समीक्षा
प्रजातंत्र के पराभव की कहानी
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रघुवंशमणि
हिंदी साहित्य में व्यंग लेखन की स्थिति पहले से ही बहुत अच्छी नहीं रही है। इसलिए यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा रहा है और अक्सर व्यंग के नाम पर बेहद सतही चीजें ही सामने आती रही हैं। हिन्दी व्यंग लेखन को समृध्द करने वाले हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के दिवंगत होने के बाद इस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंगकारों में से एक हैं। श्रीलाल शुक्ल के नाम राग दरबारी जैसा उपन्यास है जिसकी स्थिति व्यंग की उनकी अपनी भंगिमा के कारण हिन्दी उपन्यासों में बिल्कुल अलग रही है। राजकमल प्रकाशन ने हाल में उनके लेखों का एक संग्रह जहालत के पचास साल प्रकाशित किया है जिसमें शुक्ल जी के छोटे बड़े व्यंगों को इकठ्ठा छापा गया है। उनके द्वारा पिछले पचास सालों में लिखे गये इन लेखो को पढने का एक अलग ही आनन्द है। साथ ही हिन्दी के एक महत्वपूर्ण व्यंगकार के रचनात्मक विकास के विभिन्न पक्षों को देखने समझने का अवकाश भी यह संग्रह देता है। यह जरूर है कि श्रीलाल शुक्ल के पुराने पाठकों को इसमें प्रकाशित बहुत सी रचनाएँ पूर्व परिचित ही लगेंगी। अंगद के पाँव, यहाँ से वहाँ, उमराव नगर में कुछ दिन, कुछ जमीन की कुछ हवा में, आओ बैठें कुछ देर जैसी चर्चित और पठित रचनाओं के पाछकों के लिए जहालत के पचास साल व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल का कलेक्टेड वर्क जैसा होगाा। इस अर्थ में इसका प्रकाशन वास्तव में एक घटना है।
जहालत के पचास साल के व्यंग काफी व्यापक जमीन रखते हैं। वे वाकई पिछले पचास सालों के बारे में काफी कुछ कह जाते हैं। बातें टुकड़ों में अवश्य आती हैं क्योंकि व्यंगों की साइज आम तौर पर छोटी हैं लेकिन दुकड़ों 2 में ही देश के पिछले पचास साले का अच्छा खासा लेख जोखा है। भ्रष्टाचार और कुशिक्षा अधिकतर व्यंगों के मूल में है। नौकरशाही से पूरी तरह परिचित और उसी में जीवन गुजारने वाले शुक्ल जी का यह प्रिय विषय है। जाहिर है कि इस संग्रह में ऐसे व्यंग बहुतायत में हैं जिनका नौकरशाही से किसी न किसी प्रकार लेना देना है। राजनीति तो ऐसी चीज हो गयी है कि उसपर कलम चलाए बिना किसी भी व्यंगकार को मुक्ति नहीं। श्रीलाल शुक्ल किसी राजनीतिक प्रतिबध्दता से जुड़े रचनाकार नहीं हैं मगर सामाजिक यथार्थ से वे बचने का प्रयास कतई नहीं करते। वे वस्तुस्थितियों में भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियों की खोज करने वाले लेखक हैं, अपनी सारी विनोदप्रियता और मस्ती के बाद भी वे हिन्दी समाज के इस बुरे पक्ष को प्रस्तुत करने से बच नहीं पाते। ये विसंगतियॉ अंतत: सामान्य आदमी को ही अपना शिकार बनाती हैं। जहालत के पचास साल भारतीय प्रजातंत्र के पिछले पचास सालों की पतनगाथा है।
ऐसा लगता है कि श्रीलाल शुक्ल इस बात का ध्यान रखते हैं कि रचना में वैचारिकता का बोझ न आने पाये, मगर अपनी सामाजिक चेतना के चलते वे विचारात्मकता को अपनी रचनाओं मेें स्थान देते हैं। वे स्वयं ऐसा मानते रहे हैं कि उनकी प्रारंभिक रचनाओं में सामग्री ऐसी थी जिससे किसी का बहुत नफा नुकसान नहीं होना था। मगर बाद की रचनाओं में व्यंग पर सान प्रखर वैचारिकता ही चढ़ा सकी है। जहालत के पचास साल की रचनाएँ इस ओर संकेत करती हैं कि श्रीलाल शुक्ल के व्यंग लेखन का रास्ता एक यात्रा की तरह है जिसमें विभिन्न पड़ाव हैं। इन पड़ावों को कोई भी सूक्ष्मपाठ रेखांकित कर सकता है। शुरू के व्यंगों का हार्स लाफ्टर बाद में गंभीर होता गया है और उमरावनगर में कुछ दिन तक पहुँचते पहुँचते रचना में एक गहरा अनुशासन झलकने लगता है। इस प्रकार दृष्ठि और शैली दोनों के फर्क लेखक के विकास की दिशा को संकेतित करते हैं
श्रीलाल शुक्ल के काफी व्यंग ऐसे हैं जिनमें विषयवस्तु साहित्य है और साहित्य में भी खासकर कविता। यह कविता का एक व्यंग लेखक द्वारा किया गया पाठ है। यदि यह कविता का उत्तरपाठ है तो इसे हास्योत्तरपाठ कहना बेहतर होगा। आधुनिक कविता का भक्तिकाल, धुड़सरी का काव्यपाठ, साहित्योद्यानसुमनगुच्छा आदि कविता की संस्कृति की बखिया उधेड़ते हैं। निराला के बहाने साहित्य चर्चा में उनका निशाना साहित्य की सत्तावादी संस्कृति है जिसका शिकार स्वयं निराला का साहित्य हो गया है। साहित्यिक सन्दर्भ श्रीलाल जी के यहाँ भरे पड़े हैं और वे उन्हे जमकर व्यंग और हास्य के स्त्रोत के रूप में करते हैं। 'स्वर्णग्रंाम और वर्षा','बया और बन्दर की कहानी','कालिदास का संक्षिप्त इतिहास' जैसे व्यंग यह बतातें हैं कि साहित्य को व्यंग के प्रहारो ंसे नहीं बचाया जा सकता क्योंकि विसंगतियाँ बहॉ कुछ कम नहीं। लेकिन यह सब उनके साहित्य के गंभीर पाठक होने के अगंभीर लगने वाले प्रमाण हैं।
व्यंग एक ऐसी चीज है जो विधाओं की सीमा को अतिक्रांत करती है यद्यपि यह एक सच है कि व्यंग अपने में गद्य की एक विधा भी है, यह उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि विधाओं में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करती रहती है। श्रीलाल शुक्ल का लेखन भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन उनके किसी भी सुधी पाठक के लिए वे मुख्यत: गल्प विधा के ही दायरे में व्यंग लिखने वाले लेखक हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो राग दरबारी ही होगा मगर जहालत के पचास साल में भी प्रमुखता इसी प्रकार के व्यंगों की है। उनके कुछ व्यंग जरूर शोध पत्र से लेकर आलोचना और समीक्षा तक की शैली में लिखे गये हैं। तथापि इस पुस्तक में संकलित तमाम व्यंग कहानी पढने जैसा आनन्द देते हैं। 'द ग्रैंड मोटर डाइविंग स्कूल', 'अंगद के पाँव','कुत्ते और कुत्ते',और 'धोखा' जैसे व्यंगों का पाठानन्द कहानी जैसा ही है। उमरावनगर में कुछ दिन तो लगभग उपन्यासिका जैसी चीज है। 'अंगद के पाँव' जैसी रचना में लोगों की प्रतिक्षण की मानसिकता को श्रीलाल शुक्ल किसी मनोवैज्ञानिक लेखक की तरह उकेरते जाते हैं।
श्रीलाल शुक्ल के व्यंगों में अक्सर हास्य के तत्व अधिक प्रबल हो जाते हैं। हास्य और व्यंग का मिश्रण तो सामान्य बात है और अक्सर इनमे फर्क कर पाना भी बहुत सरल नहीं होता। दोनों के लक्ष्य भी लगभग एक जैसे होते हैं। हास्य का पुट रचना को ज्यादा स्वीकृति योग्य बनाता है और लेखक के विरोधियों तक के लिए वह पठनीय हो जाती है। ऐसे में मनोरंजन के चलते जनसामान्य तक के लिए शुक्ल जी के निबन्ध अधिक ग्राह्य होजाते हैं। मगर इससे कहीं कहीं लेखन में गंभीरता की क्षति भी होती है। यही कारण है कि परसाई जैसे लेखक की ऊॅंचाई बनी रहती है। श्रीलाल शुक्ल में हर जगह ऐसा भी नहीं, वे गंभीर भी हैं जैसे अपने 'पंडित, ठाकुर, लाला, बाबू, मुशी आदि' जैसे व्यंग में, मगर इधर के हिन्दी व्यंगकारों को पढ़ते समय एक कमी सी महसूस होती है जिसका नाम हरिशंकर परसाई है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि व्यंग की धार नहीं बनी है। वह लगातार बनी रहती है और समाज की विसंगतियों पर लगाातार प्रहार करती रहती है। पिछले पचास वर्षें के भारतीय समाज की विसंगतियों की पूरी खोज खबर लेने वाले व्यंग, मूल्यों के लिए ही एक सीधा संघर्ष हैं। 'दि ग्रैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल' जैसी रचना का निरंतर हास्य, अंत में निहायत ही राजनीतिक हो जाता है जिसमें उस्ताद ट्रेनर कार के बोनट पर झुककर एक झटकू व्याख्यान दे डालते है कि हर जगह गलत आदमी है तो फिर उनके गलत होने पर आपत्ति क्यों? वाकई यथार्थ भी तो यही है। यह व्यंग यथार्थ का अन्वेषण कहाँ तक, किस तरह और कितने प्रभावी ढंग से कर पाता है, यही महत्वपूर्ण है। कहीं कहीं व्यंग की धार जोनाथन स्विफ्ट जैसे व्यंगकारों की याद दिला देती है। अगली शताब्दि का शहर का आफिसर अध्यक्ष रिहाइशी कालोनी में सुअरों की अनिवार्यता पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि रिटायरमेंट के बाद वे कालोनी में रहेंगे तो सुअरों की कमी पूरी हो जायेगी।
हास्य व्यंग की एक शैली के रूप में श्रीलाल शुक्ल कैरीकेचरिंग का इस्तेमाल करते हैं। वे पात्रों को विरुपित करते हैं और उनके अवगुणों को प्रस्तुत करने के लिए उन्हें इसी तरह सामने करते हैं। वे चीजों को कुछ इसतरह बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि पाठकों के समक्ष विद्रूप स्पष्ट हो जाते हैं। यह एक तरह से वास्तविकता का यथातथ्य चित्रण नहीं है अपितु उसे अपनी अवस्थिति से प्रस्तुत करना है। श्रीलाल शुक्ल के लेखन की एक विशेषता या गड़बडी यह होगी कि वे वस्तुस्थ्िति को इस परिहासप्रियता के साथ प्रस्तुत करते हैं कि साहित्य की आलोचनात्मक रूढ़ियों से परे वे समाज के पात्रों के साथ खडे होकर वर्चस्वी व्यवस्था की आलोचना करनें का प्रयास करते लगते हैं। इस कार्य में अक्सर उनकी परिहासप्रियता उन्हें इनसाइडर जैसा बनाये रखती है। परिणामत: पाठकों में व्यवस्था के प्रति विरक्ति के स्थान पर आनन्दभाव आ जाता है। मगर यदि पाठक विचारशील है तो वह हँसने के बाद सोचेगाा कि वह किस बात पर हंस रहा है। संभव है कि वह ऐसा न भी करे।
जहालत के पचास साल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संकलित व्यंगों को यदि एक तरफ से पढ़ा जाय तो हमें गुजरे पचास सालों की कुछ छायाएँ दिखाई देंगी। ये छायाएँ बीते हुए समय से इन व्यंगों में उतरती हैं। व्यंग लेखन वैसे भी ऐकांतिक नहीं होते मगर श्रीलाल के इन व्यंगों में इतिहास के निशान सीधे मिल जाते हैं। चन्द ख़तूत-जो हसीनों के नही हैं में सलमान रुश्दी के सैटनिक वर्सेज का हवाला आता है तो होरी और उन्नीस सौ चौरासी में जार्ज ऑरवेल के उपन्यास का जिक्र है जिसकी चर्चा 1984 में बड़े पैमाने पर हुई थी। लकीर का साँप में फैजाबाद के सहमत प्रदशर्नी का हवाला है जिसमें धर्मिक कट्टरतावादियों नें प्रदर्शनी पर हल्ला बोल दिया था। राजीव गााँधी, हर्षद मेहता, मंदिर आन्दोलन की सब्जी पूड़ी आदि का जिक्र श्री लाल शुक्ल के व्यंगों को समय की पृष्ठभूमि प्रदान करता है।
श्रीलाल शुक्ल की भाषा को लेकर काफी चर्चा होती रही है, विशेषकर उनके उपन्यास राग दरबारी की भाषा को लेकर। उनके वाक्य अक्सर सीधी गति में न चलकर सर्पीले रास्ते अख्तियार करते हैं। मगर कहीं सादगी भी पाठकों को लुभा जाती है। कहीं कहीं तो पूरी नाटकीयता वाक्य संरचना में ही दिखती है जिसकी तिर्यकता पाठकों को प्रभावित करती है। भाषा का प्रवाह कई जगह गल्पकारों जैसा सफल है और यह व्यंग की पठनीयता का प्रमुख कारण है। अलग अलग व्यंगों में भाषा का वैभिन्य होते हुए भी यहाँ अभिव्यक्ति का चुटीलापन प्रभावोत्पादक है। यह हिन्दी के उस पुष्ट गद्य का उदाहरण है जिसमें प्रयोगधर्मिता की कोई कमी नहीं। यह निहायत ही आश्चर्यजनक है कि इस पुस्तक में वर्तनी की बहुत सी अशुध्दियाँ रह गयी हैं। आखिर एक व्यंगकार की कुति में इतनी विडंबना के लिए स्थान बचना ही चाहिए वगर्ना बाकी लिखे पढ़े से फर्क ही कैसा?
आज के दौर में व्यंग लेखन एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयीं हैं कि व्यंग का प्रभाव कम होता जा रहा है। समाज में वास्तविक परिस्थितियाँ ही इतनी विडंबनापूर्ण हो गयी हैं कि व्यंग की धार को बनाये रखना बहुत कठिन होता जा रहा है। बार बार यह बात दिमाग में आती है कि अब नये शस्त्रों की जरूरत है। मगर यदि सामाजिक परिथितियाँ ही ऐसी हैं तो उसके लिए व्यंगकार को कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल के पिछले पचास सालों के दौरान लिखे गये ये व्यंग इसी ओर संकेत करते हैं कि समाज में जो सुधार होने चाहिए थे, वे नहीं हो पाये हैं। यह हमारे प्रजातंत्र का पराभव है, हमारे लेखक का नहीं।
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समीक्षित कृति: जहालत के पचास साल
रचनाकार: श्रीलाल शुक्ल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 395 रूपये मात्र
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Sunday, September 30, 2007
Friday, September 28, 2007
बिछलन भरी जमीन पर आलोचना का संतुलन
बिछलन भरी जमीन पर आलोचना का संतुलन
रघुवंशमणि
कुछ दिनों पहले हिन्दी साहित्य में ज्ञानोदय पत्रिका में प्रकाशित विजय कुमार के लेख पर लम्बा विवाद छिड़ा। इस विवाद में हिन्दी आलोचना के कई काले पक्ष नज़र आये। विवादों में न केवल अतिरेकपूर्ण बातें सामने आयीं बल्कि आपसी आरोप-प्रत्यारोप बढ़कर गाली-गलौज के स्तर तक पहुँचे। स्वस्थ वाद-विवाद किसी भी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण होता है पर अतिरेकपूर्ण वक्तव्यों और अपशब्दों तक पहुँचने वाले आरोपों-प्रत्यारोपों से साहित्य का कुछ भला नहीं होने वाला। बस होता इतना ही है कि कुछ लोग इस प्रकार चर्चा में आ जाने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में यदि कोई आलोचक चुपचाप और गंभीरतापूर्वक अपने कार्य में सन्नध्द है और अपने दायित्वों का जिम्मेदारी के साथ पालन कर रहा है तो यह सराहनीय है। आलोक गुप्त हिन्दी के ऐसे ही आलोचक हैं जो हिन्दी क्षेत्र से थोड़ा अलग बैठे आलोचना के कार्यभार का गंभीरतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।
आलोक गुप्त की इधर प्राकशित आलोचना पुस्तकों में मुक्तिबोध: युगचेतना की अभिव्यक्ति रेखांकित करने योग्य कृति है। इस आलोचना कृति में उन्होने मुक्तिबोध जैसे लेखक के विभिन्न पक्षों पर विचार किया है जिनकी रचनाएँ विवाद का विषय रही हैं। अक्सर मुक्तिबोध की रचनाओं को लेकर विभिन्न प्रकार के आलोचना विमर्श बनते रहे हैं। डॉ राम विलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह में मुक्तिबोध को लेकर मतान्तर रहे है। अपनी प्रतिबध्दताओं के साथ आलोक गुप्त मुक्तिबोध की कविताओं पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करते हैं।
यह कृति मुक्तिबोध के समस्त कृतित्व पर एक व्यवस्थित कार्य है जिसमें उनकी सर्जनात्मक कृतियों से लेकर उनकी आलोचनात्मक कृतियों तक को अध्ययन के दायरे में लाया गया है। आलोक गुप्त मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के लिए उसकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाते हैं। फिर वे मुक्तिबोध के साहित्य चिन्तन, उनकी कविता, उनके कथा साहित्य पर विचाार करते हुए उनके युगबोध तक पहुँचते हैं। यहाँ एक शोधकर्ता की सन्नध्दता और आलोचक का तीक्ष्ण विवेक दोनों एक साथ सक्रिय दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मुक्तिबोध के बारे में फैले कई आग्रहों का परिहार भी होता है।
आलोक गुप्त मुक्तिबोध की रचनाओं को वर्गीय चेतना के आधार पर देखते हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध मध्यवर्ग के लेखक हैं। मध्यवर्ग में भी निम्नमध्यवर्ग के। अपने वर्ग से गहराई से जुड़े होने के कारण ही वे उसकी सीमाओं और संभावनाओं को सही तरीके से जान सके हैं। उनके सामने मघ्यवर्ग का एक बड़ा समुदाय था जो अपनी जिजीविषा और मानवीयता के होते भी सुविधापरस्त होता जा रहा था। उसकी सुविधापरस्ती पर चिढ़ने या नाराज होने के बजाय मुक्तिबोध उसके कारणों की खोज करते हैं। इसी कारण वे इस जीवन के विभिन्न कोणों को पकड़ पाते हैं। सत्ता के भयानक चित्र भी इसी कारण उनकी कविताओं में आते हैं। क्लाडइथरली जैसी कहानियों में भी चेतनशील मनुष्य को पंगु बनाने वाली व्यवस्था है जो क्लाड ईथरली को एक बार हीरो का खिताब देती है और फिर पागलखाने में कैद कर देती है। परन्तु इस बोध के साथ साथ मुक्तिबोध में मनुष्य शक्ति के प्रति अनन्य आस्था भी है जो उन्हे सकारात्मक के चयन की ओर ले जाता है और उनके साहित्य में मनुष्य निरन्तर भीरुता को छोड़ता हुआ आगे बढ़कर अपना ऐतिहासिक दायित्व भी निभाता है।
मुक्तिबोध के प्रति अपनायी गयी यह संतुलित दृष्टि उनके अन्य आलोचनात्मक विमर्शों में भी दिखलायी पड़ती है। आलोक गुप्त छायावाद पर टिप्पणी करते हुए उसके अन्तर्विरोध के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि यह नयी शिक्षा और राजनीतिक आदर्शवाद तथा प्रतिष्ठित सामन्तीय मूल्यों का अन्तर्विरोध था जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी विद्रोह और निराशा में होती है। प्रगतिवाद को वे कहीं से भी विदेशी न मानते हुए उसे हिन्दी काव्य परम्परा की देन मानते हैं। उत्तरछायावाद की मस्ती और फक्कड़पन के तत्व बच्चन के हालावाद में हैं तो दिनकर की राष्ट्रीय चेतना की कविताओं में भी। वे आधुनिक कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसके लौकिक होने में देखते हैं।
एक आलोचक के रूप में आलोक गुप्त साहित्यिक आन्दोलनों को प्रतिक्रियाओं भर का परिणाम मानने से इंकार करते हैं। वे लिखते हैं:
'हिन्दी आलोचना में सामान्यत: नये आन्दोलनों को पुराने का प्रतिक्रियास्वरूप मान लिया जाता रहा है। जैसे छायावाद की अतिभावुकता और कल्पनाप्रवणता के प्रतिक्रियास्वरूप प्रगतिवाद और प्रगतिवाद की शुष्कता और नारेबाजी के प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवाद या नयी कविता। अब आलोचक इस सरलीकरण से बचने लगे हैं और मानने लगे हैं कि प्रतिक्रिया के अतिरिक्त आन्दोलन का एक ऐतिहासिक महत्व होता है। जिस प्रयोगवाद को प्रगतिवाद का प्रतिक्रियास्वरूप माना जाता है उसमें प्रगतिवाद के स्वरों की प्रबलता है।'
इसी परिप्रेक्ष्य में वे नयी कविता में सिर्फ नये मूल्य, नये भावबोध, नया शिल्प ही नहीं देखते। उनके अनुसार इसमें यदि वैयक्तिक अनुभूति को स्थान मिला तो यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी । वे मानते हैं कि नयी कविता का स्वर एक नहीं विविध है। साठोत्तरी कविता पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि साठोत्तरी कविता में व्यंग और विडम्बना का स्वर काफी प्रभावकारी है, विशेषकर धूमिल, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के यहाँ। लेकिन इन कविताओं की अर्थवत्ता फिर इसमें है कि विद्रोह, खीज और बौखलाहट के पीछे शोषित मनुष्य के प्रति गहरी आत्मीयता है। सातवें दशक की कविता के खीज, विद्रोह के विकास के ही रूप में वे आठवें दशक को देखते हैं जहाँ आक्रामकता और विद्रोह का स्वर मंद पड़ जाता है और पूर्ववर्ती आत्मीयता में से ही सकारात्मक दृष्टि विकसित होती है।
नवें दशक की कविता पर टिप्पणी करते हुए आलोक गुप्त कुछ रोचक बातें कहते हैं। मसलन विचारधारा सीधे कविता की सहायता नहीं करती जब तक कि उसे कवि द्वारा आत्मसंघर्ष के द्वारा अर्जित न किया जाय। कहने के लिए यदि कुछ न हो तो शिल्प साधना बेकार होती हॅै। इस दौर की कविताएँ उनके अनुसार माक्र्सवाद और आधुनिकतावाद के प्रचलित और पारम्परिक द्वैतसाँचे को अस्वीकार करती हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि अपनी काव्यवस्तु क्या चुनता है, महत्वपूर्ण यह ळै कि कवि कहाँ खड़ा है, किस जगह से बातें कर रहा है। सहज काव्य भाषा समकालीन कविता का विशेष गुण बन गया है, लेकिन यह सरलता और सहजता, सूक्ष्मता और जटिलता का विलोम नहीं।
आलोक गुप्त ने केदारनाथ सिंह, सुल्तान अहमद, फूलचन्द गुप्ता जैसे कवियों पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत की हैं। गुजरात से जुड़े होने के कारण उन्होंने गुजरात की समकालीन कविता पर भी लिखा है। कविता का अनुवाद, प्रेमचंद की कहानियाँ, राग दरबारी की प्रति ऑंचलिकता, रामकथा और स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, मिथक का कलात्मक विनियोग, परती परिकथा, स्वातंत्र्योत्तर ग्राम जीवन और हिन्दी गुजराती उपन्यास, गुजरात का स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लेखन आदि उनके अन्य महत्वपूर्ण लेख हैं।
इस प्रकार देखें तो आलोक गुप्त की आलोचना में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्थान छिपे हुए हैं। आलोक फतवेबाजी के अतिरेकों से बचते हैं और निष्कर्षात्मक जल्दबाजी से बचते हुए अपनी विश्लेषण क्षमता का प्रयोग करते हैं। जहाँ वे हिन्दी के पूर्ववर्ती आलोचकों से स्वयं को सहमत पाते हैं, उसे बताने में वे कतई संकोच नहीं करते। वे दूसरे की बातों पर अपनी मोहर लगाकर बेचने में विश्वास नहीं करते। इसी कारण उनकी बातें अक्सर पूरी आलोचना परम्परा से छन कर आती हैं और उसे समृध्द बनाने में अपने आलोचकीय श्रम को सार्थक समझती हैं। उन्हे प्रदान किया जा रहा डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान एक संतुलित आलोचना दृष्टि के आलोचक का सम्मान है जिनसे हिन्दी आलोचना को गंभीर और विचारोत्तेजक लेखन की उम्मीद है। डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान प्राप्त करने के अवसर पर मैं उन्हें बधाई देता हूँ।
रघुवंशमणि
बाँदा
23-09-2007
रघुवंशमणि
कुछ दिनों पहले हिन्दी साहित्य में ज्ञानोदय पत्रिका में प्रकाशित विजय कुमार के लेख पर लम्बा विवाद छिड़ा। इस विवाद में हिन्दी आलोचना के कई काले पक्ष नज़र आये। विवादों में न केवल अतिरेकपूर्ण बातें सामने आयीं बल्कि आपसी आरोप-प्रत्यारोप बढ़कर गाली-गलौज के स्तर तक पहुँचे। स्वस्थ वाद-विवाद किसी भी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण होता है पर अतिरेकपूर्ण वक्तव्यों और अपशब्दों तक पहुँचने वाले आरोपों-प्रत्यारोपों से साहित्य का कुछ भला नहीं होने वाला। बस होता इतना ही है कि कुछ लोग इस प्रकार चर्चा में आ जाने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में यदि कोई आलोचक चुपचाप और गंभीरतापूर्वक अपने कार्य में सन्नध्द है और अपने दायित्वों का जिम्मेदारी के साथ पालन कर रहा है तो यह सराहनीय है। आलोक गुप्त हिन्दी के ऐसे ही आलोचक हैं जो हिन्दी क्षेत्र से थोड़ा अलग बैठे आलोचना के कार्यभार का गंभीरतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।
आलोक गुप्त की इधर प्राकशित आलोचना पुस्तकों में मुक्तिबोध: युगचेतना की अभिव्यक्ति रेखांकित करने योग्य कृति है। इस आलोचना कृति में उन्होने मुक्तिबोध जैसे लेखक के विभिन्न पक्षों पर विचार किया है जिनकी रचनाएँ विवाद का विषय रही हैं। अक्सर मुक्तिबोध की रचनाओं को लेकर विभिन्न प्रकार के आलोचना विमर्श बनते रहे हैं। डॉ राम विलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह में मुक्तिबोध को लेकर मतान्तर रहे है। अपनी प्रतिबध्दताओं के साथ आलोक गुप्त मुक्तिबोध की कविताओं पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करते हैं।
यह कृति मुक्तिबोध के समस्त कृतित्व पर एक व्यवस्थित कार्य है जिसमें उनकी सर्जनात्मक कृतियों से लेकर उनकी आलोचनात्मक कृतियों तक को अध्ययन के दायरे में लाया गया है। आलोक गुप्त मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के लिए उसकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाते हैं। फिर वे मुक्तिबोध के साहित्य चिन्तन, उनकी कविता, उनके कथा साहित्य पर विचाार करते हुए उनके युगबोध तक पहुँचते हैं। यहाँ एक शोधकर्ता की सन्नध्दता और आलोचक का तीक्ष्ण विवेक दोनों एक साथ सक्रिय दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मुक्तिबोध के बारे में फैले कई आग्रहों का परिहार भी होता है।
आलोक गुप्त मुक्तिबोध की रचनाओं को वर्गीय चेतना के आधार पर देखते हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध मध्यवर्ग के लेखक हैं। मध्यवर्ग में भी निम्नमध्यवर्ग के। अपने वर्ग से गहराई से जुड़े होने के कारण ही वे उसकी सीमाओं और संभावनाओं को सही तरीके से जान सके हैं। उनके सामने मघ्यवर्ग का एक बड़ा समुदाय था जो अपनी जिजीविषा और मानवीयता के होते भी सुविधापरस्त होता जा रहा था। उसकी सुविधापरस्ती पर चिढ़ने या नाराज होने के बजाय मुक्तिबोध उसके कारणों की खोज करते हैं। इसी कारण वे इस जीवन के विभिन्न कोणों को पकड़ पाते हैं। सत्ता के भयानक चित्र भी इसी कारण उनकी कविताओं में आते हैं। क्लाडइथरली जैसी कहानियों में भी चेतनशील मनुष्य को पंगु बनाने वाली व्यवस्था है जो क्लाड ईथरली को एक बार हीरो का खिताब देती है और फिर पागलखाने में कैद कर देती है। परन्तु इस बोध के साथ साथ मुक्तिबोध में मनुष्य शक्ति के प्रति अनन्य आस्था भी है जो उन्हे सकारात्मक के चयन की ओर ले जाता है और उनके साहित्य में मनुष्य निरन्तर भीरुता को छोड़ता हुआ आगे बढ़कर अपना ऐतिहासिक दायित्व भी निभाता है।
मुक्तिबोध के प्रति अपनायी गयी यह संतुलित दृष्टि उनके अन्य आलोचनात्मक विमर्शों में भी दिखलायी पड़ती है। आलोक गुप्त छायावाद पर टिप्पणी करते हुए उसके अन्तर्विरोध के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि यह नयी शिक्षा और राजनीतिक आदर्शवाद तथा प्रतिष्ठित सामन्तीय मूल्यों का अन्तर्विरोध था जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी विद्रोह और निराशा में होती है। प्रगतिवाद को वे कहीं से भी विदेशी न मानते हुए उसे हिन्दी काव्य परम्परा की देन मानते हैं। उत्तरछायावाद की मस्ती और फक्कड़पन के तत्व बच्चन के हालावाद में हैं तो दिनकर की राष्ट्रीय चेतना की कविताओं में भी। वे आधुनिक कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसके लौकिक होने में देखते हैं।
एक आलोचक के रूप में आलोक गुप्त साहित्यिक आन्दोलनों को प्रतिक्रियाओं भर का परिणाम मानने से इंकार करते हैं। वे लिखते हैं:
'हिन्दी आलोचना में सामान्यत: नये आन्दोलनों को पुराने का प्रतिक्रियास्वरूप मान लिया जाता रहा है। जैसे छायावाद की अतिभावुकता और कल्पनाप्रवणता के प्रतिक्रियास्वरूप प्रगतिवाद और प्रगतिवाद की शुष्कता और नारेबाजी के प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवाद या नयी कविता। अब आलोचक इस सरलीकरण से बचने लगे हैं और मानने लगे हैं कि प्रतिक्रिया के अतिरिक्त आन्दोलन का एक ऐतिहासिक महत्व होता है। जिस प्रयोगवाद को प्रगतिवाद का प्रतिक्रियास्वरूप माना जाता है उसमें प्रगतिवाद के स्वरों की प्रबलता है।'
इसी परिप्रेक्ष्य में वे नयी कविता में सिर्फ नये मूल्य, नये भावबोध, नया शिल्प ही नहीं देखते। उनके अनुसार इसमें यदि वैयक्तिक अनुभूति को स्थान मिला तो यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी । वे मानते हैं कि नयी कविता का स्वर एक नहीं विविध है। साठोत्तरी कविता पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि साठोत्तरी कविता में व्यंग और विडम्बना का स्वर काफी प्रभावकारी है, विशेषकर धूमिल, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के यहाँ। लेकिन इन कविताओं की अर्थवत्ता फिर इसमें है कि विद्रोह, खीज और बौखलाहट के पीछे शोषित मनुष्य के प्रति गहरी आत्मीयता है। सातवें दशक की कविता के खीज, विद्रोह के विकास के ही रूप में वे आठवें दशक को देखते हैं जहाँ आक्रामकता और विद्रोह का स्वर मंद पड़ जाता है और पूर्ववर्ती आत्मीयता में से ही सकारात्मक दृष्टि विकसित होती है।
नवें दशक की कविता पर टिप्पणी करते हुए आलोक गुप्त कुछ रोचक बातें कहते हैं। मसलन विचारधारा सीधे कविता की सहायता नहीं करती जब तक कि उसे कवि द्वारा आत्मसंघर्ष के द्वारा अर्जित न किया जाय। कहने के लिए यदि कुछ न हो तो शिल्प साधना बेकार होती हॅै। इस दौर की कविताएँ उनके अनुसार माक्र्सवाद और आधुनिकतावाद के प्रचलित और पारम्परिक द्वैतसाँचे को अस्वीकार करती हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि अपनी काव्यवस्तु क्या चुनता है, महत्वपूर्ण यह ळै कि कवि कहाँ खड़ा है, किस जगह से बातें कर रहा है। सहज काव्य भाषा समकालीन कविता का विशेष गुण बन गया है, लेकिन यह सरलता और सहजता, सूक्ष्मता और जटिलता का विलोम नहीं।
आलोक गुप्त ने केदारनाथ सिंह, सुल्तान अहमद, फूलचन्द गुप्ता जैसे कवियों पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत की हैं। गुजरात से जुड़े होने के कारण उन्होंने गुजरात की समकालीन कविता पर भी लिखा है। कविता का अनुवाद, प्रेमचंद की कहानियाँ, राग दरबारी की प्रति ऑंचलिकता, रामकथा और स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, मिथक का कलात्मक विनियोग, परती परिकथा, स्वातंत्र्योत्तर ग्राम जीवन और हिन्दी गुजराती उपन्यास, गुजरात का स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लेखन आदि उनके अन्य महत्वपूर्ण लेख हैं।
इस प्रकार देखें तो आलोक गुप्त की आलोचना में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्थान छिपे हुए हैं। आलोक फतवेबाजी के अतिरेकों से बचते हैं और निष्कर्षात्मक जल्दबाजी से बचते हुए अपनी विश्लेषण क्षमता का प्रयोग करते हैं। जहाँ वे हिन्दी के पूर्ववर्ती आलोचकों से स्वयं को सहमत पाते हैं, उसे बताने में वे कतई संकोच नहीं करते। वे दूसरे की बातों पर अपनी मोहर लगाकर बेचने में विश्वास नहीं करते। इसी कारण उनकी बातें अक्सर पूरी आलोचना परम्परा से छन कर आती हैं और उसे समृध्द बनाने में अपने आलोचकीय श्रम को सार्थक समझती हैं। उन्हे प्रदान किया जा रहा डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान एक संतुलित आलोचना दृष्टि के आलोचक का सम्मान है जिनसे हिन्दी आलोचना को गंभीर और विचारोत्तेजक लेखन की उम्मीद है। डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान प्राप्त करने के अवसर पर मैं उन्हें बधाई देता हूँ।
रघुवंशमणि
बाँदा
23-09-2007
Thursday, September 27, 2007
कुपत्र
कुपत्र
प्रिय मणि जी 21.9.07
नमस्कार
आषा हेै आप साहित्य कर्म में लीन होंगे। निराला की तोड़ती पत्थर वाली कविता की मजदूरनी की तरह। यह उपमा यदि ठीक नहीं लगी तो मैं आप को मर्दवादी समझूंगा और किसी ब्लागिये से मिल कर आप को बदनाम भी कर सकता हूु। इसलिये इसे स्वीकार करने मे ही आप अपना भला समझेंगे।ऐसा मेरा विष्वास है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप को नारी समर्थक कहा जाएगा और आप की प्रगतिषीलता पर अगर किसी को किसी कारण कभी संदेह रहा होगा तो वह अपने आप को ठीक करने के लिये बाध्य होगा क्योकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे नारी विरोधी समझा जाएगा। इस प्रकार, आप समझ सकते हैं ंकि मेरे द्वारा आप को जो उपमा दी गई है, वह नारी कल्याण्ा की दिषा में एक ऐसी क्रा्रंति का सूत्रपात करेगा ंकि सारे मर्दाें में नारी समर्थक होने या दिखने की होड़ लग जाएगी और देखते ही देखते नारी आंदोलन अपनी प्रत्याषित या अप्रत्याषित परिणति तक अतिषीध्र पहुंच जाएगा। हां, यह जरूर है ंकि इस परिणति की तीब्रता मर्दों की आंखो में इतनी भभ्भाहट पैदा करेगी ंकि बहुत से मर्द अपनी आंखों पर काला चष्मा चढा कर नारियों को घूरते हुए उनकी प्रषंसा का प्रगतिगान करेंगें। परिण्ााम यह होगा ंकि यह नारी आंदोलन जितनी तेजी से उत्थान की सीढ़ियां चढ़ कर अपने एवरेस्ट का निर्माण करनें में कामयाब होगा, उतनी ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो जाएगा। नारी आंदोलन की अग्रणी नारियां अपनी आजादी की नषीली सफलता से बोर होकर पुन: अपने घरों में लौट जाएंगी और आप तो जानते ही हैं ंकि नारी घर में लौटी नहीं ंकि उसे गृहिणी बनाने में पुरूष को तनिक भी देर नहीं लगेगी।
मणि जी, मुझे क्षमा करेंगे ंकि अपने को उपमावादी कालिदास का आधुनिक वंषज सावित करने के लोभ में आप के साहित्य कर्म को मैंने जिस उपमा से नवाजा, मैं नहीं जानता था ंकि उसका तार्किक परिणाम इतना द्विधर्मी या विधर्मी होगा ंकि प्रगतिषील और प्रतिक्रियावादी --दोनों इसका अपने अपने ढंग से मजा लेंने का अवसर पा लेंगे। मुझसे सबसे बड़ी भूल यह हुई ंकि मैं यह भूल ही गया ंकि तुलसी के इस देष में ऐसा कोई नहीं है जो घ्अवसर चूके पुनि पछितैहैं वाला उपदेष गांठ बांध कर नहीं चलता । यकीन मानें, यदि यह जानता तो ऐसा कदापि न करता । मगर अब तो क्षमा याचना के अलावे कोई रास्ता भी नहीं बचा है। जो लिख चुका उसे वापस कैसे लिया जाता है, यह हमें अभी सीखना है। यह सीखने में कितना सफल हो पाउंगा ओैर कितना योगाभ्यास करना पड़गा, यह अभी भविष्य के गर्त में है।फिलहाल तो मै यही कहना चाहता हूं ंकि आप मुझे इस अपराध के लिए साहित्य के गर्त में (गर्तवादी साहित्य का उभार इस दषक की ताजी घटना है।)जाने का अभिषाप दे डालें , इसके पहले मैने आप से माफी मांग लिया है। मैने सुना है आप ने बहुत से साहित्यिक अजामिलों को माफ करने का कीर्तिमान स्थापित ंकिया है। यदि आप ने माफ कर दिया तो आप के कीर्तिमान के तापमान में इजाफा ही होगा और हमारा साहित्यजगत आप की कीर्तिश्री के चकाचौंध से बचने के लिये नीचता का फोटोका्रेमिक चष्मा लगाने मे तनिक देर नहीं करेगा, यह भी मैं जानता हँॅू। बहरहाल, अपनी मूर्खता के आवेग में मैनें साहित्य के सीधे से सवालों पर सीधे-सीधे सोचने, या कहें ंकि बनी बनाई लीक को पीटकर संतुष्ट हो जाने के आजमाए रास्ते को र्छोड़कर तर्क के जिस लपेटे में अपने को फंसा दिया है उसी का परिण्ााम है ंकि बात कहां से चलकर कहां पहुंच गई और अंतहीन हरिकथा का अंत यह हुआ ंकि अपनी नारी विरोधी छवि से निकलने की हमारी हर चेष्टा हमें अंतत: वहीं पहुंचा देती है जहां से निकल भागना मेरा स्वप्न रहा है। साहित्य में तर्क की यही सबसे बडी ख़ूबी या खामी है ंकि इसकी आंत जटिल रूप से इतने पेंचोखम में उलझी होती है कि इसकी वास्तविक लम्बाई का अंदाजा पाना तो दूर की बात है, यह तक नहीं पता चल पाता ंकि इसका मॅुह ंकिधर है। कहां से चलेेंगे तो कहां पहुंचेंगे। सो अपनी बात को कहीं न कहीं अधूरा ही छोड़ना पड़ता है--जैसे रामचरितमानस की इतनी मोटी पोथी लिखनेवाले तुलसी को भी आखिर कहना ही पड़ा। मै कोई तुलसी नहीं । मगर उनके बाद के जमाने मे पैदा होने का एक यह लाभ तो मिला ही है ंकि जो बात उन्होंने इतनी मोटी पोथी लिख कर सीखी उसे मैने उनसे ही विना कोई पोथी लिखने का जहमत उठाए ही सीख लिया। उनकी सीख का ही प्रभाव है ंकि इस षैतान की आंत को यहीं काट रहा हूं। अच्छा हो आप हम मिलजुल कर एक दूसरे की खामियों की सरे-आम बखिया उधेडें । घ्यान बस इतना रहे ंकि हम एक क्षण के लिये भी न भूलें ंकि यह एक खेल है जिसे अगर समझदारी से ओैर फाउल होने के खतरों से बचते हुए खेला जाय तो यह आपसी मेलजोल को ओैर अधिक बेलौस ओैर प्रौढ़ बनाता है । आजकल इसी का नाम हिन्दी साहित्य है। सुप्त भारतीय मनीषा को नये ज्ञानोदय से आलोकित करने का नया प्रयास।
सादर
साहित्य का छिद्रान्वेषी
कपिलदेव
प्रिय मणि जी 21.9.07
नमस्कार
आषा हेै आप साहित्य कर्म में लीन होंगे। निराला की तोड़ती पत्थर वाली कविता की मजदूरनी की तरह। यह उपमा यदि ठीक नहीं लगी तो मैं आप को मर्दवादी समझूंगा और किसी ब्लागिये से मिल कर आप को बदनाम भी कर सकता हूु। इसलिये इसे स्वीकार करने मे ही आप अपना भला समझेंगे।ऐसा मेरा विष्वास है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप को नारी समर्थक कहा जाएगा और आप की प्रगतिषीलता पर अगर किसी को किसी कारण कभी संदेह रहा होगा तो वह अपने आप को ठीक करने के लिये बाध्य होगा क्योकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे नारी विरोधी समझा जाएगा। इस प्रकार, आप समझ सकते हैं ंकि मेरे द्वारा आप को जो उपमा दी गई है, वह नारी कल्याण्ा की दिषा में एक ऐसी क्रा्रंति का सूत्रपात करेगा ंकि सारे मर्दाें में नारी समर्थक होने या दिखने की होड़ लग जाएगी और देखते ही देखते नारी आंदोलन अपनी प्रत्याषित या अप्रत्याषित परिणति तक अतिषीध्र पहुंच जाएगा। हां, यह जरूर है ंकि इस परिणति की तीब्रता मर्दों की आंखो में इतनी भभ्भाहट पैदा करेगी ंकि बहुत से मर्द अपनी आंखों पर काला चष्मा चढा कर नारियों को घूरते हुए उनकी प्रषंसा का प्रगतिगान करेंगें। परिण्ााम यह होगा ंकि यह नारी आंदोलन जितनी तेजी से उत्थान की सीढ़ियां चढ़ कर अपने एवरेस्ट का निर्माण करनें में कामयाब होगा, उतनी ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो जाएगा। नारी आंदोलन की अग्रणी नारियां अपनी आजादी की नषीली सफलता से बोर होकर पुन: अपने घरों में लौट जाएंगी और आप तो जानते ही हैं ंकि नारी घर में लौटी नहीं ंकि उसे गृहिणी बनाने में पुरूष को तनिक भी देर नहीं लगेगी।
मणि जी, मुझे क्षमा करेंगे ंकि अपने को उपमावादी कालिदास का आधुनिक वंषज सावित करने के लोभ में आप के साहित्य कर्म को मैंने जिस उपमा से नवाजा, मैं नहीं जानता था ंकि उसका तार्किक परिणाम इतना द्विधर्मी या विधर्मी होगा ंकि प्रगतिषील और प्रतिक्रियावादी --दोनों इसका अपने अपने ढंग से मजा लेंने का अवसर पा लेंगे। मुझसे सबसे बड़ी भूल यह हुई ंकि मैं यह भूल ही गया ंकि तुलसी के इस देष में ऐसा कोई नहीं है जो घ्अवसर चूके पुनि पछितैहैं वाला उपदेष गांठ बांध कर नहीं चलता । यकीन मानें, यदि यह जानता तो ऐसा कदापि न करता । मगर अब तो क्षमा याचना के अलावे कोई रास्ता भी नहीं बचा है। जो लिख चुका उसे वापस कैसे लिया जाता है, यह हमें अभी सीखना है। यह सीखने में कितना सफल हो पाउंगा ओैर कितना योगाभ्यास करना पड़गा, यह अभी भविष्य के गर्त में है।फिलहाल तो मै यही कहना चाहता हूं ंकि आप मुझे इस अपराध के लिए साहित्य के गर्त में (गर्तवादी साहित्य का उभार इस दषक की ताजी घटना है।)जाने का अभिषाप दे डालें , इसके पहले मैने आप से माफी मांग लिया है। मैने सुना है आप ने बहुत से साहित्यिक अजामिलों को माफ करने का कीर्तिमान स्थापित ंकिया है। यदि आप ने माफ कर दिया तो आप के कीर्तिमान के तापमान में इजाफा ही होगा और हमारा साहित्यजगत आप की कीर्तिश्री के चकाचौंध से बचने के लिये नीचता का फोटोका्रेमिक चष्मा लगाने मे तनिक देर नहीं करेगा, यह भी मैं जानता हँॅू। बहरहाल, अपनी मूर्खता के आवेग में मैनें साहित्य के सीधे से सवालों पर सीधे-सीधे सोचने, या कहें ंकि बनी बनाई लीक को पीटकर संतुष्ट हो जाने के आजमाए रास्ते को र्छोड़कर तर्क के जिस लपेटे में अपने को फंसा दिया है उसी का परिण्ााम है ंकि बात कहां से चलकर कहां पहुंच गई और अंतहीन हरिकथा का अंत यह हुआ ंकि अपनी नारी विरोधी छवि से निकलने की हमारी हर चेष्टा हमें अंतत: वहीं पहुंचा देती है जहां से निकल भागना मेरा स्वप्न रहा है। साहित्य में तर्क की यही सबसे बडी ख़ूबी या खामी है ंकि इसकी आंत जटिल रूप से इतने पेंचोखम में उलझी होती है कि इसकी वास्तविक लम्बाई का अंदाजा पाना तो दूर की बात है, यह तक नहीं पता चल पाता ंकि इसका मॅुह ंकिधर है। कहां से चलेेंगे तो कहां पहुंचेंगे। सो अपनी बात को कहीं न कहीं अधूरा ही छोड़ना पड़ता है--जैसे रामचरितमानस की इतनी मोटी पोथी लिखनेवाले तुलसी को भी आखिर कहना ही पड़ा। मै कोई तुलसी नहीं । मगर उनके बाद के जमाने मे पैदा होने का एक यह लाभ तो मिला ही है ंकि जो बात उन्होंने इतनी मोटी पोथी लिख कर सीखी उसे मैने उनसे ही विना कोई पोथी लिखने का जहमत उठाए ही सीख लिया। उनकी सीख का ही प्रभाव है ंकि इस षैतान की आंत को यहीं काट रहा हूं। अच्छा हो आप हम मिलजुल कर एक दूसरे की खामियों की सरे-आम बखिया उधेडें । घ्यान बस इतना रहे ंकि हम एक क्षण के लिये भी न भूलें ंकि यह एक खेल है जिसे अगर समझदारी से ओैर फाउल होने के खतरों से बचते हुए खेला जाय तो यह आपसी मेलजोल को ओैर अधिक बेलौस ओैर प्रौढ़ बनाता है । आजकल इसी का नाम हिन्दी साहित्य है। सुप्त भारतीय मनीषा को नये ज्ञानोदय से आलोकित करने का नया प्रयास।
सादर
साहित्य का छिद्रान्वेषी
कपिलदेव
Friday, September 21, 2007
प्रारम्भ
कविता
प्रारम्भ
एक बच्चा
खींचता है
एक पड़ी लकीर
और एक बेंड़ी
बायीं ओर एक गोला
दायीं ओर एक पूँछ
बना देता है
'क'
यहीं से
शुरू होती है
कविता
इसी तरह
लिखा जाता है
इतिहास
रघुवंशमणि
प्रारम्भ
एक बच्चा
खींचता है
एक पड़ी लकीर
और एक बेंड़ी
बायीं ओर एक गोला
दायीं ओर एक पूँछ
बना देता है
'क'
यहीं से
शुरू होती है
कविता
इसी तरह
लिखा जाता है
इतिहास
रघुवंशमणि
Sunday, September 16, 2007
कुदाल
कविता
कुदाल
एक बार फिर वही सवाल
कि क्या हो इस कुदाल का
शब्दों से भर गया हूँ कुछ इस कदर
कि किसी शोक प्रस्ताव की तरह
मौन रहूँ कुछ क्षण
इस मौन के अन्तस्थल से उभरती है
एक साफ और ठोस आकृति
जो बार-बार उभरती रही है
जब बैठता रहा हूँ
किसी अनुकूलित विचारस्थली में
पड़ी रही है एक कुदाल
मेरे मस्तिष्क के अंधेरों में
बाहर सब कुछ चमकदार है
धूल रहित व्यवस्थित इतना
कि मैं हो जाता हूँ उथल-पुथल
कि क्या करूॅं मैं इस कुदाल का
जो गड़ती है मेरे दिमाग में इस कदर
कि अकेला पड़ जाता है दर्द
यह शायद समायोजन की समस्या हो
जिसका सम्बंध है व्यक्तित्व विकास से
जिसके लोहे पर लगी है गीली मिट्टी खेत की
और पसीने की गंध
उसकी बेंट पर
कैसे रखूं इस कुदाल को
विकसित मस्तिष्क की जटिल बहसों में
जिसकी अत्याधुनिक तकनीक से
हमारे सुसभ्य प्रयासों के बाद भी
रह-रह कर उभरते हैं
जटिल तारों में उलझे
हमारे कुटिल शास्त्रार्थ
संगणक की अगणित माइक्रोचिप्स से
उभरकर प्रदीप्त होती लिजलिजी इच्छाएँ
और बाजार के जालजंजाल में प्रतियोगी सी
आत्मघाती अहम्मन्यताएँ
कोई अलंकरण नहीं है कुदाल
पर यहाँ लगेगी किसी जादुई कल्पना जैसी
हालांकि यह कोई यंत्र तक नहीं
एक निखालिस हथियार भर है अप्रासंगिक
जो नहीं मुख्यधारा की परिभाषा तक में
जिन्हे हाशिये पर ढकेल रहा है समय
उन्हें विस्मृत करके ही न बनें हमारी स्मृतियाँ
ऐसी निरपेक्ष चेतना पर
उस मोंगफली के छिलके
जिसे मैने नानी जैसी बुढ़िया से खरीदे थे
और जिसने राजस्थानी में कुछ कहा था
और मैं मात्र इतना ही समझ सका
कि बेटा सर्दी बहुत तेज है
तेज ठंडक में कोई चला रहा है कुदाल
आती है कोन गोड़ने की आवाज
जिनमें से उभरती हैं
दर्द के समंदर में डूबी हजार ऑंखें
और लम्बी निरीह चुप्पियाँ
रघुवंशमणि
कुदाल
एक बार फिर वही सवाल
कि क्या हो इस कुदाल का
शब्दों से भर गया हूँ कुछ इस कदर
कि किसी शोक प्रस्ताव की तरह
मौन रहूँ कुछ क्षण
इस मौन के अन्तस्थल से उभरती है
एक साफ और ठोस आकृति
जो बार-बार उभरती रही है
जब बैठता रहा हूँ
किसी अनुकूलित विचारस्थली में
पड़ी रही है एक कुदाल
मेरे मस्तिष्क के अंधेरों में
बाहर सब कुछ चमकदार है
धूल रहित व्यवस्थित इतना
कि मैं हो जाता हूँ उथल-पुथल
कि क्या करूॅं मैं इस कुदाल का
जो गड़ती है मेरे दिमाग में इस कदर
कि अकेला पड़ जाता है दर्द
यह शायद समायोजन की समस्या हो
जिसका सम्बंध है व्यक्तित्व विकास से
जिसके लोहे पर लगी है गीली मिट्टी खेत की
और पसीने की गंध
उसकी बेंट पर
कैसे रखूं इस कुदाल को
विकसित मस्तिष्क की जटिल बहसों में
जिसकी अत्याधुनिक तकनीक से
हमारे सुसभ्य प्रयासों के बाद भी
रह-रह कर उभरते हैं
जटिल तारों में उलझे
हमारे कुटिल शास्त्रार्थ
संगणक की अगणित माइक्रोचिप्स से
उभरकर प्रदीप्त होती लिजलिजी इच्छाएँ
और बाजार के जालजंजाल में प्रतियोगी सी
आत्मघाती अहम्मन्यताएँ
कोई अलंकरण नहीं है कुदाल
पर यहाँ लगेगी किसी जादुई कल्पना जैसी
हालांकि यह कोई यंत्र तक नहीं
एक निखालिस हथियार भर है अप्रासंगिक
जो नहीं मुख्यधारा की परिभाषा तक में
जिन्हे हाशिये पर ढकेल रहा है समय
उन्हें विस्मृत करके ही न बनें हमारी स्मृतियाँ
ऐसी निरपेक्ष चेतना पर
उस मोंगफली के छिलके
जिसे मैने नानी जैसी बुढ़िया से खरीदे थे
और जिसने राजस्थानी में कुछ कहा था
और मैं मात्र इतना ही समझ सका
कि बेटा सर्दी बहुत तेज है
तेज ठंडक में कोई चला रहा है कुदाल
आती है कोन गोड़ने की आवाज
जिनमें से उभरती हैं
दर्द के समंदर में डूबी हजार ऑंखें
और लम्बी निरीह चुप्पियाँ
रघुवंशमणि
Friday, September 14, 2007
प्रतिभा के लिए कोई शर्त नहीं
साक्षात्कार
प्रतिभा के लिए कोई शर्त नहीं
दूधनाथ सिंह
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हिन्दी के वरिष्ठ लेखक दूधनाथ सिंह का यह साक्षात्कार कथाक्रम पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इस पर बहुत से विवाद खड़े हुए थे। बाद में राजकमल प्रकाशन ने इसे 'कहासुनी' नामक पुस्तक में प्रकाशित किया था। नेट मित्रों के लिए इसे दुबारा प्रस्तुत किया जा रहा है।
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संपादकीय टिप्पणी:
हिन्दी के प्रसिध्द कहानीकार और उपन्यासकार दूधनाथ सिंह इधर अपने उपन्यास 'आखिरी कलाम' के कारण चर्चा में हैं। अयोध्या के बाबरी-मस्जिद ध्वंस की पृष्ठभूमि पर साम्प्रदायिकता के विरुध्द लिखे गये उनके इस उपन्यास को 'एक लम्बी छलांग' और 'एक सर्जनात्मक विस्फोट' कहा जा रहा है। यह उपन्यास विभिन्न प्रकार की त्वरित आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं के चलते विवादास्पद भी हो गया है। दूधनाथ सिंह के इस उपन्यास और उनके जीवन तथा कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को लेकर कथाक्रम के लिए यह बातचीत समालोचक रघुवंशमणि और कवि अनिल सिंह ने मिलकर की। दूधनाथ सिंह हिन्दी जगत में अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते रहे हैं। इस बातचीत के दौरान उनकी विभिन्न विचार-मुद्राएं सामने आयीं, कभी चिंता, कभी किलक तो कभी नाराजगी और दुख। यहाँ यह बताना जरूरी है कि यह साक्षात्कार संसदीय चुनावों के बाद केन्द्र में भाजपा सरकार के पतन के बस दो दिन पहले सम्पन्न हुआ।
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रघुवंशमणि:-दूधनाथ जी! 'आखिरी कलाम' को हिन्दी जगत में इधर लिखा गया एक महत्वपूर्ण उपन्यास माना जा रहा है। साम्प्रदायिकता पर लिखी गयी यह एक बेजोड़ कृति है फिर भी इसे लेकर समीक्षक आशंकित हैं। ऐसा क्यों है?
दूधनाथ सिंह- समीक्षकों की शंका के बारे में मैं पूरी तरह से बता नहीं सकता। तरह-तरह की शंकाएं हैं। उपन्यास का जो एक रस होता है और उसका जो एक बना बनाया ढांचा होता है, वह वहां नहीं। उपन्यास लोगों को थोड़ा सकते में डालता है। इस तरह की चीजें पढ़ने की आदत में नहीं है। समीक्षकों का एक बना-बनाया मान्य समीक्षा व्यवहार भी है। कुछ लोग तो कुछ भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं रहते। इसलिए ये शंकाएं हो सकती हैं, लेकिन इस उपन्यास को लेकर अधिकांश समीक्षकों ने सारी अपनी शंकाओं के बावजूद, अपनी पसंदगी का इज़हार किया है। कुछेक को छोड़कर। फिर भी समीक्षाओं को लेकर मैं हिन्दी जगत का कृतज्ञ हूं। मुझे शुरू से ही उदासीनता और उपेक्षा तथा मार-धाड़ का शिकार होना पड़ा है। लेकिन उसका नतीजा मेरे पक्ष में ही गया है।
रघुवंशमणि :- यदि निराला जी के शब्दों का प्रयोग करना हो तो क्या यह अभ्यास के कारण पैदा हुई समस्या है या कि यह उपन्यास परंपरागत उपन्यास आलोचना को समस्याग्रस्त करता है?
दूधनाथ सिंह :- निराला जी की समस्या! मैं समझा नहीं!
रघुवंशमणि :- निराला जी ने 'परिमल' की भूमिका में मुक्तछंद के संदर्भ में यह बात कही है कि कविता पढ़ने के 'अभ्यास' के कारण मुक्त छंद को स्वीकार करने में असुविधा हुई।
दूधनाथ सिंह :- यह संभव है, क्योंकि अभ्यास तो प्लाट संरचना वाले उपन्यासों को पढ़ने का है।
रघुवंशमणि :-आरोप यह है कि आपके इस उपन्यास में विस्तार बहुत हो गया है जिसके कारण इसका साम्प्रदायिकता विरोधी स्वर थोड़ा बिखर गया है या कहें कि थोड़ा कम प्रभावी हुआ है।
दूधनाथ सिंह :-मैं ऐसा नहीं मानता कि इसमें विस्तार है। मैंने उपन्यास की अंतिम पांडुलिपि तैयार करते वक्त उसमें से लगभग डेढ़ सौ पेज निकाल दिये। शब्द संक्षिप्ति का भी एक विस्तार होता है। इस कहानी में कोई भी पात्र लगातार विकसित नहीं होता क्योंकि वह कथा का उद्देश्य नहीं है। तत्सत् पाण्डेय एक बिन्दु की तरह है जिसके चारो ओर घटनाएं और चरित्र ग्रह-नक्षत्र की तरह घूमते रहते हैं। आकर्षण और विकर्षण भी तत्सत् पाण्डेय का ही है। जाहिर है कि प्लाट बांधने की संरचना में यह कथा कभी भी फिट नहीं होती। तत्सत् पाण्डे की जो बड़बड़ाहट है, वही मूल कथ्य है। मुझे कथा को आगे पूरा करने के लिए, तत्सत पाण्डेय के घायल होने के बाद बहुत परिश्रम करना पड़ा।
रघुवंशमणि :-फिर भी यह उपन्यास थोड़ा कम पृष्ठों का होता तो क्या प्रभाव की तीव्रता बढ़ जाती?
दूधनाथ सिंह :- उपन्यास लेखक से यह सवाल कैसे मौजूं हो सकता है? डा. इन्द्रनाथ मदान ने प्रेमचंद को लिखे अपने एक पत्र में यह सुझाव दिया था कि गोदान से शहरी कथा निकाल दी जाय तो वह ज्यादा संघटित और प्रभावोत्पादक उपन्यास होगा। प्रेमचंद ने इसे कतई स्वीकार नहीं किया। 'आखिरी कलाम' सूक्तियों में बोलता है। बड़बड़ाहटों में बात करता है। वह वर्तमान भारतीय समाज पर एक कमेंट्री की तरह संरचित हुआ है। हर चैप्टर एक ही समय में स्वतंत्र भी है और अंतर्ग्रथित भी। उसका यह शिल्प मेरे दिमाग में पहले से नहीं था, नोट्स भी नहीं थे। मेरी स्मृति बहुत अच्छी है। और अनिल को भी यह विश्वास नहीं है कि मैंने उन्हीं के साथ बाबरी ध्वंस के दो दिन पहले अयोध्या का दौरा सिर्फ एक बार किया। बड़ी रचनाएं नोट्स और इकट्ठा की हुई सामग्रियों से नहीं बनतीं, वे मन पर पड़े हुए सम्प्रभावों का कलात्मक संघटन होती हैं। अब मैं किसको-किसको रोऊं कि मैंने कैसे लिखा और क्यों लिखा। जो लोग इस कथा पर संदेह करते हैं, वे पछता रहे हैं।
अनिल सिंह :- आपके उपन्यास के मुख्य पात्र तत्सत् पाण्डेय का सफरनामा क्या एक प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया या प्रतिरोध भर है? यदि ऐसा है तो फिर उसकी सार्थकता को आप किस प्रकार देखते हैं?
दूधनाथ सिंह :-प्रतिरोध भर नहीं है। लेकिन फिर भी प्रोटेस्ट है। उसके, यानि तत्सत् के अन्दर राजनीति और पुराने कम्युनिस्टों की एक बची-खुची झंकृति अभी विद्यमान है। लेकिन इतने से ही वह यात्रा पर नहीं निकलता। वह अपनी पारिवारिक असफलताओं और नष्ट-भ्रष्ट पारिवारिक जिंदगी से उबा हुआ, उदास और चिड़चिड़ा बूढ़ा भी है। जीने का रस उसके लिए बड़बड़ाहट, झगड़े और अध्ययन के अतिरिक्त कहीं बचा नहीं है। लेकिन इन सबके पीछे अपने इकलौते बेटे के न होने की एक घनी उदासी भी कारण है और उससे मिलाजुला एक बड़ा कारण आजादी और प्रजातंत्र का धीरे-धीरे एक विकृति में परिवर्तित होते जाना भी है। मैने कहीं कहा है कि उसका सफर उसकी अपनी शवयात्रा भी है। जीने और मरने में कोई भेद नहीं। इस स्थिति को अगर कोई समीक्षक आलोचक पाठक करुणा से नहीं देखेगा तो वह उपन्यास के सत्व से निश्चित ही वंचित रहेगा। तत्सत् पाण्डेय एक व्यक्ति नहीं एक युग की असफलता और अवसाद है। लोग नहीं समझते तो मैं क्या करूं। गालिब ने कहा है-
'पूछते हैं वो कि गालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या'
रघुवंशमणि :- आज के सांप्रदायिक उत्पात के दौर में यह बात कितनी आगे जा सकती है?
दूधनाथ सिंह :-कौन सी बात?
रघुवंशमणि :- यही तत्सत् पाण्डेय के विद्रोह की बात?
दूधनाथ सिंह :- मैं तो लगभग भविष्यवक्ता हूं। 'कारसेवक एक्सप्रेस' चैप्टर तो मैंने सन् 1998 में लिखा था। अब इसी से समझ लो, गोधरा कांड कब घटित हुआ। गालिब ने अपने उर्दू दीवान की अधिकांश गजलें 18 वर्ष की उम्र में लिख ली थी। यानि सन् 1819-20 तक। 1816 मे उन्होंने अपना पहला दीवान तैयार किया था। 1821 में दूसरा तब वो कुल 25 वर्ष के थे। लेकिन उनकी गजलें 1857 पर ऐसे लागू होती है, जैसे उस मुक्ति संग्राम गदर के दौरान लिखी गयी हों। मैला आंचल 1954 में लिखा गया और जातिवादी समीकरण हमारे प्रजातंत्र मेें 2004 में अपना नंगा नाच दिखा रहा है। लेखक एक ऐतिहासिक दौर के घटने पर भी अपने पहले के लिखे हुए से अगर प्रमाण्0श्निात और सार्थक होते हैं तो यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है। गालिब का शेर है-
'दागे फिराक सोहबते शब की जली हुई
इक शम्अ रह गयी है सो वो भी खमोश है'।
आप 1857 में घिरे हुए बहादुरशाह जफर को देखिये और इस शेर को। लगता है कि दोनो एकमेक हैं, जबकि शेर 1820 के आसपास लिखा गया होगा।
'आखिरी कलाम' तो सांप्रदायिक उन्माद का एक प्रारंभिक प्रतीक है। गुजरात पर तो इससे बड़े महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखे जा सकते हैं, कोई करे तो। मेरा उपन्यास एक बिम्ब की तरह है जो इशारा भर करता है कि हिन्दू आतंकवाद किस सीमा तक जा सकता है। जो सार्वजनिक विरोध और व्यक्तिगत यानि तत्सत् अवसाद का प्रतीक है उसकी लाश तो एक रेलगाड़ी के ब्रेकवैन में एक उन्मादग्रस्त लौटती हुई भीड़ के साथ शंटिग कर रही है और कहीं नहीं पहुंच रहीं है। आशावाद का मतलब होता है। एक कलात्मक कृति में मृत्यु एक नैतिक गुस्से को जन्म दे सकती है। इस वक्त हमारा समाज बहुत घिसा हुआ, चुप्पी साधे और उदासीन समाज की तरह व्यवहार कर रहा है। मिली-जुली कौमियत के बारे मेें लोग उदासीन हो गये हैं।
रघुवंशमणि :- हमारे समय में सांप्रदायिकता के विरोध मेें चल रहा संघर्ष ज्यादातर नकारात्मक रहा है। सांप्रदायिक उन्माद के इस सारे घटनाक्रम को आप कैसे देखते हैं? आप इस परिप्रेक्ष्य में अपने समय को किस प्रकार देखते हैं? सांप्रदायिकता का प्रतिरोध किस प्रकार होना चाहिए?
दूधनाथ सिंह :- मैं अपने समय को एक टैजिक समय की तरह देखता हूँ। सांप्रदायिकता का प्रतिकार जनता ही करेगी और जनता को 'अपनी ही खबर' नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो साम्राज्यवादी घुसपैठ का खतरा ज्यादा बना रहेगा। अपनी समस्याएं हमेें खुद हल कर लेनी चाहिए। कब और कैसे होगा इसको मैं क्या कहूं? यह एक भयावह स्थिति है और हिन्दुत्ववाद, हिन्दू राष्ट और इससे सम्बध्द पार्टियां और संगठन इसके लिए जिम्मेदार हैं। हम अपने बचपन में यह भेद नहीं जानते थे। 'दाहा' उठाने पठानाें के गांव जाते थे। खानपान था। मिलाजुलापन पर्व था। यह अनुभव ही नहीं था कि हिन्दू मुसलामान दो कौमें हैं। मुझे अब इस संबंध में एक बेचारगी का अनुभव होता है। बड़बोली, पैम्फलेट, घोषणपत्र हम बहुत देखते रहते हैं। मध्य वर्ग से आये हुए बुध्दिजीवी भी इसको मिटाने के लिए जनता की हौसिला आफजाई कर सकते हैं। खुद उनका रोल बहुत सीमित है।
रघुवंशमणि :- उपन्यास के पात्रों और उनके वक्तव्योें को अक्सर लेखक के अपने वक्तव्यों के रूप मेें देखा जाता है। मेरे विचार से यह सही नहीं। 'आखिरी कलाम' पर अपने विचार व्यक्त करते हुए एक आलोचक ने लिखा है कि अपने पात्र की ही तरह आप की 'प्रतिबध्दता दिखाउ है' और लगता है कि आप 'साइकिक क्लोजर' के शिकार हैं। अपने और अपने पात्र पर की गयी यह टिप्पणी आपको कैसी लगती है?
दूधनाथ सिंह :- इस तरह का आक्षेप कोई करता है तो उसका यह अधिकार मैं कैसे छीन सकता हूं। तत्सत् पाण्डेय को तो मैं खुद ही ढूढ़ता हूं कि यह आदमी कहां से आया, यह कौन है। यह इतिहास की किस गुफा से निकलकर नमूदार हुआ। कितने ऐतिहासिक, अनऐतिहासिक चरित्रों का वह एक विम्ब है। मेंरे लिए तो वह खुद ही एक 'हेलूसिनेशन' की तरह है। जब वह खड़ा हो गया तो मैं अपने किये पर ही आश्चर्यचकित । वह तो अपनी देह से भारतीय राजनीति, स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद की स्थितियों का प्रतीक चिन्ह है। वह संकल्पना से रचित है और मुझे ही सकते में डालता है। जहां तक मेरी अपनी प्रतिबध्दता के दिखावटी होने का सवाल है तो मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति तो नहीं हूँ। धर्र्म का निषेध तो सांप्रदायिकता, नस्लवाद साम्राज्यवाद के विरोध की पहली शर्त है। लेकिन इस सत्य को कौन मानेगा? धर्म चढ़ा बैठा हैं। समुन्नत समाजों में भी धार्मिक आस्था वैसी की वैसी बनी हुई है। टेड टावर के ध्वस्त होने के बाद अमरीका ने जहां अफगानिस्तान पर चढ़ाई की वहां न्यूयार्क की जनता ने प्रार्थना सभाएं भी आयोजित कीं और उन प्रार्थना सभाओं में लोग रो रहे थे। अमरीका के लिए धर्म क्यों 'आत्मा की कराह' है, दलित शोषित तीसरी दुनिया के लिए हो तो हो। इसका उत्तर उपन्यास में है। जब तत्सत् पाण्डेय कहता है कि हर आदमी मरने से डरता है। हमारे यहां अनभयता की बात बहुत की गयी है। लेकिन ब्रेश्ट कहते हैं कि अगर आदमी डरे नहीं तो वह अपनी सुरक्षा के सवाल को ही नहीं उठायेगा। डर आत्मरक्षा और संघर्ष को जन्म देता है, जो नहीं डरता वो अत्याचारी होता है।
रघुवंशमणि :- तत्सत् पांडेय को लेकर एक स्फटिक फाँक की भी बात है- यानि कि सिध्दांत और व्यवहार के बीच की दूरी। क्या आप इसे इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण समस्या के रूप मे देख पाते हैं? एक सक्रिय वामपंथी के रूप में आप इस बात को किस प्रकार ग्रहण करेंगें?
दूधनाथ सिंह :- तत्सत् पाण्डेय एक सक्रिय वामपंथी नहीं है । जातिवादी उभार के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में जिस तरह से सक्रिय वामपंथ की गतिविधियों का क्षरण हुआ, उसकी झलक उपन्यास में है। कार्यकर्ताओं की आस्था अपनी जगह पर है। लेकिन उनका वैचारिक संघर्ष उत्तर भारत में जनता के संघर्ष से एकमेक नहीं है। यह एक टेजडी की तरह है। मुक्ति संघर्ष की बात हम करते हैं और जनता अपने मुक्तिसंघर्ष के लिए जातिगत खेमों में बटी हुई है। इसको वर्गयुध्द में कैसे परिवर्तित किया जाय, यह समस्या है। मैने उपन्यास में इसका बहुत विस्तार से चित्रण किया है। निष्कासन में भी इसका जिक्र था। मैं झूठ तो नहीं बोल सकता, जो देखता हूं वही कहूंगा। एक कलाकार के नाते यह मेरा 'धरम' है।
अनिल सिंह :- आपके उपन्यास में वामपंथी राजनीति की आलोचना कुछ अधिक ही हो गयी लगती है, ऐसा कहना है लोगों का। आपने सांप्रदायिकता के विरुध्द यह उपन्यास लिखते समय वामपंथ की यह लानत-मलामत क्याें जरूरी समझी?
दूधनाथ सिंह :- क्योंकि अंतत: मुझे वामपंथ से ही आशा है। मुलायम सिंह ने थोड़ा सा सन् 1991 में किया, लेकिन जातिवादी उलझनों में सत्तापरस्ती का ख्वाब देखने वाली पार्टियाें से मुझे कोई आशा नहीं है। मुझे कांग्रेस से भी आशा नहीं है। जिस समय बाबरी मस्जिद गिरी उस वक्त केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। अगर नरसिंह राव चाहते तो उनके लिए कारसेवकाें को रोकना बहुत साधारण बात थी। अभी फिर मुलायम सिंह ने कुछ नहीं होने दिया। लेकिन इसके बावजूद मुझे आशा वामपंथ से ही है। अगर वामपंथ कमजोर होता है तो सांप्रदायिकता मजबूत होती है। और मैं यह देख रहा हूं कि उत्तर भारत में वामपंथ का क्षरण लगातार जारी है। पश्चिम बंगाल और केरल, त्रिपुरा में जातिवाद, सांप्रदायिकता और हिन्दुत्ववाद अपना सर क्यों नहीं उठाते? क्योंकि बामपंथियों ने इसकी बू वहां जाने हीे नहीं दी। उससे वे बहुत कड़ाई से पेश आये, जबकि वहां का समाज भी जातियों में बंटा हुआ है, लेकिन वह वर्गाधार पर सोचता है। आरएसएस और बीजेपी के लोग इसको तोड़ने की कोशिश में लगातार लगे हुए हैं। इस संदर्भ में अगर 'आखिरी कलाम' में वामपंथ की आलोचना को आप देखें तो वह लानत मलामत नहीं है। मेरी आत्मा का संताप बोलता है। आखिर रामदीन मिसिर, शशांक, सर्वात्मन् जैसे जुझारू और प्रतिबध्द कार्यकर्ता आज भी वामपंथ मेें है। वह हिस्सा इसलिए भी लिखा गया है कि वामपंथी पार्टियों को अखबारों के बजाय सच्ची सूचनाएं दूसरी जगह से भी मिलें। उनकी आलेचना नहीं, बल्कि तकलीफ और सत्यता का वर्णन है।
रघुवंशमणि :- अपने उपन्यास के पात्र रामदीन मिसिर की तरह आप भी अपने हिन्दी क्षेत्र में वामपंथ को गहराई तक समस्याग्रस्त पाते हैं। आखिर रास्ता क्या है?
दूधनाथ सिंह :-रास्ता हमारे समाज को जातिवाद वर्णवाद से बाहर आकर इस लड़ाई को गरीबी और अमीरी की लड़ाई में परिवर्तित करना होगा। दूसरा कोई भी रास्ता कारगर नहीं है। उससे प्रजातंत्र और विकलांग होता चला जायेगा।
रघुवंशमणि :-हिन्दी उपन्यासों में एक अलग से पहचाने जाने योग्य पात्र है तत्सत् पाण्डेय। वृध्द, अन्तर्विरोधों का शिकार, स्मृतिभ्रंश की दहलीज पर खड़ा, वर्तमान और भूत में आता-जाता मगर दृढ़। इस अद्भुत पात्र का विचार आपके जेहन में कैसे आया? इस पात्र की सृष्टि किस प्रकार हुई?
दूधनाथ सिंह :- मैं बहुत लंबा जवाब नहीं दूंगा। लिखने के दौरान अचानक भूलने और याद करने का जिक्र आया। उससे मुझे इस शिल्प का 'क्लू' मिला। यह पहले से सोची हुई व्यवस्था नहीं थी। मगर एक बार सूझ जाने पर मैंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया।
रघुवंशमणि :-'आखिरी कलाम' अपनी औपन्यासिक तकनीक मेें अलग किस्म का है। डा. परमानंद श्रीवास्तव इस बात को स्पष्ट स्वीकृति देते हैं। यथार्थोन्मुख होते हुए भी यह उपन्यास तकनीक के मामले में पारंपरिक यथार्थवाद का शिकार नहीं। यह ईजाद कैसे हुई?
दूधनाथ सिंह:- इसके बारे में मैं कुछ भी बतााने में असमर्थ हूं। रचना प्रक्रिया के दौरान बहुत सी बातें घटित हुई और उसी में से यह शिल्प भी आविष्कृत हुआ।
रघुवंशमणि :- आज के दौर में जब आपके उपन्यास के साथ ही साथ 'सूत्रधार' जैसी कृति भी आयी है तो हिन्दी उपन्यासों मे आने वाले इस तकनीक के वैविध्य को आप कैसा विकास मानेेंगे?
दूधनाथ सिंह:- हिंदी उपन्यास का वस्तुगत और शिल्पगत वैविध्य दर्शनीय और स्वागत योग्य है। संजीव मेरे प्रिय लेखक हैं। वे हमेशा सामग्री एकत्र करके लिखते हैं। अमृतलाल नागर भी यह काम करते थे। भिखारी ठाकुर पर उनको सरकारी वजीफा मिला था। राजेन्द्र जी ने दिलवाया था, ऐसा उन्होेंने मुझसे खुद कहा। संजीव सुलतानपुर के हैं। कुल्टी, पश्चिम बंगाल में रहते हैं। भोजपुरी भाषा-भाषी नहीं है। भिखारी ठाकुर पर यह वजीफा केदार जी को मिलना चाहिए था, क्योंकि उन्होंने भिखारी ठाकुर को लाखों के मजमें में देखा है और वे निखालिस भोजपुरी भाषी हैं। संजीव ने उस सामग्री पर एक कथाकृति की रचना की। 'धार' और 'सावधान नीचे आग है' के लिए भी उन्होंने इसी तरह सामग्री एकत्र की और प्रामाणिक उपन्यास लिखे। लेकिन ऐसी कृतियां गुम हो जाती हैं। साहित्य और कलाकृति में हमें स्थूल प्रमाण नहीं चाहिए। लेकिन जहां तक औपन्यासिक वैविध्य का सवाल है अलका सरावगी, असगर वजाहत का नया उपन्यास 'किसने आग लगायी' मैत्रेयी पुष्पा और इन सबसे महत्वपूर्ण चित्रा मुद्गल का कुछ वर्ष पहले लिखा उपन्यास 'आंवा' है जिस पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। स्त्री विमर्श की वह एक महाकाव्यात्मक कृति है। 'सूत्रधार' से भिखारी ठाकुर हमको खड़े दिखाई नहीं देते, हां योजनाबध्दता जरूर है।
अनिल सिंह:- आप भी तो अवधी भाषा-भाषी नहीं है फिर भी 'आखिरी कलाम' में आपने निखालिस अवधी भाषा का जोरदार प्रयोग किया है तो आप पर भी तो यह सिध्दांत लागू होता है?
दूधनाथ सिंह:- मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि संजीव नहीं लिख सकते। संजीव तो अपने उपन्यासों में पूरब की आंचलिक शब्दावली का प्रयोग करते है। मेरा मतलब यह था कि संजीव और केदार जी में किसका अधिकार ज्यादा बनता है भिखारी ठाकुर पर लिखने के लिए। मेरा कहना है कि केदार जी लिखते तो ज्यादा मौजू होता, हालांकि वह उपन्यास तो लिखते ही नहीं। अभी पिछले दिनों सारनाथ में 'संगमन' की गोष्ठी में नामवर जी ने यह कह दिया कि प्रोजेक्ट्स पर उपन्यास नहीं लिखे जा सकते। इस पर उनमें और संजीव में मारामारी की नौबत आ गयी थी। प्रोजेक्ट का अर्थ है स्थूल प्रामाणिकता। 'आखिरी कलाम' में कोई प्रोजेक्ट नहीं था। यहां तक कि बाबरी मस्जिद के गिराये जाने का ढंग भी कल्पित है। अगर आप बी.बी.सी. या मीडिया के चित्रों से मिलायेंगे तो वह यथातथ्य नहीं है, क्योंकि वह 'प्रोजेक्ट' नहीं है, कलात्मक और कल्पित है। यथार्थ का संवर्धन इस तरह होता है. वह यथातथ्य नहीं होता।
अनिल सिंह:- लेकिन टालस्टाय का 'युध्द और शान्ति' तथा 'पुनरूत्थान' भी तो शोध के आधार पर लिखे गये हैं। और शोध करके उपन्यास लिखने की एक परंपरा तो रही ही है। इस पर आप क्या कहेंगे?
दूधनाथ सिंह:- 'युध्द और शान्ति' में सिर्फ तीन ऐतिहासिक पात्र हैं। इन तीनोें का चौदह सौ पृष्ठों के उपन्यास में कितना योगदान है। इतिहास का एक स्केल्टन या अस्थि पंजर लिया है टालस्टाय ने। बाकी तो रूसी समाज है। नताशा, पियरे और अंद्रेई और ओल्ड प्रिंस निकोलाई और मारिया जैसे कल्पित सामाजिक चरित्र है। 'पुनरूत्थान' में सिर्फ जेल जीवन की सामग्री टालस्टाय ने एकत्रित की थी। बड़ी प्रतिभा के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है, कोई शर्त नहीं है। लेकिन वह हो तब न।
रघुवंशमणि :- उपन्यास के क्षेत्र में तकनीक के स्तर पर प्रयोगधर्मी कृतियों को स्वीकार करने मेें क्या हिन्दी आलोचको मेें आप एक प्रकार की हिचक पाते हैं।
दूधनाथ सिंह:- हिचकिचाहट तो होती है। लेकिन फिर स्वीकृति भी मिलती है। हमारे आलोचक इतने कठोर और दम्भी नहीं हैं कि वो लगातार अस्वीकृति के ही शिकार हों।
रघुवंशमणि :- विचारधारा के स्तर पर आलोचकगण रचनाकारों से जिस प्रकार की डिमांड करते हैं क्या उसे आप सर्जनात्मकता के प्रतिकूल पाते है?
दूधनाथ सिंह:-आलोचना एक पैरासाइट काम है। कृति पहले है आलोचना बाद में। अक्सर आलोचक यह समझते हैं कि उनकी मांगे जायज हैं, क्योंकि वे पढ़े लिखे लोग हैं। रचनाकार अपनी स्वतंत्र मेधा, अनुभव सम्पदा और कल्पना से काम लेता है। आलोचक गाहे बगाहे अपनी बातें लादते हैं। ज्यादा लादोगे तो लेखक एक कमजोर प्राणी होता है वह नमक का बोरा लादे हुए उस बैल की तरह होगा जो नदी हेलते वक्त बीच धार मेें बोझ से दबकर बैठ गया और सारा नमक बह गया। लेखक पर लादोगे तो वह इसी तरह बैठ जायेगा और हल्का होकर नदी पार कर जायेगा। चाहे उसे जितने डण्डे मारो वह तुम्हारा नमक वापस नहीं लौटा सकता। वह तुम्हारे लादे हुए बोझ को नहीं ढोयेगा। तुम्हारा विचार बड़ा है या लेखक की संकल्पना शक्ति यह तो समझना चाहिए।
रघुवंशमणि :- 'आखिरी कलाम' ब्राह्मणवाद विरोधी कृति भी है। उपन्यास मेें यदि एक तरफ सांप्रदायिकता का विरोध है तो दूसरी तरफ जातिवाद का भी। मुझे लगता है कि किसी विन्दु पर ये दोनों समस्याएं एकाकार होती हैं?
दूधनाथ सिंह:-बिल्कुल! जातिवाद भी एक तरह की सांप्रदायिकता है। लोगों की समझ में अभी नहीं आया, शायद आगे आये।
रघुवंशमणि :- 'आखिरी कलाम' लोहिया के चिंतन का भी एक क्रिटीक प्रस्तुत करता है। 'जाति ही वर्ग है' इस विचार की जोरदार आलोचना है। तो क्या लोहिया के चिंतन में भी सांप्रदायिकता के तत्व हैैं?
दूधनाथ सिंह:- आज जार्ज फर्नांडिस से बड़ा इसका उदाहरण कौन हो सकता है। लोहिया के चिंतन में भयंकर हिन्दुत्ववाद है। गांधी जी जब कहते थे कि 'मैं एक सनातनी हिन्दू हूँ' तो उनके कहने में खोट नहीं थी लेकिन लोहिया जब राम, कृष्ण और शिव के मिथकों पर लिखते हैं तो वह हिन्दुत्ववाद का एक रसमय प्रतीक चिन्ह भी बन जाता है। क्या यह यूं ही है कि लोहिया के अधिकांश अनुयायी हिन्दुत्ववादियोें के साथ चले गये।
रघुवंशमणि :- लोहिया अपने विचारोें में साम्प्रदायिकता के समर्थक तो नहीं थे? वे तो बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को फासीवाद की जननी मानते हैं?
दूधनाथ सिंह:- लोहिया में यह अंतर्विरोध है। बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का हीरो आखिर कौन है? राम, कृष्ण और शिव। जब आप तीनों मिथकीय प्रतीकों की रसभरी संरचना करते हैं तो आप क्या बहुसंख्यक फासीवादी सांप्रदायिकता का अनजाने ही समर्थन नहीं करते? तो लोहिया में अंतर्विरोध तो हैं। वह जनता को एक समग्र एनटिटी नहीं मानते। कभी अगड़ा- पिछड़ा, कभी राम, कृष्ण और शिव, कभी 'माक्र्स के बाद अर्थशास्त्र' इस तरह की विवेचनाएं और तरह-तरह की युक्तियां उनकी विचारधारा में एक अंतर्विरोध को जन्म तो देती ही हैं। कोई आदमी ईमानदार हो इससे यह साबित नहीं हो जाता कि उसमें अंतर्विरोध न हों।
अनिल सिंह:- जाति और वर्ग के संदर्भ में आपने 'कथन' मेें नामवर जी का यह वक्तव्य उध्दृत किया था कि ' वर्ग के साथ वर्ण और वर्ण के साथ-साथ जाति को ध्यान में रखकर विश्लेषण करना चााहिए और उस वर्ग संघर्ष को समझना चााहिए।' क्या आपकी यह बात उस टिप्पणी से अलग नहीं है, जिसमेें आपने नामवर जी का समर्थन किया था?
दूधनाथ सिंह:- नामवर सिंह के कथन से मेरी सहमति अभी भी पूरी तरह गलत साबित नहीं हुई है। नामवर सिंह तो कभी कुछ कहते हैं कभी कुछ। लेकिन वो अक्सर बड़ी और व्यवहारिक बातें भी करते हैं। वामपंथी दलों ने 'पुश द कास्ट फैक्टर फारवर्ड एण्ड देन पुल इट टूवड्र्स क्लास फैक्टर' का जो नारा दिया था उस नारे पर काम करने की जरूरत है। जातिगत समीकरण कभी भी इस देश का भला नहीं कर सकते। अंतत: वे एक तरह के फासिज्म से दूसरे तरह के फासिज्म की तरफ ढकेलते रहेंगे। ऐसी स्थिति में समाज का ढांचा चरमरा सकता है और एक गहन अराजकता उत्पन्न हो सकती है। अभी भी हमारा समाज कबीलाई गिरोहों का समाज है। जो आप जी.डी.पी. बढ़ने और विदेशी मुद्रा भंडार की बढ़ोत्तरी की बात करते हैं, वह भारत की 10 प्रतिशत नवधनिक परिवारों के लिए है। मेटोपोलिसेज में भी नये कबीलाई समाजों का उदय हो रहा है और भारत की वर्गीय संरचना लगातार बदल रही है। इन सबको ध्यान में रखकर तब मैंने यह बात कही थी, क्योंकि रामविलास जी अपने कथन में आर्थोडाक्स माक्र्सवाद से इंच भर भी नहीं खिसकना चाहते। आखिर हमें जमीनी सच्चाइयों पर गौर तो करना ही होगा।
रघुवंशमणि :- आपके उपन्यास में नेहरू के प्रति गहरा सम्मान व्यक्त किया गया है। नेहरू वास्तव में भारत के सबसे बड़े आधुनिक और सेकुलर व्यक्ति रहे हैं। मगर क्या उनके प्रति गहरा लगाव थोड़ा नॉस्टाल्जिक नहीं?
दूधनाथ सिंह:-नास्टैल्जिक है। लेकिन इस नास्टेल्जिया का कारण है। अगर 1935-40 के बीच स्वराज्य भवन मेें काम करने वाले लोगों के बारे में आप गौर करें तो उसमें प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को आप ज्यादा पायेंगे। यह नेहरू की बदौलत ही संभव हुआ। यह घुसपैठ नहीं बल्कि नेहरू के मिजाज के अनुकूल भी था। सन्1916 मेें किसान आंदोलन से उन्होंने अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया और 1935-36 मेें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की संकल्पना भी की। मिश्रित अर्थव्यवस्था का स्वप्न नेहरू का था। विनिवेशीकरण के दौरान आज जिस तरह हम देशी संसाधनों की बिक्री देख रहे है। अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद के कारण आउटसोर्सिंग के माध्यम से जिस तरह हिन्दुस्तान को क्लर्को के देश में परिवर्तित किया जा रहा है उससे मैकाले की छवि एक ब्रम्हराक्षस की तरह दिखायी देती है। इन सभी कारणों से 21वीं सदी के इस प्रारंभ में नेहरू और गांधी का नास्टैल्जिया किसी बुध्दिजीवी और लेखक के जीवन का एक जरूरी हिस्सा होना चाहिए।
रघुवंशमणि:- 'अकार' मेें 'आखिरी कलाम' की जो समीक्षा छपी है, आपने पढ़ी?
दूधनाथ सिंह:- देखिये मुझ पर धौंस नहीं चल सकती। आखिरी कलाम को समझने के लिए दिमाग की जरूरत है,दाँतों की नहीं। कोई कारसेवक है जो भेस बदल कर बैठा हुआ है।..... वैसे मैं उनको नहीं जानता। हो सकता है, कभी दुआ सलाम हो। मुझे थोड़ा शक भी था। एक अरूण प्रकाश आनन्द में भी हैं। भारत भारद्वाज का एक दिन फोन आया। वे मेरे लिए अक्सर चिंतित और दुखी रहते हैं-खासकर ऐसे अवसरों पर। मैने अपना शक जाहिर किया। दुबारा उनका फोन आया तो उन्होनें 'कन्फर्म' किया कि नहीं आनन्द वाले अरूण प्रकाश नहीं ,दिल्ली वाले अरुण प्रकाश हैं। 'थोरा-थोरा लंगरा कर चलते हैं' भारत जी ने कहा।
देखिये, उनको इस समीक्षा से शोहरत मिलेगी। कहानीकार के रूप में उनको कौन जानता है। ऐसे दो हजार कहानीकार हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का पेट भरने के लिए पड़े हुए हैं।
अनिल सिंह:-गिरिराज जी ने यह समीक्षा क्यों छापी?
दूधनाथ सिंह:-यह तो गिरिराज जी से पूछिये। वे हमारे जवानी के दिनों के मित्र हैं और हमारी मैत्री बरकरार है। गिरिराज जी ने छापने से पहले मुझे बता दिया था। और मैंने उनसे कहा कि चाहे जितनी खिलाफ हो कुछ भी काटना पीटना मत। भोजपुरी मेें एक कहावत है 'बड़-बड़ बहाइल जांय गदहा पूछे कितना पानी'। अब क्या अरूणप्रकाश -अरूणप्रकाश!
अनिल सिंह:- 'तद्भव' में छपे हुए काशीनाथ जी के संस्मरण 'घर का जोगी जोगड़ा' में एक जगह उन्होंने कहा है कि 'इलाहाबाद से कोई आया और बताया कि अशोक वाजपेयी दूधनाथ सिंह को 'निराला सृजन पीठ' से निकालने वाले हैं।' क्या वाकई ऐसा ही था?
दूधनाथ सिंह:-यह बाबू काशीनाथ सिंह का निखालिस झूठ है। 'इलाहाबाद से कोई आया' इसमें यह ध्वनि है कि यह इलाहाबाद में प्रचारित होगा, और प्रचारित होगा तो इसमें मेरा हाथ होगा।मेरे लिए तो जो किया कमला प्रसाद ने किया। उन्होंने ही मेरा बायोडाटा भेजा। अभी भी मेरे लिए जो करते हैं, वही करते हैं।'कला-परिषद' में उन दिनो श्री राम तिवारी थे। उनका फोन आया। उस दिन 14 दिसंबर 1996 था। 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' में 'अश्क-निधि' का कार्यक्रम चल रहा था। शेखर जी वहाँ थे। मैंने उनसे पूछा और सलाह मांगी। उन्होंने जोर देकर कहा,'जाओ।' 15 को चलकर मैं 16 को भोपाल पहुँचा और उसी दिन 'ज्वाइन' किया। मुझे तो तब तक यह भी नहीं मालूम था कि 'निराला सृजन-पीठ' भारत भवन से संबध्द है। जैसे 'मुक्तिबोध सृजन-पीठ' सागर विश्वविद्यालय और 'प्रेमचंद सृजन-पीठ' विक्रम विश्वविद्यालय से संबध्द है वैसे ही मैं समझता था कि 'निराला सृजन-पीठ' बरकतुल्ला विश्वविद्यालय,भोपाल से संबध्द होगी। वहाँ जाने पर जब मालूम हुआ तो मैं और खुश हुआ। अशोक वाजपेयी मेरे घनिष्ठ मित्र हैं और मेरे उपर उनके बहुत-सारे साहित्येतर उपकार हैं।मैं खुश तो हुआ लेकिन मैं 'दो-पाटन के बीच' भी था।....बहरहाल,जो काशीनाथ सिंह ने कहा है वह झूठ ही है।उस बीच अशोक के दो-तीन पत्र मुझे मिले....अत्यन्त प्रिय और आत्मीय।...'इस बीच हो सकता है, तुमने अपने छोटे उपन्यास को अन्तिम रूप दे दिया हो। उसकी क्या खबर है?तुम्हें क्या बताना कि अन्तत: हमारा लिखा ही बचने वाला है और समय बड़ी तेजी से भागता है। अवसर मिला है तो उसे दाँत से पकड़कर रखो, व्यर्थ मत जाने दो।' 'रचनात्मक विस्फोट' है तो उसे भरपूर होने दो।' यह पत्रांश 1 जून,1997 के लिखे हुए पत्र से है। वहाँ रह कर मैने वह 'छोटा उपन्यास' तो पूरा नहीं किया, हाँ, 'नमो अंधकारं' लिखी,कहानी पर अभी तक मेरा मात्र इकलौता लेख 'हिन्दी कहानी का झूठा-सच' लिखा,जो'पूर्वग्रह' में छपा, और 'आखिरी कलाम' का दूसरा हिस्सा पूरा किया।
काशीनाथ सिंह इस तरह के गढ़न्त में माहिर है। 'किस्सा साढे चार यार' में लिखा कि मैं गाजीपुर से पैदल चलकर आया था, जबकि मैं मुगलसराय से पैदल चलकर आया था । किसी की जगहंसाई हो, किसी की गर्द्रन उतर जाय, काशीनाथ सिंह सुर्ती फटकाकर दबा लेते हैं और हंसते है। गले मिलते हैं तो शाइस्ता खां की तरह मिलते हैं। पिछले 'कथाक्रम' की गोष्ठी मे भी उन्हें मेरे उपर कुछ नहीं बोलना था। सो उन्होंने एक लतीफा गढ़ा। उन्हें ' सिरी लाल सुकुल' और ' दूधनाथ सिंह' के नामों का मजाक उड़ाना था। क्यों, आप समझ सकते है। श्रीलाल जी मुंह बाये उन्हें देखते रह गयें। काशीनाथ सिंह ने कभी मेरे साथ इलाहाबाद में नौका विहार नहीं किया। लेकिन जब कुछ कहने को नहीं है तो लतीफा तो चलेगा। विजय मोहन ठीक ही कहते है।कि काशी आधा 'बफून' है।
बहरहाल, जिस बात की ओर काशी का इशारा है, वह बात मुझे दस महीने बाद भोपाल के एक मित्र ने बतायी। मैं बहुत खिन्न हुआ। अगर अशोक नहीं चाहते थे तो मैं यहां नहीं रहूंगा। मैंने अपने एक मित्र की इच्छा का अनजाने ही अनादर किया। वह खबर सच हो या झूठ, मैं इसे 'कन्फर्म' भी नहीं करूंगा। दूसरे दिन चुपके से मैं स्टेशन गया चार दिन बाद का रिजर्वेशन मिला। मैं गुमसुम पड़ा रहा या राजेश के साथ 'अप्सरा' में बैठकर वक्त बिताता रहा। चौथे दिन मैने अपना इस्तीफा लिखा, खुद ही जवाहर चौक पर जाकर टाइप कराया, चार लिफाफों में भरकर, चिपकाकर, 'पिउन बुक' में चढ़ाकर बहादुर को बल्लभ भवन, कला-परिषद और भारत भवन भेजकर प्राप्ति स्वीकृति ली। सिर्फ भारत भवन में मदन सोनी ने पत्र खोला और तुरंत अशोक को 'फैक्स' पर लगा दिया। मैं अभी स्टेशन चलने के लिए सामान समेट ही रहा था कि अशोक का फोन आ गया, ' क्या हुआ? क्यों जा रहे हो? भारत भवन में किसी ने तुम्हें कुछ कहा क्या? मैंने सिर्फ यही कहा कि मेरी पत्नी इलाहाबाद में अकेली है। मैने उस बात को अपने प्रिय मित्र से 'कन्फर्म' भी नहीं किया। अगर सच हो तो मुझे कितना 'डिप्रेशन' होगा और झूठ होगा तो मैं उसके सामने गड़ जाउंगा। इसलिए जैसा-का-तैसा रहने दो। मैंने अपने एक मित्र कमला प्रसाद की इच्छा का सम्मान किया, अब मुझे झूठ या सच दूसरे मित्र की इच्छा का भी सम्मान करना चाहिए। लेकिन निकालने वाली बात तो गढ़न्त है, क्योंकि काशी सास-बहू का किस्सा नामवर जी के हवाले से लिखना चाहते थे।......और मै भिखमंगा तो हूं। बिड़ला तो काशीनाथ सिंह है।
रघुवंशमणि:- इधर के दशकों में लिखे जाने वाले हिन्दी के गल्प अर्थात कहानी एवं उपन्यास को आप नई कहानी के दौर के गल्प से कैसे विलगायेंगे?
दूधनाथ सिंह:- दरअसल इधर का सारा कहानी लेखन या औपन्यासिक काम पहले के कामों का ही विस्तार है। यह भी है कि ये सारे काम अपने समय को समाज या राजनीति को प्रमाणित करते चलते हैं लेकिन एक बड़ी दुर्घटना को इधर के उपन्यास या कहानियों में नहीं छुआ और वह है आपातकाल। उसकी छाया लेखकों पर यहां तक कि कवियों पर भी कम दिखाई देती है। जिस तरह से प्रेमचंदोतर उपन्यासों में क्रांतिकारी राजनीति और विभाजन तथा संयुक्त परिवारों के विखंडन को अपना विषय बनाया गया उस तरह से आपातकाल को नहीं उठाया गया।
रघुवंशमणि:-एक उपन्यास है निर्मल वर्मा का 'रात का रिपोर्टर'।
दूधनाथ सिंह:-वह उनके उपन्यासाें में मेरे हिसाब से सबसे अच्छा उपन्यास है, जो पहाड़ और मृत्यु की नास्टैल्जिया से अलग है। और जिसमें भय और आतंक का अद्भुत चित्रण किया गया हैं। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि उसमें भय और आतंक के अमूर्तन द्वारा आपातकाल का अमूर्तन है।
रघुवंशमणि:-आप लोगों की पीढ़ी यानि कि ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह और आप की पीढ़ी नई कहानी वाले दौर के लेखकों की पीढ़ी से अलग थी। आज के गल्प लेखकों और अपनी पीढ़ी के बीच क्या आप किसी प्रकार का गैप देखते है? मतलब यह कि रचनात्मक स्तर पर अस्सी के बाद के लेखकों को आप अपनी पीढ़ी से अलग पहचान किस प्रकार देना पसंद करेंगे?
दूधनाथ सिंह:-कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं है। जैसाकि मैंने कहा कोई बहुत सारे नये विषय 80 के बाद नहीं उठाये गये। पारिवारिक विखंडन, नगरीकरण, बेरोजगारी, सामाजिक अवमूल्यन, राजनैतिक विकलांगता, शहराें की ओर पलायन ये विषय हैं जिनकी दुरभिसंधि में घिरे हुए पात्रों का चित्रण 80 के बाद के कहानीकार करते है। उनके लेखन में हमारी पीढ़ी और नयी कहानी की पीढ़ी की प्रवृत्तियों का अद्भुत घालमेल है। एक ओर मोहभंग और पारिवारिक विखंडन तो दूसरी ओर राजनैतिक और सामाजिक विकृतियां और तीसरी ओर रोमांस। इन तीनों का मिला जुला समृध्द विस्तार है 80 के बाद की कहानियां। अभी हाल में जब हम लोग नागपुर में उदयप्रकाश को पहल सम्मान दिये जाने के अवसर पर एकत्र हुए और वहां से सेवाग्राम और महात्मा गांधी अन्तर्राष्टीय हिन्दी वि.वि. गये तो विश्वविद्यालय की एक गोष्ठी में संजय चतुर्वेदी ने कहानीकार उदय प्रकाश के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी- 'उदय प्रकाश हिन्दी कहानी परंपरा का विस्तार नहीं उसका विचलन है।' मेरे कहने का अर्थ यह है कि उदय प्रकाश के अलावे 80 के बाद के कहानीकार प्रेमचंद से चली आती कहानी और उपन्यास परंपरा का विस्तार है और विचलन सिर्फ एक हैं वह है उदय प्रकाश। यह जान लीजिये कि कोई परंपरा के विस्तार से बड़ा लेखक नहीं होता विचलन से बड़ा लेखक होता है क्योंकि वह एकदम से कुछ नया करता है जैसे कि जैनेन्द्र, फणीश्वरनाथ रेणु और राही मासूम रजा इत्यादि।
रघुवंशमणि:-लेकिन विषय वस्तु के मामले में दलित और स्त्री बिल्कुल नये ढंग से सामने आये हैं? ये भी तो नया है।
दूधनाथ सिंह:-स्त्री विमर्श तो हिन्दी कथा साहित्य का आदि और मूल विषय है। सेवा सदन क्या स्त्री विमर्श नहीं है? स्त्री मुक्ति के सवाल को क्या नहीं उठाया गया है। स्त्री के दमन और स्त्री की पितृसत्तामक समाज के प्रति जो भक्ति और आस्था मिलती है जैसे कि कृष्णा सोबती के लेखन में, वह कैसे स्त्री विमर्श नहीं है? मृणाल, गीता, पार्टी कामरेड, दिव्या, अमिता, मैला आंचल की कमली, 'झूठा-सच' की तारा- स्त्री विमर्श पर तो पूरा हिन्दी कथा साहित्य टिका हुआ है। यशगान और तिरिया चरित्तर स्त्री के दमन की श्रेष्ठतम कहानियों में से हैं। इसलिए स्त्री विमर्श नया विषय नहीं है। देहमुक्ति स्त्री विमर्श का अर्थान्तर न्यास है। दलित चेतना अवश्य एक नया विषय है लेकिन प्रेमचंद और निराला और रेणु ने अपने-अपने ढंग से दलित चेतना को अपनी रचनाओें का विषय बनाया है। 'सद्गति' और 'ठाकुर का कुआं' से बड़ी दलित चेतना की कहानियां इधर कौन सी लिखी गयी? दलित लेखकों का यह एक हठ है कि सिर्फ दलित चेतना की कहानी वही लिख सकते हैं। हिन्दी के सवर्ण लेखक उनके इस हठ के कारण दलित लेखकों के तुष्टिकरण की नीति अपनाएं हुए है। वामपंथी व अति वामपंथी भी। लेकिन फिर भी दलित चेतना का उभार और साहित्य में उसकी उपस्थिति इधर बहुत महत्वपूर्ण हो उठी है।
रघुवंशमणि:- पुरुष करुणा और सवर्ण करुणा से परे सीधे अधिकार मांगने का एक स्वर भी तो है?
दूधनाथ सिंह:-अधिकार मांगने का भाव हो सकता है और मिलना भी चाहिए। लेकिन चाहे स्त्रीवाद हो या दलित चेतना का उभार, प्रेमचंद की कहानियां गुस्सा अधिक पैदा करती हैं करुणा कम। 'सद्गति' में दलित का पैर में रस्सी डालकर घसीटा जाना प्रतिशोध की आग पैदा करता है। 'कफन' की गिरावट भी गुस्सा पैदा करती है- उन लोगों के प्रति गुस्सा, जिन्होंने मनुष्य देहधारी घीसू और माधव को भूख के पशुजगत में ढकेल दिया है। लेकिन फिर भी अधिकार मांगने और लेने की मांग जायज हैं। और उसे कोई रोक नहीं सकता।
रघुवंशमणि:-नई कहानी के दौर की महानगर केंद्रीयता से भी तो विचलन है?
दूधनाथ सिंह:-नई कहानी के दौर में सम्पूर्णत: महानगर केन्द्रीयता तो नहीं थी। अमरकांत, कमलेश्वर, रेणु, मारकण्डेय, शेखर जोशी, जितेन्द्र इत्यादि महत्वपूर्ण कहानीकार सबर्व्स के कहानीकार हैं। कृष्णा सोबती और रेणु तो दो विपरीत अंचलों के कहानीकार हैं पंजाब और बिहार मुक्तिबोध जैसे कहानीकार का भूगोल एकदम से छत्तीसगढ़ है। निर्मल वर्मा पहाड़ों और सबर्व्स की रोमांटिक शांति के कहानीकार है। दिल्ली, कलकत्ता या बम्बई पर कितनी कहानियां लिखी गयीं। दिल्ली पर और उसके ऐकान्तीकरण पर सबसे महत्वपूर्ण कहानी तो कमलेश्वर ने लिखी जो मैनपुरी, इलाहाबाद होते हुए दिल्ली पहुंचे जिस कहानी का शीर्षक है 'दिल्ली में एक मौत'। इसका यह अर्थ है कि हिन्दी कथा साहित्य मेटोपालिस का मोहताज नहीं है।
रघुवंशमणि:-निहायत ही प्रयोगधर्मी औपन्यासिक कृतियों के भाषिक प्रयोगों मे क्या आप हिन्दी गल्प का भविष्य देखते है?
दूधनाथ सिंह:-जैसे?
अनिल सिंह:-विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश, मनोहर श्याम जोशी वगैरह?
दूधनाथ सिंह:- हिन्दी का कथात्मक गद्य अभी पिछले सौ वर्षों से बनने बिगड़ने की प्रयोगात्मक प्रक्रिया में है। उसका कोई क्लासिकल मानदंड अभी तक नहीं बना। लेखक पुराने पैटर्न से छुट्टी पाने के लिए अक्सर प्रयोगधर्मिता पर उतरते हैं। जैसे प्रेमचन्द से छुट्टी पाने के लिए जैनेन्द्र ने त्यागपत्र लिखा। जैसे 'मैला आंचल' या ज्ञानरंजन की कहानियां। उसी परंपरा में विनोद शुक्ल के गद्य का विखण्डन और संरचना आती है। इस बार-बार की तोड़फोड़ मेें भारतीय समाज के ढांचे के विखंडन की अनुगूंज भी है। अत: इस तरह की कुछ साहसिक और दुस्साहसिक कृतियां सामने आ सकती हैं।
रघुवंशमणि:- आपने जब लिखना प्रारंभ किया था तबसे आज तक काफी समय गुजर गया है? बहुत सी ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं जिन्होंने संवेदनशील मनोमस्तिष्क को झकझोरा है? हिन्दी के एक वरिष्ठ लेखक के रूप मेें जब आप इस पूरे कालखण्ड को देखते हैं तो कैसा लगता है?
दूधनाथ सिंह:- यह लगता है कि कितने सधे हुए हाथों के बाद यदि मैं जवान हूं, अगर मुझमें शारीरिक ताकत है तो मैं एक लेखक के रूप मेें काफी उलट फेर कर सकता था। लेकिन उम्र की एक सीमा होती है। अब अधिक काम नहीं होता और मैं यह सोचता हूं कि 'आखिरी कलाम' लिखकर मैंने इस बनते बिगड़ते समाज के प्रति अपना हक कुछ हद तक अदा कर दिया है। लेकिन मैं फिर भी पछतावे की मन:स्थिति में हूं। मैंने बहुत सारा समय व्यर्थ में गवां दिया जबकि मुझे काम करते रहना चाहिए था. इस पछतावे से छुटकारे का शायद कोई रास्ता नहीं है।
रघुवंशमणि:-समय के इन परिवर्तनों के साथ साहित्य का जो अन्तर्सम्बन्ध बना है क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
दूधनाथ सिंह:-नहीं। लेखक लोग उपरी तौर पर ज्यादा देख रहे है। साहस और प्रतिभा की कमी हैं। फन और फैशन के प्रति आकर्षण ज्यादा है। सत्ता से सटने और छत्र चंवर की हवा खाने की फिक्र मेें लोग ज्यादा समय निकाल रहें हैं। घोर हैवानियत है। किसी पर किसी को यकीन नहीं। प्रायोजित प्रशस्तियों और प्रायोजित मल्ल युध्द, प्रायोजित फटकार ज्यादा है। जैसे साहित्य में विखण्डन है वैसे ही साहित्यिक बिरादरी भी विखण्डन का शिकार है। साहित्य और कला पर बात करने में भी चतुराई और चौकन्नापन नजर आता है। खुलेपन का अभाव है। जब कोई आपकी तारीफ करता है तो यह भी संभव है कि वह आपकी गर्दन रेतने की तैयारी कर रहा हो। चौबिसों घंटे सचेत रहकर अच्छा कैसे लिखा जा सकता है। इसके लिए तो आलस्य, दोस्त बिरादरी और छल-छदम विहीन मेल-मुहब्बत जरूरी है। जब एक लेखक अपने दूसरे सहयोगी से निश्चिन्त ओर निरावृत्त हो. ऐसा नहीं दिखता। सुकून नहीं है और मीडियाक्रिटी की बहार है। साहित्य मेें साहित्येतर नाते रिश्ते है। इस पूरे प्रपंच मे कितना कठिन हो गया है लिखना- विखना।
अनिल सिंह:-हिन्दी साहित्य में कहानी कितनी सम्भावनाशील लगती है आपको?
दूधनाथ सिंह:-कहानी एक छोटी विधा है । केवल कहानी के बल पर दुनिया में बहुत कम लेखक बच सके हैं जैसे चेखव। लेकिन वह एक सहवर्ती विधा है- उपन्यास की। उससे बहुत अधिक आशाएं करना व्यर्थ हैं। नयी कहानी के जमाने में इसे एक बिल्कुल स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा बनाने का प्रयास किया गया। आप देखें तो 50से सन् 60 के बीच में जितने बड़े और अच्छे कहानीकार पैदा हुए उतने फिर आगे नहीं हुए। प्रेमचंद, जैनेन्द्र अज्ञेय, यशपाल, रेणु, इन सबके लिए कहानी एक सहवर्ती विद्या है। निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती के लिए भी। मात्र कहानियों के बल पर जीवित रहने वाले ज्ञानरंजन और अमरकांत ही लगते है। आगे के बारे में बात करना अभी से कुछ ठीक नहीं है लेकिन आजकल जो लोग दो चार कहानियों को लेकर घुरघुटिया की तरह उड़ते है वो फुस्स होकर गिर जाते है।
रघुवंशमणि:- आपने अपने लेखन में किसे सहवर्ती विधा माना है?
दूधनाथ सिंह:- अपने बारे में कुछ नहीं कह सकता। पास्तरनाक ने भी जीवन में एक ही उपन्यास लिखा है।
रघुवंशमणि:- डॉ. नामवर सिंह के साथ चले एक विवाद में आपने कहा था कि हिन्दी में गल्प की परंपरा है, परंपराएं नहीं। लखनउ कथाक्रम के एक कार्यक्रम में उपजे इस विवाद को आप अब कैसे देखते है? क्या हिन्दी गल्प की परंपरा मोनोलिथिक है?
दूधनाथ सिंह:- हां, हिन्दी गल्प की एक मोनोलिथिक परंपरा है. वह मुख्य रूप से एक ग्रैण्ड नैरेटिब अनेक खानों में बंटा हुआ है। नामवर जी ने जब कहा तो उनके उपर दूसरी परंपरा का जिन्न सवार था जो आज भी बोतल की ठेंपी खोलकर निकल आता है। तब उन्हाेंने कहा था कि 'प्रेमचन्द इकहरे यथार्थवाद के लेखक हैं'। नामवर जी सोच समझकर किसी गोष्ठी को उलझाने के लिए आते है। उनके पीटने का तरीका अद्भुत हैं । अगर उदयप्रकाश को पीटना है तो वे 'जल डमरू मध्य' की तारीफ से पूरी गोष्टी को इस तरह हलकान कर देंगे कि उस कहानी का लेखक भी लाज से गड़ जायेगा। वहां यही हुआ था। दूसरे उन्हें विनोद कुमार शुक्ल की तारीफ करनी थी। अत: उन्होंने 'परीक्षा गुरु' से प्रारंभ हो कर प्रेमचन्द तक आने वाली परंपरा को बहिष्कृत करते हुए कहा कि हिन्दी उपन्यास सन्1880 से 'श्यामा स्वप्न' से शुरू होता है और 1980 में 'नौकर की कमीज' पर खत्म। यह है दूसरी परंपरा का जिन्न।
रघुबंश मणि:- इस मोनोलिथिक ग्राण्डनैरेटिब की परंपरा की मूल पहचान क्या बनेगी?
दूधनाथ सिंह:- इसकी पहचान भारतीय मनुष्य का संघर्ष-पैसिव और एक्टिव दोनों तरह का संघर्ष है। सांप्रदायिकता- साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष, अपनी मिली जुली और विशाल कौमियत के पक्ष में संघर्ष और उसके लिए मर मिटने की तैयारी। आप देखेंगे कि यह हमारे सौ वर्ष के ग्रैण्ड नैरैटिब के मूल तत्व है। लेकिन ये सिध्दांत के रूप में नहीं है। यह एक गल्प के कलात्मक ढांचे के अंतर्गत विन्यस्त है।
रघुवंशमणि:- आपके गल्प में लोगों का व्यक्तिगत जीवन चला आता है जिससे विवाद भी खड़े हुए है। 'नमो अंधकारम्' या 'निष्कासन' कहानी में इलाहाबाद के ही तमाम मित्र उपस्थित हैं. इसी तरह से ' आखिरी कलाम' में। इस बात को लेकर आपकी आलोचना भी होती रही है?
दूधनाथ सिंह:-प्रेमचंद की कई कहानियों के बारे में ऐसे दोषरोपण हुए थे। कालिया की 'नौ साल छोटी पत्नी' जिसके लिए उसने मार भी खाई और 'काला रजिस्टर' पर इस प्रकार की बातों का इल्जाम आता है । नैतिक गुस्से के बिना कोई लेखक नहीं हो सकता। और जहां अनैतिकता होगी गलत काम होगा, उस पर गुस्सा करना और उस गुस्से को रचना एक लेखक का कर्तव्य है। मैंने किसी व्यक्ति विशेष के बारे मे नहीं लिखा बल्कि नैतिक पतन की स्थितियो के बारे में लिखा जो हमेशा एक लेखक के कलात्मक अवदान का एक हिस्सा होती है। लोगों ने अपना चेहरा देखा तो इसका यह अर्थ है कि मेरा कलात्मक दर्पण एकदम पारदर्शी था और यह मेरी सफलता है। जब मैं लिखता हूं तो लोग तिलमिलाते हैं और दस साल बाद वही स्थितियां सच निकल आती है। वैसे भ्रष्टाचार और कुकर्म रोज होने लगते है। तब लोग कहते हैं कि हां उसने तो ठीक ही कहा था।
रघुवंशमणि:-लेकिन यह सवाल तो अपनी जगह है ही कि सर्जनात्मक साहित्य में दूसरों का व्यक्तिगत जीवन किस हद तक आना चाहिए?
दूधनाथ सिंह:- हां, यह सवाल है। लेकिन यह सवाल तात्कालिक है क्योंकि लोग क्षणजीवी हैैं। कला मेें आये चरित्र दीर्घायु हैं. टालस्टाय के 'अन्ना करेनिना' के अधिकांश पात्रों की पहचान उनके जमाने में की गयी। कहीं पुश्किन की बेटी है तो कहीं लेविन के रूप मे टालस्टाय स्वयं है। नोखलोदोव के बारे में भी लोगों को मालूम है, लेकिन वे लोग कहां है। चरित्र ही दीर्घजीवी है क्योेंकि वे कला संरचना के अंग है। फिर भी यह बात बहस तलब है और गलत भी हो सकती है।
रघुवंश मणि:-आपके रचनात्मक जीवन में सुखांत 1972 के प्रकाशन के बाद कुछ वर्षो का मौन है। यह मौन 'माई का शोकगीत' से टूटता है। इस रिक्ति का कारण क्या है?
दूधनाथ सिंह:-इस रिक्ति का पहला कारण बच्चे पालना हैं। यह वह दौर है जब उन्हें पढ़ाने लिखाने में मै लगा रहा। गरीबी थी और वे अगर ठीक से न पढ़ते तो आगे बेसहारा होने का डर था। इस काम में मेरा लगभग दस साल का समय गया। दूसरा कारण यह मेरे घोर वैचारिक परिवर्तन का समय है। विचारधारात्मक परिवर्तन का समय। पुराने तरीके से लिखना संभव नहीं था और वस्तु को नये ढंग से उठाने की आदत नहीं थी। इस तरह यह एक प्रकार के रचनात्मक और गैर रचनात्मक संघर्ष का दौर था। मेरे चरित्र के अराजक भटकाव भी इस संबंध में कुछ कारक थे। इसीलिए इतना लम्बा दौर व्यर्थ हुआ। हमारी पीढ़ी के लोग इससे दुखी नहीं होते लेकिन मैं आज भी पछतावे के गर्त में हूं। गृहस्थी, अवैध प्रेम और वैचारिक, आत्मिक संघर्ष तीनों ने मिलकर मुझे क्षत-विक्षत किया और मेरा काफी समय खाया। मैं कहता हूं कि लोगों को खुश होने दो और मुझे मरने दो।
अनिल सिंह:-अभी आपने अपनी अराजक जीवन स्थितियों और अवैध प्रेम की बात कही। क्या प्रेम भी अवैध होता है? किन संदर्भों में ये बातें आयी हैं?
दूधनाथ सिंह:-मैं पुरानी चाल का आदमी हूं और उसमें इस प्रकार की कोई कुपथगामिता मुझे अवैध लगती है। अपनी स्त्री के प्रति किसी को भी कृतघ्न नहीं होना चाहिए इसलिए मैं अवैधता की बात करता हूं। ये बातें आज हास्यास्पद और अनर्गल लग सकती है। दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी है और उसी हिसाब से पीछे घूमकर गर्त में गिर भी रही है। मैंने अपनी किसी कहानी में कहा है कि 'उपर उठना ही नीचे गिरना है।' मैं आधुनिक फैशनपरस्त उत्तर आधुनिक नहीं होना चाहता हूं। मैं अपने को निर्वसन और खुला रखना चाहता हॅू ताकि लोग जानें और समझें कि मैं इतना ही अच्छा और इतना ही बुरा हूं। यह मेरी कमी हो सकती है और मेरी जगहसांई का कारण हो सकती है कि न मैं शुध्द हूं न अशुध्द, न पवित्र हूं न अपवित्र। कहीं दोनाें के बीच, शायद।
अनिल सिंह:- ये आप कह रहे रहे हैं। आप तो एक दौर में 'मुक्ति प्रसंग' के कवि के बहुत निकट रहे हैं। एक तरफ आपके प्रिय कवि पंत, निराला और शमशेर हैं दूसरी तरफ अपनी अराजकता की तीव्र चुंबकीय शक्ति से खींचता हुआ राजकमल चौधरी का व्यक्तित्व। इन दो पाटों के बीच में आप कहां है?
दूधनाथ सिंह:-कलकत्ते के दिनों की बात है। राजकमल मेरे लिए घनघोर आकर्षण की तरह थे. सभी लोग उसकी निंदा करते थे। उससे बचे रहने की सलाह देते थे। पर कहीं अपने अन्तरतम मेें सारे झूठ, सारी चरित्रहीनता, सारी कमीनगी के बावजूद उसमें एक नंगी सच्चाई और प्रेम गृहस्थी के प्रति जिजीविषा और जीने का अद्भुत हठ भी था। मेरे स्वभाव की यह विशेषता है कि मैं किसी के कितने भी पास होता हुआ उससे प्रभावित नहीं होता। मैं एक घोंघे की तरह हूं जो अपने को भीतर समेट लेता है और बचाये रखता है। मैंने राजकमल चौधरी से कोई बुरी बात नहीं सीखी जबकि वह हर बुराई के द्वार तक मुझे ले जाता था। मैंने उसकी प्रतिभा का आदर करना सीखा। मै। अपने जीवन में किसी के लेखन और व्यक्तित्व से इस तरह प्रभावित नहीं हुआ कि अपना पथ खो दूं. अगर प्रभावित ही होना होता तो मेरा यह सौभाग्य है कि मैं महादेवी, पंत, निराला, अज्ञेय, शमशेर जैसे बड़े लेखकों के निकट रहा। लेकिन मैं तुरंत सावधान हो जाता था कि मुझे इनकी तरह नहीं होना है। यह चौकन्नापन एक अहमन्यता का पर्याय भी है। मैं किसी दूसरे की तरह न लिखना चाहूंगा, न लिखता हूं। मैं अपने नुक्ते पर अकेला हूं और हर लेखक को होना चाहिए।
अनिल सिंह:- राजकमल चौधरी की मॉर्बिड मन:स्थितियाें, जीवन शैली और कविता विन्यास का ही असर तो नहीं कि आप भी रचनात्मक प्रतिभा को आत्मघाती मानते हैं। जैसे कि 'लौट आ ओ धार' में आपने लिखा कि कलाकार ऐसे सिंह के समान होता है जिसके मुंह में अपना खून लग गया हो। या 'निराला: आत्महंता आस्था' शीर्षक इस संदेह को क्या और पुख्ता नहीं करता। निराला आपके प्रिय कवि हैं। आप पर आरोप भी तो लगे थे?
दूधनाथ सिंह:-अपने को खाना और रचते जाना एक चीज है जो निराला शमशेर या अज्ञेय सब बडे क़वियों में मिलती है। मार्बिडिटी के कारण आत्महत्या दूसरी चीज है। राजकमल चौधरी और निराला को मिलाया नहीं जा सकता क्योेंकि उनकी कवि प्रतिभा में जमीन आसमान का फर्क हैं. दोनों की जीवन शैली में एक फर्क है। इस प्रकार एक के लिए जो महानता का कारण बनती है दूसरे के लिए मीडियाक्रिटी का। यह कोई शर्त नहीं है लेकिन मैं आज भी इस बात पर कट्टरतापूर्वक स्थिर हूं कि एक बड़ा लेखक जितना ही अपने को खाता है उतना ही बाहर उसकी रचनात्मक समृध्दि बढ़ती है। अराजकता और आत्मभोज में फर्क है। शमशेर से बड़ा अराजक और आत्मभोजी कोई दूसरा नहीं। लेकिन यह प्रतिभा का ही कमाल है कि उसमें से कविता निकल कर आती है. गालिब से बड़ा अवसरवादी और पैरासाइट कम मिलेंगे लेकिन उसकी कविता उससे क्षरित नहीं होती। आत्मभोज वहां भी है लेकिन वह एशिया के सबसे बड़े कवि के रूप में उभर कर आता है। अत: कला की कोई शर्त नहीं है कि कैसा जीवन जियो। बड़ी कला और लेखक के जीवन का कोई अन्तर्सामंजस्य जरूरी नहीं है।
अनिल सिंह:- आपके लिए कविता एक छोड़ा हुआ रास्ता है। आप अपनी प्रारंभिक कविताओं को क्या जुवनेलिया समझते है या बाद के लेखन में उससे कुछ मदद मिली? आपने कविता का रास्ता क्यों त्याग दिया?
दूधनाथ सिंह:- कविता का रास्ता मुझसे सधा नहीं इसलिए मैंने छोड़ दिया। मैं उस किसी विधा में लिखना नहीं चाहता जिसमें मुझसे अच्छा लिखने वाला विद्यमान हो। चाहे लोग मुझे जितना मारें पीटें, वे जानते है कि कथा साहित्य मेें मुझसे पार पाना आसान नहीं है।
रघुवंशमणि:- समकालीन कविता के आप एक सुधी पाठक रहे है और इस पर टिप्पणियां भी करते रहे हैं। क्या समकालीन कविता परिदृश्य से आप संतुष्ट हैं?
दूधनाथ सिंह:-समकालीन कविता में काफी कुछ अच्छा लिखा जा रहा है। मैं समझता था आलोकधन्वा बहुत आगे जायेंगे लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है कि वे बीच हराई में ही थउस गये । फिर भी अपने एक ही संग्रह से वे बड़े कवि हैं। इसके अलावा इस वक्त के जीवित कवियों मेें मेरे सबसे प्रिय कवि विष्णु खरे है। उनकी प्रयोगधर्मिता और नये रिद्म का कोई जोड़ नहीं। चे ग्वेरा पर ऐसी कविता वे ही लिख सकते है। मेरी पसंद के कवियों की सूची काफी बड़ी है । अरुण कमल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, चन्द्रकांत देवताले, कुंवर नारायण मेरे बहुत प्रिय कवियों में से है।
अनिल सिंह:-आपने अपने कविता संग्रह में 1977 में भी रीति का प्रश्न उठाया था। अभी कुछ वर्ष पूर्व हिन्दी साहित्य सम्मेलन की एक गोष्ठी में भी आपने समकालीन कविता पर रीतिग्रस्त होने का आरोप लगाया था। उस समय की कविता और आज की कविता में आये रीति और रूपवाद को कैसे देखते हैं?
दूधनाथ सिंह:-मेरा मतलब कविता में नामहीनता की समस्या से था। अगर नाम हटा देने के बाद कोई कवि पहचाना जा सके या कोई कहानीकार, लेखक या चित्रकार पहचाना जा सके तो वह रीतिबध्दता का शिकार नहीं है। ऐसा फन और फैशन को शौक से अपनाने के कारण होता है। यह कला के क्षेत्र में व्यक्तित्वहीनता का लक्षण है जिससे सारे रचनाकारों और कलाकारों को बचना चाहिए। आखिर सारी जद्दोजहद तो इसी को लेकर है। अच्छा और पाक-साफ लिखना जरूरी नहीं है। ऐसा लिखना जरूरी है जिसपर आपके व्यक्तित्व की मुहर हो। आखिर शुक्ल जी रीतिकालीन कवियों पर क्या दोषारोपण करतें है? यही तो कि 'वाग्धारा बंधी हुई नालियाें में बहने लगी।' मैंने जब यह बात सम्मेलन की गोष्ठी मेें कही तो सारे कवि नाराज हो गये। लेकिन आज वे सभी महसूस करते है कि उन्हें सबसे अलग दिखना ही चाहिए और यह कोई जादूगरी नहीं प्रतिभा का करिश्मा है।
अनिल सिंह:-आपकी किताब 'लौट आ ओ धार' में इलाहाबाद पूरी जीवंतता के साथ मौजूद है। लेकिन आपने इसे रचनात्मक प्रतिभा से खाली होता हुआ शहर भी बताया है, जहां सिर्फ 'उत्खनन' बाकी है। क्या आपको अब भी ऐसा लगता है?
दूधनाथ सिंह:-अब और ज्यादा लगता है क्योंकि अधिकांश तेजस्वी नयी प्रतिभाएं रोजी-रोटी की मजबूरी में शहर छोड़कर बाहर जा रही है। इलाहाबाद शहर का, पहले भी एक दो लोगों को छोड़कर कोई यहां पैदा हुआ बड़ा लेखक नहीं हुआ। शहर के बौध्दिक और राजनीतिक केंद्र होने के कारण यहां बाहर से प्रतिभाएं खिंचकर आती थी। महादेवी, पंत, निराला, इलाचंद जोशी से लेकर धर्मवीर भारती और कमलेश्वर तक और उसके बाद की भी सारी नयी पीढ़ी बाहर से यहां आकर संकेंद्रित हुई। चाहे अज्ञेय हों या शमशेर, चाहे भैराव जी हों, शेखर जोशी हों या मारकण्डेय या अमरकांत, रवीन्द्र कालिया और ममता जी हों या उपेन्द्र नाथ 'अश्क', सतीश जमाली हाें या हरिश्चन्द पाण्डेय, मैं होउं या ज्ञानरंजन, जगदीश गुप्त हों, रघुवंश जी या रामस्वरूप चतुर्वेदी, सत्यप्रकाश हों रामकमल राय या लक्ष्मीकांत वर्मा हों,केशवचन्द्र वर्मा हों या वी. डी. एन. साही,मलयज, श्रीराम हों या सुरेन्द्र पाल,अमृतराय हों या श्रीपत राय,कैलाश गौतम हों या नीलकांत- लेखकों का यह सारा समुदाय शहर की बौध्दिक सक्रियता से आकर्षित होकर यहां आया। कहीं न कहीं या किसी भी तरह रोजी रोटी का भी प्रबंध लोग कर लेते थे। सारे भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन का केन्द्र और कांग्रेस पार्टी की गतिविधियों का केंद्र 'स्वराज भवन' था. इस तरह राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में एक गहन तालमेल और अंतर्मिलन था। प्रगतिशील लेखक संघ का केन्द्रीय दफ्तर यहीं था और यहीं से सैयद सज्जाद जहीर, रशीद जहां और महमूदुज्जफर ने मिलकर एक तरह से प्रगतिशील लेखक संघ का आरंभिक काम शुरू किया था। सन् 1943 में तारसप्तक का प्रकाशन, सन्1944 में परिमल की स्थापना और पहले से ही प्रगतिशील लेखक संघ का मजबूत गढ़ होने के कारण इलाहाबाद में साहित्यिक, सांस्कृतिक, वैचारिक संघर्ष चौथे, पांचवें और छठें दशक मेें अपने चरम पर था। धीर-धीरे केन्द्र इलाहाबाद से दिल्ली की ओर खिसकता गया और यहां का सारा बौध्दिक वितान और छितराने और हताहत होने की प्रक्रिया का शिकार हुआ। पंत और निराला रोजी-रोटी के लिए बिना कुछ किये यहां जीवन भर रहे। महादेवी रही।ं अमरकांत अपनी अपार आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद यहां पडे हुए है। सतीश जमाली, मारकण्डेय और शेखर जोशी भी इसी तरह रहते आये है। लेकिन अब संभव नहीं है। अनिल, बोधिसत्व, देवीप्रसाद मिश्र और तमाम नये लोगों को रोजी-रोटी की खोज तथा शहर की सांस्कृतिक शून्यता से खिन्न हो कर इसे छोड़ना पड़ा। अब यहां कुछ भी नहीं है। सरकारी खर्चे और टीए-डीए पर होने वाली गहरी उथली बहसें है, बचे खुचे कुछ दोस्त यार है जिनके भरोसे हम यहां पड़े हुए है। हमें उम्मीद भी नहीं कि नयी प्रतिभाएं इस शहर की ओर आकर्षित होगी यहां बसेंगी क्योंकि रोजगार एक भारी समस्या है। पेट पालने के लिए लोग दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता की ओर मजबूरी में भाग रहे हैं। आखिर कालिया दंपति को भी इस बुढ़ापे में एक सेठ की नौकरी करने कलकत्ता जाना ही पड़ा । ऐसे में इस शहर के लिए अब भूतकाल में बात की जायेगी। इसीलिए मैंने 'उत्खनन' शब्द का प्रयोग किया है।
सबसे विचित्र तो शमशेर हैं। कहाँ -कहाँ से घूमते-घामते, इलाहाबाद में डेरा जमाया। कुछ भी नही था करने को । कभी थोड़े दिन 'माया' में जरूर रहे। फिर कुछ नहीं। वही बहादुरगंज के एक के उपर एक तीन कमरों वाले मकान में लटपट,चिढ़े हुए,प्रशान्त, अतिथि-सेवा को उत्सुक शब्दों और काव्य-पंक्तियों के खेल में मस्त। क्या कहते हैं शमशेर अपनी इस 'रहनि' के बारे में:
'खुश हॅूं कि अकेला हॅूं
कोई पास नहीं है-
बजुज़ एक सुराही के
बजुज़ एक चटाई के
बजुज़ एक ज़रा से आकाश के
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर।
बुजुज उसके, जो तुम होतीं, मगर हो
फिर भी
यहीं कहीं अजब तौर से।'
यह है-इलाहाबाद में एक बड़े कवि के रहने का ढ़ब। लेकिन उन्हें भी भागना पड़ा। और जब दिल्ली गये तो सुराही चटाई और जरा से पड़ोसी आकाश के साथ रहना सम्भव नहीं था। वहाँ रहने के लिए कोश विभाग में काम करना पड़ा। फिर वहाँ से 'प्रेमचन्द पीठ' पर उज्जैन। और फिर ? फिर वहाँ से शमशेर उड़ गये-गुजरात के अन्त:प्रदेश सुरेन्द्र नगर। अब वे सहारा-बेसहारा दोनों थे। किस कवि नें क़ब्र में पैर लटकाये हुए प्रेम की इतनी उच्छल, घनघोर, मांसल कविताएं लिखी हैं? शायद किसी नें भी नहीं । लेकिन शमशेर गये तो यह जानते हुए गये कि:
' 'मैं तुम्हारे मुख में आनन्द का एक ग्रास हूँ'
अनिल सिंह:- जब हम लोग यहां विश्वविद्यालय में पढ़ने के आये तब भैरव प्रसाद गुप्त जी जीवित थे। बाद में उनका लम्बा साथ मिला। जलेसं की नियमित गोष्ठियां होती थीं। कई नये लोगों की टेनिंग जलेसं की गोष्ठियों द्वारा हुई। भैरव जी, अमरकांत जी, मार्कण्डेय जी, शेखर जी जैसे बड़े लेखकों को नजदीक से देखने-सुनने का अवसर मिला। बाद में सब कुछ विखर गया। ऐसा क्यों हुआ?
दूधनाथ सिंह:- मैने अपने सारे विद्यार्थियों, कवियों और लेखकों को साथ लेकर भैरव जी और मारकण्डेय के निर्देशन में जलेसं की गोष्ठियों और बहसों की सक्रियता बनाये रखी। उसी के भीतर से तुम सब नये लोगों ने अपनी प्रतिभा को पहचाना और उभर कर आये। फिर भैरव जी नहीं रहे। मारकण्डेय जी अनमनस्क और बीमार हो गये । तुम सब लोग बाहर चले गये। उसके बाद नये लोगोें को जब भी मैने बटोरना चाहा वे उतने सक्रिय नहीं दिखे । हीरालाल, श्रीरंग, और विवेक निराला को छोड़कर नये लोगों में अधिकांशत: प्रतिभा का अभाव दिखा। इन नये लोगों में हीरालाल सबसे प्रभावशाली कवि है क्योंकि वह कविता के बारे मेें कुछ नहीं जानता। सीधा है, थोड़ा हाबनाविंग भी करता है। श्रीरंग का एक नया संग्रह आया है अच्छा है। विवेक का संग्रह आना बाकी हैं। लेकिन गोष्ठियों और बहस मुबाहिसों में अब नये लोगों की रुचि नहीं दिख रही हैं। जलेसं का यह बिखराव भी दुखद है । हमारी इकाई भोपाल और दिल्ली की इकाई से भी ज्यादा सक्रिय इकाई थी। 'नया पथ' को बंद कर दिया। इन सब बातों को याद करना भी दुखद है।
अनिल सिंह:- इलाहाबाद में साहित्यिक सक्रियता के कम होते चले जानेके पीछे सिर्फ सरकारी खर्चे पर होने वाले आयोजनो ंको ही क्यों दोष दिया जाये। आखिर ऐसी गोंष्ठियाें का भी महत्व है और आप समेत सभी प्रमुख लेखक इन गोष्ठियों में भाग लेते रहे है। क्या आपको नहीं लगता कि इस साहित्यिक उदासीनता के पीछे अहं के परस्पर टकराव व नये आर्थिक सुधारों की वजह से आयी चमक-दमक द्वारा पैदा की गयी हड़बोंग भी एक वजह है?
दूधनाथ सिंह:- नही, मेरा ये कहना नहीं है कि सरकारी खर्चे से होने वाली गोष्ठियां बेकार है। अब मंहगाई इतनी है कि लेखक अपने खर्चे से साहित्यिक बहस मुबाहिसे के लिए नहीं जा सकते। संगठन के अखिल भारतीय अधिवेशनों में जाते हैं तो एक आस्था और सिध्दांत के तहत। बाकी कहां जाते हैं? पहले इलाहाबाद में जब 'परिमल' और 'प्रगतिशीलों' का जमावड़ा था तो कहीं जाने की जरूरत कहां थी। सारी बाते यहीं से निकलती थीं। सारी सरगर्मियों का केन्द्र था इलाहाबाद। और उन सरगर्मियों में खिंचाई -घिसाई-चमकाई थी, गर्दन उतराई नहीं। आर्थिक सुधारों से आये हड़बोंग का असर दिल्ली में है, जहां बड़न-बड़न और छोटन-छोटन सभी 'आयोवा' जाने के लिए मंत्रालयों में झख मारते फिरते है। गरीबों का ' डेलीगेशन' जाता है और अमूर्त-अमीरी का काव्यपाठ होता है।
रधुवंशमणि:-इमरजेंसी के दौरान आपने 'पक्षधर' नाम की पत्रिका प्रारंभ की थी। उसका सुसंपादित प्रवेशांक प्रकाशित हुआ था जो आपातकाल में जब्त कर लिया गया। फिर आपने उस पत्रिका को प्रकाशित करने का प्रयास क्यों नहीं किया?
दूधनाथ सिंह:- 'पक्षधर' को दुबारा निकालना मेरे जैसे आदमी के लिए संभव नहीं था। उसके लिए चलना-फिरना, हें-हें, रौब-दाब का प्रदर्शन, जजमानी, चिकटई- मैंने देख लिया कि मुझसे सम्भव नहीं है। मैं इस मामले में एक अक्षम व्यक्ति हूं। और फिर पत्रिका निकालने से लेखन बन्द होने की सम्भावना अधिक रहती है। अपना स्वाद चुन लो। तो मैने चुना-बच्चा लोगों को पालना, लिखना और थोड़ी बहुत आवारागर्दी। एक अच्छी पत्रिका निकालना एक 'रचना' को अंजाम देना है। जो दोनों एक साथ कर ले वह महान है। मुझसे एक ही नहीं सधता। आलस, बीमारियां, गुस्सा घेरे रहते है।
रघुवंशमणि:-हिन्दी साहित्य के एक दौर मे इलाहाबाद की पहचान 'परिमल' से बनती थी। आपकी इस संस्था के साथ कैसी अन्तर्क्रिया रही?
दूधनाथ सिंह:-'परिमल' में मुझे भारती ले गये। वहां काफी गहमागहमी थी। मै सदस्य भी रहा और उसके गिरते दिनों में मुहम्मदशाह रंगीले की तरह संस्था का संयोजक भी। ठीकठाक, इकतरफा पढ़े लिखे लोग थे। जिद्दी और घिसे हुए, खड़यंत्री और मसखरे भी थें। भारती के चले जाने पर संस्था का आधा बल नष्ट हो गया। फिर साही का देहावसान हो गया। वही सबसे प्रतिभाशाली और 'एकोमोडेटिंग' आदमी थे। गहन, तर्क -प्रवण, अपनी बातों पर अटल और भाषा की अनूठी सादगी लिये हुए। 'परिमल' की मुख्य विधा कविता थी और दूसरी आलोचना। कविता और आलोचना - दोनों मे ईलियट की पूंछ-' ओम शांन्ति: ओम शान्ति:' की तरह झांकती थी। अन्तत: 'परिमल' का आंदोलन हिन्दी का 'वेस्ट लैण्ड' साबित हुआ,- बीरान और सार्थक निरर्थक। 'परिमल' की दूसरी खामी यह थी कि वहां 'कायस्थवाद' प्रमुख विचारधारा थी। आप सदस्य संख्या गिनकर अन्दाजा कर लें।
अनिल सिंह:- आपकी प्रारंभिक कहानियों में फ्रायडीयन प्रभाव दिखता है, उन कहानियों को आप आज किस तरह देखते हैं।
दूधनाथ सिंह:- मैं उन कहानियों को डिस्ओन नहीं करता। वो कहानियां सन् 1960 के बाद की लिखी गयी है। उनकी पृष्ठभूमि में आजादी से मोह भंग है। वैचारिक संघर्ष और बहसों के अभाव से वे कहानियां पैदा हुई। संयुक्त परिवार के टूटने, राजनीतिक दिशाहीनता की आती धीमी आहट, एकल परिवाराें में पत्नी तथा प्रेम का द्वंद्व और अन्तर्विरोध इन कहानियोें का उत्स है और मेरी ही नहीं उस समय लिखने वाले सभी महत्वपूर्ण कहानीकारों की विषय वस्तु का विश्लेषण इसी तरह है। सिर्फ काशीनाथ सिंह अपने बड़े भाई के कारण एक कृत्रिम प्रगतिशीलता से चिपके रहे। लेकिन 'लोग विस्तरों पर' जैसी कहानियां उन्होंने भी लिखीं। जिसे तुम फ्रायडियन तत्व कहते हो, उस तरह का मनोविश्लेषणवाद और सबकान्शस का विश्लेषण इन कहानियों में नहीं है। वो एक निश्चित सामाजिक दौर की उपज है और नयी कहानी आंदोलन की प्रवृत्तियों से बिल्कुल अलग है।ॅ
रघुवंशमणि:- अपने जीवन मेें आये विचारधारात्मक बदलाओं से आपने क्या खोया और क्या पाया?
दूधनाथ सिंह:-मैने खोया कुछ भी नहीं और पाया बहुत कुछ। वैचारिक परिवर्तन से मै व्यक्तिवादी पतनशीलता से बच गया. मैं मानता हूं , अगर यह परिवर्तन न होता तो मेरे लिए लिखना असंभव होता लेकिन मैने अपनी रचनात्मकता के लिए ही इस वैचारिक विकल्प की खोज की। किसी ने मेंरा नेतृत्व नहीं किया ओैर अगर किया तो वे टालस्टाय थे जिनको पढ़कर के मेरे अन्दर बहुत से परिवर्तन हुए। मैने अपने समाज को ऐतिहासिक परिवर्तनो के भीतर से देखना शुरू किया। प्रारंभिक दौर में मेरे प्रिय लेखक ओसमुद्दजाई, काफ्का, कामू, वोदलेयर, आर्थर रेम्बो, लूई आरागां जैसे पश्चिमी लेखक थे । निश्चय ही मेरी मन:स्थिति पर इतने महान लेखको को पढ़ने का असर रहा है, इनकार नहीें कर सकता । मिथ आफ सेसाइफ, द रिबेल, द आउट साइडर, द टायल और द कासिल ने शुरुआती दौर में मुझे बहुत आकर्षित किया। आर्थर रेम्बो का ला इल्युमिनेशंस और 'ए सीजन इन हेल' मुझे बहुत प्रिय थीं। अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान मैने ज्ञानोदय मेें आर्थर रेम्बो पर एक बहुूत बड़ा लेख भी लिखा और एसीजन इन हेल के बहुत सारे अंशों का अनुवाद भी किया। लेकिन परिवर्तन का दौर टालस्टाय, चेखव और सोलोखोव जैसे लेखकों को पढ़ कर आया। एक महाकाव्यात्मक यथार्थपरक दृष्टि ने मुझे बदलने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। उसके साथ ही माक्र्स लेनिन और स्टालिन की किताबों ने भी । इस तरह मैने एक दूसरे छोर से अपने और अपने समाज को ढूढ़ना और पाना शुरू किया। लेकिन शुरूआती दौर को मेरा अध्ययन बेकार नहीं गया। मैने उन लेखकों से बहुत कुछ सीखा। और जो मैने साठ के दौरान पढ़ा उसे लोग अब पढ़ रहें हैं। मेंरे इस बहुत सारे अध्ययन में रेणु जी का हाथ है। जब वे यहां थे उन्हें नयी से नयी पुस्तकाें और अद्यतन पश्चिमी साहित्य का ज्ञान था। रिल्के की कविता औरगद्य से उन्होंने ही मुझे परिचित कराया। दोस्त्यवोस्की और आल्बेयर कामू को भी पढने की प्रेरणा उन्हाेंने ही दी। पियरे लुूई का अफ्रोदिती जैसा उपन्यास और सांग्स आफ ब्लिटीज जैसी गद्य वाली किताबे रेणु ने ही अपने इलाहाबाद प्रवास के दौरान मुझे पढने औेर रखने के लिए दी थी। इस तरह से एक संगठित और संश्लिष्ट अध्ययन ने एक लेखक के रूप में मेरा निर्माण करने में बहुत योगदान किया। इसमें उर्दृ और संस्कृत का अध्ययन कम महत्वपूर्ण नहीं है।
अनिल सिंह:-क्या आप मतलबी और आत्मकेन्द्रित हैं?
दूधनाथ सिंह:- परिवार के संदर्भ में मतलबी और आत्मकेंद्रित हूं, लेकिन दोस्तों और परिचितोें के संदर्भ में खुूला और बिछा हुआ हूं। वे मुझे आरपार देख सकते है। मेै अपने बेटे और शिष्य में भेद नहीं रखता और दोनो के लिए समान रूप से चिंतित रहता हँ। मेंरे दोस्तो की एक बहुत बड़ी विरादरी है जिनको मैं किसी भी कीमत और किसी भी स्वार्थ के लिए खोना नही चाहता हूं। उनके बिना मेरा अपना होना भी निरर्थक लगता है। अपने दोस्तों की इच्छा अनिच्छा का मैं हमेशा ख्याल रखता हूं। वे नाराज होते है तो मैं ही झुकने के लिए तैयार रहता हूं क्योंकि वे मेरे लिए अमूल्य हैं ।
अनिल सिंह:- झूठ का आपके जीवन और कृतित्व में कितना योगदान है?
दूधनाथ सिंह:- बहुत योगदान है। जीवन में झूठ मै मजे के लिए बोलता हूं कुछ पाने के लिए नहीं. अक्सर बोलकर पकड़ा जाता हूं। बहुत सारा झूठ गढंत और मौज के लिए होता हैं। लेकिन कभी कभी खतरनाक रूप से फंस भी जाता हँ। वह निरुद्देश्य है और कुछ पाने के लिए नहीं। लेकिन कई बार वह मुझे अविश्वसनीय भी बनाता है। लिखने मेें झूठ का अर्थ संकल्पना है यथार्थ से अलग होना नहीं हैं। अक्सर एक चमक की तरह कोई बात आती है और उसमें दुनिया भर की गढंत मैं शुरू करता हूं लेकिन उनके सूत्र कहीं जीवन और परिस्थितियों में होते हैं। यह जो कला की नैतिकता का सवाल ' नमो अंधकारम' या ' निष्कासन' पर उठाया जाता है वह सब कल्पना से गढंत और झूठ है। लेकिन वह 'सत्य' को प्रतिपादित करता है। कला का काम घटनाओं का आश्रय लेना नहीं है, अवचेतन में संग्रहीत होते जाते संप्रभावों का खुलते जाना है। वह किसी का जीवन चरित्र नहीं। उसका एथिक्स ही है कल्पना प्रसूत असत्य जो सत्य को सामने लाता है।
अनिल सिंह:- एक रचनाकार और व्यक्ति के रूप में आप किस तरह से याद किया जाना पसंद करेंगे?
दूधनाथ सिंह:- इसका जवाब देना बड़ा कठिन है। रचनाकार के रूप में तो मैं चाहूंगा कि मेरी रचनाओं को लोग प्यार करें और याद रखें क्योंकि वे अपने युग का संस्मरण है। उसमें भाषाई कांति और छलना भी है। उसमें ऐसा बहुत कुछ है जिसे अगर लोग खोजेंगे तो अपने जीवन में भी पायेंगे। जो आदमी अपने सारे लेखन-जीवन में तिरस्कार, उपेक्षा, उदासीनता, दुष्टताओं और षड़यंत्रों का शिकार रहा है उसे थोड़ा प्यार से याद किया जाना चाहिए। यह शायद हर लेखक चाहेगा। व्यक्ति के रूप में मैं चाहूंगा कि मेरी गल्तियों, बड़बोलियों और मेरे दोषों को लोग क्षमा करें और यह मानकर क्षमा करें कि मैं 'आदमी' था और 'इन्सान' बनना चाहता था। लेकिन ये बड़ी अपेक्षाएं है और किसी व्यक्ति और लेखक की अपेक्षाओं को कोई दूसरा क्यों स्वीकार करेगा। वह अपने ही ढंग से देखेगा।
अनिल सिंह:- आपकी कहानियों में कई बुरे पात्र आते हैं। क्या आप अपने को बुरे लोगों से घिरा हुआ प्रिंस हैमलेट समझते हैं?
दूधनाथ सिंह:- नहीं! ल्ेकिन एक लेखक के रूप में बुरे लोगों का चित्रण उसकी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी है। अच्छे लोग प्रेरणा नहीं देते न गुस्सा पैदा करते हैं, न समाज का कुछ बिगाड़ते हैं, न जीवन में कुछ गतिरोध या हलचल पैदा करते हैैं। ये सारे काम बुरे लोग करते हैं। इसलिए मेरा ध्यान बतौर लेखक उन पर ज्यादा जाता है। लेकिन मैने अच्छे लोगों का भी चित्रण किया है क्योंकि वे हमें प्यार करना और आत्मीयता सिखाते है। वे हमें उदास करते हुए हमें बड़ा बनाते है क्योेंकि वे हमेशा टेजिक पात्र होते है। ईसा मसीह को देखो और जु जूदा को देखो। एक आत्मबलि का शिकार होता है तो दूसरा आत्मघात का। मुझे जूदा ज्यादा आकर्षित करता है क्योंकि धोखा देने और पकड़वाने के बाद वह अपनी नृशंसता पर बौखलाया हुआ है। यह कुकर्म और जटिल ग्रंथि उसका पीछा नहीं छोड़ती और अंतत: वह आत्मघात करता है। कौन हमें किस तरह सुरक्षित रखता है और मानवीय बनाता है, यह एक लेखक बुरे को चित्रित करके जितना उपलब्ध करता है उतना अच्छे को चित्रित करके नहीं। अच्छे चरित्र एक क्लासिक श्रृंगार की तरह, बुरे चरित्र बनती बिगड़ती पतित दुनिया के भंवर में फंसे हुए एक जटिल ग्रंथि की तरह। टालस्टाय को देखो वो केरेनिना कारेनिना और ब्रोस्की जैसे बुरे चरित्रों को कितनी मानता से चित्रित करते है।
अनिल सिंह:-आपकी कतिपय कहानियों मेें दूसरों की लिहाड़ी लेने वाला जो 'आनन्द तत्व' है क्या उससे रचना का मूल्य प्रभावित नहीं होता?
दूधनाथ सिंह:- लिहाड़ी नहीं लेना चाहिए। वह रचना के सत्व को कमजोर करता है लेकिन कभी-कभी जी नहीं मानता और मैं खेलने - चिढ़ाने और मजा लेने की स्थिति में खुद मजा लेने लगता हूं । इससे लेखक की तटस्थता बाधित होती है, यह मैं मानता हूं। लेकिन यह लिहाड़ी रस कभी-कभी छोड़ता नहीं। मुझे यह भी लगता है कि ऐसा करते हुए किसी चरित्र, घटना या मन:स्थिति को आप शायद सम्पूर्णता में भी देखते हैं। यह प्रतिशोध नहीं हैं। रचनात्मक श्रम और अवसाद को कम करने के लिए एक कॉमिक रिलीफ की तरह मैं इसका इस्तेमाल करता हॅू।
अनिल सिंह:-भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के इस युग में साहित्य के लिए कितना स्पेस आपको नजर आता है?
दूधनाथ सिंह:- इसमें सबसे बड़ा खतरा भाषाई साम्राज्यवाद का है। अंग्रेजी का वर्चस्व दिनोदिन बढता जा रहा हैं। अर्थव्यवस्था, मीडिया, साहित्य और सम्पर्क की भाषा के रूप में वह सारी दुनिया पर अपनी इजारेदारी कायम करने के प्रयत्न में है। भारत जैसे कमजोर मन वाले देश के लिए भाषा के इस साम्राज्यवाद से सबसे बड़ा खतरा हमारी भाषाओं को है। अगर ऐसा हुआ अगर हमारी भाषाएं लुप्त हुईं तो हमारी स्मृतियां और मिथक भी लुप्त हो जायेंगे। हमारा इतिहास और वैशिष्टय भी लुप्त हो जायेगा। जैसे धर्मपरिवर्तन किसी भी परिवार या कबीले को अनायास ही एक दो पीढ़ी बाद अपनी पूर्व स्मृतियों और मिथकों से वंचित कर देता है उसी तरह वैश्वीकरण्ा भी। जिस अर्थव्यस्था की तुम बात कर रहे हो, वह भी वित्तीय और आवारापूंजी पर आज आधारित है। कभी भी हमको नष्ट करने के लिए वह अपनी आवारागर्दी से चुपचाप वापस लौट सकती है। और तब हम सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप में मुंह के बल गिरेंगें। हम परोपजीवी और गुलाम हो जायेंगे। इस लिए वैश्वीकरण और आवारा पूंजी से भिड़ंत की जरूरत है। उनको उनकी मांद मे ही मात देना बचने का तरीका है। चीन और जापान ने इसे सफलतापूर्वक करके दिखा दिया है। और मुंह के बल गिरने और गुलाम बनने का प्रतीक है लैटिन अमरीका, अफ्रीका और एशिया के बहुत सारे देश । पुराने जमाने की तरह अमरीका लैटिनुस को मर्सिनरीज की तरह पैसे देकर इराक और दूसरे देशों में लड़ने के लिए भेज रहा है। 'डालर लो और जान दो' यह छिपा हुआ अप्रत्यक्ष नारा है। विश्व अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण का यह नतीजा है।
अनिल सिंह:-हंस के संपादक राजेन्द्र यादव जी ने निष्कासन को छापने से मना कर दिया था ऐसा सुना है। उनके उपर कहानी कब लिख रहे है?
दूधनाथ सिंह:- राजेन्द्र जी कहानी से सहमत नहीं थे। उसमे कुूछ बदलाव चाहते थे। हालांकि उन्होंने जो दो काड्र्स मुझे लिखे उनमें यह भी लिखा कि कहानी अच्छी है। इस संबंध में उनका पत्र और एक छोटा साक्षात्कार मैं बतौर सफाई के हिन्दुस्तान अखबार लखनउ में भेज चुका हूं। दरअसल राजेंद्र जी को लोगों ने भड़का दिया कि यह भी किसी जीवित चरित्र पर लिखी गयी कहानी है। एक बार वे मुझे भुगत चुके थे, दुबारा नहीं भुगतना चाहते थे। राजेन्द्र जी और मन्नू जी के लिए मेेंरे मन में अलग-अलग तरह से बड़ी श्रध्दा है । राजेंद्र जी जितना कठोर बोलते है, उतने कठोर है नहीं। उन्होने मेरा पहला कहानी संग्रह अक्षर प्रकाशन से छापा था। मैं कितना भी खराब हूं कृतघ्न नहीं हॅू। हंस का हिन्दी कहानी के विकास में वही योगदान है जो कहानी और नयी कहानियां के संपादक भैरावप्रसाद गुप्त का था। अगर आज हंस बंद हो जाये तो हिन्दी के एक हजार कहानीकार मर जायेंगे । प्रेमचंद के हंस ने इतना बड़ा काम नहीं किया जितना राजेंद्र यादव द्वारा संपादित हंस ने किया। 'और अंत में प्रार्थना', 'तिरिया चरितर', 'चिटठी', 'क्षमा करो हे वत्स' जैसी कहानियां राजेद्र जी के हंस मे छपी जो हिन्दी कहानी की अन्यतम उपलब्धियां है।
प्रतिभा के लिए कोई शर्त नहीं
दूधनाथ सिंह
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हिन्दी के वरिष्ठ लेखक दूधनाथ सिंह का यह साक्षात्कार कथाक्रम पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इस पर बहुत से विवाद खड़े हुए थे। बाद में राजकमल प्रकाशन ने इसे 'कहासुनी' नामक पुस्तक में प्रकाशित किया था। नेट मित्रों के लिए इसे दुबारा प्रस्तुत किया जा रहा है।
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संपादकीय टिप्पणी:
हिन्दी के प्रसिध्द कहानीकार और उपन्यासकार दूधनाथ सिंह इधर अपने उपन्यास 'आखिरी कलाम' के कारण चर्चा में हैं। अयोध्या के बाबरी-मस्जिद ध्वंस की पृष्ठभूमि पर साम्प्रदायिकता के विरुध्द लिखे गये उनके इस उपन्यास को 'एक लम्बी छलांग' और 'एक सर्जनात्मक विस्फोट' कहा जा रहा है। यह उपन्यास विभिन्न प्रकार की त्वरित आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं के चलते विवादास्पद भी हो गया है। दूधनाथ सिंह के इस उपन्यास और उनके जीवन तथा कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को लेकर कथाक्रम के लिए यह बातचीत समालोचक रघुवंशमणि और कवि अनिल सिंह ने मिलकर की। दूधनाथ सिंह हिन्दी जगत में अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए जाने जाते रहे हैं। इस बातचीत के दौरान उनकी विभिन्न विचार-मुद्राएं सामने आयीं, कभी चिंता, कभी किलक तो कभी नाराजगी और दुख। यहाँ यह बताना जरूरी है कि यह साक्षात्कार संसदीय चुनावों के बाद केन्द्र में भाजपा सरकार के पतन के बस दो दिन पहले सम्पन्न हुआ।
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रघुवंशमणि:-दूधनाथ जी! 'आखिरी कलाम' को हिन्दी जगत में इधर लिखा गया एक महत्वपूर्ण उपन्यास माना जा रहा है। साम्प्रदायिकता पर लिखी गयी यह एक बेजोड़ कृति है फिर भी इसे लेकर समीक्षक आशंकित हैं। ऐसा क्यों है?
दूधनाथ सिंह- समीक्षकों की शंका के बारे में मैं पूरी तरह से बता नहीं सकता। तरह-तरह की शंकाएं हैं। उपन्यास का जो एक रस होता है और उसका जो एक बना बनाया ढांचा होता है, वह वहां नहीं। उपन्यास लोगों को थोड़ा सकते में डालता है। इस तरह की चीजें पढ़ने की आदत में नहीं है। समीक्षकों का एक बना-बनाया मान्य समीक्षा व्यवहार भी है। कुछ लोग तो कुछ भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं रहते। इसलिए ये शंकाएं हो सकती हैं, लेकिन इस उपन्यास को लेकर अधिकांश समीक्षकों ने सारी अपनी शंकाओं के बावजूद, अपनी पसंदगी का इज़हार किया है। कुछेक को छोड़कर। फिर भी समीक्षाओं को लेकर मैं हिन्दी जगत का कृतज्ञ हूं। मुझे शुरू से ही उदासीनता और उपेक्षा तथा मार-धाड़ का शिकार होना पड़ा है। लेकिन उसका नतीजा मेरे पक्ष में ही गया है।
रघुवंशमणि :- यदि निराला जी के शब्दों का प्रयोग करना हो तो क्या यह अभ्यास के कारण पैदा हुई समस्या है या कि यह उपन्यास परंपरागत उपन्यास आलोचना को समस्याग्रस्त करता है?
दूधनाथ सिंह :- निराला जी की समस्या! मैं समझा नहीं!
रघुवंशमणि :- निराला जी ने 'परिमल' की भूमिका में मुक्तछंद के संदर्भ में यह बात कही है कि कविता पढ़ने के 'अभ्यास' के कारण मुक्त छंद को स्वीकार करने में असुविधा हुई।
दूधनाथ सिंह :- यह संभव है, क्योंकि अभ्यास तो प्लाट संरचना वाले उपन्यासों को पढ़ने का है।
रघुवंशमणि :-आरोप यह है कि आपके इस उपन्यास में विस्तार बहुत हो गया है जिसके कारण इसका साम्प्रदायिकता विरोधी स्वर थोड़ा बिखर गया है या कहें कि थोड़ा कम प्रभावी हुआ है।
दूधनाथ सिंह :-मैं ऐसा नहीं मानता कि इसमें विस्तार है। मैंने उपन्यास की अंतिम पांडुलिपि तैयार करते वक्त उसमें से लगभग डेढ़ सौ पेज निकाल दिये। शब्द संक्षिप्ति का भी एक विस्तार होता है। इस कहानी में कोई भी पात्र लगातार विकसित नहीं होता क्योंकि वह कथा का उद्देश्य नहीं है। तत्सत् पाण्डेय एक बिन्दु की तरह है जिसके चारो ओर घटनाएं और चरित्र ग्रह-नक्षत्र की तरह घूमते रहते हैं। आकर्षण और विकर्षण भी तत्सत् पाण्डेय का ही है। जाहिर है कि प्लाट बांधने की संरचना में यह कथा कभी भी फिट नहीं होती। तत्सत् पाण्डे की जो बड़बड़ाहट है, वही मूल कथ्य है। मुझे कथा को आगे पूरा करने के लिए, तत्सत पाण्डेय के घायल होने के बाद बहुत परिश्रम करना पड़ा।
रघुवंशमणि :-फिर भी यह उपन्यास थोड़ा कम पृष्ठों का होता तो क्या प्रभाव की तीव्रता बढ़ जाती?
दूधनाथ सिंह :- उपन्यास लेखक से यह सवाल कैसे मौजूं हो सकता है? डा. इन्द्रनाथ मदान ने प्रेमचंद को लिखे अपने एक पत्र में यह सुझाव दिया था कि गोदान से शहरी कथा निकाल दी जाय तो वह ज्यादा संघटित और प्रभावोत्पादक उपन्यास होगा। प्रेमचंद ने इसे कतई स्वीकार नहीं किया। 'आखिरी कलाम' सूक्तियों में बोलता है। बड़बड़ाहटों में बात करता है। वह वर्तमान भारतीय समाज पर एक कमेंट्री की तरह संरचित हुआ है। हर चैप्टर एक ही समय में स्वतंत्र भी है और अंतर्ग्रथित भी। उसका यह शिल्प मेरे दिमाग में पहले से नहीं था, नोट्स भी नहीं थे। मेरी स्मृति बहुत अच्छी है। और अनिल को भी यह विश्वास नहीं है कि मैंने उन्हीं के साथ बाबरी ध्वंस के दो दिन पहले अयोध्या का दौरा सिर्फ एक बार किया। बड़ी रचनाएं नोट्स और इकट्ठा की हुई सामग्रियों से नहीं बनतीं, वे मन पर पड़े हुए सम्प्रभावों का कलात्मक संघटन होती हैं। अब मैं किसको-किसको रोऊं कि मैंने कैसे लिखा और क्यों लिखा। जो लोग इस कथा पर संदेह करते हैं, वे पछता रहे हैं।
अनिल सिंह :- आपके उपन्यास के मुख्य पात्र तत्सत् पाण्डेय का सफरनामा क्या एक प्रतीकात्मक प्रतिक्रिया या प्रतिरोध भर है? यदि ऐसा है तो फिर उसकी सार्थकता को आप किस प्रकार देखते हैं?
दूधनाथ सिंह :-प्रतिरोध भर नहीं है। लेकिन फिर भी प्रोटेस्ट है। उसके, यानि तत्सत् के अन्दर राजनीति और पुराने कम्युनिस्टों की एक बची-खुची झंकृति अभी विद्यमान है। लेकिन इतने से ही वह यात्रा पर नहीं निकलता। वह अपनी पारिवारिक असफलताओं और नष्ट-भ्रष्ट पारिवारिक जिंदगी से उबा हुआ, उदास और चिड़चिड़ा बूढ़ा भी है। जीने का रस उसके लिए बड़बड़ाहट, झगड़े और अध्ययन के अतिरिक्त कहीं बचा नहीं है। लेकिन इन सबके पीछे अपने इकलौते बेटे के न होने की एक घनी उदासी भी कारण है और उससे मिलाजुला एक बड़ा कारण आजादी और प्रजातंत्र का धीरे-धीरे एक विकृति में परिवर्तित होते जाना भी है। मैने कहीं कहा है कि उसका सफर उसकी अपनी शवयात्रा भी है। जीने और मरने में कोई भेद नहीं। इस स्थिति को अगर कोई समीक्षक आलोचक पाठक करुणा से नहीं देखेगा तो वह उपन्यास के सत्व से निश्चित ही वंचित रहेगा। तत्सत् पाण्डेय एक व्यक्ति नहीं एक युग की असफलता और अवसाद है। लोग नहीं समझते तो मैं क्या करूं। गालिब ने कहा है-
'पूछते हैं वो कि गालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या'
रघुवंशमणि :- आज के सांप्रदायिक उत्पात के दौर में यह बात कितनी आगे जा सकती है?
दूधनाथ सिंह :-कौन सी बात?
रघुवंशमणि :- यही तत्सत् पाण्डेय के विद्रोह की बात?
दूधनाथ सिंह :- मैं तो लगभग भविष्यवक्ता हूं। 'कारसेवक एक्सप्रेस' चैप्टर तो मैंने सन् 1998 में लिखा था। अब इसी से समझ लो, गोधरा कांड कब घटित हुआ। गालिब ने अपने उर्दू दीवान की अधिकांश गजलें 18 वर्ष की उम्र में लिख ली थी। यानि सन् 1819-20 तक। 1816 मे उन्होंने अपना पहला दीवान तैयार किया था। 1821 में दूसरा तब वो कुल 25 वर्ष के थे। लेकिन उनकी गजलें 1857 पर ऐसे लागू होती है, जैसे उस मुक्ति संग्राम गदर के दौरान लिखी गयी हों। मैला आंचल 1954 में लिखा गया और जातिवादी समीकरण हमारे प्रजातंत्र मेें 2004 में अपना नंगा नाच दिखा रहा है। लेखक एक ऐतिहासिक दौर के घटने पर भी अपने पहले के लिखे हुए से अगर प्रमाण्0श्निात और सार्थक होते हैं तो यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है। गालिब का शेर है-
'दागे फिराक सोहबते शब की जली हुई
इक शम्अ रह गयी है सो वो भी खमोश है'।
आप 1857 में घिरे हुए बहादुरशाह जफर को देखिये और इस शेर को। लगता है कि दोनो एकमेक हैं, जबकि शेर 1820 के आसपास लिखा गया होगा।
'आखिरी कलाम' तो सांप्रदायिक उन्माद का एक प्रारंभिक प्रतीक है। गुजरात पर तो इससे बड़े महाकाव्यात्मक उपन्यास लिखे जा सकते हैं, कोई करे तो। मेरा उपन्यास एक बिम्ब की तरह है जो इशारा भर करता है कि हिन्दू आतंकवाद किस सीमा तक जा सकता है। जो सार्वजनिक विरोध और व्यक्तिगत यानि तत्सत् अवसाद का प्रतीक है उसकी लाश तो एक रेलगाड़ी के ब्रेकवैन में एक उन्मादग्रस्त लौटती हुई भीड़ के साथ शंटिग कर रही है और कहीं नहीं पहुंच रहीं है। आशावाद का मतलब होता है। एक कलात्मक कृति में मृत्यु एक नैतिक गुस्से को जन्म दे सकती है। इस वक्त हमारा समाज बहुत घिसा हुआ, चुप्पी साधे और उदासीन समाज की तरह व्यवहार कर रहा है। मिली-जुली कौमियत के बारे मेें लोग उदासीन हो गये हैं।
रघुवंशमणि :- हमारे समय में सांप्रदायिकता के विरोध मेें चल रहा संघर्ष ज्यादातर नकारात्मक रहा है। सांप्रदायिक उन्माद के इस सारे घटनाक्रम को आप कैसे देखते हैं? आप इस परिप्रेक्ष्य में अपने समय को किस प्रकार देखते हैं? सांप्रदायिकता का प्रतिरोध किस प्रकार होना चाहिए?
दूधनाथ सिंह :- मैं अपने समय को एक टैजिक समय की तरह देखता हूँ। सांप्रदायिकता का प्रतिकार जनता ही करेगी और जनता को 'अपनी ही खबर' नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो साम्राज्यवादी घुसपैठ का खतरा ज्यादा बना रहेगा। अपनी समस्याएं हमेें खुद हल कर लेनी चाहिए। कब और कैसे होगा इसको मैं क्या कहूं? यह एक भयावह स्थिति है और हिन्दुत्ववाद, हिन्दू राष्ट और इससे सम्बध्द पार्टियां और संगठन इसके लिए जिम्मेदार हैं। हम अपने बचपन में यह भेद नहीं जानते थे। 'दाहा' उठाने पठानाें के गांव जाते थे। खानपान था। मिलाजुलापन पर्व था। यह अनुभव ही नहीं था कि हिन्दू मुसलामान दो कौमें हैं। मुझे अब इस संबंध में एक बेचारगी का अनुभव होता है। बड़बोली, पैम्फलेट, घोषणपत्र हम बहुत देखते रहते हैं। मध्य वर्ग से आये हुए बुध्दिजीवी भी इसको मिटाने के लिए जनता की हौसिला आफजाई कर सकते हैं। खुद उनका रोल बहुत सीमित है।
रघुवंशमणि :- उपन्यास के पात्रों और उनके वक्तव्योें को अक्सर लेखक के अपने वक्तव्यों के रूप मेें देखा जाता है। मेरे विचार से यह सही नहीं। 'आखिरी कलाम' पर अपने विचार व्यक्त करते हुए एक आलोचक ने लिखा है कि अपने पात्र की ही तरह आप की 'प्रतिबध्दता दिखाउ है' और लगता है कि आप 'साइकिक क्लोजर' के शिकार हैं। अपने और अपने पात्र पर की गयी यह टिप्पणी आपको कैसी लगती है?
दूधनाथ सिंह :- इस तरह का आक्षेप कोई करता है तो उसका यह अधिकार मैं कैसे छीन सकता हूं। तत्सत् पाण्डेय को तो मैं खुद ही ढूढ़ता हूं कि यह आदमी कहां से आया, यह कौन है। यह इतिहास की किस गुफा से निकलकर नमूदार हुआ। कितने ऐतिहासिक, अनऐतिहासिक चरित्रों का वह एक विम्ब है। मेंरे लिए तो वह खुद ही एक 'हेलूसिनेशन' की तरह है। जब वह खड़ा हो गया तो मैं अपने किये पर ही आश्चर्यचकित । वह तो अपनी देह से भारतीय राजनीति, स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद की स्थितियों का प्रतीक चिन्ह है। वह संकल्पना से रचित है और मुझे ही सकते में डालता है। जहां तक मेरी अपनी प्रतिबध्दता के दिखावटी होने का सवाल है तो मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति तो नहीं हूँ। धर्र्म का निषेध तो सांप्रदायिकता, नस्लवाद साम्राज्यवाद के विरोध की पहली शर्त है। लेकिन इस सत्य को कौन मानेगा? धर्म चढ़ा बैठा हैं। समुन्नत समाजों में भी धार्मिक आस्था वैसी की वैसी बनी हुई है। टेड टावर के ध्वस्त होने के बाद अमरीका ने जहां अफगानिस्तान पर चढ़ाई की वहां न्यूयार्क की जनता ने प्रार्थना सभाएं भी आयोजित कीं और उन प्रार्थना सभाओं में लोग रो रहे थे। अमरीका के लिए धर्म क्यों 'आत्मा की कराह' है, दलित शोषित तीसरी दुनिया के लिए हो तो हो। इसका उत्तर उपन्यास में है। जब तत्सत् पाण्डेय कहता है कि हर आदमी मरने से डरता है। हमारे यहां अनभयता की बात बहुत की गयी है। लेकिन ब्रेश्ट कहते हैं कि अगर आदमी डरे नहीं तो वह अपनी सुरक्षा के सवाल को ही नहीं उठायेगा। डर आत्मरक्षा और संघर्ष को जन्म देता है, जो नहीं डरता वो अत्याचारी होता है।
रघुवंशमणि :- तत्सत् पांडेय को लेकर एक स्फटिक फाँक की भी बात है- यानि कि सिध्दांत और व्यवहार के बीच की दूरी। क्या आप इसे इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण समस्या के रूप मे देख पाते हैं? एक सक्रिय वामपंथी के रूप में आप इस बात को किस प्रकार ग्रहण करेंगें?
दूधनाथ सिंह :- तत्सत् पाण्डेय एक सक्रिय वामपंथी नहीं है । जातिवादी उभार के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में जिस तरह से सक्रिय वामपंथ की गतिविधियों का क्षरण हुआ, उसकी झलक उपन्यास में है। कार्यकर्ताओं की आस्था अपनी जगह पर है। लेकिन उनका वैचारिक संघर्ष उत्तर भारत में जनता के संघर्ष से एकमेक नहीं है। यह एक टेजडी की तरह है। मुक्ति संघर्ष की बात हम करते हैं और जनता अपने मुक्तिसंघर्ष के लिए जातिगत खेमों में बटी हुई है। इसको वर्गयुध्द में कैसे परिवर्तित किया जाय, यह समस्या है। मैने उपन्यास में इसका बहुत विस्तार से चित्रण किया है। निष्कासन में भी इसका जिक्र था। मैं झूठ तो नहीं बोल सकता, जो देखता हूं वही कहूंगा। एक कलाकार के नाते यह मेरा 'धरम' है।
अनिल सिंह :- आपके उपन्यास में वामपंथी राजनीति की आलोचना कुछ अधिक ही हो गयी लगती है, ऐसा कहना है लोगों का। आपने सांप्रदायिकता के विरुध्द यह उपन्यास लिखते समय वामपंथ की यह लानत-मलामत क्याें जरूरी समझी?
दूधनाथ सिंह :- क्योंकि अंतत: मुझे वामपंथ से ही आशा है। मुलायम सिंह ने थोड़ा सा सन् 1991 में किया, लेकिन जातिवादी उलझनों में सत्तापरस्ती का ख्वाब देखने वाली पार्टियाें से मुझे कोई आशा नहीं है। मुझे कांग्रेस से भी आशा नहीं है। जिस समय बाबरी मस्जिद गिरी उस वक्त केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। अगर नरसिंह राव चाहते तो उनके लिए कारसेवकाें को रोकना बहुत साधारण बात थी। अभी फिर मुलायम सिंह ने कुछ नहीं होने दिया। लेकिन इसके बावजूद मुझे आशा वामपंथ से ही है। अगर वामपंथ कमजोर होता है तो सांप्रदायिकता मजबूत होती है। और मैं यह देख रहा हूं कि उत्तर भारत में वामपंथ का क्षरण लगातार जारी है। पश्चिम बंगाल और केरल, त्रिपुरा में जातिवाद, सांप्रदायिकता और हिन्दुत्ववाद अपना सर क्यों नहीं उठाते? क्योंकि बामपंथियों ने इसकी बू वहां जाने हीे नहीं दी। उससे वे बहुत कड़ाई से पेश आये, जबकि वहां का समाज भी जातियों में बंटा हुआ है, लेकिन वह वर्गाधार पर सोचता है। आरएसएस और बीजेपी के लोग इसको तोड़ने की कोशिश में लगातार लगे हुए हैं। इस संदर्भ में अगर 'आखिरी कलाम' में वामपंथ की आलोचना को आप देखें तो वह लानत मलामत नहीं है। मेरी आत्मा का संताप बोलता है। आखिर रामदीन मिसिर, शशांक, सर्वात्मन् जैसे जुझारू और प्रतिबध्द कार्यकर्ता आज भी वामपंथ मेें है। वह हिस्सा इसलिए भी लिखा गया है कि वामपंथी पार्टियों को अखबारों के बजाय सच्ची सूचनाएं दूसरी जगह से भी मिलें। उनकी आलेचना नहीं, बल्कि तकलीफ और सत्यता का वर्णन है।
रघुवंशमणि :- अपने उपन्यास के पात्र रामदीन मिसिर की तरह आप भी अपने हिन्दी क्षेत्र में वामपंथ को गहराई तक समस्याग्रस्त पाते हैं। आखिर रास्ता क्या है?
दूधनाथ सिंह :-रास्ता हमारे समाज को जातिवाद वर्णवाद से बाहर आकर इस लड़ाई को गरीबी और अमीरी की लड़ाई में परिवर्तित करना होगा। दूसरा कोई भी रास्ता कारगर नहीं है। उससे प्रजातंत्र और विकलांग होता चला जायेगा।
रघुवंशमणि :-हिन्दी उपन्यासों में एक अलग से पहचाने जाने योग्य पात्र है तत्सत् पाण्डेय। वृध्द, अन्तर्विरोधों का शिकार, स्मृतिभ्रंश की दहलीज पर खड़ा, वर्तमान और भूत में आता-जाता मगर दृढ़। इस अद्भुत पात्र का विचार आपके जेहन में कैसे आया? इस पात्र की सृष्टि किस प्रकार हुई?
दूधनाथ सिंह :- मैं बहुत लंबा जवाब नहीं दूंगा। लिखने के दौरान अचानक भूलने और याद करने का जिक्र आया। उससे मुझे इस शिल्प का 'क्लू' मिला। यह पहले से सोची हुई व्यवस्था नहीं थी। मगर एक बार सूझ जाने पर मैंने इसका भरपूर इस्तेमाल किया।
रघुवंशमणि :-'आखिरी कलाम' अपनी औपन्यासिक तकनीक मेें अलग किस्म का है। डा. परमानंद श्रीवास्तव इस बात को स्पष्ट स्वीकृति देते हैं। यथार्थोन्मुख होते हुए भी यह उपन्यास तकनीक के मामले में पारंपरिक यथार्थवाद का शिकार नहीं। यह ईजाद कैसे हुई?
दूधनाथ सिंह:- इसके बारे में मैं कुछ भी बतााने में असमर्थ हूं। रचना प्रक्रिया के दौरान बहुत सी बातें घटित हुई और उसी में से यह शिल्प भी आविष्कृत हुआ।
रघुवंशमणि :- आज के दौर में जब आपके उपन्यास के साथ ही साथ 'सूत्रधार' जैसी कृति भी आयी है तो हिन्दी उपन्यासों मे आने वाले इस तकनीक के वैविध्य को आप कैसा विकास मानेेंगे?
दूधनाथ सिंह:- हिंदी उपन्यास का वस्तुगत और शिल्पगत वैविध्य दर्शनीय और स्वागत योग्य है। संजीव मेरे प्रिय लेखक हैं। वे हमेशा सामग्री एकत्र करके लिखते हैं। अमृतलाल नागर भी यह काम करते थे। भिखारी ठाकुर पर उनको सरकारी वजीफा मिला था। राजेन्द्र जी ने दिलवाया था, ऐसा उन्होेंने मुझसे खुद कहा। संजीव सुलतानपुर के हैं। कुल्टी, पश्चिम बंगाल में रहते हैं। भोजपुरी भाषा-भाषी नहीं है। भिखारी ठाकुर पर यह वजीफा केदार जी को मिलना चाहिए था, क्योंकि उन्होंने भिखारी ठाकुर को लाखों के मजमें में देखा है और वे निखालिस भोजपुरी भाषी हैं। संजीव ने उस सामग्री पर एक कथाकृति की रचना की। 'धार' और 'सावधान नीचे आग है' के लिए भी उन्होंने इसी तरह सामग्री एकत्र की और प्रामाणिक उपन्यास लिखे। लेकिन ऐसी कृतियां गुम हो जाती हैं। साहित्य और कलाकृति में हमें स्थूल प्रमाण नहीं चाहिए। लेकिन जहां तक औपन्यासिक वैविध्य का सवाल है अलका सरावगी, असगर वजाहत का नया उपन्यास 'किसने आग लगायी' मैत्रेयी पुष्पा और इन सबसे महत्वपूर्ण चित्रा मुद्गल का कुछ वर्ष पहले लिखा उपन्यास 'आंवा' है जिस पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। स्त्री विमर्श की वह एक महाकाव्यात्मक कृति है। 'सूत्रधार' से भिखारी ठाकुर हमको खड़े दिखाई नहीं देते, हां योजनाबध्दता जरूर है।
अनिल सिंह:- आप भी तो अवधी भाषा-भाषी नहीं है फिर भी 'आखिरी कलाम' में आपने निखालिस अवधी भाषा का जोरदार प्रयोग किया है तो आप पर भी तो यह सिध्दांत लागू होता है?
दूधनाथ सिंह:- मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि संजीव नहीं लिख सकते। संजीव तो अपने उपन्यासों में पूरब की आंचलिक शब्दावली का प्रयोग करते है। मेरा मतलब यह था कि संजीव और केदार जी में किसका अधिकार ज्यादा बनता है भिखारी ठाकुर पर लिखने के लिए। मेरा कहना है कि केदार जी लिखते तो ज्यादा मौजू होता, हालांकि वह उपन्यास तो लिखते ही नहीं। अभी पिछले दिनों सारनाथ में 'संगमन' की गोष्ठी में नामवर जी ने यह कह दिया कि प्रोजेक्ट्स पर उपन्यास नहीं लिखे जा सकते। इस पर उनमें और संजीव में मारामारी की नौबत आ गयी थी। प्रोजेक्ट का अर्थ है स्थूल प्रामाणिकता। 'आखिरी कलाम' में कोई प्रोजेक्ट नहीं था। यहां तक कि बाबरी मस्जिद के गिराये जाने का ढंग भी कल्पित है। अगर आप बी.बी.सी. या मीडिया के चित्रों से मिलायेंगे तो वह यथातथ्य नहीं है, क्योंकि वह 'प्रोजेक्ट' नहीं है, कलात्मक और कल्पित है। यथार्थ का संवर्धन इस तरह होता है. वह यथातथ्य नहीं होता।
अनिल सिंह:- लेकिन टालस्टाय का 'युध्द और शान्ति' तथा 'पुनरूत्थान' भी तो शोध के आधार पर लिखे गये हैं। और शोध करके उपन्यास लिखने की एक परंपरा तो रही ही है। इस पर आप क्या कहेंगे?
दूधनाथ सिंह:- 'युध्द और शान्ति' में सिर्फ तीन ऐतिहासिक पात्र हैं। इन तीनोें का चौदह सौ पृष्ठों के उपन्यास में कितना योगदान है। इतिहास का एक स्केल्टन या अस्थि पंजर लिया है टालस्टाय ने। बाकी तो रूसी समाज है। नताशा, पियरे और अंद्रेई और ओल्ड प्रिंस निकोलाई और मारिया जैसे कल्पित सामाजिक चरित्र है। 'पुनरूत्थान' में सिर्फ जेल जीवन की सामग्री टालस्टाय ने एकत्रित की थी। बड़ी प्रतिभा के लिए कुछ भी वर्जित नहीं है, कोई शर्त नहीं है। लेकिन वह हो तब न।
रघुवंशमणि :- उपन्यास के क्षेत्र में तकनीक के स्तर पर प्रयोगधर्मी कृतियों को स्वीकार करने मेें क्या हिन्दी आलोचको मेें आप एक प्रकार की हिचक पाते हैं।
दूधनाथ सिंह:- हिचकिचाहट तो होती है। लेकिन फिर स्वीकृति भी मिलती है। हमारे आलोचक इतने कठोर और दम्भी नहीं हैं कि वो लगातार अस्वीकृति के ही शिकार हों।
रघुवंशमणि :- विचारधारा के स्तर पर आलोचकगण रचनाकारों से जिस प्रकार की डिमांड करते हैं क्या उसे आप सर्जनात्मकता के प्रतिकूल पाते है?
दूधनाथ सिंह:-आलोचना एक पैरासाइट काम है। कृति पहले है आलोचना बाद में। अक्सर आलोचक यह समझते हैं कि उनकी मांगे जायज हैं, क्योंकि वे पढ़े लिखे लोग हैं। रचनाकार अपनी स्वतंत्र मेधा, अनुभव सम्पदा और कल्पना से काम लेता है। आलोचक गाहे बगाहे अपनी बातें लादते हैं। ज्यादा लादोगे तो लेखक एक कमजोर प्राणी होता है वह नमक का बोरा लादे हुए उस बैल की तरह होगा जो नदी हेलते वक्त बीच धार मेें बोझ से दबकर बैठ गया और सारा नमक बह गया। लेखक पर लादोगे तो वह इसी तरह बैठ जायेगा और हल्का होकर नदी पार कर जायेगा। चाहे उसे जितने डण्डे मारो वह तुम्हारा नमक वापस नहीं लौटा सकता। वह तुम्हारे लादे हुए बोझ को नहीं ढोयेगा। तुम्हारा विचार बड़ा है या लेखक की संकल्पना शक्ति यह तो समझना चाहिए।
रघुवंशमणि :- 'आखिरी कलाम' ब्राह्मणवाद विरोधी कृति भी है। उपन्यास मेें यदि एक तरफ सांप्रदायिकता का विरोध है तो दूसरी तरफ जातिवाद का भी। मुझे लगता है कि किसी विन्दु पर ये दोनों समस्याएं एकाकार होती हैं?
दूधनाथ सिंह:-बिल्कुल! जातिवाद भी एक तरह की सांप्रदायिकता है। लोगों की समझ में अभी नहीं आया, शायद आगे आये।
रघुवंशमणि :- 'आखिरी कलाम' लोहिया के चिंतन का भी एक क्रिटीक प्रस्तुत करता है। 'जाति ही वर्ग है' इस विचार की जोरदार आलोचना है। तो क्या लोहिया के चिंतन में भी सांप्रदायिकता के तत्व हैैं?
दूधनाथ सिंह:- आज जार्ज फर्नांडिस से बड़ा इसका उदाहरण कौन हो सकता है। लोहिया के चिंतन में भयंकर हिन्दुत्ववाद है। गांधी जी जब कहते थे कि 'मैं एक सनातनी हिन्दू हूँ' तो उनके कहने में खोट नहीं थी लेकिन लोहिया जब राम, कृष्ण और शिव के मिथकों पर लिखते हैं तो वह हिन्दुत्ववाद का एक रसमय प्रतीक चिन्ह भी बन जाता है। क्या यह यूं ही है कि लोहिया के अधिकांश अनुयायी हिन्दुत्ववादियोें के साथ चले गये।
रघुवंशमणि :- लोहिया अपने विचारोें में साम्प्रदायिकता के समर्थक तो नहीं थे? वे तो बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को फासीवाद की जननी मानते हैं?
दूधनाथ सिंह:- लोहिया में यह अंतर्विरोध है। बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का हीरो आखिर कौन है? राम, कृष्ण और शिव। जब आप तीनों मिथकीय प्रतीकों की रसभरी संरचना करते हैं तो आप क्या बहुसंख्यक फासीवादी सांप्रदायिकता का अनजाने ही समर्थन नहीं करते? तो लोहिया में अंतर्विरोध तो हैं। वह जनता को एक समग्र एनटिटी नहीं मानते। कभी अगड़ा- पिछड़ा, कभी राम, कृष्ण और शिव, कभी 'माक्र्स के बाद अर्थशास्त्र' इस तरह की विवेचनाएं और तरह-तरह की युक्तियां उनकी विचारधारा में एक अंतर्विरोध को जन्म तो देती ही हैं। कोई आदमी ईमानदार हो इससे यह साबित नहीं हो जाता कि उसमें अंतर्विरोध न हों।
अनिल सिंह:- जाति और वर्ग के संदर्भ में आपने 'कथन' मेें नामवर जी का यह वक्तव्य उध्दृत किया था कि ' वर्ग के साथ वर्ण और वर्ण के साथ-साथ जाति को ध्यान में रखकर विश्लेषण करना चााहिए और उस वर्ग संघर्ष को समझना चााहिए।' क्या आपकी यह बात उस टिप्पणी से अलग नहीं है, जिसमेें आपने नामवर जी का समर्थन किया था?
दूधनाथ सिंह:- नामवर सिंह के कथन से मेरी सहमति अभी भी पूरी तरह गलत साबित नहीं हुई है। नामवर सिंह तो कभी कुछ कहते हैं कभी कुछ। लेकिन वो अक्सर बड़ी और व्यवहारिक बातें भी करते हैं। वामपंथी दलों ने 'पुश द कास्ट फैक्टर फारवर्ड एण्ड देन पुल इट टूवड्र्स क्लास फैक्टर' का जो नारा दिया था उस नारे पर काम करने की जरूरत है। जातिगत समीकरण कभी भी इस देश का भला नहीं कर सकते। अंतत: वे एक तरह के फासिज्म से दूसरे तरह के फासिज्म की तरफ ढकेलते रहेंगे। ऐसी स्थिति में समाज का ढांचा चरमरा सकता है और एक गहन अराजकता उत्पन्न हो सकती है। अभी भी हमारा समाज कबीलाई गिरोहों का समाज है। जो आप जी.डी.पी. बढ़ने और विदेशी मुद्रा भंडार की बढ़ोत्तरी की बात करते हैं, वह भारत की 10 प्रतिशत नवधनिक परिवारों के लिए है। मेटोपोलिसेज में भी नये कबीलाई समाजों का उदय हो रहा है और भारत की वर्गीय संरचना लगातार बदल रही है। इन सबको ध्यान में रखकर तब मैंने यह बात कही थी, क्योंकि रामविलास जी अपने कथन में आर्थोडाक्स माक्र्सवाद से इंच भर भी नहीं खिसकना चाहते। आखिर हमें जमीनी सच्चाइयों पर गौर तो करना ही होगा।
रघुवंशमणि :- आपके उपन्यास में नेहरू के प्रति गहरा सम्मान व्यक्त किया गया है। नेहरू वास्तव में भारत के सबसे बड़े आधुनिक और सेकुलर व्यक्ति रहे हैं। मगर क्या उनके प्रति गहरा लगाव थोड़ा नॉस्टाल्जिक नहीं?
दूधनाथ सिंह:-नास्टैल्जिक है। लेकिन इस नास्टेल्जिया का कारण है। अगर 1935-40 के बीच स्वराज्य भवन मेें काम करने वाले लोगों के बारे में आप गौर करें तो उसमें प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को आप ज्यादा पायेंगे। यह नेहरू की बदौलत ही संभव हुआ। यह घुसपैठ नहीं बल्कि नेहरू के मिजाज के अनुकूल भी था। सन्1916 मेें किसान आंदोलन से उन्होंने अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया और 1935-36 मेें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की संकल्पना भी की। मिश्रित अर्थव्यवस्था का स्वप्न नेहरू का था। विनिवेशीकरण के दौरान आज जिस तरह हम देशी संसाधनों की बिक्री देख रहे है। अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद के कारण आउटसोर्सिंग के माध्यम से जिस तरह हिन्दुस्तान को क्लर्को के देश में परिवर्तित किया जा रहा है उससे मैकाले की छवि एक ब्रम्हराक्षस की तरह दिखायी देती है। इन सभी कारणों से 21वीं सदी के इस प्रारंभ में नेहरू और गांधी का नास्टैल्जिया किसी बुध्दिजीवी और लेखक के जीवन का एक जरूरी हिस्सा होना चाहिए।
रघुवंशमणि:- 'अकार' मेें 'आखिरी कलाम' की जो समीक्षा छपी है, आपने पढ़ी?
दूधनाथ सिंह:- देखिये मुझ पर धौंस नहीं चल सकती। आखिरी कलाम को समझने के लिए दिमाग की जरूरत है,दाँतों की नहीं। कोई कारसेवक है जो भेस बदल कर बैठा हुआ है।..... वैसे मैं उनको नहीं जानता। हो सकता है, कभी दुआ सलाम हो। मुझे थोड़ा शक भी था। एक अरूण प्रकाश आनन्द में भी हैं। भारत भारद्वाज का एक दिन फोन आया। वे मेरे लिए अक्सर चिंतित और दुखी रहते हैं-खासकर ऐसे अवसरों पर। मैने अपना शक जाहिर किया। दुबारा उनका फोन आया तो उन्होनें 'कन्फर्म' किया कि नहीं आनन्द वाले अरूण प्रकाश नहीं ,दिल्ली वाले अरुण प्रकाश हैं। 'थोरा-थोरा लंगरा कर चलते हैं' भारत जी ने कहा।
देखिये, उनको इस समीक्षा से शोहरत मिलेगी। कहानीकार के रूप में उनको कौन जानता है। ऐसे दो हजार कहानीकार हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का पेट भरने के लिए पड़े हुए हैं।
अनिल सिंह:-गिरिराज जी ने यह समीक्षा क्यों छापी?
दूधनाथ सिंह:-यह तो गिरिराज जी से पूछिये। वे हमारे जवानी के दिनों के मित्र हैं और हमारी मैत्री बरकरार है। गिरिराज जी ने छापने से पहले मुझे बता दिया था। और मैंने उनसे कहा कि चाहे जितनी खिलाफ हो कुछ भी काटना पीटना मत। भोजपुरी मेें एक कहावत है 'बड़-बड़ बहाइल जांय गदहा पूछे कितना पानी'। अब क्या अरूणप्रकाश -अरूणप्रकाश!
अनिल सिंह:- 'तद्भव' में छपे हुए काशीनाथ जी के संस्मरण 'घर का जोगी जोगड़ा' में एक जगह उन्होंने कहा है कि 'इलाहाबाद से कोई आया और बताया कि अशोक वाजपेयी दूधनाथ सिंह को 'निराला सृजन पीठ' से निकालने वाले हैं।' क्या वाकई ऐसा ही था?
दूधनाथ सिंह:-यह बाबू काशीनाथ सिंह का निखालिस झूठ है। 'इलाहाबाद से कोई आया' इसमें यह ध्वनि है कि यह इलाहाबाद में प्रचारित होगा, और प्रचारित होगा तो इसमें मेरा हाथ होगा।मेरे लिए तो जो किया कमला प्रसाद ने किया। उन्होंने ही मेरा बायोडाटा भेजा। अभी भी मेरे लिए जो करते हैं, वही करते हैं।'कला-परिषद' में उन दिनो श्री राम तिवारी थे। उनका फोन आया। उस दिन 14 दिसंबर 1996 था। 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' में 'अश्क-निधि' का कार्यक्रम चल रहा था। शेखर जी वहाँ थे। मैंने उनसे पूछा और सलाह मांगी। उन्होंने जोर देकर कहा,'जाओ।' 15 को चलकर मैं 16 को भोपाल पहुँचा और उसी दिन 'ज्वाइन' किया। मुझे तो तब तक यह भी नहीं मालूम था कि 'निराला सृजन-पीठ' भारत भवन से संबध्द है। जैसे 'मुक्तिबोध सृजन-पीठ' सागर विश्वविद्यालय और 'प्रेमचंद सृजन-पीठ' विक्रम विश्वविद्यालय से संबध्द है वैसे ही मैं समझता था कि 'निराला सृजन-पीठ' बरकतुल्ला विश्वविद्यालय,भोपाल से संबध्द होगी। वहाँ जाने पर जब मालूम हुआ तो मैं और खुश हुआ। अशोक वाजपेयी मेरे घनिष्ठ मित्र हैं और मेरे उपर उनके बहुत-सारे साहित्येतर उपकार हैं।मैं खुश तो हुआ लेकिन मैं 'दो-पाटन के बीच' भी था।....बहरहाल,जो काशीनाथ सिंह ने कहा है वह झूठ ही है।उस बीच अशोक के दो-तीन पत्र मुझे मिले....अत्यन्त प्रिय और आत्मीय।...'इस बीच हो सकता है, तुमने अपने छोटे उपन्यास को अन्तिम रूप दे दिया हो। उसकी क्या खबर है?तुम्हें क्या बताना कि अन्तत: हमारा लिखा ही बचने वाला है और समय बड़ी तेजी से भागता है। अवसर मिला है तो उसे दाँत से पकड़कर रखो, व्यर्थ मत जाने दो।' 'रचनात्मक विस्फोट' है तो उसे भरपूर होने दो।' यह पत्रांश 1 जून,1997 के लिखे हुए पत्र से है। वहाँ रह कर मैने वह 'छोटा उपन्यास' तो पूरा नहीं किया, हाँ, 'नमो अंधकारं' लिखी,कहानी पर अभी तक मेरा मात्र इकलौता लेख 'हिन्दी कहानी का झूठा-सच' लिखा,जो'पूर्वग्रह' में छपा, और 'आखिरी कलाम' का दूसरा हिस्सा पूरा किया।
काशीनाथ सिंह इस तरह के गढ़न्त में माहिर है। 'किस्सा साढे चार यार' में लिखा कि मैं गाजीपुर से पैदल चलकर आया था, जबकि मैं मुगलसराय से पैदल चलकर आया था । किसी की जगहंसाई हो, किसी की गर्द्रन उतर जाय, काशीनाथ सिंह सुर्ती फटकाकर दबा लेते हैं और हंसते है। गले मिलते हैं तो शाइस्ता खां की तरह मिलते हैं। पिछले 'कथाक्रम' की गोष्ठी मे भी उन्हें मेरे उपर कुछ नहीं बोलना था। सो उन्होंने एक लतीफा गढ़ा। उन्हें ' सिरी लाल सुकुल' और ' दूधनाथ सिंह' के नामों का मजाक उड़ाना था। क्यों, आप समझ सकते है। श्रीलाल जी मुंह बाये उन्हें देखते रह गयें। काशीनाथ सिंह ने कभी मेरे साथ इलाहाबाद में नौका विहार नहीं किया। लेकिन जब कुछ कहने को नहीं है तो लतीफा तो चलेगा। विजय मोहन ठीक ही कहते है।कि काशी आधा 'बफून' है।
बहरहाल, जिस बात की ओर काशी का इशारा है, वह बात मुझे दस महीने बाद भोपाल के एक मित्र ने बतायी। मैं बहुत खिन्न हुआ। अगर अशोक नहीं चाहते थे तो मैं यहां नहीं रहूंगा। मैंने अपने एक मित्र की इच्छा का अनजाने ही अनादर किया। वह खबर सच हो या झूठ, मैं इसे 'कन्फर्म' भी नहीं करूंगा। दूसरे दिन चुपके से मैं स्टेशन गया चार दिन बाद का रिजर्वेशन मिला। मैं गुमसुम पड़ा रहा या राजेश के साथ 'अप्सरा' में बैठकर वक्त बिताता रहा। चौथे दिन मैने अपना इस्तीफा लिखा, खुद ही जवाहर चौक पर जाकर टाइप कराया, चार लिफाफों में भरकर, चिपकाकर, 'पिउन बुक' में चढ़ाकर बहादुर को बल्लभ भवन, कला-परिषद और भारत भवन भेजकर प्राप्ति स्वीकृति ली। सिर्फ भारत भवन में मदन सोनी ने पत्र खोला और तुरंत अशोक को 'फैक्स' पर लगा दिया। मैं अभी स्टेशन चलने के लिए सामान समेट ही रहा था कि अशोक का फोन आ गया, ' क्या हुआ? क्यों जा रहे हो? भारत भवन में किसी ने तुम्हें कुछ कहा क्या? मैंने सिर्फ यही कहा कि मेरी पत्नी इलाहाबाद में अकेली है। मैने उस बात को अपने प्रिय मित्र से 'कन्फर्म' भी नहीं किया। अगर सच हो तो मुझे कितना 'डिप्रेशन' होगा और झूठ होगा तो मैं उसके सामने गड़ जाउंगा। इसलिए जैसा-का-तैसा रहने दो। मैंने अपने एक मित्र कमला प्रसाद की इच्छा का सम्मान किया, अब मुझे झूठ या सच दूसरे मित्र की इच्छा का भी सम्मान करना चाहिए। लेकिन निकालने वाली बात तो गढ़न्त है, क्योंकि काशी सास-बहू का किस्सा नामवर जी के हवाले से लिखना चाहते थे।......और मै भिखमंगा तो हूं। बिड़ला तो काशीनाथ सिंह है।
रघुवंशमणि:- इधर के दशकों में लिखे जाने वाले हिन्दी के गल्प अर्थात कहानी एवं उपन्यास को आप नई कहानी के दौर के गल्प से कैसे विलगायेंगे?
दूधनाथ सिंह:- दरअसल इधर का सारा कहानी लेखन या औपन्यासिक काम पहले के कामों का ही विस्तार है। यह भी है कि ये सारे काम अपने समय को समाज या राजनीति को प्रमाणित करते चलते हैं लेकिन एक बड़ी दुर्घटना को इधर के उपन्यास या कहानियों में नहीं छुआ और वह है आपातकाल। उसकी छाया लेखकों पर यहां तक कि कवियों पर भी कम दिखाई देती है। जिस तरह से प्रेमचंदोतर उपन्यासों में क्रांतिकारी राजनीति और विभाजन तथा संयुक्त परिवारों के विखंडन को अपना विषय बनाया गया उस तरह से आपातकाल को नहीं उठाया गया।
रघुवंशमणि:-एक उपन्यास है निर्मल वर्मा का 'रात का रिपोर्टर'।
दूधनाथ सिंह:-वह उनके उपन्यासाें में मेरे हिसाब से सबसे अच्छा उपन्यास है, जो पहाड़ और मृत्यु की नास्टैल्जिया से अलग है। और जिसमें भय और आतंक का अद्भुत चित्रण किया गया हैं। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि उसमें भय और आतंक के अमूर्तन द्वारा आपातकाल का अमूर्तन है।
रघुवंशमणि:-आप लोगों की पीढ़ी यानि कि ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह और आप की पीढ़ी नई कहानी वाले दौर के लेखकों की पीढ़ी से अलग थी। आज के गल्प लेखकों और अपनी पीढ़ी के बीच क्या आप किसी प्रकार का गैप देखते है? मतलब यह कि रचनात्मक स्तर पर अस्सी के बाद के लेखकों को आप अपनी पीढ़ी से अलग पहचान किस प्रकार देना पसंद करेंगे?
दूधनाथ सिंह:-कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं है। जैसाकि मैंने कहा कोई बहुत सारे नये विषय 80 के बाद नहीं उठाये गये। पारिवारिक विखंडन, नगरीकरण, बेरोजगारी, सामाजिक अवमूल्यन, राजनैतिक विकलांगता, शहराें की ओर पलायन ये विषय हैं जिनकी दुरभिसंधि में घिरे हुए पात्रों का चित्रण 80 के बाद के कहानीकार करते है। उनके लेखन में हमारी पीढ़ी और नयी कहानी की पीढ़ी की प्रवृत्तियों का अद्भुत घालमेल है। एक ओर मोहभंग और पारिवारिक विखंडन तो दूसरी ओर राजनैतिक और सामाजिक विकृतियां और तीसरी ओर रोमांस। इन तीनों का मिला जुला समृध्द विस्तार है 80 के बाद की कहानियां। अभी हाल में जब हम लोग नागपुर में उदयप्रकाश को पहल सम्मान दिये जाने के अवसर पर एकत्र हुए और वहां से सेवाग्राम और महात्मा गांधी अन्तर्राष्टीय हिन्दी वि.वि. गये तो विश्वविद्यालय की एक गोष्ठी में संजय चतुर्वेदी ने कहानीकार उदय प्रकाश के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी- 'उदय प्रकाश हिन्दी कहानी परंपरा का विस्तार नहीं उसका विचलन है।' मेरे कहने का अर्थ यह है कि उदय प्रकाश के अलावे 80 के बाद के कहानीकार प्रेमचंद से चली आती कहानी और उपन्यास परंपरा का विस्तार है और विचलन सिर्फ एक हैं वह है उदय प्रकाश। यह जान लीजिये कि कोई परंपरा के विस्तार से बड़ा लेखक नहीं होता विचलन से बड़ा लेखक होता है क्योंकि वह एकदम से कुछ नया करता है जैसे कि जैनेन्द्र, फणीश्वरनाथ रेणु और राही मासूम रजा इत्यादि।
रघुवंशमणि:-लेकिन विषय वस्तु के मामले में दलित और स्त्री बिल्कुल नये ढंग से सामने आये हैं? ये भी तो नया है।
दूधनाथ सिंह:-स्त्री विमर्श तो हिन्दी कथा साहित्य का आदि और मूल विषय है। सेवा सदन क्या स्त्री विमर्श नहीं है? स्त्री मुक्ति के सवाल को क्या नहीं उठाया गया है। स्त्री के दमन और स्त्री की पितृसत्तामक समाज के प्रति जो भक्ति और आस्था मिलती है जैसे कि कृष्णा सोबती के लेखन में, वह कैसे स्त्री विमर्श नहीं है? मृणाल, गीता, पार्टी कामरेड, दिव्या, अमिता, मैला आंचल की कमली, 'झूठा-सच' की तारा- स्त्री विमर्श पर तो पूरा हिन्दी कथा साहित्य टिका हुआ है। यशगान और तिरिया चरित्तर स्त्री के दमन की श्रेष्ठतम कहानियों में से हैं। इसलिए स्त्री विमर्श नया विषय नहीं है। देहमुक्ति स्त्री विमर्श का अर्थान्तर न्यास है। दलित चेतना अवश्य एक नया विषय है लेकिन प्रेमचंद और निराला और रेणु ने अपने-अपने ढंग से दलित चेतना को अपनी रचनाओें का विषय बनाया है। 'सद्गति' और 'ठाकुर का कुआं' से बड़ी दलित चेतना की कहानियां इधर कौन सी लिखी गयी? दलित लेखकों का यह एक हठ है कि सिर्फ दलित चेतना की कहानी वही लिख सकते हैं। हिन्दी के सवर्ण लेखक उनके इस हठ के कारण दलित लेखकों के तुष्टिकरण की नीति अपनाएं हुए है। वामपंथी व अति वामपंथी भी। लेकिन फिर भी दलित चेतना का उभार और साहित्य में उसकी उपस्थिति इधर बहुत महत्वपूर्ण हो उठी है।
रघुवंशमणि:- पुरुष करुणा और सवर्ण करुणा से परे सीधे अधिकार मांगने का एक स्वर भी तो है?
दूधनाथ सिंह:-अधिकार मांगने का भाव हो सकता है और मिलना भी चाहिए। लेकिन चाहे स्त्रीवाद हो या दलित चेतना का उभार, प्रेमचंद की कहानियां गुस्सा अधिक पैदा करती हैं करुणा कम। 'सद्गति' में दलित का पैर में रस्सी डालकर घसीटा जाना प्रतिशोध की आग पैदा करता है। 'कफन' की गिरावट भी गुस्सा पैदा करती है- उन लोगों के प्रति गुस्सा, जिन्होंने मनुष्य देहधारी घीसू और माधव को भूख के पशुजगत में ढकेल दिया है। लेकिन फिर भी अधिकार मांगने और लेने की मांग जायज हैं। और उसे कोई रोक नहीं सकता।
रघुवंशमणि:-नई कहानी के दौर की महानगर केंद्रीयता से भी तो विचलन है?
दूधनाथ सिंह:-नई कहानी के दौर में सम्पूर्णत: महानगर केन्द्रीयता तो नहीं थी। अमरकांत, कमलेश्वर, रेणु, मारकण्डेय, शेखर जोशी, जितेन्द्र इत्यादि महत्वपूर्ण कहानीकार सबर्व्स के कहानीकार हैं। कृष्णा सोबती और रेणु तो दो विपरीत अंचलों के कहानीकार हैं पंजाब और बिहार मुक्तिबोध जैसे कहानीकार का भूगोल एकदम से छत्तीसगढ़ है। निर्मल वर्मा पहाड़ों और सबर्व्स की रोमांटिक शांति के कहानीकार है। दिल्ली, कलकत्ता या बम्बई पर कितनी कहानियां लिखी गयीं। दिल्ली पर और उसके ऐकान्तीकरण पर सबसे महत्वपूर्ण कहानी तो कमलेश्वर ने लिखी जो मैनपुरी, इलाहाबाद होते हुए दिल्ली पहुंचे जिस कहानी का शीर्षक है 'दिल्ली में एक मौत'। इसका यह अर्थ है कि हिन्दी कथा साहित्य मेटोपालिस का मोहताज नहीं है।
रघुवंशमणि:-निहायत ही प्रयोगधर्मी औपन्यासिक कृतियों के भाषिक प्रयोगों मे क्या आप हिन्दी गल्प का भविष्य देखते है?
दूधनाथ सिंह:-जैसे?
अनिल सिंह:-विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश, मनोहर श्याम जोशी वगैरह?
दूधनाथ सिंह:- हिन्दी का कथात्मक गद्य अभी पिछले सौ वर्षों से बनने बिगड़ने की प्रयोगात्मक प्रक्रिया में है। उसका कोई क्लासिकल मानदंड अभी तक नहीं बना। लेखक पुराने पैटर्न से छुट्टी पाने के लिए अक्सर प्रयोगधर्मिता पर उतरते हैं। जैसे प्रेमचन्द से छुट्टी पाने के लिए जैनेन्द्र ने त्यागपत्र लिखा। जैसे 'मैला आंचल' या ज्ञानरंजन की कहानियां। उसी परंपरा में विनोद शुक्ल के गद्य का विखण्डन और संरचना आती है। इस बार-बार की तोड़फोड़ मेें भारतीय समाज के ढांचे के विखंडन की अनुगूंज भी है। अत: इस तरह की कुछ साहसिक और दुस्साहसिक कृतियां सामने आ सकती हैं।
रघुवंशमणि:- आपने जब लिखना प्रारंभ किया था तबसे आज तक काफी समय गुजर गया है? बहुत सी ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं जिन्होंने संवेदनशील मनोमस्तिष्क को झकझोरा है? हिन्दी के एक वरिष्ठ लेखक के रूप मेें जब आप इस पूरे कालखण्ड को देखते हैं तो कैसा लगता है?
दूधनाथ सिंह:- यह लगता है कि कितने सधे हुए हाथों के बाद यदि मैं जवान हूं, अगर मुझमें शारीरिक ताकत है तो मैं एक लेखक के रूप मेें काफी उलट फेर कर सकता था। लेकिन उम्र की एक सीमा होती है। अब अधिक काम नहीं होता और मैं यह सोचता हूं कि 'आखिरी कलाम' लिखकर मैंने इस बनते बिगड़ते समाज के प्रति अपना हक कुछ हद तक अदा कर दिया है। लेकिन मैं फिर भी पछतावे की मन:स्थिति में हूं। मैंने बहुत सारा समय व्यर्थ में गवां दिया जबकि मुझे काम करते रहना चाहिए था. इस पछतावे से छुटकारे का शायद कोई रास्ता नहीं है।
रघुवंशमणि:-समय के इन परिवर्तनों के साथ साहित्य का जो अन्तर्सम्बन्ध बना है क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
दूधनाथ सिंह:-नहीं। लेखक लोग उपरी तौर पर ज्यादा देख रहे है। साहस और प्रतिभा की कमी हैं। फन और फैशन के प्रति आकर्षण ज्यादा है। सत्ता से सटने और छत्र चंवर की हवा खाने की फिक्र मेें लोग ज्यादा समय निकाल रहें हैं। घोर हैवानियत है। किसी पर किसी को यकीन नहीं। प्रायोजित प्रशस्तियों और प्रायोजित मल्ल युध्द, प्रायोजित फटकार ज्यादा है। जैसे साहित्य में विखण्डन है वैसे ही साहित्यिक बिरादरी भी विखण्डन का शिकार है। साहित्य और कला पर बात करने में भी चतुराई और चौकन्नापन नजर आता है। खुलेपन का अभाव है। जब कोई आपकी तारीफ करता है तो यह भी संभव है कि वह आपकी गर्दन रेतने की तैयारी कर रहा हो। चौबिसों घंटे सचेत रहकर अच्छा कैसे लिखा जा सकता है। इसके लिए तो आलस्य, दोस्त बिरादरी और छल-छदम विहीन मेल-मुहब्बत जरूरी है। जब एक लेखक अपने दूसरे सहयोगी से निश्चिन्त ओर निरावृत्त हो. ऐसा नहीं दिखता। सुकून नहीं है और मीडियाक्रिटी की बहार है। साहित्य मेें साहित्येतर नाते रिश्ते है। इस पूरे प्रपंच मे कितना कठिन हो गया है लिखना- विखना।
अनिल सिंह:-हिन्दी साहित्य में कहानी कितनी सम्भावनाशील लगती है आपको?
दूधनाथ सिंह:-कहानी एक छोटी विधा है । केवल कहानी के बल पर दुनिया में बहुत कम लेखक बच सके हैं जैसे चेखव। लेकिन वह एक सहवर्ती विधा है- उपन्यास की। उससे बहुत अधिक आशाएं करना व्यर्थ हैं। नयी कहानी के जमाने में इसे एक बिल्कुल स्वतंत्र और महत्वपूर्ण विधा बनाने का प्रयास किया गया। आप देखें तो 50से सन् 60 के बीच में जितने बड़े और अच्छे कहानीकार पैदा हुए उतने फिर आगे नहीं हुए। प्रेमचंद, जैनेन्द्र अज्ञेय, यशपाल, रेणु, इन सबके लिए कहानी एक सहवर्ती विद्या है। निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती के लिए भी। मात्र कहानियों के बल पर जीवित रहने वाले ज्ञानरंजन और अमरकांत ही लगते है। आगे के बारे में बात करना अभी से कुछ ठीक नहीं है लेकिन आजकल जो लोग दो चार कहानियों को लेकर घुरघुटिया की तरह उड़ते है वो फुस्स होकर गिर जाते है।
रघुवंशमणि:- आपने अपने लेखन में किसे सहवर्ती विधा माना है?
दूधनाथ सिंह:- अपने बारे में कुछ नहीं कह सकता। पास्तरनाक ने भी जीवन में एक ही उपन्यास लिखा है।
रघुवंशमणि:- डॉ. नामवर सिंह के साथ चले एक विवाद में आपने कहा था कि हिन्दी में गल्प की परंपरा है, परंपराएं नहीं। लखनउ कथाक्रम के एक कार्यक्रम में उपजे इस विवाद को आप अब कैसे देखते है? क्या हिन्दी गल्प की परंपरा मोनोलिथिक है?
दूधनाथ सिंह:- हां, हिन्दी गल्प की एक मोनोलिथिक परंपरा है. वह मुख्य रूप से एक ग्रैण्ड नैरेटिब अनेक खानों में बंटा हुआ है। नामवर जी ने जब कहा तो उनके उपर दूसरी परंपरा का जिन्न सवार था जो आज भी बोतल की ठेंपी खोलकर निकल आता है। तब उन्हाेंने कहा था कि 'प्रेमचन्द इकहरे यथार्थवाद के लेखक हैं'। नामवर जी सोच समझकर किसी गोष्ठी को उलझाने के लिए आते है। उनके पीटने का तरीका अद्भुत हैं । अगर उदयप्रकाश को पीटना है तो वे 'जल डमरू मध्य' की तारीफ से पूरी गोष्टी को इस तरह हलकान कर देंगे कि उस कहानी का लेखक भी लाज से गड़ जायेगा। वहां यही हुआ था। दूसरे उन्हें विनोद कुमार शुक्ल की तारीफ करनी थी। अत: उन्होंने 'परीक्षा गुरु' से प्रारंभ हो कर प्रेमचन्द तक आने वाली परंपरा को बहिष्कृत करते हुए कहा कि हिन्दी उपन्यास सन्1880 से 'श्यामा स्वप्न' से शुरू होता है और 1980 में 'नौकर की कमीज' पर खत्म। यह है दूसरी परंपरा का जिन्न।
रघुबंश मणि:- इस मोनोलिथिक ग्राण्डनैरेटिब की परंपरा की मूल पहचान क्या बनेगी?
दूधनाथ सिंह:- इसकी पहचान भारतीय मनुष्य का संघर्ष-पैसिव और एक्टिव दोनों तरह का संघर्ष है। सांप्रदायिकता- साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष, अपनी मिली जुली और विशाल कौमियत के पक्ष में संघर्ष और उसके लिए मर मिटने की तैयारी। आप देखेंगे कि यह हमारे सौ वर्ष के ग्रैण्ड नैरैटिब के मूल तत्व है। लेकिन ये सिध्दांत के रूप में नहीं है। यह एक गल्प के कलात्मक ढांचे के अंतर्गत विन्यस्त है।
रघुवंशमणि:- आपके गल्प में लोगों का व्यक्तिगत जीवन चला आता है जिससे विवाद भी खड़े हुए है। 'नमो अंधकारम्' या 'निष्कासन' कहानी में इलाहाबाद के ही तमाम मित्र उपस्थित हैं. इसी तरह से ' आखिरी कलाम' में। इस बात को लेकर आपकी आलोचना भी होती रही है?
दूधनाथ सिंह:-प्रेमचंद की कई कहानियों के बारे में ऐसे दोषरोपण हुए थे। कालिया की 'नौ साल छोटी पत्नी' जिसके लिए उसने मार भी खाई और 'काला रजिस्टर' पर इस प्रकार की बातों का इल्जाम आता है । नैतिक गुस्से के बिना कोई लेखक नहीं हो सकता। और जहां अनैतिकता होगी गलत काम होगा, उस पर गुस्सा करना और उस गुस्से को रचना एक लेखक का कर्तव्य है। मैंने किसी व्यक्ति विशेष के बारे मे नहीं लिखा बल्कि नैतिक पतन की स्थितियो के बारे में लिखा जो हमेशा एक लेखक के कलात्मक अवदान का एक हिस्सा होती है। लोगों ने अपना चेहरा देखा तो इसका यह अर्थ है कि मेरा कलात्मक दर्पण एकदम पारदर्शी था और यह मेरी सफलता है। जब मैं लिखता हूं तो लोग तिलमिलाते हैं और दस साल बाद वही स्थितियां सच निकल आती है। वैसे भ्रष्टाचार और कुकर्म रोज होने लगते है। तब लोग कहते हैं कि हां उसने तो ठीक ही कहा था।
रघुवंशमणि:-लेकिन यह सवाल तो अपनी जगह है ही कि सर्जनात्मक साहित्य में दूसरों का व्यक्तिगत जीवन किस हद तक आना चाहिए?
दूधनाथ सिंह:- हां, यह सवाल है। लेकिन यह सवाल तात्कालिक है क्योंकि लोग क्षणजीवी हैैं। कला मेें आये चरित्र दीर्घायु हैं. टालस्टाय के 'अन्ना करेनिना' के अधिकांश पात्रों की पहचान उनके जमाने में की गयी। कहीं पुश्किन की बेटी है तो कहीं लेविन के रूप मे टालस्टाय स्वयं है। नोखलोदोव के बारे में भी लोगों को मालूम है, लेकिन वे लोग कहां है। चरित्र ही दीर्घजीवी है क्योेंकि वे कला संरचना के अंग है। फिर भी यह बात बहस तलब है और गलत भी हो सकती है।
रघुवंश मणि:-आपके रचनात्मक जीवन में सुखांत 1972 के प्रकाशन के बाद कुछ वर्षो का मौन है। यह मौन 'माई का शोकगीत' से टूटता है। इस रिक्ति का कारण क्या है?
दूधनाथ सिंह:-इस रिक्ति का पहला कारण बच्चे पालना हैं। यह वह दौर है जब उन्हें पढ़ाने लिखाने में मै लगा रहा। गरीबी थी और वे अगर ठीक से न पढ़ते तो आगे बेसहारा होने का डर था। इस काम में मेरा लगभग दस साल का समय गया। दूसरा कारण यह मेरे घोर वैचारिक परिवर्तन का समय है। विचारधारात्मक परिवर्तन का समय। पुराने तरीके से लिखना संभव नहीं था और वस्तु को नये ढंग से उठाने की आदत नहीं थी। इस तरह यह एक प्रकार के रचनात्मक और गैर रचनात्मक संघर्ष का दौर था। मेरे चरित्र के अराजक भटकाव भी इस संबंध में कुछ कारक थे। इसीलिए इतना लम्बा दौर व्यर्थ हुआ। हमारी पीढ़ी के लोग इससे दुखी नहीं होते लेकिन मैं आज भी पछतावे के गर्त में हूं। गृहस्थी, अवैध प्रेम और वैचारिक, आत्मिक संघर्ष तीनों ने मिलकर मुझे क्षत-विक्षत किया और मेरा काफी समय खाया। मैं कहता हूं कि लोगों को खुश होने दो और मुझे मरने दो।
अनिल सिंह:-अभी आपने अपनी अराजक जीवन स्थितियों और अवैध प्रेम की बात कही। क्या प्रेम भी अवैध होता है? किन संदर्भों में ये बातें आयी हैं?
दूधनाथ सिंह:-मैं पुरानी चाल का आदमी हूं और उसमें इस प्रकार की कोई कुपथगामिता मुझे अवैध लगती है। अपनी स्त्री के प्रति किसी को भी कृतघ्न नहीं होना चाहिए इसलिए मैं अवैधता की बात करता हूं। ये बातें आज हास्यास्पद और अनर्गल लग सकती है। दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी है और उसी हिसाब से पीछे घूमकर गर्त में गिर भी रही है। मैंने अपनी किसी कहानी में कहा है कि 'उपर उठना ही नीचे गिरना है।' मैं आधुनिक फैशनपरस्त उत्तर आधुनिक नहीं होना चाहता हूं। मैं अपने को निर्वसन और खुला रखना चाहता हॅू ताकि लोग जानें और समझें कि मैं इतना ही अच्छा और इतना ही बुरा हूं। यह मेरी कमी हो सकती है और मेरी जगहसांई का कारण हो सकती है कि न मैं शुध्द हूं न अशुध्द, न पवित्र हूं न अपवित्र। कहीं दोनाें के बीच, शायद।
अनिल सिंह:- ये आप कह रहे रहे हैं। आप तो एक दौर में 'मुक्ति प्रसंग' के कवि के बहुत निकट रहे हैं। एक तरफ आपके प्रिय कवि पंत, निराला और शमशेर हैं दूसरी तरफ अपनी अराजकता की तीव्र चुंबकीय शक्ति से खींचता हुआ राजकमल चौधरी का व्यक्तित्व। इन दो पाटों के बीच में आप कहां है?
दूधनाथ सिंह:-कलकत्ते के दिनों की बात है। राजकमल मेरे लिए घनघोर आकर्षण की तरह थे. सभी लोग उसकी निंदा करते थे। उससे बचे रहने की सलाह देते थे। पर कहीं अपने अन्तरतम मेें सारे झूठ, सारी चरित्रहीनता, सारी कमीनगी के बावजूद उसमें एक नंगी सच्चाई और प्रेम गृहस्थी के प्रति जिजीविषा और जीने का अद्भुत हठ भी था। मेरे स्वभाव की यह विशेषता है कि मैं किसी के कितने भी पास होता हुआ उससे प्रभावित नहीं होता। मैं एक घोंघे की तरह हूं जो अपने को भीतर समेट लेता है और बचाये रखता है। मैंने राजकमल चौधरी से कोई बुरी बात नहीं सीखी जबकि वह हर बुराई के द्वार तक मुझे ले जाता था। मैंने उसकी प्रतिभा का आदर करना सीखा। मै। अपने जीवन में किसी के लेखन और व्यक्तित्व से इस तरह प्रभावित नहीं हुआ कि अपना पथ खो दूं. अगर प्रभावित ही होना होता तो मेरा यह सौभाग्य है कि मैं महादेवी, पंत, निराला, अज्ञेय, शमशेर जैसे बड़े लेखकों के निकट रहा। लेकिन मैं तुरंत सावधान हो जाता था कि मुझे इनकी तरह नहीं होना है। यह चौकन्नापन एक अहमन्यता का पर्याय भी है। मैं किसी दूसरे की तरह न लिखना चाहूंगा, न लिखता हूं। मैं अपने नुक्ते पर अकेला हूं और हर लेखक को होना चाहिए।
अनिल सिंह:- राजकमल चौधरी की मॉर्बिड मन:स्थितियाें, जीवन शैली और कविता विन्यास का ही असर तो नहीं कि आप भी रचनात्मक प्रतिभा को आत्मघाती मानते हैं। जैसे कि 'लौट आ ओ धार' में आपने लिखा कि कलाकार ऐसे सिंह के समान होता है जिसके मुंह में अपना खून लग गया हो। या 'निराला: आत्महंता आस्था' शीर्षक इस संदेह को क्या और पुख्ता नहीं करता। निराला आपके प्रिय कवि हैं। आप पर आरोप भी तो लगे थे?
दूधनाथ सिंह:-अपने को खाना और रचते जाना एक चीज है जो निराला शमशेर या अज्ञेय सब बडे क़वियों में मिलती है। मार्बिडिटी के कारण आत्महत्या दूसरी चीज है। राजकमल चौधरी और निराला को मिलाया नहीं जा सकता क्योेंकि उनकी कवि प्रतिभा में जमीन आसमान का फर्क हैं. दोनों की जीवन शैली में एक फर्क है। इस प्रकार एक के लिए जो महानता का कारण बनती है दूसरे के लिए मीडियाक्रिटी का। यह कोई शर्त नहीं है लेकिन मैं आज भी इस बात पर कट्टरतापूर्वक स्थिर हूं कि एक बड़ा लेखक जितना ही अपने को खाता है उतना ही बाहर उसकी रचनात्मक समृध्दि बढ़ती है। अराजकता और आत्मभोज में फर्क है। शमशेर से बड़ा अराजक और आत्मभोजी कोई दूसरा नहीं। लेकिन यह प्रतिभा का ही कमाल है कि उसमें से कविता निकल कर आती है. गालिब से बड़ा अवसरवादी और पैरासाइट कम मिलेंगे लेकिन उसकी कविता उससे क्षरित नहीं होती। आत्मभोज वहां भी है लेकिन वह एशिया के सबसे बड़े कवि के रूप में उभर कर आता है। अत: कला की कोई शर्त नहीं है कि कैसा जीवन जियो। बड़ी कला और लेखक के जीवन का कोई अन्तर्सामंजस्य जरूरी नहीं है।
अनिल सिंह:- आपके लिए कविता एक छोड़ा हुआ रास्ता है। आप अपनी प्रारंभिक कविताओं को क्या जुवनेलिया समझते है या बाद के लेखन में उससे कुछ मदद मिली? आपने कविता का रास्ता क्यों त्याग दिया?
दूधनाथ सिंह:- कविता का रास्ता मुझसे सधा नहीं इसलिए मैंने छोड़ दिया। मैं उस किसी विधा में लिखना नहीं चाहता जिसमें मुझसे अच्छा लिखने वाला विद्यमान हो। चाहे लोग मुझे जितना मारें पीटें, वे जानते है कि कथा साहित्य मेें मुझसे पार पाना आसान नहीं है।
रघुवंशमणि:- समकालीन कविता के आप एक सुधी पाठक रहे है और इस पर टिप्पणियां भी करते रहे हैं। क्या समकालीन कविता परिदृश्य से आप संतुष्ट हैं?
दूधनाथ सिंह:-समकालीन कविता में काफी कुछ अच्छा लिखा जा रहा है। मैं समझता था आलोकधन्वा बहुत आगे जायेंगे लेकिन यह उनका दुर्भाग्य है कि वे बीच हराई में ही थउस गये । फिर भी अपने एक ही संग्रह से वे बड़े कवि हैं। इसके अलावा इस वक्त के जीवित कवियों मेें मेरे सबसे प्रिय कवि विष्णु खरे है। उनकी प्रयोगधर्मिता और नये रिद्म का कोई जोड़ नहीं। चे ग्वेरा पर ऐसी कविता वे ही लिख सकते है। मेरी पसंद के कवियों की सूची काफी बड़ी है । अरुण कमल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, चन्द्रकांत देवताले, कुंवर नारायण मेरे बहुत प्रिय कवियों में से है।
अनिल सिंह:-आपने अपने कविता संग्रह में 1977 में भी रीति का प्रश्न उठाया था। अभी कुछ वर्ष पूर्व हिन्दी साहित्य सम्मेलन की एक गोष्ठी में भी आपने समकालीन कविता पर रीतिग्रस्त होने का आरोप लगाया था। उस समय की कविता और आज की कविता में आये रीति और रूपवाद को कैसे देखते हैं?
दूधनाथ सिंह:-मेरा मतलब कविता में नामहीनता की समस्या से था। अगर नाम हटा देने के बाद कोई कवि पहचाना जा सके या कोई कहानीकार, लेखक या चित्रकार पहचाना जा सके तो वह रीतिबध्दता का शिकार नहीं है। ऐसा फन और फैशन को शौक से अपनाने के कारण होता है। यह कला के क्षेत्र में व्यक्तित्वहीनता का लक्षण है जिससे सारे रचनाकारों और कलाकारों को बचना चाहिए। आखिर सारी जद्दोजहद तो इसी को लेकर है। अच्छा और पाक-साफ लिखना जरूरी नहीं है। ऐसा लिखना जरूरी है जिसपर आपके व्यक्तित्व की मुहर हो। आखिर शुक्ल जी रीतिकालीन कवियों पर क्या दोषारोपण करतें है? यही तो कि 'वाग्धारा बंधी हुई नालियाें में बहने लगी।' मैंने जब यह बात सम्मेलन की गोष्ठी मेें कही तो सारे कवि नाराज हो गये। लेकिन आज वे सभी महसूस करते है कि उन्हें सबसे अलग दिखना ही चाहिए और यह कोई जादूगरी नहीं प्रतिभा का करिश्मा है।
अनिल सिंह:-आपकी किताब 'लौट आ ओ धार' में इलाहाबाद पूरी जीवंतता के साथ मौजूद है। लेकिन आपने इसे रचनात्मक प्रतिभा से खाली होता हुआ शहर भी बताया है, जहां सिर्फ 'उत्खनन' बाकी है। क्या आपको अब भी ऐसा लगता है?
दूधनाथ सिंह:-अब और ज्यादा लगता है क्योंकि अधिकांश तेजस्वी नयी प्रतिभाएं रोजी-रोटी की मजबूरी में शहर छोड़कर बाहर जा रही है। इलाहाबाद शहर का, पहले भी एक दो लोगों को छोड़कर कोई यहां पैदा हुआ बड़ा लेखक नहीं हुआ। शहर के बौध्दिक और राजनीतिक केंद्र होने के कारण यहां बाहर से प्रतिभाएं खिंचकर आती थी। महादेवी, पंत, निराला, इलाचंद जोशी से लेकर धर्मवीर भारती और कमलेश्वर तक और उसके बाद की भी सारी नयी पीढ़ी बाहर से यहां आकर संकेंद्रित हुई। चाहे अज्ञेय हों या शमशेर, चाहे भैराव जी हों, शेखर जोशी हों या मारकण्डेय या अमरकांत, रवीन्द्र कालिया और ममता जी हों या उपेन्द्र नाथ 'अश्क', सतीश जमाली हाें या हरिश्चन्द पाण्डेय, मैं होउं या ज्ञानरंजन, जगदीश गुप्त हों, रघुवंश जी या रामस्वरूप चतुर्वेदी, सत्यप्रकाश हों रामकमल राय या लक्ष्मीकांत वर्मा हों,केशवचन्द्र वर्मा हों या वी. डी. एन. साही,मलयज, श्रीराम हों या सुरेन्द्र पाल,अमृतराय हों या श्रीपत राय,कैलाश गौतम हों या नीलकांत- लेखकों का यह सारा समुदाय शहर की बौध्दिक सक्रियता से आकर्षित होकर यहां आया। कहीं न कहीं या किसी भी तरह रोजी रोटी का भी प्रबंध लोग कर लेते थे। सारे भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन का केन्द्र और कांग्रेस पार्टी की गतिविधियों का केंद्र 'स्वराज भवन' था. इस तरह राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में एक गहन तालमेल और अंतर्मिलन था। प्रगतिशील लेखक संघ का केन्द्रीय दफ्तर यहीं था और यहीं से सैयद सज्जाद जहीर, रशीद जहां और महमूदुज्जफर ने मिलकर एक तरह से प्रगतिशील लेखक संघ का आरंभिक काम शुरू किया था। सन् 1943 में तारसप्तक का प्रकाशन, सन्1944 में परिमल की स्थापना और पहले से ही प्रगतिशील लेखक संघ का मजबूत गढ़ होने के कारण इलाहाबाद में साहित्यिक, सांस्कृतिक, वैचारिक संघर्ष चौथे, पांचवें और छठें दशक मेें अपने चरम पर था। धीर-धीरे केन्द्र इलाहाबाद से दिल्ली की ओर खिसकता गया और यहां का सारा बौध्दिक वितान और छितराने और हताहत होने की प्रक्रिया का शिकार हुआ। पंत और निराला रोजी-रोटी के लिए बिना कुछ किये यहां जीवन भर रहे। महादेवी रही।ं अमरकांत अपनी अपार आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद यहां पडे हुए है। सतीश जमाली, मारकण्डेय और शेखर जोशी भी इसी तरह रहते आये है। लेकिन अब संभव नहीं है। अनिल, बोधिसत्व, देवीप्रसाद मिश्र और तमाम नये लोगों को रोजी-रोटी की खोज तथा शहर की सांस्कृतिक शून्यता से खिन्न हो कर इसे छोड़ना पड़ा। अब यहां कुछ भी नहीं है। सरकारी खर्चे और टीए-डीए पर होने वाली गहरी उथली बहसें है, बचे खुचे कुछ दोस्त यार है जिनके भरोसे हम यहां पड़े हुए है। हमें उम्मीद भी नहीं कि नयी प्रतिभाएं इस शहर की ओर आकर्षित होगी यहां बसेंगी क्योंकि रोजगार एक भारी समस्या है। पेट पालने के लिए लोग दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता की ओर मजबूरी में भाग रहे हैं। आखिर कालिया दंपति को भी इस बुढ़ापे में एक सेठ की नौकरी करने कलकत्ता जाना ही पड़ा । ऐसे में इस शहर के लिए अब भूतकाल में बात की जायेगी। इसीलिए मैंने 'उत्खनन' शब्द का प्रयोग किया है।
सबसे विचित्र तो शमशेर हैं। कहाँ -कहाँ से घूमते-घामते, इलाहाबाद में डेरा जमाया। कुछ भी नही था करने को । कभी थोड़े दिन 'माया' में जरूर रहे। फिर कुछ नहीं। वही बहादुरगंज के एक के उपर एक तीन कमरों वाले मकान में लटपट,चिढ़े हुए,प्रशान्त, अतिथि-सेवा को उत्सुक शब्दों और काव्य-पंक्तियों के खेल में मस्त। क्या कहते हैं शमशेर अपनी इस 'रहनि' के बारे में:
'खुश हॅूं कि अकेला हॅूं
कोई पास नहीं है-
बजुज़ एक सुराही के
बजुज़ एक चटाई के
बजुज़ एक ज़रा से आकाश के
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर।
बुजुज उसके, जो तुम होतीं, मगर हो
फिर भी
यहीं कहीं अजब तौर से।'
यह है-इलाहाबाद में एक बड़े कवि के रहने का ढ़ब। लेकिन उन्हें भी भागना पड़ा। और जब दिल्ली गये तो सुराही चटाई और जरा से पड़ोसी आकाश के साथ रहना सम्भव नहीं था। वहाँ रहने के लिए कोश विभाग में काम करना पड़ा। फिर वहाँ से 'प्रेमचन्द पीठ' पर उज्जैन। और फिर ? फिर वहाँ से शमशेर उड़ गये-गुजरात के अन्त:प्रदेश सुरेन्द्र नगर। अब वे सहारा-बेसहारा दोनों थे। किस कवि नें क़ब्र में पैर लटकाये हुए प्रेम की इतनी उच्छल, घनघोर, मांसल कविताएं लिखी हैं? शायद किसी नें भी नहीं । लेकिन शमशेर गये तो यह जानते हुए गये कि:
' 'मैं तुम्हारे मुख में आनन्द का एक ग्रास हूँ'
अनिल सिंह:- जब हम लोग यहां विश्वविद्यालय में पढ़ने के आये तब भैरव प्रसाद गुप्त जी जीवित थे। बाद में उनका लम्बा साथ मिला। जलेसं की नियमित गोष्ठियां होती थीं। कई नये लोगों की टेनिंग जलेसं की गोष्ठियों द्वारा हुई। भैरव जी, अमरकांत जी, मार्कण्डेय जी, शेखर जी जैसे बड़े लेखकों को नजदीक से देखने-सुनने का अवसर मिला। बाद में सब कुछ विखर गया। ऐसा क्यों हुआ?
दूधनाथ सिंह:- मैने अपने सारे विद्यार्थियों, कवियों और लेखकों को साथ लेकर भैरव जी और मारकण्डेय के निर्देशन में जलेसं की गोष्ठियों और बहसों की सक्रियता बनाये रखी। उसी के भीतर से तुम सब नये लोगों ने अपनी प्रतिभा को पहचाना और उभर कर आये। फिर भैरव जी नहीं रहे। मारकण्डेय जी अनमनस्क और बीमार हो गये । तुम सब लोग बाहर चले गये। उसके बाद नये लोगोें को जब भी मैने बटोरना चाहा वे उतने सक्रिय नहीं दिखे । हीरालाल, श्रीरंग, और विवेक निराला को छोड़कर नये लोगों में अधिकांशत: प्रतिभा का अभाव दिखा। इन नये लोगों में हीरालाल सबसे प्रभावशाली कवि है क्योंकि वह कविता के बारे मेें कुछ नहीं जानता। सीधा है, थोड़ा हाबनाविंग भी करता है। श्रीरंग का एक नया संग्रह आया है अच्छा है। विवेक का संग्रह आना बाकी हैं। लेकिन गोष्ठियों और बहस मुबाहिसों में अब नये लोगों की रुचि नहीं दिख रही हैं। जलेसं का यह बिखराव भी दुखद है । हमारी इकाई भोपाल और दिल्ली की इकाई से भी ज्यादा सक्रिय इकाई थी। 'नया पथ' को बंद कर दिया। इन सब बातों को याद करना भी दुखद है।
अनिल सिंह:- इलाहाबाद में साहित्यिक सक्रियता के कम होते चले जानेके पीछे सिर्फ सरकारी खर्चे पर होने वाले आयोजनो ंको ही क्यों दोष दिया जाये। आखिर ऐसी गोंष्ठियाें का भी महत्व है और आप समेत सभी प्रमुख लेखक इन गोष्ठियों में भाग लेते रहे है। क्या आपको नहीं लगता कि इस साहित्यिक उदासीनता के पीछे अहं के परस्पर टकराव व नये आर्थिक सुधारों की वजह से आयी चमक-दमक द्वारा पैदा की गयी हड़बोंग भी एक वजह है?
दूधनाथ सिंह:- नही, मेरा ये कहना नहीं है कि सरकारी खर्चे से होने वाली गोष्ठियां बेकार है। अब मंहगाई इतनी है कि लेखक अपने खर्चे से साहित्यिक बहस मुबाहिसे के लिए नहीं जा सकते। संगठन के अखिल भारतीय अधिवेशनों में जाते हैं तो एक आस्था और सिध्दांत के तहत। बाकी कहां जाते हैं? पहले इलाहाबाद में जब 'परिमल' और 'प्रगतिशीलों' का जमावड़ा था तो कहीं जाने की जरूरत कहां थी। सारी बाते यहीं से निकलती थीं। सारी सरगर्मियों का केन्द्र था इलाहाबाद। और उन सरगर्मियों में खिंचाई -घिसाई-चमकाई थी, गर्दन उतराई नहीं। आर्थिक सुधारों से आये हड़बोंग का असर दिल्ली में है, जहां बड़न-बड़न और छोटन-छोटन सभी 'आयोवा' जाने के लिए मंत्रालयों में झख मारते फिरते है। गरीबों का ' डेलीगेशन' जाता है और अमूर्त-अमीरी का काव्यपाठ होता है।
रधुवंशमणि:-इमरजेंसी के दौरान आपने 'पक्षधर' नाम की पत्रिका प्रारंभ की थी। उसका सुसंपादित प्रवेशांक प्रकाशित हुआ था जो आपातकाल में जब्त कर लिया गया। फिर आपने उस पत्रिका को प्रकाशित करने का प्रयास क्यों नहीं किया?
दूधनाथ सिंह:- 'पक्षधर' को दुबारा निकालना मेरे जैसे आदमी के लिए संभव नहीं था। उसके लिए चलना-फिरना, हें-हें, रौब-दाब का प्रदर्शन, जजमानी, चिकटई- मैंने देख लिया कि मुझसे सम्भव नहीं है। मैं इस मामले में एक अक्षम व्यक्ति हूं। और फिर पत्रिका निकालने से लेखन बन्द होने की सम्भावना अधिक रहती है। अपना स्वाद चुन लो। तो मैने चुना-बच्चा लोगों को पालना, लिखना और थोड़ी बहुत आवारागर्दी। एक अच्छी पत्रिका निकालना एक 'रचना' को अंजाम देना है। जो दोनों एक साथ कर ले वह महान है। मुझसे एक ही नहीं सधता। आलस, बीमारियां, गुस्सा घेरे रहते है।
रघुवंशमणि:-हिन्दी साहित्य के एक दौर मे इलाहाबाद की पहचान 'परिमल' से बनती थी। आपकी इस संस्था के साथ कैसी अन्तर्क्रिया रही?
दूधनाथ सिंह:-'परिमल' में मुझे भारती ले गये। वहां काफी गहमागहमी थी। मै सदस्य भी रहा और उसके गिरते दिनों में मुहम्मदशाह रंगीले की तरह संस्था का संयोजक भी। ठीकठाक, इकतरफा पढ़े लिखे लोग थे। जिद्दी और घिसे हुए, खड़यंत्री और मसखरे भी थें। भारती के चले जाने पर संस्था का आधा बल नष्ट हो गया। फिर साही का देहावसान हो गया। वही सबसे प्रतिभाशाली और 'एकोमोडेटिंग' आदमी थे। गहन, तर्क -प्रवण, अपनी बातों पर अटल और भाषा की अनूठी सादगी लिये हुए। 'परिमल' की मुख्य विधा कविता थी और दूसरी आलोचना। कविता और आलोचना - दोनों मे ईलियट की पूंछ-' ओम शांन्ति: ओम शान्ति:' की तरह झांकती थी। अन्तत: 'परिमल' का आंदोलन हिन्दी का 'वेस्ट लैण्ड' साबित हुआ,- बीरान और सार्थक निरर्थक। 'परिमल' की दूसरी खामी यह थी कि वहां 'कायस्थवाद' प्रमुख विचारधारा थी। आप सदस्य संख्या गिनकर अन्दाजा कर लें।
अनिल सिंह:- आपकी प्रारंभिक कहानियों में फ्रायडीयन प्रभाव दिखता है, उन कहानियों को आप आज किस तरह देखते हैं।
दूधनाथ सिंह:- मैं उन कहानियों को डिस्ओन नहीं करता। वो कहानियां सन् 1960 के बाद की लिखी गयी है। उनकी पृष्ठभूमि में आजादी से मोह भंग है। वैचारिक संघर्ष और बहसों के अभाव से वे कहानियां पैदा हुई। संयुक्त परिवार के टूटने, राजनीतिक दिशाहीनता की आती धीमी आहट, एकल परिवाराें में पत्नी तथा प्रेम का द्वंद्व और अन्तर्विरोध इन कहानियोें का उत्स है और मेरी ही नहीं उस समय लिखने वाले सभी महत्वपूर्ण कहानीकारों की विषय वस्तु का विश्लेषण इसी तरह है। सिर्फ काशीनाथ सिंह अपने बड़े भाई के कारण एक कृत्रिम प्रगतिशीलता से चिपके रहे। लेकिन 'लोग विस्तरों पर' जैसी कहानियां उन्होंने भी लिखीं। जिसे तुम फ्रायडियन तत्व कहते हो, उस तरह का मनोविश्लेषणवाद और सबकान्शस का विश्लेषण इन कहानियों में नहीं है। वो एक निश्चित सामाजिक दौर की उपज है और नयी कहानी आंदोलन की प्रवृत्तियों से बिल्कुल अलग है।ॅ
रघुवंशमणि:- अपने जीवन मेें आये विचारधारात्मक बदलाओं से आपने क्या खोया और क्या पाया?
दूधनाथ सिंह:-मैने खोया कुछ भी नहीं और पाया बहुत कुछ। वैचारिक परिवर्तन से मै व्यक्तिवादी पतनशीलता से बच गया. मैं मानता हूं , अगर यह परिवर्तन न होता तो मेरे लिए लिखना असंभव होता लेकिन मैने अपनी रचनात्मकता के लिए ही इस वैचारिक विकल्प की खोज की। किसी ने मेंरा नेतृत्व नहीं किया ओैर अगर किया तो वे टालस्टाय थे जिनको पढ़कर के मेरे अन्दर बहुत से परिवर्तन हुए। मैने अपने समाज को ऐतिहासिक परिवर्तनो के भीतर से देखना शुरू किया। प्रारंभिक दौर में मेरे प्रिय लेखक ओसमुद्दजाई, काफ्का, कामू, वोदलेयर, आर्थर रेम्बो, लूई आरागां जैसे पश्चिमी लेखक थे । निश्चय ही मेरी मन:स्थिति पर इतने महान लेखको को पढ़ने का असर रहा है, इनकार नहीें कर सकता । मिथ आफ सेसाइफ, द रिबेल, द आउट साइडर, द टायल और द कासिल ने शुरुआती दौर में मुझे बहुत आकर्षित किया। आर्थर रेम्बो का ला इल्युमिनेशंस और 'ए सीजन इन हेल' मुझे बहुत प्रिय थीं। अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान मैने ज्ञानोदय मेें आर्थर रेम्बो पर एक बहुूत बड़ा लेख भी लिखा और एसीजन इन हेल के बहुत सारे अंशों का अनुवाद भी किया। लेकिन परिवर्तन का दौर टालस्टाय, चेखव और सोलोखोव जैसे लेखकों को पढ़ कर आया। एक महाकाव्यात्मक यथार्थपरक दृष्टि ने मुझे बदलने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। उसके साथ ही माक्र्स लेनिन और स्टालिन की किताबों ने भी । इस तरह मैने एक दूसरे छोर से अपने और अपने समाज को ढूढ़ना और पाना शुरू किया। लेकिन शुरूआती दौर को मेरा अध्ययन बेकार नहीं गया। मैने उन लेखकों से बहुत कुछ सीखा। और जो मैने साठ के दौरान पढ़ा उसे लोग अब पढ़ रहें हैं। मेंरे इस बहुत सारे अध्ययन में रेणु जी का हाथ है। जब वे यहां थे उन्हें नयी से नयी पुस्तकाें और अद्यतन पश्चिमी साहित्य का ज्ञान था। रिल्के की कविता औरगद्य से उन्होंने ही मुझे परिचित कराया। दोस्त्यवोस्की और आल्बेयर कामू को भी पढने की प्रेरणा उन्हाेंने ही दी। पियरे लुूई का अफ्रोदिती जैसा उपन्यास और सांग्स आफ ब्लिटीज जैसी गद्य वाली किताबे रेणु ने ही अपने इलाहाबाद प्रवास के दौरान मुझे पढने औेर रखने के लिए दी थी। इस तरह से एक संगठित और संश्लिष्ट अध्ययन ने एक लेखक के रूप में मेरा निर्माण करने में बहुत योगदान किया। इसमें उर्दृ और संस्कृत का अध्ययन कम महत्वपूर्ण नहीं है।
अनिल सिंह:-क्या आप मतलबी और आत्मकेन्द्रित हैं?
दूधनाथ सिंह:- परिवार के संदर्भ में मतलबी और आत्मकेंद्रित हूं, लेकिन दोस्तों और परिचितोें के संदर्भ में खुूला और बिछा हुआ हूं। वे मुझे आरपार देख सकते है। मेै अपने बेटे और शिष्य में भेद नहीं रखता और दोनो के लिए समान रूप से चिंतित रहता हँ। मेंरे दोस्तो की एक बहुत बड़ी विरादरी है जिनको मैं किसी भी कीमत और किसी भी स्वार्थ के लिए खोना नही चाहता हूं। उनके बिना मेरा अपना होना भी निरर्थक लगता है। अपने दोस्तों की इच्छा अनिच्छा का मैं हमेशा ख्याल रखता हूं। वे नाराज होते है तो मैं ही झुकने के लिए तैयार रहता हूं क्योंकि वे मेरे लिए अमूल्य हैं ।
अनिल सिंह:- झूठ का आपके जीवन और कृतित्व में कितना योगदान है?
दूधनाथ सिंह:- बहुत योगदान है। जीवन में झूठ मै मजे के लिए बोलता हूं कुछ पाने के लिए नहीं. अक्सर बोलकर पकड़ा जाता हूं। बहुत सारा झूठ गढंत और मौज के लिए होता हैं। लेकिन कभी कभी खतरनाक रूप से फंस भी जाता हँ। वह निरुद्देश्य है और कुछ पाने के लिए नहीं। लेकिन कई बार वह मुझे अविश्वसनीय भी बनाता है। लिखने मेें झूठ का अर्थ संकल्पना है यथार्थ से अलग होना नहीं हैं। अक्सर एक चमक की तरह कोई बात आती है और उसमें दुनिया भर की गढंत मैं शुरू करता हूं लेकिन उनके सूत्र कहीं जीवन और परिस्थितियों में होते हैं। यह जो कला की नैतिकता का सवाल ' नमो अंधकारम' या ' निष्कासन' पर उठाया जाता है वह सब कल्पना से गढंत और झूठ है। लेकिन वह 'सत्य' को प्रतिपादित करता है। कला का काम घटनाओं का आश्रय लेना नहीं है, अवचेतन में संग्रहीत होते जाते संप्रभावों का खुलते जाना है। वह किसी का जीवन चरित्र नहीं। उसका एथिक्स ही है कल्पना प्रसूत असत्य जो सत्य को सामने लाता है।
अनिल सिंह:- एक रचनाकार और व्यक्ति के रूप में आप किस तरह से याद किया जाना पसंद करेंगे?
दूधनाथ सिंह:- इसका जवाब देना बड़ा कठिन है। रचनाकार के रूप में तो मैं चाहूंगा कि मेरी रचनाओं को लोग प्यार करें और याद रखें क्योंकि वे अपने युग का संस्मरण है। उसमें भाषाई कांति और छलना भी है। उसमें ऐसा बहुत कुछ है जिसे अगर लोग खोजेंगे तो अपने जीवन में भी पायेंगे। जो आदमी अपने सारे लेखन-जीवन में तिरस्कार, उपेक्षा, उदासीनता, दुष्टताओं और षड़यंत्रों का शिकार रहा है उसे थोड़ा प्यार से याद किया जाना चाहिए। यह शायद हर लेखक चाहेगा। व्यक्ति के रूप में मैं चाहूंगा कि मेरी गल्तियों, बड़बोलियों और मेरे दोषों को लोग क्षमा करें और यह मानकर क्षमा करें कि मैं 'आदमी' था और 'इन्सान' बनना चाहता था। लेकिन ये बड़ी अपेक्षाएं है और किसी व्यक्ति और लेखक की अपेक्षाओं को कोई दूसरा क्यों स्वीकार करेगा। वह अपने ही ढंग से देखेगा।
अनिल सिंह:- आपकी कहानियों में कई बुरे पात्र आते हैं। क्या आप अपने को बुरे लोगों से घिरा हुआ प्रिंस हैमलेट समझते हैं?
दूधनाथ सिंह:- नहीं! ल्ेकिन एक लेखक के रूप में बुरे लोगों का चित्रण उसकी ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी है। अच्छे लोग प्रेरणा नहीं देते न गुस्सा पैदा करते हैं, न समाज का कुछ बिगाड़ते हैं, न जीवन में कुछ गतिरोध या हलचल पैदा करते हैैं। ये सारे काम बुरे लोग करते हैं। इसलिए मेरा ध्यान बतौर लेखक उन पर ज्यादा जाता है। लेकिन मैने अच्छे लोगों का भी चित्रण किया है क्योंकि वे हमें प्यार करना और आत्मीयता सिखाते है। वे हमें उदास करते हुए हमें बड़ा बनाते है क्योेंकि वे हमेशा टेजिक पात्र होते है। ईसा मसीह को देखो और जु जूदा को देखो। एक आत्मबलि का शिकार होता है तो दूसरा आत्मघात का। मुझे जूदा ज्यादा आकर्षित करता है क्योंकि धोखा देने और पकड़वाने के बाद वह अपनी नृशंसता पर बौखलाया हुआ है। यह कुकर्म और जटिल ग्रंथि उसका पीछा नहीं छोड़ती और अंतत: वह आत्मघात करता है। कौन हमें किस तरह सुरक्षित रखता है और मानवीय बनाता है, यह एक लेखक बुरे को चित्रित करके जितना उपलब्ध करता है उतना अच्छे को चित्रित करके नहीं। अच्छे चरित्र एक क्लासिक श्रृंगार की तरह, बुरे चरित्र बनती बिगड़ती पतित दुनिया के भंवर में फंसे हुए एक जटिल ग्रंथि की तरह। टालस्टाय को देखो वो केरेनिना कारेनिना और ब्रोस्की जैसे बुरे चरित्रों को कितनी मानता से चित्रित करते है।
अनिल सिंह:-आपकी कतिपय कहानियों मेें दूसरों की लिहाड़ी लेने वाला जो 'आनन्द तत्व' है क्या उससे रचना का मूल्य प्रभावित नहीं होता?
दूधनाथ सिंह:- लिहाड़ी नहीं लेना चाहिए। वह रचना के सत्व को कमजोर करता है लेकिन कभी-कभी जी नहीं मानता और मैं खेलने - चिढ़ाने और मजा लेने की स्थिति में खुद मजा लेने लगता हूं । इससे लेखक की तटस्थता बाधित होती है, यह मैं मानता हूं। लेकिन यह लिहाड़ी रस कभी-कभी छोड़ता नहीं। मुझे यह भी लगता है कि ऐसा करते हुए किसी चरित्र, घटना या मन:स्थिति को आप शायद सम्पूर्णता में भी देखते हैं। यह प्रतिशोध नहीं हैं। रचनात्मक श्रम और अवसाद को कम करने के लिए एक कॉमिक रिलीफ की तरह मैं इसका इस्तेमाल करता हॅू।
अनिल सिंह:-भूमंडलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के इस युग में साहित्य के लिए कितना स्पेस आपको नजर आता है?
दूधनाथ सिंह:- इसमें सबसे बड़ा खतरा भाषाई साम्राज्यवाद का है। अंग्रेजी का वर्चस्व दिनोदिन बढता जा रहा हैं। अर्थव्यवस्था, मीडिया, साहित्य और सम्पर्क की भाषा के रूप में वह सारी दुनिया पर अपनी इजारेदारी कायम करने के प्रयत्न में है। भारत जैसे कमजोर मन वाले देश के लिए भाषा के इस साम्राज्यवाद से सबसे बड़ा खतरा हमारी भाषाओं को है। अगर ऐसा हुआ अगर हमारी भाषाएं लुप्त हुईं तो हमारी स्मृतियां और मिथक भी लुप्त हो जायेंगे। हमारा इतिहास और वैशिष्टय भी लुप्त हो जायेगा। जैसे धर्मपरिवर्तन किसी भी परिवार या कबीले को अनायास ही एक दो पीढ़ी बाद अपनी पूर्व स्मृतियों और मिथकों से वंचित कर देता है उसी तरह वैश्वीकरण्ा भी। जिस अर्थव्यस्था की तुम बात कर रहे हो, वह भी वित्तीय और आवारापूंजी पर आज आधारित है। कभी भी हमको नष्ट करने के लिए वह अपनी आवारागर्दी से चुपचाप वापस लौट सकती है। और तब हम सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप में मुंह के बल गिरेंगें। हम परोपजीवी और गुलाम हो जायेंगे। इस लिए वैश्वीकरण और आवारा पूंजी से भिड़ंत की जरूरत है। उनको उनकी मांद मे ही मात देना बचने का तरीका है। चीन और जापान ने इसे सफलतापूर्वक करके दिखा दिया है। और मुंह के बल गिरने और गुलाम बनने का प्रतीक है लैटिन अमरीका, अफ्रीका और एशिया के बहुत सारे देश । पुराने जमाने की तरह अमरीका लैटिनुस को मर्सिनरीज की तरह पैसे देकर इराक और दूसरे देशों में लड़ने के लिए भेज रहा है। 'डालर लो और जान दो' यह छिपा हुआ अप्रत्यक्ष नारा है। विश्व अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण का यह नतीजा है।
अनिल सिंह:-हंस के संपादक राजेन्द्र यादव जी ने निष्कासन को छापने से मना कर दिया था ऐसा सुना है। उनके उपर कहानी कब लिख रहे है?
दूधनाथ सिंह:- राजेन्द्र जी कहानी से सहमत नहीं थे। उसमे कुूछ बदलाव चाहते थे। हालांकि उन्होंने जो दो काड्र्स मुझे लिखे उनमें यह भी लिखा कि कहानी अच्छी है। इस संबंध में उनका पत्र और एक छोटा साक्षात्कार मैं बतौर सफाई के हिन्दुस्तान अखबार लखनउ में भेज चुका हूं। दरअसल राजेंद्र जी को लोगों ने भड़का दिया कि यह भी किसी जीवित चरित्र पर लिखी गयी कहानी है। एक बार वे मुझे भुगत चुके थे, दुबारा नहीं भुगतना चाहते थे। राजेन्द्र जी और मन्नू जी के लिए मेेंरे मन में अलग-अलग तरह से बड़ी श्रध्दा है । राजेंद्र जी जितना कठोर बोलते है, उतने कठोर है नहीं। उन्होने मेरा पहला कहानी संग्रह अक्षर प्रकाशन से छापा था। मैं कितना भी खराब हूं कृतघ्न नहीं हॅू। हंस का हिन्दी कहानी के विकास में वही योगदान है जो कहानी और नयी कहानियां के संपादक भैरावप्रसाद गुप्त का था। अगर आज हंस बंद हो जाये तो हिन्दी के एक हजार कहानीकार मर जायेंगे । प्रेमचंद के हंस ने इतना बड़ा काम नहीं किया जितना राजेंद्र यादव द्वारा संपादित हंस ने किया। 'और अंत में प्रार्थना', 'तिरिया चरितर', 'चिटठी', 'क्षमा करो हे वत्स' जैसी कहानियां राजेद्र जी के हंस मे छपी जो हिन्दी कहानी की अन्यतम उपलब्धियां है।
Thursday, September 13, 2007
आस्था से बढ़कर है विवेक
डायरी
आस्था से बढ़कर है विवेक
रामसेतु विवाद में लगातार यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत और श्रीलंका के बीच का यह उथला समुद्र हिन्दू आस्था से जुड़ा मुददा है। वहाँ की गहराई इसलिए बढ़ाई नहीं की जा सकती क्योंकि वहाँ भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने कभी पुल बनाया था। भगवान का कोई भी मामला हो तो बात श्रध्दा और आस्था की हो जाती है। विवेक को बगल कर दिया जाता है। आजकल आस्था पर चोटें भी जल्द ही लग जाती हैं। कभी मुस्लिम आस्था पर चोट लगती है तो कभी हिन्दू आस्था पर। बातें बड़ी जल्दी नाजुक हो जा रही हैं। कभी एक पुस्तक ही पूरी आस्था को तोड़ती नज़र आती है, तो कभी कोई फिल्म या पेन्टिग। शायद यह समय ही ऐसा है कि जोर आस्थावादियों का ही है। आस्थावादियों का हिंसक हो जाना भी प्राकृतिक तथा स्वाभाविक लगने लगा है। हालांकि यह उचित नहीं और आस्थावादियों को भी इस विषय पर सोचना चाहिए।
रामसेतु विवाद का राजनीतिक पक्ष भी है जिसे सभी लोग जान रहे हैं। बात ज्यादा स्पष्ट इसलिए हो जा रही है क्योंकि इस आन्दोलन का पूरा जिम्मा एक ही राजनीतिक पार्टी ने उठा रखा है। अखबारों में भी वही चेहरे हैं और वही भगवा ध्वज और वही त्रिशूल जिन्हें हम दस-पन्द्रह बरस से बार-बार देखते रहे हैं। कभी अयोध्या में तो कभी गुजरात में। कुछ भी हो अब लोगों से बात छिप नहीं पाती है क्योंकि राजनीति की नंगई ने लोगों को जानकार बना दिया है। सामान्य आदमी तक अब जागरूक हो चुका है। रिक्शावाला भी कहता है कि अरे साहब ये सब तो वोट लेने के लिए ही हैA तो फिर पढ़े लिखों की बात क्या की जाय? वे मजे के लिए कुछ बहस कर लेते हैं, कभी पक्ष में तो कभी विपक्ष में। मामला फॅंसता है तो बस कुछ पार्टी प्रतिबध्द बुध्दिजीवियों में जो लड़ने-मरने पर उतारू हो जाते हैं।
तो फिर आस्था ही सब कुछ क्यों हो जाती है? क्या हमारे जनतंत्र में इसी तरह के राजनीतिक और धार्मिक फतवे चलते रहेंगे? आखिर हम किसी धार्मिक शासन में तो रह नही रहे। भारत और ईरान में बड़ा फर्क है। अब यह कुतर्क तो नहीं करना चाहिए कि जो कुछ भी धार्मिक पुस्तकों में लिखा है वह इतिहास है। अगर वह इतिहास हो भी तो उसके लिए वर्तमान की बलि देने की क्या जरूरत? आखिर हम इतिहास के उन अवस्थाओं की शैशवावस्था से काफी आगे आ चुके हैं।
हमने बहुत से ऐसे काम किये हैं जो पुराने धर्म संबंधी विचारों के विरोधी हैं या अपवर्जी हैं, और वह भी इसलिए कि उनसे हमारा व्यापक लाभ रहा है। आखिर यह राजनीति भी तो छिछले लाभ के लिए ही है। बहुत सी धार्मिक बातें हमें इसलिए छोड़नी पड़ी कि वे विवेक सम्मत नहीं थीं। आखिर आज कौन यह मान सकेगा कि धरती गाय के सींग पर टिकी हुई है या यह कि धरती चिपटी है? हम रोज हजारों ऐसे काम करते हैं जो पुरानी धार्मिक पुस्तकों के कहे के अनुरूप नहीं हैं। उनके विश्वास और विचार हमारे लिए खास काम के नहीं। वहाँ हम विवेक का इस्तेमाल करते हैं तो फिर बार-बार हमें आस्था के नाम पर क्यों उत्तेजित किया जाता है। यहाँ हम विवेक का प्रयोग क्यों नहीं कर पाते।
सवाल यह नहीं है कि रामसेतु के उथले समुद्र को गहरा किया जाय या नहीं। सवाल यह है कि कब तक हम अपने को विवेक का इस्तेमाल करने योग्य नहीं बनने देंगे और इस तरह कूपमण्डूक बने रहेंगे?
रघुवंशमणि
आस्था से बढ़कर है विवेक
रामसेतु विवाद में लगातार यह बताने की कोशिश की जा रही है कि भारत और श्रीलंका के बीच का यह उथला समुद्र हिन्दू आस्था से जुड़ा मुददा है। वहाँ की गहराई इसलिए बढ़ाई नहीं की जा सकती क्योंकि वहाँ भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने कभी पुल बनाया था। भगवान का कोई भी मामला हो तो बात श्रध्दा और आस्था की हो जाती है। विवेक को बगल कर दिया जाता है। आजकल आस्था पर चोटें भी जल्द ही लग जाती हैं। कभी मुस्लिम आस्था पर चोट लगती है तो कभी हिन्दू आस्था पर। बातें बड़ी जल्दी नाजुक हो जा रही हैं। कभी एक पुस्तक ही पूरी आस्था को तोड़ती नज़र आती है, तो कभी कोई फिल्म या पेन्टिग। शायद यह समय ही ऐसा है कि जोर आस्थावादियों का ही है। आस्थावादियों का हिंसक हो जाना भी प्राकृतिक तथा स्वाभाविक लगने लगा है। हालांकि यह उचित नहीं और आस्थावादियों को भी इस विषय पर सोचना चाहिए।
रामसेतु विवाद का राजनीतिक पक्ष भी है जिसे सभी लोग जान रहे हैं। बात ज्यादा स्पष्ट इसलिए हो जा रही है क्योंकि इस आन्दोलन का पूरा जिम्मा एक ही राजनीतिक पार्टी ने उठा रखा है। अखबारों में भी वही चेहरे हैं और वही भगवा ध्वज और वही त्रिशूल जिन्हें हम दस-पन्द्रह बरस से बार-बार देखते रहे हैं। कभी अयोध्या में तो कभी गुजरात में। कुछ भी हो अब लोगों से बात छिप नहीं पाती है क्योंकि राजनीति की नंगई ने लोगों को जानकार बना दिया है। सामान्य आदमी तक अब जागरूक हो चुका है। रिक्शावाला भी कहता है कि अरे साहब ये सब तो वोट लेने के लिए ही हैA तो फिर पढ़े लिखों की बात क्या की जाय? वे मजे के लिए कुछ बहस कर लेते हैं, कभी पक्ष में तो कभी विपक्ष में। मामला फॅंसता है तो बस कुछ पार्टी प्रतिबध्द बुध्दिजीवियों में जो लड़ने-मरने पर उतारू हो जाते हैं।
तो फिर आस्था ही सब कुछ क्यों हो जाती है? क्या हमारे जनतंत्र में इसी तरह के राजनीतिक और धार्मिक फतवे चलते रहेंगे? आखिर हम किसी धार्मिक शासन में तो रह नही रहे। भारत और ईरान में बड़ा फर्क है। अब यह कुतर्क तो नहीं करना चाहिए कि जो कुछ भी धार्मिक पुस्तकों में लिखा है वह इतिहास है। अगर वह इतिहास हो भी तो उसके लिए वर्तमान की बलि देने की क्या जरूरत? आखिर हम इतिहास के उन अवस्थाओं की शैशवावस्था से काफी आगे आ चुके हैं।
हमने बहुत से ऐसे काम किये हैं जो पुराने धर्म संबंधी विचारों के विरोधी हैं या अपवर्जी हैं, और वह भी इसलिए कि उनसे हमारा व्यापक लाभ रहा है। आखिर यह राजनीति भी तो छिछले लाभ के लिए ही है। बहुत सी धार्मिक बातें हमें इसलिए छोड़नी पड़ी कि वे विवेक सम्मत नहीं थीं। आखिर आज कौन यह मान सकेगा कि धरती गाय के सींग पर टिकी हुई है या यह कि धरती चिपटी है? हम रोज हजारों ऐसे काम करते हैं जो पुरानी धार्मिक पुस्तकों के कहे के अनुरूप नहीं हैं। उनके विश्वास और विचार हमारे लिए खास काम के नहीं। वहाँ हम विवेक का इस्तेमाल करते हैं तो फिर बार-बार हमें आस्था के नाम पर क्यों उत्तेजित किया जाता है। यहाँ हम विवेक का प्रयोग क्यों नहीं कर पाते।
सवाल यह नहीं है कि रामसेतु के उथले समुद्र को गहरा किया जाय या नहीं। सवाल यह है कि कब तक हम अपने को विवेक का इस्तेमाल करने योग्य नहीं बनने देंगे और इस तरह कूपमण्डूक बने रहेंगे?
रघुवंशमणि
Tuesday, September 11, 2007
बुकर पुरस्कार की दौड़ में नये घोड़े
डायरी
बुकर पुरस्कार की दौड़ में नये घोड़े
अंग्रेजी में उपन्यासों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार बुकर पुरस्कार माना जाता है। इस बार इसकी प्रारम्भक सूची में आश्चर्यजनक रूप से नये उपन्यासकार हैं। अगर इयान मैकइवान को छोड़ दें तो शायद ही इस सूची में कोई ऐसा लेखक हो जो प्रसिध्द हो। पिछली कई बार से कोटजी, रश्दी, इशिगुरू जैसे उद्भट उपन्यासकार लाइन में रहते थे। मगर इस बार इस दौड़ के सारे घोड़े नये हैं। इसका मतलब यह हुआ कि दस लेखकों की इस लम्बी सूची से जो भी आगे जायेगा, वह कोई बहुत जाना-माना नाम नहीं होगा। इसका मतलब है अंग्रेजी साहित्य में नये नामों का आना। अंग्रेजी साहित्य के किताबी कीड़ों के लिए इससे अधिक खुशी की बात क्या हो सकती है?
चूँकि सर्वाधिक परिचित मैकइवान ही हैं तो उन्हें ही संभावित विजेता भी बतलाया जा रहा है। उनके उपन्यासों की पूरी दुनिया में ख्याति है और उन्हें कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। अंग्रेजी साहित्य से एम.ए. मैक इवान के गुरुओं में एंगस विल्सन जैसे उपन्यासकार रह चुके हैं। 1998 में अपने उपन्यास एम्सटर्डम के लिए उन्हें यह बुकर पुरस्कार मिल भी चुका है।
लेकिन और भी उपन्यासकार हैं जो लोगों की दृष्टि में हैं। यह भी सच है कि अक्सर बुकर नये लोगों को भी मिलता रहा है। इस सूची में दो भारतीय मूल के लेखकों, निकिता लालवानी और इन्द्र सिन्हा, के भी नाम हैं। निकिता लालवानी का जन्म 1973 में कोटा राजस्थान में हुआ था। वे अब लंदन में रहती हैं। गिफ्टेड उनका पहला ही उपन्यास है। अनुवादक और उपन्यासकार इन्द्र सिन्हा थोड़ा बुजुर्ग अवश्य हैं। उनका जन्म 1950 में हुआ था। मेयो कालेज अजमेर में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने कामसूत्र का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। जाहिर है कि वे संस्कृत भी जानते हैं। दो भारतीयों के होने का मतलब है कि इस वर्ष हम एक और किरन देसाई की आशा कर सकते हैं।
नेटमित्रों के लिए पूरी सूची छाप रहा हूँ। प्रकाशकों के नाम के साथ। आखिर व्यवसाय तो वही प्रकाशक ही करेंगे।
उपन्यास - लेखक - प्रकाशक
........... ................ .........................................
डॉर्कमैन - निकोल बारकर - फोर्थ स्टेट
सेल्फ हैल्प - एडवर्ड डॉक्स - पिकाडोर
द गिफ्ट ऑफ रेन - टेन ट्वान इंग - मिरमिडोन
द गेदरिंग - एनी इनराइट - जोनाथन केप
द रिलक्टेन्ट फण्डामेन्टलिस्ट - मोहसिन हामिद - हैमिश हैमिल्टन
द वेल्श गर्ल - पीटर हो डेवीस - सेप्टर
मिस्टर पिप - लायड जोन्स - जॉन मरे
गिफ्टेड - निकिता लालवानी - वाइकिंग
आन चेसिल बीच - आयन मैकइवान - जोनाथन केप
वाट वाज लॉस्ट - कैथरीन ओफ्लिन - टिण्डेल स्ट्रीट
कॉन्सोलेशन - माइकेल रेडहिल - विलियम हाइनमैन
एनिमल्स पीपुल - इन्द्र सिन्हा - साइमन एण्ड सुस्टर
विनी एण्ड वूल्फ - ए.एन. विल्सन - हचिन्सन
..................................................................
रघुवंशमणि
बुकर पुरस्कार की दौड़ में नये घोड़े
अंग्रेजी में उपन्यासों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार बुकर पुरस्कार माना जाता है। इस बार इसकी प्रारम्भक सूची में आश्चर्यजनक रूप से नये उपन्यासकार हैं। अगर इयान मैकइवान को छोड़ दें तो शायद ही इस सूची में कोई ऐसा लेखक हो जो प्रसिध्द हो। पिछली कई बार से कोटजी, रश्दी, इशिगुरू जैसे उद्भट उपन्यासकार लाइन में रहते थे। मगर इस बार इस दौड़ के सारे घोड़े नये हैं। इसका मतलब यह हुआ कि दस लेखकों की इस लम्बी सूची से जो भी आगे जायेगा, वह कोई बहुत जाना-माना नाम नहीं होगा। इसका मतलब है अंग्रेजी साहित्य में नये नामों का आना। अंग्रेजी साहित्य के किताबी कीड़ों के लिए इससे अधिक खुशी की बात क्या हो सकती है?
चूँकि सर्वाधिक परिचित मैकइवान ही हैं तो उन्हें ही संभावित विजेता भी बतलाया जा रहा है। उनके उपन्यासों की पूरी दुनिया में ख्याति है और उन्हें कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। अंग्रेजी साहित्य से एम.ए. मैक इवान के गुरुओं में एंगस विल्सन जैसे उपन्यासकार रह चुके हैं। 1998 में अपने उपन्यास एम्सटर्डम के लिए उन्हें यह बुकर पुरस्कार मिल भी चुका है।
लेकिन और भी उपन्यासकार हैं जो लोगों की दृष्टि में हैं। यह भी सच है कि अक्सर बुकर नये लोगों को भी मिलता रहा है। इस सूची में दो भारतीय मूल के लेखकों, निकिता लालवानी और इन्द्र सिन्हा, के भी नाम हैं। निकिता लालवानी का जन्म 1973 में कोटा राजस्थान में हुआ था। वे अब लंदन में रहती हैं। गिफ्टेड उनका पहला ही उपन्यास है। अनुवादक और उपन्यासकार इन्द्र सिन्हा थोड़ा बुजुर्ग अवश्य हैं। उनका जन्म 1950 में हुआ था। मेयो कालेज अजमेर में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने कामसूत्र का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है। जाहिर है कि वे संस्कृत भी जानते हैं। दो भारतीयों के होने का मतलब है कि इस वर्ष हम एक और किरन देसाई की आशा कर सकते हैं।
नेटमित्रों के लिए पूरी सूची छाप रहा हूँ। प्रकाशकों के नाम के साथ। आखिर व्यवसाय तो वही प्रकाशक ही करेंगे।
उपन्यास - लेखक - प्रकाशक
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डॉर्कमैन - निकोल बारकर - फोर्थ स्टेट
सेल्फ हैल्प - एडवर्ड डॉक्स - पिकाडोर
द गिफ्ट ऑफ रेन - टेन ट्वान इंग - मिरमिडोन
द गेदरिंग - एनी इनराइट - जोनाथन केप
द रिलक्टेन्ट फण्डामेन्टलिस्ट - मोहसिन हामिद - हैमिश हैमिल्टन
द वेल्श गर्ल - पीटर हो डेवीस - सेप्टर
मिस्टर पिप - लायड जोन्स - जॉन मरे
गिफ्टेड - निकिता लालवानी - वाइकिंग
आन चेसिल बीच - आयन मैकइवान - जोनाथन केप
वाट वाज लॉस्ट - कैथरीन ओफ्लिन - टिण्डेल स्ट्रीट
कॉन्सोलेशन - माइकेल रेडहिल - विलियम हाइनमैन
एनिमल्स पीपुल - इन्द्र सिन्हा - साइमन एण्ड सुस्टर
विनी एण्ड वूल्फ - ए.एन. विल्सन - हचिन्सन
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रघुवंशमणि
Sunday, September 09, 2007
उ.प्र. की छात्र राजनीति में गुण्डई का प्रतिशत
डायरी
उ.प्र. की छात्र राजनीति में गुण्डई का प्रतिशत
मायावती सरकार द्वारा उ.प्र. के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों पर लगाया गया प्रतिबंध सराहनीय और स्वागतयोग्य है। विगत एक दशक से प्रदेश की छात्र राजनीति का बहुत बड़ा हिस्सा गुण्डों के हाथ में चला गया है। प्रत्येक सत्र में इन गुण्डों की वजह से शिक्षा जगत के परिसरों में अच्छी-खासी गुण्डई फैली हुई है। हर साल परिसर में हत्याओं, मारपीट और आतंकित करने की घटनाएँ आम होती गयी हैं। प्रदेश में शान्ति व्यवस्था बनाने के लिए इनसे निपटना जरूरी है।
पिछले वर्ष ही उ.प्र. के बस्ती जिले में एक अध्यापक की हत्या एक छात्र द्वारा कर दी गयी थी। उससे पहले चुनाव के ही अवसर पर एक विद्यालय के गेट पर ही एक हत्या हो गयी थी। हिन्दुस्तान अखबार के अनुसार लखनउ विश्वविद्यालय पिछले दो सालों में चार हत्याएँ हो चुकी हैं। फैजाबाद के एक अध्यापक पर बम फेका गया। छात्र नेताओं या उनके छुटभैयों द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की आपराधिक घटनाएँ आम होती जा रही हैं। ये छात्र नेता अक्सर आपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं और ठेकेदारी जैसे व्यवसायों में लगे होते हैं। कुछ छात्र तो शहर के डाक्टरों वगैरह जैसों और अन्य व्यवसायियों से जबर्दस्ती धन वसूली भी करते हैं। छात्र नेता हो जाने पर पुलिस इन पर हाथ डालने से डरती है। कुल मिलाकर तरह-तरह के अपराधों में लिप्त इन छात्र नेताओं पर प्रतिबंध जरूरी था।
अब इन छात्र नेताओं के समर्थन में तमाम सैद्वान्तिक बाते की जाती है। प्रजातंत्र और नागरिक अधिकारों की दुहाई दी जा रही है। मगर इस व्यावहारिक बात पर नज़र क्यों नहीं जाती कि इन छात्र नेताओं के जिम्मे कोई सार्थक काम नहीं बचा है। जहाँ तक अच्छे छात्र नेताओं का सवाल है, उनका प्रतिशत बहुत ही कम है। अगर वे कहीं हैं भी तो अक्सर वे गुण्डई के चलते नहीं ही जीतते। ये गुण्डे छात्र नेता कभी भी अन्याय के विरुध्द आवाज नहीं उठाते। ये अक्सर नेतागीरी का नाटक करते हैं और इनका उद्देश्य केवल ब्लैकमेल करना, रंगबाजी करना, अध्यापकों को धमकियाना और महाविद्यालयों के शैक्षिक वातावरण को खराब करना होता है। जिन महाविद्यालयों में छात्रसंघ नहीं है, वहाँ इस तरह की समस्याएँ भी कम हैं। पूछा जा सकता है कि आखिर ये शिक्षण संस्थाएँ क्या कोई उत्पादक स्थल हैं जहाँ छात्ररूपी मजदूरों को यूनियन की जरूरत पड़े।
दरअस्ल राजनीति को ऐसे छात्र नेताओं या युवा गुण्डों की जरूरत पड़ती है जो गुण्डई के बल पर पाटिर्यों को वोट दिला सकें। वे महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का इस्तेमाल राजनीति के प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में करते हैं। वह भी घटिया राजनीति के प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में। लेकिन इस सब से महाविद्यालयों की संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। महाविद्यालयों में गुडई बढ़ती है और शिक्षा सत्र बुरी तरह प्रभावित होता है यही नहीं परीक्षा के दौरान भी ये तत्व नकल वगैरह को बढ़ावा देते-दिलाते हैं। विद्यालयों को इस प्रकार की घटिया राजनीति से मुक्ति दिलाना जरूरी है।
यह मजे की बात है कि राज्य सरकार के इस फैसले के कुछ ही दिन पूर्व न्यायालय ने भी एक ऐसा ही फैसला सुनाया है। इससे राज्य सरकार के फैसले के सही होने को प्रमाण मिलता है। लेकिन सामान्य अभिभावक और छात्र तो पहले से ही ऐसे किसी निर्णय की प्रतीक्षा में थे। यही कारण है कि इस निर्णय को अभिभावकों और प्रतिभाशाली छात्रों का पूरा समर्थन है।
रघुवंशमणि
उ.प्र. की छात्र राजनीति में गुण्डई का प्रतिशत
मायावती सरकार द्वारा उ.प्र. के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रसंघ चुनावों पर लगाया गया प्रतिबंध सराहनीय और स्वागतयोग्य है। विगत एक दशक से प्रदेश की छात्र राजनीति का बहुत बड़ा हिस्सा गुण्डों के हाथ में चला गया है। प्रत्येक सत्र में इन गुण्डों की वजह से शिक्षा जगत के परिसरों में अच्छी-खासी गुण्डई फैली हुई है। हर साल परिसर में हत्याओं, मारपीट और आतंकित करने की घटनाएँ आम होती गयी हैं। प्रदेश में शान्ति व्यवस्था बनाने के लिए इनसे निपटना जरूरी है।
पिछले वर्ष ही उ.प्र. के बस्ती जिले में एक अध्यापक की हत्या एक छात्र द्वारा कर दी गयी थी। उससे पहले चुनाव के ही अवसर पर एक विद्यालय के गेट पर ही एक हत्या हो गयी थी। हिन्दुस्तान अखबार के अनुसार लखनउ विश्वविद्यालय पिछले दो सालों में चार हत्याएँ हो चुकी हैं। फैजाबाद के एक अध्यापक पर बम फेका गया। छात्र नेताओं या उनके छुटभैयों द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की आपराधिक घटनाएँ आम होती जा रही हैं। ये छात्र नेता अक्सर आपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं और ठेकेदारी जैसे व्यवसायों में लगे होते हैं। कुछ छात्र तो शहर के डाक्टरों वगैरह जैसों और अन्य व्यवसायियों से जबर्दस्ती धन वसूली भी करते हैं। छात्र नेता हो जाने पर पुलिस इन पर हाथ डालने से डरती है। कुल मिलाकर तरह-तरह के अपराधों में लिप्त इन छात्र नेताओं पर प्रतिबंध जरूरी था।
अब इन छात्र नेताओं के समर्थन में तमाम सैद्वान्तिक बाते की जाती है। प्रजातंत्र और नागरिक अधिकारों की दुहाई दी जा रही है। मगर इस व्यावहारिक बात पर नज़र क्यों नहीं जाती कि इन छात्र नेताओं के जिम्मे कोई सार्थक काम नहीं बचा है। जहाँ तक अच्छे छात्र नेताओं का सवाल है, उनका प्रतिशत बहुत ही कम है। अगर वे कहीं हैं भी तो अक्सर वे गुण्डई के चलते नहीं ही जीतते। ये गुण्डे छात्र नेता कभी भी अन्याय के विरुध्द आवाज नहीं उठाते। ये अक्सर नेतागीरी का नाटक करते हैं और इनका उद्देश्य केवल ब्लैकमेल करना, रंगबाजी करना, अध्यापकों को धमकियाना और महाविद्यालयों के शैक्षिक वातावरण को खराब करना होता है। जिन महाविद्यालयों में छात्रसंघ नहीं है, वहाँ इस तरह की समस्याएँ भी कम हैं। पूछा जा सकता है कि आखिर ये शिक्षण संस्थाएँ क्या कोई उत्पादक स्थल हैं जहाँ छात्ररूपी मजदूरों को यूनियन की जरूरत पड़े।
दरअस्ल राजनीति को ऐसे छात्र नेताओं या युवा गुण्डों की जरूरत पड़ती है जो गुण्डई के बल पर पाटिर्यों को वोट दिला सकें। वे महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का इस्तेमाल राजनीति के प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में करते हैं। वह भी घटिया राजनीति के प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में। लेकिन इस सब से महाविद्यालयों की संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। महाविद्यालयों में गुडई बढ़ती है और शिक्षा सत्र बुरी तरह प्रभावित होता है यही नहीं परीक्षा के दौरान भी ये तत्व नकल वगैरह को बढ़ावा देते-दिलाते हैं। विद्यालयों को इस प्रकार की घटिया राजनीति से मुक्ति दिलाना जरूरी है।
यह मजे की बात है कि राज्य सरकार के इस फैसले के कुछ ही दिन पूर्व न्यायालय ने भी एक ऐसा ही फैसला सुनाया है। इससे राज्य सरकार के फैसले के सही होने को प्रमाण मिलता है। लेकिन सामान्य अभिभावक और छात्र तो पहले से ही ऐसे किसी निर्णय की प्रतीक्षा में थे। यही कारण है कि इस निर्णय को अभिभावकों और प्रतिभाशाली छात्रों का पूरा समर्थन है।
रघुवंशमणि
Friday, September 07, 2007
छप्पन के श्रीप्रकाश मिश्र
डायरी
छप्पन के श्रीप्रकाश मिश्र
साहित्यकारों पर चर्चा की कुछ विशेष अवस्थाएँ होती हैं। हिन्दी साहित्य जगत में जब कोई साहित्यकार साठ साल का होता है तो यह उसकी चर्चा का उचित समय माना जाता है। इसी प्रकार पचहत्तर साल का होना और अस्सी साल का होना चर्चा के लिए सबसे उपयुक्त हो जाना होता है। यह पचहत्तर या अस्सी साला होना तो एक सांस्कृतिक मामला होता है। मगर साठ साल का होना तो बिल्कुल सरकारी मामला है क्योंकि यह सरकारी रूप से सेवा मुक्त होने का समय होता है। वैसे इसे भी एक रूढ़ि ही माना जाना चाहिए क्योंकि कोई अठ्ठावन वर्ष का होने पर रिटायर होता है तो कोई बासठ पर।
फिलहाल श्रीप्रकाश मिश्र जी पर चर्चा का कारण यह है कि उन्होने इन सारी रूढ़ियों को धता बताते हुए छप्पन पर ही अपना निपट लेना निर्धारित किया। फैज़ाबाद शहर से उन्होने आज ही आई. बी. के अपने कार्यालय कम आवास से अपना समान बटोरकर अपने प्रिय शहर इलाहाबाद जाना सुनिश्िचित किया। अब वहाँ वे किताबों के बीच रहते हुए कागज कारे करेंगे। वैसे इलाहाबाद का काफी हाउस उनके लिए विशेष आकर्षण है और वह भी अपने प्रतिभागियों के साथ उनकी प्रतीक्षा में बेसब्र होगा। श्रीप्रकाश जी की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई है और उन्होने वहाँ लम्बा समय गुजारा है।
साहित्य में श्रीप्रकाश मिश्र का योगदान कई तरह से है। उन्नयन लघु पत्रिका के सम्पादक के रूप में एक पूरी कवि पीढ़ी को आगे लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये कवि अपने प्ररम्भिक समय में इसी पत्रिका में महत्वपूर्ण तरीके से प्रकाशित हुए। इन कवियों में देवीप्रसाद मिश्र, बद्रीनारायण, हरीशचन्द्र पाण्डेय, अष्टभुजा शुक्ल, विश्वरंजन, हीरालाल, जितेन्द्र श्रीवास्तव, निशांत जैसे महत्वपूर्ण कवि रहे हैं। मेरी भी प्रारम्भिक कविताएँ उन्नयन में ही विशेषतौर से प्रकाशित हुई थीं। यह पत्रिका विभिन्न भारतीय भाषाओं की कविताओं पर भी अपने अंक केन्द्रित करती रही है।
श्रीप्रकाश मिश्र स्वयं भी कवि हैं और उनका संग्रह मौन पर शब्द काफी पहले प्रकाशित हुआ है। बाद में उन्होने जहाँ बाँस फूलते हैं और रूपतिल्ली की कथा जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे जिनमें मिजो और खासी जनजातियों के जीवन पर काफी कुछ महत्वपूर्ण मिलता है। उनकी कम चर्चित नवें दशक की हिन्दी कविता पर लिखी गयी आलोचना पुस्तक यह जो आ रहा है हरा भी कम महत्वपूर्ण नहीं। हिन्दी जगत में वे अपनी अलग अभिरुचियों की वजह से थोड़ा विवाद में भी रहे हैं। मिश्र जी बहुपठ हैं। वे संवाद और वाद विवाद के लिए सदा तैयार रहते हैं। फैजाबाद में उनकी उपस्थिति से साहित्यिक वातावरण काफी जीवन्त रहा।
स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का उनका यह निर्णय हिन्दी के लिए शुभ ही होगा क्योंकि वे इस समय अपने दो उपन्यासों पर काम कर रहे हैं। उनकी एक आलोचना पुस्तक प्रकाश्य है। यह फैसला उनकी निर्भयता का ही द्योतक है। इसी बात पर एक अजनबी कवि की कविता लीजिये:
किसी को डर है पचाससाले से
किसी को डर है साठसाले से
{किसी को डर है छप्पनसाले से}
मुझे डर नहीं है किसी साले से
रघुवंशमणि
छप्पन के श्रीप्रकाश मिश्र
साहित्यकारों पर चर्चा की कुछ विशेष अवस्थाएँ होती हैं। हिन्दी साहित्य जगत में जब कोई साहित्यकार साठ साल का होता है तो यह उसकी चर्चा का उचित समय माना जाता है। इसी प्रकार पचहत्तर साल का होना और अस्सी साल का होना चर्चा के लिए सबसे उपयुक्त हो जाना होता है। यह पचहत्तर या अस्सी साला होना तो एक सांस्कृतिक मामला होता है। मगर साठ साल का होना तो बिल्कुल सरकारी मामला है क्योंकि यह सरकारी रूप से सेवा मुक्त होने का समय होता है। वैसे इसे भी एक रूढ़ि ही माना जाना चाहिए क्योंकि कोई अठ्ठावन वर्ष का होने पर रिटायर होता है तो कोई बासठ पर।
फिलहाल श्रीप्रकाश मिश्र जी पर चर्चा का कारण यह है कि उन्होने इन सारी रूढ़ियों को धता बताते हुए छप्पन पर ही अपना निपट लेना निर्धारित किया। फैज़ाबाद शहर से उन्होने आज ही आई. बी. के अपने कार्यालय कम आवास से अपना समान बटोरकर अपने प्रिय शहर इलाहाबाद जाना सुनिश्िचित किया। अब वहाँ वे किताबों के बीच रहते हुए कागज कारे करेंगे। वैसे इलाहाबाद का काफी हाउस उनके लिए विशेष आकर्षण है और वह भी अपने प्रतिभागियों के साथ उनकी प्रतीक्षा में बेसब्र होगा। श्रीप्रकाश जी की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई है और उन्होने वहाँ लम्बा समय गुजारा है।
साहित्य में श्रीप्रकाश मिश्र का योगदान कई तरह से है। उन्नयन लघु पत्रिका के सम्पादक के रूप में एक पूरी कवि पीढ़ी को आगे लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये कवि अपने प्ररम्भिक समय में इसी पत्रिका में महत्वपूर्ण तरीके से प्रकाशित हुए। इन कवियों में देवीप्रसाद मिश्र, बद्रीनारायण, हरीशचन्द्र पाण्डेय, अष्टभुजा शुक्ल, विश्वरंजन, हीरालाल, जितेन्द्र श्रीवास्तव, निशांत जैसे महत्वपूर्ण कवि रहे हैं। मेरी भी प्रारम्भिक कविताएँ उन्नयन में ही विशेषतौर से प्रकाशित हुई थीं। यह पत्रिका विभिन्न भारतीय भाषाओं की कविताओं पर भी अपने अंक केन्द्रित करती रही है।
श्रीप्रकाश मिश्र स्वयं भी कवि हैं और उनका संग्रह मौन पर शब्द काफी पहले प्रकाशित हुआ है। बाद में उन्होने जहाँ बाँस फूलते हैं और रूपतिल्ली की कथा जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे जिनमें मिजो और खासी जनजातियों के जीवन पर काफी कुछ महत्वपूर्ण मिलता है। उनकी कम चर्चित नवें दशक की हिन्दी कविता पर लिखी गयी आलोचना पुस्तक यह जो आ रहा है हरा भी कम महत्वपूर्ण नहीं। हिन्दी जगत में वे अपनी अलग अभिरुचियों की वजह से थोड़ा विवाद में भी रहे हैं। मिश्र जी बहुपठ हैं। वे संवाद और वाद विवाद के लिए सदा तैयार रहते हैं। फैजाबाद में उनकी उपस्थिति से साहित्यिक वातावरण काफी जीवन्त रहा।
स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का उनका यह निर्णय हिन्दी के लिए शुभ ही होगा क्योंकि वे इस समय अपने दो उपन्यासों पर काम कर रहे हैं। उनकी एक आलोचना पुस्तक प्रकाश्य है। यह फैसला उनकी निर्भयता का ही द्योतक है। इसी बात पर एक अजनबी कवि की कविता लीजिये:
किसी को डर है पचाससाले से
किसी को डर है साठसाले से
{किसी को डर है छप्पनसाले से}
मुझे डर नहीं है किसी साले से
रघुवंशमणि
Thursday, September 06, 2007
डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान से पुरस्कृत युवा आलोचक रघुवंशमणि से योगेश श्रीवास्तव की बातचीत
साक्षात्कार
डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान से पुरस्कृत युवा आलोचक रघुवंशमणि से योगेश श्रीवास्तव की बातचीत-------------------------------------------------
योगेश श्रीवास्तव: आप अध्यापन के साथ-साथ आलोचनाकर्म से भी गहरे जुड़े हैं, दोनों के बीच एक अदद तारतम्य होता है। उसके बारे में आपको क्या कहना है?
रघुवंशमणि: आप जो बात कह रहे हैं वह सामान्यत: स्वीकृत है। लोग यह मानते हैं कि साहित्य का अध्यापन, आलोचना कर्म में सहायक होता है। यह बात एक हद तक सही भी है। परन्तु हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश विश्वविद्यालयों के साहित्य विभागों के पाठयक्रम बहुत ही पारम्परिक हैं जो विद्याथियों में साहित्य की एक रूढ़ समझ पैदा करते हैं। अध्यापकगण इसी पाठयक्रम के प्रसारक हैं और इसी में रचे बसे रहते हैं। इस कारण एक आलोचक के लिए यह पाठयक्रमित ज्ञान महज एक पृष्ठभूमि भर का काम करता है। आगे का रास्ता उसे स्वयं तैयार करना होता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।
समकालीनता से संवाद किये बगैर आलोचना में स्वस्थ दृष्टि का विकास संभव नहीं। आपने देखा होगा कि विश्वविद्यालयों से निकलने वाले लोग बड़ी रूढ़ रचनात्मकता और आलोचनात्मकता के साथ बाहर आते हैं। साहित्य के पारंपरिक अध्ययन से हम केवल साहित्य की परंपरा का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मगर एक आलोचक को, या कहिए कि एक रचनाकार को भी, इससे आगे जाना होता है। एक बात जरूर है कि आलोचनाकर्म आपको एक बेहतर अध्यापक बनाता है। अध्यापक ही क्या एक बेहतर नागरिक बनाता है। बस आलोचनाकर्म और जीवन में सचाई होनी चाहिये।
योगेश श्रीवास्तव: आज पत्र-पत्रिकाओं के बीच सार्थक साहित्य के लिए जगह कम हो रही है, आलोचनाकर्म के लिए तो और भी जगह कम हो रही है। ऐसे में आलोचना को लेकर आप क्या सोचते हैं?
रघुवंशमणि: आपने बिल्कुल सही बात कही है। इसका एक कारण तो सीधे-सीधे बढ़ती हुई व्यावसायिकता है। अखबार और पत्रिकाएँ रंगीन हो गयीं हैं और तकनीकी दृष्टि से उन्नत। मगर उनमें प्रकाशित होने वाली सामग्री उसी तुलना में निहायत सतही होती गयी है। होना तो इसका उल्टा चाहिये था। तकनीकी उन्नति के साथ विषय और सामग्री संजीदा होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अखबारों में चित्रों को प्रमुखता से छापा जाता है। मतलब आप यह निकाल सकते हैं कि ये अखबार और पत्रिकाएँ देखनें की चीज होते जा रहे हैं, पढ़ने की चीज नहीं। इस तरफ अखबार के मालिकों और सम्पादकों को ध्यान देना चाहिए।
लेकिन ऐसी भी पत्रिकाएँ और अखबार मौजूद हैं जो गंभीर सामग्री प्रकाशित करते हैं। वहाँ आलोचना के लिए अधिक स्पेस है। आपने गौर किया होगा कि हिन्दी में अच्छी आलोचना सामग्री वहीं प्रकाशित होती रही है। इसीलिए साहित्य प्रेमियों और गंभीर पाठकों में लघु पत्रिकाओं का अधिक आकर्षण बना है। लोग उन्हें अधिक गंभीरतापूर्वक पढ़ते हैं। मैं समझता हॅूं कि लधु पत्रिका आन्दोलन का हमारे समय में इसी अर्थ में बहुत अधिक महत्व रहा है। समाज को आलोचना की आवश्यकता पड़ती ही है इसलिये इसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में सदैव बना रहेगा।
योगेश श्रीवास्तव: इधर के आपके आलेखों को पढकर लगता है कि आप माक्र्सवादी आलोचना के प्रभाव में हैं। आप किसी भी पुस्तक को परखने के लिए किन अवधारणाओं और किन प्रत्ययों को लेकर चलते हैं?
रघुवंशमणि: देखिये किसी भी आलोचक को एक खँाचे में बाँध कर देखना उचित नहीं। आलोचना का काम जितना ही खुला रहे उतना ही ठीक। दरअस्ल माक्र्स का मामला यह है कि वह आधुनिक युग के चिन्तन में सूर्य के समान है। हम खिड़की दरवाजे बंद कर लें तो भी सूर्य का प्रकाश घर में घुस ही आता है। मेरे जैसा आलोचक तो खिड़की दरवाजे बंद कर ही नहीं सकता।
एक गैरमाक्र्सवादी निर्देशक और आलोचक पीटर ब्रुक ने लिखा है कि हम माक्र्सवाद से बच ही नहीं सकते क्योंकि जब भी हम साहित्य अथवा साहित्येतर संदर्भ में ऐतिहासिक, आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं, हम माक्र्सवादी हो जाते हैं। यही कारण है कि माक्र्सवाद की चर्चा न करने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लेखन में भी हमें माक्र्सवाद के तत्व मिल ही जाते हैं। यद्यपि वे स्पष्टत: माक्र्सवादी नहीं थे। और तो और माक्र्स से पहले पैदा हुए डॉ. जॉनसन की पध्दति माक्र्स जैसी है। माक्र्सवादी चिन्तन पध्दति की व्यापकता बहुत अधिक है।
जहाँ तक मेरा सवाल है मैं माक्र्सवादी चिन्तन पध्दति से बहुत प्रभावित हूँ। लेकिन रूढ़ माक्र्सवाद से, स्टालिनवाद वगैरह से, मैं दूरी रखता हॅूं। अन्य चिन्तकों को पढ़ते समय मैं दिमाग की खिड़की खुली रखता हूँ।
हर पुस्तक या कृति अपने में एक संरचना होती है जिसके व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक निहितार्थ होते हैं। इसलिए प्रत्येक पुस्तक के प्रति एक जैसे निकष का प्रयोग गलत होता है। मैं आलोचना की एक लचीली पध्दति की खोज में लगा रहता हूँ। मुझे लगता है कि बढ़िया पुस्तकें हमसे अलग तरह से संवाद करती हैं। एक आलोचक को इस संवाद की पध्दति को पकड़ने का प्रयास करना होता है। उक्ति है कि जब हम किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो वह भी हमें पढ़ती है। यह रचना की ओर से एक चुनौती होती है एक आलोचक के लिए। अत: पूर्वनिधारित पध्दतियाँ अक्सर बहुत कारगर नहीं सिध्द होतीं।
योगेश श्रीवास्तव: आप कविता के पाठक हैं और आपकी पहचान आरंभ में कवि के रूप में हुई थी। तब इससे इतर आप आलोचना लेखन के प्रति क्यों आकर्षित हुए।
रघुवंशमणि: यह सवाल बड़ा ही महत्वपूर्ण है। मैं कवि के रूप में ही हिन्दी जगत में पाठकों के समक्ष आया था। अभी भी मैं कभी-कभार कविताएँ लिखता हूँ। वैसे मैं आलोचना कर्म को रचना कर्म का अपवर्जी नहीं मानता। लेकिन आलोचना की ओर आने के कुछ स्पष्ट कारण थे। प्रारंभ में मैं कुछ बढिया कविताएँ, कहानियाँ लिखना चाहता था। इस प्रकार की योजनाएँ मैने बनायीं भी थीं। मेरी कविताएँ कुछ पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपी भी थीं। मगर बीच में कुछ ऐसे प्रश्न सामने आये जिनसे जूझना बहुत जरूरी लगा और इसलिए रास्ता बदल गया। साम्प्रदायिक उभार के दौर में वैचारिक प्रतिरोध का कार्य सर्जनात्मक लेखन से ज्यादा महत्वपूर्ण लगा। यही वजह थी कि वैचारिक गद्य की ओर मुड़ा। फिर मित्रों सम्पादकों ने ऐसा पकड़ा कि कविता की ओर वापस जाना संभव नहीं हुआ। लेकिन इसका पश्चाताप नहीं है। कभी समय रहेगा तो कविता की ओर अवश्य वापस जाना होगा। कविता लिखने का अपना अलग अनुभव होता है। फिर मैं अपनी कविताओं के प्रति बहुत संजीदा हूँ।
योगेश श्रीवास्तव: आपने अपनी आलोचना दृष्टि विकसित करने में समकालीन आलोचना दृष्टि से कितना लिया और उसमें क्या मौलिक जोड़ने का आपका इरादा है।
रघुवंशमणि: मैं समझता हूँ कि समकालीन आलोचना से मेरा संवाद बहुत ज्यादा रहा है। यद्यपि मैं पोलेमिक्स में कम फॅंसता हॅू, मगर संवाद वैचारिक और समझदारी के स्तर पर बहुत ही व्यापक रहा है इससे बिल्कुल इंकार नहीं। डॉ. नामवर सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, जैसे वरिष्ठ आलोचकों की आलोचना से काफी प्रभावित रहा हूॅ। डॉ. रामविलास शर्मा जी अब नहीं हैं मगर वे भी काफी कुछ सिखा गये हैं। कम उम्र के आलोचकों को भी पढ़ता रहा हूँ। समकालीन पश्चिमी आलोचना से भी काफी कुछ मिला है। सब मिलाकर मेरी आलोचना की समझ को आकारित करते हैं। आलोचना की परंपराओं से जो कुछ मिला है उसके बारे में कुछ बता पाना बहुत कठिन है। कुल मिलाकर बहुत कुछ आत्मसात किया है और कभी-कभी लगता है कि अपना कुछ भी नहीं। अज्ञेय ने जैसा अपनी एक कविता में लिखा है कि अपना तो कुछ भी नहीं, या फिर जैसा अरुण कमल कहते हैं कि 'अपनी केवल धार'।
मौलिक जोड़ने का प्रश्न थोड़ा टेढ़ा है। मै बहुत सोच समझकर और योजनाबध्द होकर कार्य नहीं करता। जो प्रश्न परेशान या उत्तेजित करते हैं उन्ही पर कुछ लिखता हूँ। मैं समझता हूँ कि एक अच्छे मनुष्य और सजग नागरिक बनने की ही प्रक्रिया में हमारा लेखन भी होना चाहिये। वह चाहे रचना हो या आलोचना। कुछ लोग लिखते कुछ हैं और होते कुछ और हैं, मुझे ऐसा लेखन समझ में नहीं आता। अच्छा नागरिक या अच्छा मनुष्य होना एक ऐसा वृहत्तर लक्ष्य है जिसके अन्तर्गत ही सब कुछ होना चाहिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मैं अपना मूल्यॉ।कन पसंद करूॅगा। इसी के पीछे सब कुछ चलना चाहिये। बाकी चीजों को तो समय निर्धारित करेगा। लेकिन यही तो समस्या है कि लेखन और व्यवहार में दो फाँक है। डॉ. रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल इसीलिए प्रेरणास्रोत रहेंगे कि उन्होंने अपने लेखन को व्यवहार का एक हिस्सा बनाकर दिखाया।
मैं टुकड़ों में काम करता हूँ और यह मेरी विवशता है। यदि जोड़ जुड़ाकर कुछ महत्वपूर्ण सामने आया तो आप देखेंगे। आशा है कि मैं समकालीन हिन्दी कविता पर जल्द ही कुछ व्यवस्थित काम प्रस्तुत करूॅंगा। वह मौलिक है अथवा नहीं इसका मूल्याँकन तो आप सब ही करेंगे।
योगेश श्रीवास्तव: आप कवि और आलोचक होने के साथ-साथ अध्यापक भी हैं। अध्यापक की आलोचना दृष्टि स्वत: विकसित हो जाती है। पाठयक्रम को पढाने के लिए तब आप कैसे अपनी स्वतंत्र आलोचना दृष्टि विकसित करते हैं?
रघुवंशमणि: ऐसा सुनिश्चित तौर पर तो नहीं कहा जा सकता कि हर अध्यापक की आलोचना दृष्टि विकसित ही होगी। हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वार्थो के इतने फंदे हैं कि आलोचना की ऑंखें फूट जाती हैं, दृष्टि नष्ट हो जाती है। लोग अपने कैरियर को ही सब कुछ मान लेते हैं। परीक्षक बनना, कापी जाँचने की राजनीति करना, नम्बर बढ़वाना, रिश्तेदारों की नियुक्ति कराना, टयूशन पढ़ाना ऐसे कार्य हैं जो आलोचना दृष्टि तो क्या सामान्य दृष्टि को भी अन्धा कर देते हैं। अन्य जगहों पर जो भ्रष्टाचार है वह शिक्षाजगत में भी है। यह भ्रष्टाचार एक ऐसा मायोपिया है जो पूरे समाज को ग्रसता जा रहा है।लोगों को अपने सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में आप ही कहें कि क्या आलोचना दृष्टि विकसित होगी? छात्रों को भी लोग 'इग्जामिनेशन प्वाइंट' से पढ़ाने लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में अध्यापक की आलोचना दृष्टि स्वत: विकसित होगी, मेरे क्ष्याल से ऐसा जरूरी नहीं। हाँ, जैसा मैने कहा कि आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होने से आप बेहतर अध्यापक हो सकते हैं। आप पुरानी रचनाओं के प्रति भी नई और बेहतर दृष्टि विकसित कर पाते हैं।
योगेश श्रीवास्तव: अंग्रेजी भाषा के शिक्षक होने के नाते अंग्रेजी की आलोचना दृष्टि आपकी अपनी आलोचना पध्दति को कितना प्रभावित करती है?
रघुवंशमणि: विजयदेवनारायण साही कहा करते थे कि अंग्रेजी आलोचना का प्रभाव कम होता है, वह बोझ अधिक होती है। हम अक्सर अंग्रेजी आलोचना को पश्चिमी आलोचना का पर्याय मान लेते हैं जो ठीक बात नहीं है। मैं उस पश्चिमी आलोचना की बात करता हूँ जिसके लिए अंग्रेजी भाषा एक सूत्र का काम करती है। इसीलिए मैने कुछ अनुवाद भी किये हैं जो अब 'समय में हस्तक्षेप' शीर्षक से पुस्तकाकार उपलब्ध हैं। हमें अब पूरी विश्व आलोचना को एक सूत्र में पिरोया हुआ देखना चाहिए। अब हमें आसानी से यह जानकारी मिल जाती है कि दुनिया के किस हिस्से में कैसी आलोचना लिखी जा रही है। इसे तकनीकी ने संभव किया है। इसका परिणाम और प्रतिफलन है हिन्दी में होने वाले अनुवाद। आप देख रहे हैं कि वे प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं।
अंग्रेजी कवि टी. एस. एलिएट ने कवियों के लिए एक बात लिखी थी कि उन्हें होमर से लेकर अपने समय तक की कविता की परंपरा का समुचित ज्ञान होना चाहिए। यह बात आलोचकों पर भी लागू होती है। हमें पश्चिमी आलोचना का ज्ञान होना चाहिए। लेकिन उस परंपरा की अंधभक्ति तो ठीक नहीं। उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि आवश्यक है। हमें पश्चिमी आलोचना की ओर इसलिए भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि हमारे समाज में पश्चिमी समाज के बहुत से तत्व लगातार आ रहे हैं।
लेकिन मैं यह भी कहूँगा कि यदि हमें अरस्तू से टेरी इगलटन तक की जानकारी होनी चाहिए तो भरत मुनि से लेकर नामवर सिंह तक की आलोचना परंपरा का भी ज्ञान होना चाहिए। अब आप समझ ही गये होंगे कि मेरी आलोचना पर अंग्रेजी आलोचना का कैसा प्रभाव है।
डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान से पुरस्कृत युवा आलोचक रघुवंशमणि से योगेश श्रीवास्तव की बातचीत-------------------------------------------------
योगेश श्रीवास्तव: आप अध्यापन के साथ-साथ आलोचनाकर्म से भी गहरे जुड़े हैं, दोनों के बीच एक अदद तारतम्य होता है। उसके बारे में आपको क्या कहना है?
रघुवंशमणि: आप जो बात कह रहे हैं वह सामान्यत: स्वीकृत है। लोग यह मानते हैं कि साहित्य का अध्यापन, आलोचना कर्म में सहायक होता है। यह बात एक हद तक सही भी है। परन्तु हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश विश्वविद्यालयों के साहित्य विभागों के पाठयक्रम बहुत ही पारम्परिक हैं जो विद्याथियों में साहित्य की एक रूढ़ समझ पैदा करते हैं। अध्यापकगण इसी पाठयक्रम के प्रसारक हैं और इसी में रचे बसे रहते हैं। इस कारण एक आलोचक के लिए यह पाठयक्रमित ज्ञान महज एक पृष्ठभूमि भर का काम करता है। आगे का रास्ता उसे स्वयं तैयार करना होता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।
समकालीनता से संवाद किये बगैर आलोचना में स्वस्थ दृष्टि का विकास संभव नहीं। आपने देखा होगा कि विश्वविद्यालयों से निकलने वाले लोग बड़ी रूढ़ रचनात्मकता और आलोचनात्मकता के साथ बाहर आते हैं। साहित्य के पारंपरिक अध्ययन से हम केवल साहित्य की परंपरा का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मगर एक आलोचक को, या कहिए कि एक रचनाकार को भी, इससे आगे जाना होता है। एक बात जरूर है कि आलोचनाकर्म आपको एक बेहतर अध्यापक बनाता है। अध्यापक ही क्या एक बेहतर नागरिक बनाता है। बस आलोचनाकर्म और जीवन में सचाई होनी चाहिये।
योगेश श्रीवास्तव: आज पत्र-पत्रिकाओं के बीच सार्थक साहित्य के लिए जगह कम हो रही है, आलोचनाकर्म के लिए तो और भी जगह कम हो रही है। ऐसे में आलोचना को लेकर आप क्या सोचते हैं?
रघुवंशमणि: आपने बिल्कुल सही बात कही है। इसका एक कारण तो सीधे-सीधे बढ़ती हुई व्यावसायिकता है। अखबार और पत्रिकाएँ रंगीन हो गयीं हैं और तकनीकी दृष्टि से उन्नत। मगर उनमें प्रकाशित होने वाली सामग्री उसी तुलना में निहायत सतही होती गयी है। होना तो इसका उल्टा चाहिये था। तकनीकी उन्नति के साथ विषय और सामग्री संजीदा होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अखबारों में चित्रों को प्रमुखता से छापा जाता है। मतलब आप यह निकाल सकते हैं कि ये अखबार और पत्रिकाएँ देखनें की चीज होते जा रहे हैं, पढ़ने की चीज नहीं। इस तरफ अखबार के मालिकों और सम्पादकों को ध्यान देना चाहिए।
लेकिन ऐसी भी पत्रिकाएँ और अखबार मौजूद हैं जो गंभीर सामग्री प्रकाशित करते हैं। वहाँ आलोचना के लिए अधिक स्पेस है। आपने गौर किया होगा कि हिन्दी में अच्छी आलोचना सामग्री वहीं प्रकाशित होती रही है। इसीलिए साहित्य प्रेमियों और गंभीर पाठकों में लघु पत्रिकाओं का अधिक आकर्षण बना है। लोग उन्हें अधिक गंभीरतापूर्वक पढ़ते हैं। मैं समझता हॅूं कि लधु पत्रिका आन्दोलन का हमारे समय में इसी अर्थ में बहुत अधिक महत्व रहा है। समाज को आलोचना की आवश्यकता पड़ती ही है इसलिये इसका अस्तित्व किसी न किसी रूप में सदैव बना रहेगा।
योगेश श्रीवास्तव: इधर के आपके आलेखों को पढकर लगता है कि आप माक्र्सवादी आलोचना के प्रभाव में हैं। आप किसी भी पुस्तक को परखने के लिए किन अवधारणाओं और किन प्रत्ययों को लेकर चलते हैं?
रघुवंशमणि: देखिये किसी भी आलोचक को एक खँाचे में बाँध कर देखना उचित नहीं। आलोचना का काम जितना ही खुला रहे उतना ही ठीक। दरअस्ल माक्र्स का मामला यह है कि वह आधुनिक युग के चिन्तन में सूर्य के समान है। हम खिड़की दरवाजे बंद कर लें तो भी सूर्य का प्रकाश घर में घुस ही आता है। मेरे जैसा आलोचक तो खिड़की दरवाजे बंद कर ही नहीं सकता।
एक गैरमाक्र्सवादी निर्देशक और आलोचक पीटर ब्रुक ने लिखा है कि हम माक्र्सवाद से बच ही नहीं सकते क्योंकि जब भी हम साहित्य अथवा साहित्येतर संदर्भ में ऐतिहासिक, आर्थिक या सामाजिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं, हम माक्र्सवादी हो जाते हैं। यही कारण है कि माक्र्सवाद की चर्चा न करने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लेखन में भी हमें माक्र्सवाद के तत्व मिल ही जाते हैं। यद्यपि वे स्पष्टत: माक्र्सवादी नहीं थे। और तो और माक्र्स से पहले पैदा हुए डॉ. जॉनसन की पध्दति माक्र्स जैसी है। माक्र्सवादी चिन्तन पध्दति की व्यापकता बहुत अधिक है।
जहाँ तक मेरा सवाल है मैं माक्र्सवादी चिन्तन पध्दति से बहुत प्रभावित हूँ। लेकिन रूढ़ माक्र्सवाद से, स्टालिनवाद वगैरह से, मैं दूरी रखता हॅूं। अन्य चिन्तकों को पढ़ते समय मैं दिमाग की खिड़की खुली रखता हूँ।
हर पुस्तक या कृति अपने में एक संरचना होती है जिसके व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक निहितार्थ होते हैं। इसलिए प्रत्येक पुस्तक के प्रति एक जैसे निकष का प्रयोग गलत होता है। मैं आलोचना की एक लचीली पध्दति की खोज में लगा रहता हूँ। मुझे लगता है कि बढ़िया पुस्तकें हमसे अलग तरह से संवाद करती हैं। एक आलोचक को इस संवाद की पध्दति को पकड़ने का प्रयास करना होता है। उक्ति है कि जब हम किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो वह भी हमें पढ़ती है। यह रचना की ओर से एक चुनौती होती है एक आलोचक के लिए। अत: पूर्वनिधारित पध्दतियाँ अक्सर बहुत कारगर नहीं सिध्द होतीं।
योगेश श्रीवास्तव: आप कविता के पाठक हैं और आपकी पहचान आरंभ में कवि के रूप में हुई थी। तब इससे इतर आप आलोचना लेखन के प्रति क्यों आकर्षित हुए।
रघुवंशमणि: यह सवाल बड़ा ही महत्वपूर्ण है। मैं कवि के रूप में ही हिन्दी जगत में पाठकों के समक्ष आया था। अभी भी मैं कभी-कभार कविताएँ लिखता हूँ। वैसे मैं आलोचना कर्म को रचना कर्म का अपवर्जी नहीं मानता। लेकिन आलोचना की ओर आने के कुछ स्पष्ट कारण थे। प्रारंभ में मैं कुछ बढिया कविताएँ, कहानियाँ लिखना चाहता था। इस प्रकार की योजनाएँ मैने बनायीं भी थीं। मेरी कविताएँ कुछ पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपी भी थीं। मगर बीच में कुछ ऐसे प्रश्न सामने आये जिनसे जूझना बहुत जरूरी लगा और इसलिए रास्ता बदल गया। साम्प्रदायिक उभार के दौर में वैचारिक प्रतिरोध का कार्य सर्जनात्मक लेखन से ज्यादा महत्वपूर्ण लगा। यही वजह थी कि वैचारिक गद्य की ओर मुड़ा। फिर मित्रों सम्पादकों ने ऐसा पकड़ा कि कविता की ओर वापस जाना संभव नहीं हुआ। लेकिन इसका पश्चाताप नहीं है। कभी समय रहेगा तो कविता की ओर अवश्य वापस जाना होगा। कविता लिखने का अपना अलग अनुभव होता है। फिर मैं अपनी कविताओं के प्रति बहुत संजीदा हूँ।
योगेश श्रीवास्तव: आपने अपनी आलोचना दृष्टि विकसित करने में समकालीन आलोचना दृष्टि से कितना लिया और उसमें क्या मौलिक जोड़ने का आपका इरादा है।
रघुवंशमणि: मैं समझता हूँ कि समकालीन आलोचना से मेरा संवाद बहुत ज्यादा रहा है। यद्यपि मैं पोलेमिक्स में कम फॅंसता हॅू, मगर संवाद वैचारिक और समझदारी के स्तर पर बहुत ही व्यापक रहा है इससे बिल्कुल इंकार नहीं। डॉ. नामवर सिंह, डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव, डॉ. मैनेजर पाण्डेय, जैसे वरिष्ठ आलोचकों की आलोचना से काफी प्रभावित रहा हूॅ। डॉ. रामविलास शर्मा जी अब नहीं हैं मगर वे भी काफी कुछ सिखा गये हैं। कम उम्र के आलोचकों को भी पढ़ता रहा हूँ। समकालीन पश्चिमी आलोचना से भी काफी कुछ मिला है। सब मिलाकर मेरी आलोचना की समझ को आकारित करते हैं। आलोचना की परंपराओं से जो कुछ मिला है उसके बारे में कुछ बता पाना बहुत कठिन है। कुल मिलाकर बहुत कुछ आत्मसात किया है और कभी-कभी लगता है कि अपना कुछ भी नहीं। अज्ञेय ने जैसा अपनी एक कविता में लिखा है कि अपना तो कुछ भी नहीं, या फिर जैसा अरुण कमल कहते हैं कि 'अपनी केवल धार'।
मौलिक जोड़ने का प्रश्न थोड़ा टेढ़ा है। मै बहुत सोच समझकर और योजनाबध्द होकर कार्य नहीं करता। जो प्रश्न परेशान या उत्तेजित करते हैं उन्ही पर कुछ लिखता हूँ। मैं समझता हूँ कि एक अच्छे मनुष्य और सजग नागरिक बनने की ही प्रक्रिया में हमारा लेखन भी होना चाहिये। वह चाहे रचना हो या आलोचना। कुछ लोग लिखते कुछ हैं और होते कुछ और हैं, मुझे ऐसा लेखन समझ में नहीं आता। अच्छा नागरिक या अच्छा मनुष्य होना एक ऐसा वृहत्तर लक्ष्य है जिसके अन्तर्गत ही सब कुछ होना चाहिये। इसी परिप्रेक्ष्य में मैं अपना मूल्यॉ।कन पसंद करूॅगा। इसी के पीछे सब कुछ चलना चाहिये। बाकी चीजों को तो समय निर्धारित करेगा। लेकिन यही तो समस्या है कि लेखन और व्यवहार में दो फाँक है। डॉ. रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल इसीलिए प्रेरणास्रोत रहेंगे कि उन्होंने अपने लेखन को व्यवहार का एक हिस्सा बनाकर दिखाया।
मैं टुकड़ों में काम करता हूँ और यह मेरी विवशता है। यदि जोड़ जुड़ाकर कुछ महत्वपूर्ण सामने आया तो आप देखेंगे। आशा है कि मैं समकालीन हिन्दी कविता पर जल्द ही कुछ व्यवस्थित काम प्रस्तुत करूॅंगा। वह मौलिक है अथवा नहीं इसका मूल्याँकन तो आप सब ही करेंगे।
योगेश श्रीवास्तव: आप कवि और आलोचक होने के साथ-साथ अध्यापक भी हैं। अध्यापक की आलोचना दृष्टि स्वत: विकसित हो जाती है। पाठयक्रम को पढाने के लिए तब आप कैसे अपनी स्वतंत्र आलोचना दृष्टि विकसित करते हैं?
रघुवंशमणि: ऐसा सुनिश्चित तौर पर तो नहीं कहा जा सकता कि हर अध्यापक की आलोचना दृष्टि विकसित ही होगी। हमारी शिक्षा व्यवस्था में स्वार्थो के इतने फंदे हैं कि आलोचना की ऑंखें फूट जाती हैं, दृष्टि नष्ट हो जाती है। लोग अपने कैरियर को ही सब कुछ मान लेते हैं। परीक्षक बनना, कापी जाँचने की राजनीति करना, नम्बर बढ़वाना, रिश्तेदारों की नियुक्ति कराना, टयूशन पढ़ाना ऐसे कार्य हैं जो आलोचना दृष्टि तो क्या सामान्य दृष्टि को भी अन्धा कर देते हैं। अन्य जगहों पर जो भ्रष्टाचार है वह शिक्षाजगत में भी है। यह भ्रष्टाचार एक ऐसा मायोपिया है जो पूरे समाज को ग्रसता जा रहा है।लोगों को अपने सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में आप ही कहें कि क्या आलोचना दृष्टि विकसित होगी? छात्रों को भी लोग 'इग्जामिनेशन प्वाइंट' से पढ़ाने लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में अध्यापक की आलोचना दृष्टि स्वत: विकसित होगी, मेरे क्ष्याल से ऐसा जरूरी नहीं। हाँ, जैसा मैने कहा कि आलोचनात्मक दृष्टि विकसित होने से आप बेहतर अध्यापक हो सकते हैं। आप पुरानी रचनाओं के प्रति भी नई और बेहतर दृष्टि विकसित कर पाते हैं।
योगेश श्रीवास्तव: अंग्रेजी भाषा के शिक्षक होने के नाते अंग्रेजी की आलोचना दृष्टि आपकी अपनी आलोचना पध्दति को कितना प्रभावित करती है?
रघुवंशमणि: विजयदेवनारायण साही कहा करते थे कि अंग्रेजी आलोचना का प्रभाव कम होता है, वह बोझ अधिक होती है। हम अक्सर अंग्रेजी आलोचना को पश्चिमी आलोचना का पर्याय मान लेते हैं जो ठीक बात नहीं है। मैं उस पश्चिमी आलोचना की बात करता हूँ जिसके लिए अंग्रेजी भाषा एक सूत्र का काम करती है। इसीलिए मैने कुछ अनुवाद भी किये हैं जो अब 'समय में हस्तक्षेप' शीर्षक से पुस्तकाकार उपलब्ध हैं। हमें अब पूरी विश्व आलोचना को एक सूत्र में पिरोया हुआ देखना चाहिए। अब हमें आसानी से यह जानकारी मिल जाती है कि दुनिया के किस हिस्से में कैसी आलोचना लिखी जा रही है। इसे तकनीकी ने संभव किया है। इसका परिणाम और प्रतिफलन है हिन्दी में होने वाले अनुवाद। आप देख रहे हैं कि वे प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं।
अंग्रेजी कवि टी. एस. एलिएट ने कवियों के लिए एक बात लिखी थी कि उन्हें होमर से लेकर अपने समय तक की कविता की परंपरा का समुचित ज्ञान होना चाहिए। यह बात आलोचकों पर भी लागू होती है। हमें पश्चिमी आलोचना का ज्ञान होना चाहिए। लेकिन उस परंपरा की अंधभक्ति तो ठीक नहीं। उसके प्रति आलोचनात्मक दृष्टि आवश्यक है। हमें पश्चिमी आलोचना की ओर इसलिए भी ध्यान देना चाहिए क्योंकि हमारे समाज में पश्चिमी समाज के बहुत से तत्व लगातार आ रहे हैं।
लेकिन मैं यह भी कहूँगा कि यदि हमें अरस्तू से टेरी इगलटन तक की जानकारी होनी चाहिए तो भरत मुनि से लेकर नामवर सिंह तक की आलोचना परंपरा का भी ज्ञान होना चाहिए। अब आप समझ ही गये होंगे कि मेरी आलोचना पर अंग्रेजी आलोचना का कैसा प्रभाव है।
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