शिल्प ही नहीं देखते। उनके अनुसार इसमें यदि वैयक्तिक अनुभूति को स्थान मिला तो यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी । वे मानते हैं कि नयी कविता का स्वर एक नहीं विविध है। साठोत्तरी कविता पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि साठोत्तरी कविता में व्यंग और विडम्बना का स्वर काफी प्रभावकारी है, विशेषकर धूमिल, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के यहाँ। लेकिन इन कविताओं की अर्थवत्ता फिर इसमें है कि विद्रोह, खीज और बौखलाहट के पीछे शोषित मनुष्य के प्रति गहरी आत्मीयता है। सातवें दशक की कविता के खीज, विद्रोह के विकास के ही रूप में वे आठवें दशक को देखते हैं जहाँ आक्रामकता और विद्रोह का स्वर मंद पड़ जाता है और पूर्ववर्ती आत्मीयता में से ही सकारात्मक दृष्टि विकसित होती है।

नवें दशक की कविता पर टिप्पणी करते हुए आलोक गुप्त कुछ रोचक बातें कहते हैं। मसलन विचारधारा सीधे कविता की सहायता नहीं करती जब तक कि उसे कवि द्वारा आत्मसंघर्ष के द्वारा अर्जित न किया जाय। कहने के लिए यदि कुछ न हो तो शिल्प साधना बेकार होती हॅै। इस दौर की कविताएँ उनके अनुसार माक्र्सवाद और आधुनिकतावाद के प्रचलित और पारम्परिक द्वैतसाँचे को अस्वीकार करती हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि अपनी काव्यवस्तु क्या चुनता है, महत्वपूर्ण यह ळै कि कवि कहाँ खड़ा है, किस जगह से बातें कर रहा है। सहज काव्य भाषा समकालीन कविता का विशेष गुण बन गया है, लेकिन यह सरलता और सहजता, सूक्ष्मता और जटिलता का विलोम नहीं।

आलोक गुप्त ने केदारनाथ सिंह, सुल्तान अहमद, फूलचन्द गुप्ता जैसे कवियों पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत की हैं। गुजरात से जुड़े होने के कारण उन्होंने गुजरात की समकालीन कविता पर भी लिखा है। कविता का अनुवाद, प्रेमचंद की कहानियाँ, राग दरबारी की प्रति ऑंचलिकता, रामकथा और स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, मिथक का कलात्मक विनियोग, परती परिकथा, स्वातंत्र्योत्तर ग्राम जीवन और हिन्दी गुजराती उपन्यास, गुजरात का स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लेखन आदि उनके अन्य महत्वपूर्ण लेख हैं।

इस प्रकार देखें तो आलोक गुप्त की आलोचना में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्थान छिपे हुए हैं। आलोक फतवेबाजी के अतिरेकों से बचते हैं और निष्कर्षात्मक जल्दबाजी से बचते हुए अपनी विश्लेषण क्षमता का प्रयोग करते हैं। जहाँ वे हिन्दी के पूर्ववर्ती आलोचकों से स्वयं को सहमत पाते हैं, उसे बताने में वे कतई संकोच नहीं करते। वे दूसरे की बातों पर अपनी मोहर लगाकर बेचने में विश्वास नहीं करते। इसी कारण उनकी बातें अक्सर पूरी आलोचना परम्परा से छन कर आती हैं और उसे समृध्द बनाने में अपने आलोचकीय श्रम को सार्थक समझती हैं। उन्हे प्रदान किया जा रहा डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान एक संतुलित आलोचना दृष्टि के आलोचक का सम्मान है जिनसे हिन्दी आलोचना को गंभीर और विचारोत्तेजक लेखन की उम्मीद है। डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान प्राप्त करने के अवसर पर मैं उन्हें बधाई देता हूँ।



रघुवंशमणि
बाँदा
23-09-2007

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