Thursday, September 27, 2007

कुपत्र

कुपत्र
प्रिय मणि जी 21.9.07
नमस्कार
आषा हेै आप साहित्य कर्म में लीन होंगे। निराला की तोड़ती पत्थर वाली कविता की मजदूरनी की तरह। यह उपमा यदि ठीक नहीं लगी तो मैं आप को मर्दवादी समझूंगा और किसी ब्लागिये से मिल कर आप को बदनाम भी कर सकता हूु। इसलिये इसे स्वीकार करने मे ही आप अपना भला समझेंगे।ऐसा मेरा विष्वास है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप को नारी समर्थक कहा जाएगा और आप की प्रगतिषीलता पर अगर किसी को किसी कारण कभी संदेह रहा होगा तो वह अपने आप को ठीक करने के लिये बाध्य होगा क्योकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे नारी विरोधी समझा जाएगा। इस प्रकार, आप समझ सकते हैं ंकि मेरे द्वारा आप को जो उपमा दी गई है, वह नारी कल्याण्ा की दिषा में एक ऐसी क्रा्रंति का सूत्रपात करेगा ंकि सारे मर्दाें में नारी समर्थक होने या दिखने की होड़ लग जाएगी और देखते ही देखते नारी आंदोलन अपनी प्रत्याषित या अप्रत्याषित परिणति तक अतिषीध्र पहुंच जाएगा। हां, यह जरूर है ंकि इस परिणति की तीब्रता मर्दों की आंखो में इतनी भभ्भाहट पैदा करेगी ंकि बहुत से मर्द अपनी आंखों पर काला चष्मा चढा कर नारियों को घूरते हुए उनकी प्रषंसा का प्रगतिगान करेंगें। परिण्ााम यह होगा ंकि यह नारी आंदोलन जितनी तेजी से उत्थान की सीढ़ियां चढ़ कर अपने एवरेस्ट का निर्माण करनें में कामयाब होगा, उतनी ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो जाएगा। नारी आंदोलन की अग्रणी नारियां अपनी आजादी की नषीली सफलता से बोर होकर पुन: अपने घरों में लौट जाएंगी और आप तो जानते ही हैं ंकि नारी घर में लौटी नहीं ंकि उसे गृहिणी बनाने में पुरूष को तनिक भी देर नहीं लगेगी।
मणि जी, मुझे क्षमा करेंगे ंकि अपने को उपमावादी कालिदास का आधुनिक वंषज सावित करने के लोभ में आप के साहित्य कर्म को मैंने जिस उपमा से नवाजा, मैं नहीं जानता था ंकि उसका तार्किक परिणाम इतना द्विधर्मी या विधर्मी होगा ंकि प्रगतिषील और प्रतिक्रियावादी --दोनों इसका अपने अपने ढंग से मजा लेंने का अवसर पा लेंगे। मुझसे सबसे बड़ी भूल यह हुई ंकि मैं यह भूल ही गया ंकि तुलसी के इस देष में ऐसा कोई नहीं है जो घ्अवसर चूके पुनि पछितैहैं वाला उपदेष गांठ बांध कर नहीं चलता । यकीन मानें, यदि यह जानता तो ऐसा कदापि न करता । मगर अब तो क्षमा याचना के अलावे कोई रास्ता भी नहीं बचा है। जो लिख चुका उसे वापस कैसे लिया जाता है, यह हमें अभी सीखना है। यह सीखने में कितना सफल हो पाउंगा ओैर कितना योगाभ्यास करना पड़गा, यह अभी भविष्य के गर्त में है।फिलहाल तो मै यही कहना चाहता हूं ंकि आप मुझे इस अपराध के लिए साहित्य के गर्त में (गर्तवादी साहित्य का उभार इस दषक की ताजी घटना है।)जाने का अभिषाप दे डालें , इसके पहले मैने आप से माफी मांग लिया है। मैने सुना है आप ने बहुत से साहित्यिक अजामिलों को माफ करने का कीर्तिमान स्थापित ंकिया है। यदि आप ने माफ कर दिया तो आप के कीर्तिमान के तापमान में इजाफा ही होगा और हमारा साहित्यजगत आप की कीर्तिश्री के चकाचौंध से बचने के लिये नीचता का फोटोका्रेमिक चष्मा लगाने मे तनिक देर नहीं करेगा, यह भी मैं जानता हँॅू। बहरहाल, अपनी मूर्खता के आवेग में मैनें साहित्य के सीधे से सवालों पर सीधे-सीधे सोचने, या कहें ंकि बनी बनाई लीक को पीटकर संतुष्ट हो जाने के आजमाए रास्ते को र्छोड़कर तर्क के जिस लपेटे में अपने को फंसा दिया है उसी का परिण्ााम है ंकि बात कहां से चलकर कहां पहुंच गई और अंतहीन हरिकथा का अंत यह हुआ ंकि अपनी नारी विरोधी छवि से निकलने की हमारी हर चेष्टा हमें अंतत: वहीं पहुंचा देती है जहां से निकल भागना मेरा स्वप्न रहा है। साहित्य में तर्क की यही सबसे बडी ख़ूबी या खामी है ंकि इसकी आंत जटिल रूप से इतने पेंचोखम में उलझी होती है कि इसकी वास्तविक लम्बाई का अंदाजा पाना तो दूर की बात है, यह तक नहीं पता चल पाता ंकि इसका मॅुह ंकिधर है। कहां से चलेेंगे तो कहां पहुंचेंगे। सो अपनी बात को कहीं न कहीं अधूरा ही छोड़ना पड़ता है--जैसे रामचरितमानस की इतनी मोटी पोथी लिखनेवाले तुलसी को भी आखिर कहना ही पड़ा। मै कोई तुलसी नहीं । मगर उनके बाद के जमाने मे पैदा होने का एक यह लाभ तो मिला ही है ंकि जो बात उन्होंने इतनी मोटी पोथी लिख कर सीखी उसे मैने उनसे ही विना कोई पोथी लिखने का जहमत उठाए ही सीख लिया। उनकी सीख का ही प्रभाव है ंकि इस षैतान की आंत को यहीं काट रहा हूं। अच्छा हो आप हम मिलजुल कर एक दूसरे की खामियों की सरे-आम बखिया उधेडें । घ्यान बस इतना रहे ंकि हम एक क्षण के लिये भी न भूलें ंकि यह एक खेल है जिसे अगर समझदारी से ओैर फाउल होने के खतरों से बचते हुए खेला जाय तो यह आपसी मेलजोल को ओैर अधिक बेलौस ओैर प्रौढ़ बनाता है । आजकल इसी का नाम हिन्दी साहित्य है। सुप्त भारतीय मनीषा को नये ज्ञानोदय से आलोकित करने का नया प्रयास।
सादर
साहित्य का छिद्रान्वेषी
कपिलदेव

No comments: