Thursday, September 13, 2007

आस्था से बढ़कर है विवेक

डायरी

आस्था से बढ़कर है विवेक

रामसेतु विवाद में लगातार यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत और श्रीलंका के बीच का यह उथला समुद्र हिन्दू आस्था से जुड़ा मुददा है। वहाँ की गहराई इसलिए बढ़ाई नहीं की जा सकती क्योंकि वहाँ भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने कभी पुल बनाया था। भगवान का कोई भी मामला हो तो बात श्रध्दा और आस्था की हो जाती है। विवेक को बगल कर दिया जाता है। आजकल आस्था पर चोटें भी जल्द ही लग जाती हैं। कभी मुस्लिम आस्था पर चोट लगती है तो कभी हिन्दू आस्था पर। बातें बड़ी जल्दी नाजुक हो जा रही हैं। कभी एक पुस्तक ही पूरी आस्था को तोड़ती नज़र आती है, तो कभी कोई फिल्म या पेन्टिग। शायद यह समय ही ऐसा है कि जोर आस्थावादियों का ही है। आस्थावादियों का हिंसक हो जाना भी प्राकृतिक तथा स्वाभाविक लगने लगा है। हालांकि यह उचित नहीं और आस्थावादियों को भी इस विषय पर सोचना चाहिए।

रामसेतु विवाद का राजनीतिक पक्ष भी है जिसे सभी लोग जान रहे हैं। बात ज्यादा स्पष्ट इसलिए हो जा रही है क्योंकि इस आन्दोलन का पूरा जिम्मा एक ही राजनीतिक पार्टी ने उठा रखा है। अखबारों में भी वही चेहरे हैं और वही भगवा ध्वज और वही त्रिशूल जिन्हें हम दस-पन्द्रह बरस से बार-बार देखते रहे हैं। कभी अयोध्या में तो कभी गुजरात में। कुछ भी हो अब लोगों से बात छिप नहीं पाती है क्योंकि राजनीति की नंगई ने लोगों को जानकार बना दिया है। सामान्य आदमी तक अब जागरूक हो चुका है। रिक्शावाला भी कहता है कि अरे साहब ये सब तो वोट लेने के लिए ही हैA तो फिर पढ़े लिखों की बात क्या की जाय? वे मजे के लिए कुछ बहस कर लेते हैं, कभी पक्ष में तो कभी विपक्ष में। मामला फॅंसता है तो बस कुछ पार्टी प्रतिबध्द बुध्दिजीवियों में जो लड़ने-मरने पर उतारू हो जाते हैं।

तो फिर आस्था ही सब कुछ क्यों हो जाती है? क्या हमारे जनतंत्र में इसी तरह के राजनीतिक और धार्मिक फतवे चलते रहेंगे? आखिर हम किसी धार्मिक शासन में तो रह नही रहे। भारत और ईरान में बड़ा फर्क है। अब यह कुतर्क तो नहीं करना चाहिए कि जो कुछ भी धार्मिक पुस्तकों में लिखा है वह इतिहास है। अगर वह इतिहास हो भी तो उसके लिए वर्तमान की बलि देने की क्या जरूरत? आखिर हम इतिहास के उन अवस्थाओं की शैशवावस्था से काफी आगे आ चुके हैं।

हमने बहुत से ऐसे काम किये हैं जो पुराने धर्म संबंधी विचारों के विरोधी हैं या अपवर्जी हैं, और वह भी इसलिए कि उनसे हमारा व्यापक लाभ रहा है। आखिर यह राजनीति भी तो छिछले लाभ के लिए ही है। बहुत सी धार्मिक बातें हमें इसलिए छोड़नी पड़ी कि वे विवेक सम्मत नहीं थीं। आखिर आज कौन यह मान सकेगा कि धरती गाय के सींग पर टिकी हुई है या यह कि धरती चिपटी है? हम रोज हजारों ऐसे काम करते हैं जो पुरानी धार्मिक पुस्तकों के कहे के अनुरूप नहीं हैं। उनके विश्वास और विचार हमारे लिए खास काम के नहीं। वहाँ हम विवेक का इस्तेमाल करते हैं तो फिर बार-बार हमें आस्था के नाम पर क्यों उत्तेजित किया जाता है। यहाँ हम विवेक का प्रयोग क्यों नहीं कर पाते।

सवाल यह नहीं है कि रामसेतु के उथले समुद्र को गहरा किया जाय या नहीं। सवाल यह है कि कब तक हम अपने को विवेक का इस्तेमाल करने योग्य नहीं बनने देंगे और इस तरह कूपमण्डूक बने रहेंगे?



रघुवंशमणि

3 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

आस्था (faith) और विवेक (the power of discrimination) में अगर द्वन्द्व हो तो विवेक को प्राथमिकता मिलनी चाहिये. यह वेदांत का कथन है.
पर यहां द्वन्द्व है क्या? और अगर द्वन्द्व है भी तो विवेक क्या कहता है?

रघुवंशमणि said...

Wartaman mein khare hokar bhawish ki taraf dekhen, Bhoot ki taraf nahi.

suwan said...

aastha per saval uthate ho,
apne ghar nehi loutna chate ho?
chodo ye bahas,aao sadak per chale,
bheed me khud ko shamil kar le'
verna "ramdas" ki niyati hogi,
jo na socha kabhi aaisi gati hogi
jai sri ram!