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एक पीड़ादायक परिवर्तन
ब्लाग मित्रो,
आप लोग मेरे ब्लाग वांगमय को लम्बे समय से पढ़ते रहे हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी मिली है इस ब्लाग को देश-विदेश में पढा जाता रहा है। मुझे अपने लेखन पर समय-समय पर टिप्पणियाँ भी प्राप्त होती रही हैं। इस सब के लिए मैं आप सभी का आभारी हॅूं। मैंने यथासंभव यह प्रयास किया है कि यह ब्लाग गंभीर विषयों पर केन्द्रित रहे और इस पर होने वाली चर्चाएँ ऐसी हों कि उनसे कुछ सकारात्मक प्राप्त हो सके। इस बात में मैं कितना सफल रहा बता नहीं सकता। इसका मूल्यांकन आप लोग ही कर सकते हैं।
पिछले दिनों मेरे ब्लाग पर किसी अनाम व्यक्ति ने कुछ व्यक्तिगत आक्षेपकारी और आपत्तिजनक टिप्पणियाँ कीं। इन टिप्पणियों से मुझे और मेरे मित्रों को क्लेश पहुँचा। इन्टरनेट सभी को यह सुविधा देता है कि बिना अपना परिचय बताये कोई भी टिप्पणी की जा सकती है। इसके कुछ सकारात्मक पक्ष अवश्य हैं। मगर इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि कोई भी आपके ब्लाग पर उल्टी सीधी टिप्प्णियाँ कर सकता है, गाली-गलौज और गलत शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है। इस तरह की बातों से आप अपरिचित नहीं होंगे। उन सज्जन ने वांगमय पर इतनी आपत्तिजनक बातें लिख दी थी कि ब्लाग की गंभीरता नष्ट हुई और यहाँ तक कि मुझे एक पोस्ट ही निकाल देनी पड़ी। इस प्रकार की कुंठित और घटिया मानसिकता के लोग अन्य ब्लागों पर भी यह काम कर रहे हैं और उनके विरुध्द लोग शिकायतें भी दर्ज कर रहे हैं। यह घटियापन वास्तव में हमारे समाज में आ रहे सांस्कृतिक पतन की ओर भी संकेत है। अब लोगों में न तो दूसरों के सम्मान का ख्याल इै और न अपनी ही इज्जत का। खुले आम नेट पर गाली-गलौज हो रहा है और इस गाली-गलौज को ही लोग अपनी वाकपटुता और चतुराई समझ रहे हैं। दूसरों को अपमानित करने में ही एक प्रकार का गर्व अनुभव किया जा रहा है।
वांगमय की प्रकृति एक गंभीर ब्लाग की रही है। आप इस बात से सहमत होंगे कि इस ब्लाग पर गाली गलौज और कुठाग्रस्त मानसिकता के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। आखिर विचार-विमर्श के इस मंच को किसी कुंठित मानसिकता के मलमूत्र विसर्जन का स्थान नहीं बनने दिया जा सकता। हम वैसे भी विषाणुओं से अपना बचाव करते ही हैं।
इसलिए दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अब आप जो भी टिप्पणियाँ प्रेषित करेंगे उन्हे संपादित होने के बाद ही इस ब्लाग पर प्रकाशित किया जा सकेगा। इससे निश्चितरूप से आप सभी को एक प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा जो कि सामान्यत: वांछित नहीं। लेकिन आप मेरी विवशता समझ रहे होंगे। आशा है सहयोग बनाए रखेंगे।
रघुवंशमणि
Friday, October 24, 2008
Monday, October 20, 2008
बिहारी होने का मतलब
डायरी
बिहारी होने का मतलब
महाराष्ट्र में राज ठाकरे के वक्तव्यों और उसके बाद की हिंसक घटनाओं से बड़ी गहरी चिन्ताएँ पैदा होती हैं। यह बड़ी ही अजीब सी बात है कि अपने ही देश में एक प्रदेश का निवासी दूसरे प्रदेश में नौकरी की तलाश में न जा सके। हाल में जो घटनाएँ घटित हुई हैं वे भारत के नागरिकों के अधिकारों को ही निरस्त करने वाली हैं। देश में बहुत सी नौकरियों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर चयन होते हैं और लोग आवेदन करते हैं। अब यदि इस तरह की हिंसात्मक पाबंदियाँ लगायी जायेंगी तो इसका बहुत ही बुरा परिणाम होगा। मान लें कि इसी प्रकार हर प्रदेश के लोग हिंसा के द्वारा दूसरे प्रदेश के लोगों को अपने यहाँ आने से रोक दें तो क्या होगा? लेकिन दिक्कत यह है कि हम सोचने के बजाय अब मारपीट पर अधिक विश्वास करने लगे हैं। समझदारी के लिए सबसे कम जगह बची है।
अब लगता है कि बिहारी होना एक रूपक होता जा रहा है। एक ऐसा रूपक जिसके सामाजिक निर्माण के पीछे हिंसा और वर्चस्व का बोलबाला है। हर वह आदमी बिहारी होने की नियत झेले जो अपने बेहतर भविष्य की कामना करता है, और अपने प्रदेश के बाहर जाना चाहता है। यह दुखद ही है कि हम ऐसे समय में रह रहे है जिसमें हर मुद्दे को बड़ी छुद्र दृष्टि से देखा जा रहा है। जाति, धर्म और क्षेत्रीयता ने ऐसी गहरी विभाजक रेखाएँ खीच दी हैं कि किसी व्यापक सोच की सम्भावना ही खत्म होती जा रही है। हर समस्या का इलाज हिंसा को ही माना जा रहा है और अपनी बात को बलपूर्वक सही सिध्द करने का प्रयास किया जा रहा है। यह स्थिति निश्चित रूप से ऐसी दिशा में ले जायेगी जहाँ से वापस आना बहुत मुश्किल होगा। मगर शायद इस बात को समझने मे ठाकरे जैसे लोग और उनके समर्थक सक्षम नहीं।
अक्सर हम अपने तात्कालिक स्वार्थों को ही सामने रख पाते हैं और व्यापक हितों को नजरन्दाज करते हैं। सही गलत के निर्णय के बजाय हम बस अपने तक ही सीमित रह जा रहे हैं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा है कि जो लोग छोटे दायरों से शुरू होते हैं वे अनतत: स्वयम् पर ही जाकर समाप्त होते हैं। राधाकृष्णन जी ने परोक्षरुप से ऐसी प्रवृत्ति की ओर संकेत किया था जो सर्वसत्तावाद और तानाशाही की ओर ले जाती है। इसके बरक्स समझदारी की संस्कृति ही एक मात्र रास्ता है। मगर यह रास्ता लम्बा है और इसमें कोई शार्टकट नहीं है।
हममें से बहुत लोग अपने गाँव, शहर या राज्य को छोड़कर दूसरी जगहों पर नौकरियाँ करने जाते हैं। हिन्दुस्तान के ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो विदेशों में रह रहे हैं। ये सभी लोग किसी न किसी अर्थ में बिहारी ही हैं। वे महाराष्ट्र के लोग भी जो बाहर कहीं काम कर रहे हैं। यदि हम महाराष्ट्र में पीटे जा रहे बेरोजगारों की जगह पर स्वयं को रखकर देख सकें तो हम सब बिहारी ही होंगे।
बिहारी होने का मतलब
महाराष्ट्र में राज ठाकरे के वक्तव्यों और उसके बाद की हिंसक घटनाओं से बड़ी गहरी चिन्ताएँ पैदा होती हैं। यह बड़ी ही अजीब सी बात है कि अपने ही देश में एक प्रदेश का निवासी दूसरे प्रदेश में नौकरी की तलाश में न जा सके। हाल में जो घटनाएँ घटित हुई हैं वे भारत के नागरिकों के अधिकारों को ही निरस्त करने वाली हैं। देश में बहुत सी नौकरियों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर चयन होते हैं और लोग आवेदन करते हैं। अब यदि इस तरह की हिंसात्मक पाबंदियाँ लगायी जायेंगी तो इसका बहुत ही बुरा परिणाम होगा। मान लें कि इसी प्रकार हर प्रदेश के लोग हिंसा के द्वारा दूसरे प्रदेश के लोगों को अपने यहाँ आने से रोक दें तो क्या होगा? लेकिन दिक्कत यह है कि हम सोचने के बजाय अब मारपीट पर अधिक विश्वास करने लगे हैं। समझदारी के लिए सबसे कम जगह बची है।
अब लगता है कि बिहारी होना एक रूपक होता जा रहा है। एक ऐसा रूपक जिसके सामाजिक निर्माण के पीछे हिंसा और वर्चस्व का बोलबाला है। हर वह आदमी बिहारी होने की नियत झेले जो अपने बेहतर भविष्य की कामना करता है, और अपने प्रदेश के बाहर जाना चाहता है। यह दुखद ही है कि हम ऐसे समय में रह रहे है जिसमें हर मुद्दे को बड़ी छुद्र दृष्टि से देखा जा रहा है। जाति, धर्म और क्षेत्रीयता ने ऐसी गहरी विभाजक रेखाएँ खीच दी हैं कि किसी व्यापक सोच की सम्भावना ही खत्म होती जा रही है। हर समस्या का इलाज हिंसा को ही माना जा रहा है और अपनी बात को बलपूर्वक सही सिध्द करने का प्रयास किया जा रहा है। यह स्थिति निश्चित रूप से ऐसी दिशा में ले जायेगी जहाँ से वापस आना बहुत मुश्किल होगा। मगर शायद इस बात को समझने मे ठाकरे जैसे लोग और उनके समर्थक सक्षम नहीं।
अक्सर हम अपने तात्कालिक स्वार्थों को ही सामने रख पाते हैं और व्यापक हितों को नजरन्दाज करते हैं। सही गलत के निर्णय के बजाय हम बस अपने तक ही सीमित रह जा रहे हैं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा है कि जो लोग छोटे दायरों से शुरू होते हैं वे अनतत: स्वयम् पर ही जाकर समाप्त होते हैं। राधाकृष्णन जी ने परोक्षरुप से ऐसी प्रवृत्ति की ओर संकेत किया था जो सर्वसत्तावाद और तानाशाही की ओर ले जाती है। इसके बरक्स समझदारी की संस्कृति ही एक मात्र रास्ता है। मगर यह रास्ता लम्बा है और इसमें कोई शार्टकट नहीं है।
हममें से बहुत लोग अपने गाँव, शहर या राज्य को छोड़कर दूसरी जगहों पर नौकरियाँ करने जाते हैं। हिन्दुस्तान के ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो विदेशों में रह रहे हैं। ये सभी लोग किसी न किसी अर्थ में बिहारी ही हैं। वे महाराष्ट्र के लोग भी जो बाहर कहीं काम कर रहे हैं। यदि हम महाराष्ट्र में पीटे जा रहे बेरोजगारों की जगह पर स्वयं को रखकर देख सकें तो हम सब बिहारी ही होंगे।
Monday, October 13, 2008
झाँसी की गौरव गाथा
झाँसी की गौरव गाथा
हमारे देश के इतिहास में 1857 का स्वाधीनता संघर्ष स्वर्णाक्षरों में लिखित कालखण्ड है और इस समय की शौर्य गााथा की सबसे उज्ज्वल नक्षत्र महारानी लक्ष्मीबाई हैं। झाँसी की छोटी सी रियासत की भूमिका उस संघर्ष काल के एक दौर में केन्द्रीय हो गयी थी। हम में से अधिकतर लोग झाँसी के बारे में कम ही जानते हैं, शायद वहीं तक जहाँ तक झाँसी का इतिहास लक्ष्मीबाई से जुड़ता है। मगर झाँसी की कहानी लम्बी है और इस कहानी को झाँसी के ही निवासी और वरिष्ठ लेखक/कवि ओमशंकर खरे असर ने एक पुस्तक महारानी लक्ष्मीबाई एवं उनकी झाँसी का रूप दिया है।
यह पुस्तक वास्तव में असर साहब के लिखे गये कुछ लेखों का संकलन है जो उन्होंने जागरण अखबार के लिए एक श्रृंखला के अन्तर्गत लिखे थे। खरे साहब अपनी इस इतिहास की पुस्तक का प्रारम्भ बंगश और मराठों के बीच चल रहे संघर्ष से करते हैं जिसके चलते झाँसी एक शहर के रूप में सामने आया। पेशवा बाजीराव ने पहले-पहल इस क्षेत्र के सामरिक महत्व को देखते हुए यहाँ एक छावनी स्थापित की थी क्योंकि यहाँ से दतिया और ओरक्षा राज्य करीब पड़ते थे जिनपर नियंत्रण जरूरी था। बाद में मराठा सेनानायक मल्हारकृष्ण की हत्या के बाद नारोशंकर झाँसी के सूबेदार बने। उन्होने राज्य की सीमा को बढ़ाया और झाँसी के किले को मजबूत किया। यही नहीं उन्होने झाँसी शहर को बसाने में भी दिलचस्पी दिखायी। पेशवा द्वारा उन्हें वापस बुलाने पर माधवगोविन्द आतिया , बाबूराव कन्हाई और विश्वासराव लक्ष्मण इस के सूबेदार नियुक्त हुए। पानीपत की लड़ाई में पराजय के बाद मराठे कमजोर पड़ गये। 1762 में शुजाउद्दौला ने झाँसी के किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन 1763 में ही मराठों ने फिर झाँसी पर कब्जा कर लिया। 1766 तक विश्वास राव लक्ष्मण यहाँ शासक रहे। 1770 में रघुनाथ हरी नेवलकर को झाँसी का शासन संभालने का अवसर मिला।
रघुनाथ हरी नेवलकर से ही वह वंश चलता है जिसकी राजबधू महारानी लक्ष्मीबाई बनी। वे एक प्रतापी शासक सिध्द हुए और उन्होने झाँसी को अवध और सिन्धिया की दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों से बचाया। उनके समय में झाँसी ने कई हमलों और षडयन्त्रों का सामना सफलतापूर्वक किया। उन्होने अपने सुशासन द्वारा जनता में अपना प्रभाव बनाते हुए झाँसी में अपने राजवंश की नींव डाली। पच्चीस वर्षो तक शासन करने के उपरांत वे काशी चले गये। उनके छोटे भाई शिवराव भाÅ ने सन 1794 में झाँसँी के सूबेदार का पद संभाला। उनके समय में मराठों की पेशवाई कमजोर हो रही थी और अंग्रेजों का दबदबा भारत में बढ़ता जा रहा था। परिणाम स्वरूप शिवराव भाÅ को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। उनकी मृत्यु के उपरांत उनका पुत्र रामचन्द्र भाÅ अपने चाचा के संरक्षण में महाराजा बने मगर अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गयी। इस दौरान अंग्रेजों का सम्पर्क झाँसी से बढ़ा और यह दौर षडयंत्रों का भी था। बढ़ते दबावों के चलते 1817 की संधि के अनुसार झाँसी में अंग्रेजी फोज का रखा जाना स्वीकार किया गया। रामचन्द राव के निघन के बाद अंग्रेजों ने रघुनाथ राव को शासक बनाया जो कुख्यात और कुष्ठ रोग का शिकार था। वह शीघ्र ही कालकवलित हो गया। उत्तराधिकार के विवादों के बीच गंगाधर राव झाँसी के महाराजा बने जिनकी पत्नी महारानी लक्ष्मीबाई थीं।
गंगाधर राव के समय अंग्रेजों ने झाँसी के किले में अपनी सेना स्थापित क्ी। लेकिन इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुध्द छुटपुट विद्रोह शुरू हो गये थे। गंगाधर राव के समय में झाँसी का विकास हुआ क्योंकि वे एक कुशल और प्रभावशाली शसक थे। मगर वे विधुर हो गये थे उनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया था। सन्तान प्राप्ति के लिए उनहोने दूसरा विवाह किया था और रानी लक्ष्मीबाई उनकी पत्नी बनकर महल में आयी थीं। असर साहब यह बताते हैं कि लक्ष्मी बाई या मनू का जीवन कितने दुखों से भरा था। इस तथ्य को अब कम ही जाना जाता है। कम ही लोग जानते हैं क्योंकि यह दुख-कथा अब महारानी लक्ष्मीबाई की ऐतिहासिक शौर्य गााथा के नीचे दब सी गयी है। चार साल की उम्र में ही लक्ष्मीबाई की माता का निधन हो गया था। विवाहोपरान्त लक्ष्मीबाई को एक पुत्र हुआ था जो तीन माह बाद चल बसा। फिर महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु का कहर उन पर वैधव्य के रूप में टूटा।
लक्ष्मीबाई बचपन से ही प्रतिभाशाली और साहसी थीं। बिठूर में निवास के दौरान उन्होंने राजशाही के कायदे कानून सीखे। व्यायाम, घुड़सवारी वगैरह वहीं से सीखी। झाँसी आने पर शासन व्यवस्था में गंगाधर राव का सक्रिय सहयोग दिया। अपने पुत्र की मृत्यु के बाद गंगाधर राव बीमार पड़ गये और उन्हें झाँसी के विलुप्त होने का भय सताने लगा। झाँसी की भीषण त्रासदी का चरण उनकी मृत्यु थी जिसने अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता की कुदृष्टि को अवसर दिया। संग्रहणी के शिकार गंगाधर राव ने अपने अन्तिम दिनों में आनन्द राव को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया जिसकी उम्र पाँच वर्ष की थी। दत्तक विधान के बाद उसका नाम दामोदर राव गंगाधर रखा गया। यह 19 नवम्बर 1853 की बात है। उसी के दो दिन बाद महाराजा गंगाधर राव का निधन हो गया।
गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने लैप्स की नीति के तहत झाँसी को हड़पने की चेष्टाएँ आरम्भ कर दीं। महारानी लक्ष्मीबाई ने इसका हर प्रकार से विरोध किया। असर साहब ने अपनी पुस्तक में बतलाया है कि किस प्रकार स्लीमन ने दत्तक पुत्र के अधिकारों के प्रश्न पर दोहरा रवैया अपनाया था। इसी मुद्दे पर दो अंग्रेज प्रशासको एलिस और मैलकम में गहरे मतभेद थे । अत: सारा कुछ अन्तत: डलहौजी की सोच पर टिक गया । गोपनीय ढंग से झाँसी को जबलपुर के कमिश्नर के आधीन कर दिया गया गया और किसी को खबर तक नहीं हुई। अंग्रेजों ने कई मामले में दत्तक पुत्र के अधिकारों को स्वीकार किया था। मगर उनहोंने झाँसी के मामले में उसे नया राज्य मानकर ऐसा करने से इनकार किया। जबकि तथ्य यह है कि पेशवाई के समय से ही झाँसी एक राज्य के रूप में वर्तमान था। झाँसी को नया राज्य बताने को असर साहब अंग्रेजों की घटिया कूटनीति का उदाहरण मानते हैं।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर असर साहब बतलाते हैं कि महारानी लक्ष्मीबाई ने इस निर्णय के विरुध्द दो प्रार्थनापत्र कम्पनी सरकार के पास भेजे। ये दो पत्र इस बात के सबूत हैं कि महारानी में गजब की तर्क क्षमता थी। मगर अंग्रेजों ने इन्हे स्वीकार नहीं किया क्योंकि लार्ड डलहौजी की मंशा देशी राज्यों को हड़पकर अंग्रेजी राज्य में मिलाने की थी। परिणामस्वरूप रानी को किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। यह उनके लिए बेहद संकटग्रस्त समय था क्योंकि अंग्रेज सेना सभी खजानों को मोहरबंद कर हस्तगत कर रही थी और अभी रानी पति के शोक से उबर भी नहीं पायी थीं कि यह बड़ा राजनीतिक संकट सामने आन पड़ा था। इन भयानक दबावों के बीच महारानी ने हैमिल्टन से बात की जिसका जिक्र असर साहब ने विस्तारपूर्वक किया है। रानी ने अंग्रेजों की पेंशन को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसे स्वीकार करने का अर्थ था झाँसी के राज्य की समाप्ति को स्वीकार कर लेना। इसी दौर में जॉन लैंग के वर्णनों में महारानी के व्यक्तित्व, उनकी आनबान, और उनकी लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है। पुस्तक का यह अंश विशेष आकर्षित करता है।
2जून 1857 को झाँसी में सैनिकों ने विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया। मगर रानी ने सही अवसर की प्रतीक्षा की। तेज क्रान्तिकारी गतिविधियों के बीच अपनी कुशल कार्यनीति और नेतृत्व क्षमता के चलते 12 जून को महारानी ने झाँसी का शासन संभाल लिया। महारानी ने 11 माह तक झाँसी पर शासन किया और इस दौर में उनके क्रिया कलापों ने उन्हें जनता में अतिलोकप्रिय बनाया युध्द के अन्तिम दौर में अंग्रेजों ने झाँसी को बरबाद करने का पूरा प्रयास किया। आगजनी से लेकर निर्दोष जनता की हत्या तक का काम किया गया। इस प्रकार 1744 से 1858 तक चलने वाला झाँसी का सम्ध्द राज्य अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता का शिकार हो गया। अपनी मृत्यु के समय रानी लक्ष्मीबाई ने अपने पुत्र को विश्वासपात्र सरदार रामचन्द्र राव देशमुख को सौंपा था कि वह उसकी देखरेख करे। झाँसी के राजवंश का यह चिराग लम्बे समय तक बेतवा के धने जंगलों में कुछ विश्वासपात्र लोगों के साथ भटकता रहा। पर बाद में विश्वासघात और पैसे की कमी के चलते उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा। दामोदर राव की मृत्यु 1906 में हुई।
झाँसी की कहानी का वर्णन ओमशंकर खरे असर ने आद्योपांत एक झाँसी के ऐसे नागरिक के रूप में किया है जिसे अपनी विरासत से गहरा लगाव है। इसका एक कारण उनके परिवार का स्वयं इतिहास के एक अंश से जुड़ा होना रहा है। झाँसी के इतिहास के कुछ पक्ष विवादों के घेरे में रहे हैं और उन पर इतिहासकारों में मतभेद रहा है। ओमशंकर खरे असर के लेखन की विशेषता यह रही है कि विवादित मुद्दों के सभी पक्षों को हाजिर कर अपना तर्क और पक्ष प्रस्तुत करते हैं। झाँसी और महारानी लक्ष्मीबाई से जुउे विवादों में वे निर्णय बड़े तार्किक ढंग से लेते हैं। इस सिलसिले में उदाहरण के लिए उन्होंने महारानी के जन्म वर्ष के बारे में उन्होने लम्बी छानबीन की है। इसी प्रकार विवाह के समय महारानी की उम्र को लेकर उन्होने गहराई से विचार-विमर्श किया है। उन्होने यह पाया है कि विवाह के समय वे सात वर्ष की नहीं अपितु 15 वर्ष की थीं।
ओमशंकर जी झाँसी के निवासी होने के नाते इतिहास में घटित होने वाली घटनाओं के स्थानों का बखूबी वर्णन करते हैं। वे केवल इतिहास के लेखक न होकर एक साहित्यकार भी हैं। अत: उनकी भाषा में इतिहास लेखक का सूखापन नहीं है। उनकी भाषा सर्जनात्मक है। तथापि वे अपने लेखन में ऐतिहासिक तथ्यों को ही महत्व देते हैं। वे उससे परे की चीजों, जैसे लोक में प्रचलित बातों, को रेखांकित भर ही करते हैं। संक्षेप में यह कि झाँसी के गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में रुचि रखने वालों के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है।
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समीक्षित पुस्तक: महारानी लक्ष्मीबाई एवं उनकी झाँसी
लेखक: ओम शंकर असर
संपादक: ए. के. पाण्डेय
प्रकाशन: राजकीय संग्रहालय, झाँसी
हमारे देश के इतिहास में 1857 का स्वाधीनता संघर्ष स्वर्णाक्षरों में लिखित कालखण्ड है और इस समय की शौर्य गााथा की सबसे उज्ज्वल नक्षत्र महारानी लक्ष्मीबाई हैं। झाँसी की छोटी सी रियासत की भूमिका उस संघर्ष काल के एक दौर में केन्द्रीय हो गयी थी। हम में से अधिकतर लोग झाँसी के बारे में कम ही जानते हैं, शायद वहीं तक जहाँ तक झाँसी का इतिहास लक्ष्मीबाई से जुड़ता है। मगर झाँसी की कहानी लम्बी है और इस कहानी को झाँसी के ही निवासी और वरिष्ठ लेखक/कवि ओमशंकर खरे असर ने एक पुस्तक महारानी लक्ष्मीबाई एवं उनकी झाँसी का रूप दिया है।
यह पुस्तक वास्तव में असर साहब के लिखे गये कुछ लेखों का संकलन है जो उन्होंने जागरण अखबार के लिए एक श्रृंखला के अन्तर्गत लिखे थे। खरे साहब अपनी इस इतिहास की पुस्तक का प्रारम्भ बंगश और मराठों के बीच चल रहे संघर्ष से करते हैं जिसके चलते झाँसी एक शहर के रूप में सामने आया। पेशवा बाजीराव ने पहले-पहल इस क्षेत्र के सामरिक महत्व को देखते हुए यहाँ एक छावनी स्थापित की थी क्योंकि यहाँ से दतिया और ओरक्षा राज्य करीब पड़ते थे जिनपर नियंत्रण जरूरी था। बाद में मराठा सेनानायक मल्हारकृष्ण की हत्या के बाद नारोशंकर झाँसी के सूबेदार बने। उन्होने राज्य की सीमा को बढ़ाया और झाँसी के किले को मजबूत किया। यही नहीं उन्होने झाँसी शहर को बसाने में भी दिलचस्पी दिखायी। पेशवा द्वारा उन्हें वापस बुलाने पर माधवगोविन्द आतिया , बाबूराव कन्हाई और विश्वासराव लक्ष्मण इस के सूबेदार नियुक्त हुए। पानीपत की लड़ाई में पराजय के बाद मराठे कमजोर पड़ गये। 1762 में शुजाउद्दौला ने झाँसी के किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन 1763 में ही मराठों ने फिर झाँसी पर कब्जा कर लिया। 1766 तक विश्वास राव लक्ष्मण यहाँ शासक रहे। 1770 में रघुनाथ हरी नेवलकर को झाँसी का शासन संभालने का अवसर मिला।
रघुनाथ हरी नेवलकर से ही वह वंश चलता है जिसकी राजबधू महारानी लक्ष्मीबाई बनी। वे एक प्रतापी शासक सिध्द हुए और उन्होने झाँसी को अवध और सिन्धिया की दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों से बचाया। उनके समय में झाँसी ने कई हमलों और षडयन्त्रों का सामना सफलतापूर्वक किया। उन्होने अपने सुशासन द्वारा जनता में अपना प्रभाव बनाते हुए झाँसी में अपने राजवंश की नींव डाली। पच्चीस वर्षो तक शासन करने के उपरांत वे काशी चले गये। उनके छोटे भाई शिवराव भाÅ ने सन 1794 में झाँसँी के सूबेदार का पद संभाला। उनके समय में मराठों की पेशवाई कमजोर हो रही थी और अंग्रेजों का दबदबा भारत में बढ़ता जा रहा था। परिणाम स्वरूप शिवराव भाÅ को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। उनकी मृत्यु के उपरांत उनका पुत्र रामचन्द्र भाÅ अपने चाचा के संरक्षण में महाराजा बने मगर अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गयी। इस दौरान अंग्रेजों का सम्पर्क झाँसी से बढ़ा और यह दौर षडयंत्रों का भी था। बढ़ते दबावों के चलते 1817 की संधि के अनुसार झाँसी में अंग्रेजी फोज का रखा जाना स्वीकार किया गया। रामचन्द राव के निघन के बाद अंग्रेजों ने रघुनाथ राव को शासक बनाया जो कुख्यात और कुष्ठ रोग का शिकार था। वह शीघ्र ही कालकवलित हो गया। उत्तराधिकार के विवादों के बीच गंगाधर राव झाँसी के महाराजा बने जिनकी पत्नी महारानी लक्ष्मीबाई थीं।
गंगाधर राव के समय अंग्रेजों ने झाँसी के किले में अपनी सेना स्थापित क्ी। लेकिन इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुध्द छुटपुट विद्रोह शुरू हो गये थे। गंगाधर राव के समय में झाँसी का विकास हुआ क्योंकि वे एक कुशल और प्रभावशाली शसक थे। मगर वे विधुर हो गये थे उनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया था। सन्तान प्राप्ति के लिए उनहोने दूसरा विवाह किया था और रानी लक्ष्मीबाई उनकी पत्नी बनकर महल में आयी थीं। असर साहब यह बताते हैं कि लक्ष्मी बाई या मनू का जीवन कितने दुखों से भरा था। इस तथ्य को अब कम ही जाना जाता है। कम ही लोग जानते हैं क्योंकि यह दुख-कथा अब महारानी लक्ष्मीबाई की ऐतिहासिक शौर्य गााथा के नीचे दब सी गयी है। चार साल की उम्र में ही लक्ष्मीबाई की माता का निधन हो गया था। विवाहोपरान्त लक्ष्मीबाई को एक पुत्र हुआ था जो तीन माह बाद चल बसा। फिर महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु का कहर उन पर वैधव्य के रूप में टूटा।
लक्ष्मीबाई बचपन से ही प्रतिभाशाली और साहसी थीं। बिठूर में निवास के दौरान उन्होंने राजशाही के कायदे कानून सीखे। व्यायाम, घुड़सवारी वगैरह वहीं से सीखी। झाँसी आने पर शासन व्यवस्था में गंगाधर राव का सक्रिय सहयोग दिया। अपने पुत्र की मृत्यु के बाद गंगाधर राव बीमार पड़ गये और उन्हें झाँसी के विलुप्त होने का भय सताने लगा। झाँसी की भीषण त्रासदी का चरण उनकी मृत्यु थी जिसने अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता की कुदृष्टि को अवसर दिया। संग्रहणी के शिकार गंगाधर राव ने अपने अन्तिम दिनों में आनन्द राव को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया जिसकी उम्र पाँच वर्ष की थी। दत्तक विधान के बाद उसका नाम दामोदर राव गंगाधर रखा गया। यह 19 नवम्बर 1853 की बात है। उसी के दो दिन बाद महाराजा गंगाधर राव का निधन हो गया।
गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने लैप्स की नीति के तहत झाँसी को हड़पने की चेष्टाएँ आरम्भ कर दीं। महारानी लक्ष्मीबाई ने इसका हर प्रकार से विरोध किया। असर साहब ने अपनी पुस्तक में बतलाया है कि किस प्रकार स्लीमन ने दत्तक पुत्र के अधिकारों के प्रश्न पर दोहरा रवैया अपनाया था। इसी मुद्दे पर दो अंग्रेज प्रशासको एलिस और मैलकम में गहरे मतभेद थे । अत: सारा कुछ अन्तत: डलहौजी की सोच पर टिक गया । गोपनीय ढंग से झाँसी को जबलपुर के कमिश्नर के आधीन कर दिया गया गया और किसी को खबर तक नहीं हुई। अंग्रेजों ने कई मामले में दत्तक पुत्र के अधिकारों को स्वीकार किया था। मगर उनहोंने झाँसी के मामले में उसे नया राज्य मानकर ऐसा करने से इनकार किया। जबकि तथ्य यह है कि पेशवाई के समय से ही झाँसी एक राज्य के रूप में वर्तमान था। झाँसी को नया राज्य बताने को असर साहब अंग्रेजों की घटिया कूटनीति का उदाहरण मानते हैं।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर असर साहब बतलाते हैं कि महारानी लक्ष्मीबाई ने इस निर्णय के विरुध्द दो प्रार्थनापत्र कम्पनी सरकार के पास भेजे। ये दो पत्र इस बात के सबूत हैं कि महारानी में गजब की तर्क क्षमता थी। मगर अंग्रेजों ने इन्हे स्वीकार नहीं किया क्योंकि लार्ड डलहौजी की मंशा देशी राज्यों को हड़पकर अंग्रेजी राज्य में मिलाने की थी। परिणामस्वरूप रानी को किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। यह उनके लिए बेहद संकटग्रस्त समय था क्योंकि अंग्रेज सेना सभी खजानों को मोहरबंद कर हस्तगत कर रही थी और अभी रानी पति के शोक से उबर भी नहीं पायी थीं कि यह बड़ा राजनीतिक संकट सामने आन पड़ा था। इन भयानक दबावों के बीच महारानी ने हैमिल्टन से बात की जिसका जिक्र असर साहब ने विस्तारपूर्वक किया है। रानी ने अंग्रेजों की पेंशन को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसे स्वीकार करने का अर्थ था झाँसी के राज्य की समाप्ति को स्वीकार कर लेना। इसी दौर में जॉन लैंग के वर्णनों में महारानी के व्यक्तित्व, उनकी आनबान, और उनकी लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है। पुस्तक का यह अंश विशेष आकर्षित करता है।
2जून 1857 को झाँसी में सैनिकों ने विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया। मगर रानी ने सही अवसर की प्रतीक्षा की। तेज क्रान्तिकारी गतिविधियों के बीच अपनी कुशल कार्यनीति और नेतृत्व क्षमता के चलते 12 जून को महारानी ने झाँसी का शासन संभाल लिया। महारानी ने 11 माह तक झाँसी पर शासन किया और इस दौर में उनके क्रिया कलापों ने उन्हें जनता में अतिलोकप्रिय बनाया युध्द के अन्तिम दौर में अंग्रेजों ने झाँसी को बरबाद करने का पूरा प्रयास किया। आगजनी से लेकर निर्दोष जनता की हत्या तक का काम किया गया। इस प्रकार 1744 से 1858 तक चलने वाला झाँसी का सम्ध्द राज्य अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता का शिकार हो गया। अपनी मृत्यु के समय रानी लक्ष्मीबाई ने अपने पुत्र को विश्वासपात्र सरदार रामचन्द्र राव देशमुख को सौंपा था कि वह उसकी देखरेख करे। झाँसी के राजवंश का यह चिराग लम्बे समय तक बेतवा के धने जंगलों में कुछ विश्वासपात्र लोगों के साथ भटकता रहा। पर बाद में विश्वासघात और पैसे की कमी के चलते उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा। दामोदर राव की मृत्यु 1906 में हुई।
झाँसी की कहानी का वर्णन ओमशंकर खरे असर ने आद्योपांत एक झाँसी के ऐसे नागरिक के रूप में किया है जिसे अपनी विरासत से गहरा लगाव है। इसका एक कारण उनके परिवार का स्वयं इतिहास के एक अंश से जुड़ा होना रहा है। झाँसी के इतिहास के कुछ पक्ष विवादों के घेरे में रहे हैं और उन पर इतिहासकारों में मतभेद रहा है। ओमशंकर खरे असर के लेखन की विशेषता यह रही है कि विवादित मुद्दों के सभी पक्षों को हाजिर कर अपना तर्क और पक्ष प्रस्तुत करते हैं। झाँसी और महारानी लक्ष्मीबाई से जुउे विवादों में वे निर्णय बड़े तार्किक ढंग से लेते हैं। इस सिलसिले में उदाहरण के लिए उन्होंने महारानी के जन्म वर्ष के बारे में उन्होने लम्बी छानबीन की है। इसी प्रकार विवाह के समय महारानी की उम्र को लेकर उन्होने गहराई से विचार-विमर्श किया है। उन्होने यह पाया है कि विवाह के समय वे सात वर्ष की नहीं अपितु 15 वर्ष की थीं।
ओमशंकर जी झाँसी के निवासी होने के नाते इतिहास में घटित होने वाली घटनाओं के स्थानों का बखूबी वर्णन करते हैं। वे केवल इतिहास के लेखक न होकर एक साहित्यकार भी हैं। अत: उनकी भाषा में इतिहास लेखक का सूखापन नहीं है। उनकी भाषा सर्जनात्मक है। तथापि वे अपने लेखन में ऐतिहासिक तथ्यों को ही महत्व देते हैं। वे उससे परे की चीजों, जैसे लोक में प्रचलित बातों, को रेखांकित भर ही करते हैं। संक्षेप में यह कि झाँसी के गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में रुचि रखने वालों के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है।
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समीक्षित पुस्तक: महारानी लक्ष्मीबाई एवं उनकी झाँसी
लेखक: ओम शंकर असर
संपादक: ए. के. पाण्डेय
प्रकाशन: राजकीय संग्रहालय, झाँसी
Thursday, October 09, 2008
ईश्वर, सत्ता और कविता (4)
ईश्वर, सत्ता और कविता (4)
बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों में ईश्वर के प्रति कविता में भाव बदलते गये हैं। भारतीय जनता पार्टी की धर्म को राजनीतिक हथकण्डे के रूप में अपनाने की नीति का सामान्य जीवन पर प्रभाव पड़ा । आस्तिक लोगों के ड्राइंग रूमों में आशीर्वाद देने की मुद्रा में अनामिका मोड़े खड़े राम के स्थान पर समुद्र को धमकाते धनुङ्ढ हाथ में ताने हुए राम के चित्र दिखाई देने लगे। संघी भाइयों के यहां तो ये चित्र अनिवार्यत: मिलने लगे जिसकी कलाकारी इस बात मे थी कि राम का क्रोध उनकी शक्तिशाली मांसपेसियों में झलकने लगा। भारत के सांप्रदायिक परिप्रेक्ष्य में यह बहुत स्पष्ट था कि 'जलधि जड़' मुसलामान ही थे। अभिवादन के लिए प्रयुक्त होने वाला राम का नाम आक्रामक और हिंसक 'जै श्रीराम' के भयानक उद्धोष मेंं बदल गया। ईश्वर के इस घटिया और स्थूल राजनीतिक प्रयोग ने किसी भी प्रकार के दार्शनिक उदात्ता के लिए स्पेस नहीं छोड़ा।
उत्पात के प्रारंभिक दौर में आयी मानबहादुर सिंह की कविता 'समकालीन ईश्वर की लाचारी' एक दूसरी अवस्थित से लिखी गयी कविता है । इस कविता का रचनाकाल वह समय है जब सांप्रदायिकता की गरज उतनी तेज नहीं थी इस कारण यह कविता अधिक महत्व की हो जाती है । यह कम पढ़ी गयी और लगभग अचर्चित कविता ईश्वर के दुरुप्योग और हिंसा से भरे माहौल में ईश्वर की लाचारी को दर्शाती है। इस मायने में ईश्वर के साथ 'समकालीन' पद का प्रयोग वाकई अर्थपूर्ण है। बाद में लिखी गयी वीरेन डंगवाल की कविता 'दुश्चक्र में स्रष्टा' से इस कविता को मिला कर देखा जा सकता है। यह कविता ईश्वर के पक्ष से प्रस्तुत एक अंधाधुंंध मोनोलाग है या कहें कि विवश ईश्वर का प्रलाप। यहां ईश्वर के मनुष्यता के विरोध में हुए प्रयोंगों को भर्त्सनात्मक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
वीरेन डंगवाल की कविता में 'दुश्चक्र में स्रष्टा' अपनी विडम्बनात्मक अभिव्यक्तियों के चलते महत्वपूर्ण है और इसी कारण उसने हिंदी के पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। कविता मे उपस्थित यह व्यंग्य और विडम्बना का स्वर कविता के अंत तक पहुंचते-पहुचते आक्रोश में बदल जाता है। 'दुश्चक्र में स्रष्टा' कविता का प्रारंभ भगवान के कारीगरी के कमाल के जिक्र के साथ होता है। समकालीन घटनाक्रम के सापेक्ष यह जिक्र व्यंग्य और विडम्बना के स्वर के साथ है।
'अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ
और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे मुखड़े पर झलती हुई'
ईश्वर के शानदार कृत्यों का यह विडम्बनापूर्ण वर्णन इस शिकायत के साथ समय के यथार्थ तक पहुंचता है कि भगवान ने अपना कामयाब कारखाना बंद कर दिया है और अब जो कुछ भी इस तथाकथित ईश्वरीय सत्ता के नाम पर है वह बुरा ही बुरा है। क्या अच्छे और आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न करने वाला ईश्वर कहीं विलुप्त हो गया है? आखिर समकालीन तबाहियों के बीच 'रहमानुर्रहीम' या 'करूणानिधान'ईश्वर के अस्तित्व के कोई चिन्ह क्यों नहीं दिखाई पड़ते?
'बाढ़ें तो आयी खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान
खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युध्द एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थना गृह जरूर उठाये गये एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
उंगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा करोबार?'
वीरेन डंगवाल की यह कविता ईश्वर के अस्तित्व और उसके कार्यों को लेकर प्रचलित मान्यताओं और परंपरागत विचारों से प्रारंभ होकर उन्हीं को प्रश्नांकित करती है।इयवर की अनुपस्थिति इस बात में है कि अब उसका इस विश्व पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है।पर सवाल यह हुआ कि यदि इस पर उसका नियंत्रण नहीं तो फिर नियंत्रण है किसका। क्या ईश्वर की कोई वास्तविक सत्ता है भी या यह महज एक परंपरागत असत्य है? क्या ईश्वर नयी क्रूर सत्ताओं सा डर कर भाग गया है? शायद उसका इन क्रूर सत्ताओं से कोई परोक्ष-अपरोक्ष समझौता हो गया हो? कुल मिलाकर कवि के लिए ईश्वर असहनीय हो गया है। यही कानण है कि कविता आक्रोश के ऐसे बिन्दु पर समाप्त होती है जहाँ ईश्वर संबंधी सारी पारंपरिक अवधारणाएँ नष्ट हो जाती हैं।
'अपना कारखना बंद करके
किस घोसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन सा है आखिर, वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करूणानिधान!!'
युवा कवि पंकज चतुर्वेदी की कविता 'ईसा, बुध्द, हज़रत मुहम्मद के लिए' ईश्वर और पैगम्बरों के नाम पर होने वाली हिंसा और मारकाट का खुलासा करती हुई उसके राजनीतिक प्रयोगों को रेखांकित करती है। भारत ने बुध्द पूर्णिमा के दिन पोकरण में परमाणु विस्फोट किया था तो संकेत का संदेश था 'बुध्द मुस्काराये'। यह विडम्बनापूर्ण संदेश इस ओर ले जाता है कि मनुष्य को नष्ट करने के ङ्ढडयंत्र में ईश्वर का इस्तेमाल हो रहा है। यहाँ ईश्वर की सत्ताा नगण्य है और महत्वपूर्ण है अमरीका, भारत ओर पाकिस्तान की शासन सत्तााएं जो बुध्द, ईसा और हजरत मोहम्मद का इस्तेमाल कर रहे है। यह यूं ही नहीं है कि हिन्दू साम्प्रदायिकता और इस्लामिक बम के साथ-साथ हटिंगटन की पुस्तक भी आ पहुंची है। धर्म और नस्ल को वैधता देने मे ईश्वर कहीं न कहीं उपस्थित होता है।
ऋतुराज के कविता संग्रह 'लीलामुखारविन्द' में ईश्वर की उपस्थिति अनेक ठोस रूपों में दिखलाई पड़ती है। यह उसका कोई भक्तियुगीन साकार रूप नहीं है, मगर है कुछ वैसा ही। वह कहीं न होते हुए भी सर्वत्र उपस्थित है। सभी प्रकार के पापाचारों में वह शरीक है। यही वह लीला है जो सत्ता और शक्ति के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक क्रियाकलापों में अन्तर्निहित है। ऋतुराज सत्ता के विभिन्न प्रकार के चेहरों के खेल में उसकी उपस्थिति पाते है- यही है 'लीला मुखारविन्द'। कविता 'ईश्वर चरितम्' में ईश्वर न होते हुए भी परेशानी का कारण है, क्योंकि वह तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों और शक्ति केन्द्रों के लिए उपकरण बन गया है। प्रात: काल में बजने वाले भजनों से लेकर रात्रि तक, हर समय उसकी उपस्थिति है।
'हत्यारा हत्या करता है ईश्वर के नाम पर
हत्यारे के पक्ष में ईश्वर गवाही देता है
क्योंकि हर अपराध में उसका हाथ होता है।'
यह सब कुछ होते हुए भी ईश्वर नाम का यह 'मुख्य अभियुक्त अदृश्य' रहता है। इस प्रकार वह निराकार और साकार दोनों है। वास्तव मे यह सत्ता प्रतिष्ठानों का वह वर्चस्वी भ्रष्ट रूप है, जो ईश्वर का इस्तेमाल करता है। यहां ईश्वर तलवार भी है और ढाल भी। और कहीं-कहीं तो वह अदृश्य सत्ताानायक है जो स्वयं ही ईश्वर बन बैठता है। यह विडम्बना ही है। अपने समय के सांप्रदायिक और वर्चस्वी शक्तियाें को देखें तो वे ईश्वर सदृश ही हैं। यह ईश्वरत्व तो धरती पर ही साकार है और उसके ठोस रूप खूंखार और डरावने हैं।
''उनके हाथों में खून सनी छडे थी'
चाकू तेजाब की बोतलें भी
अनगिनत हाथ थे जैसे तुम्हारे ही हाथ हों वे''
'श्री ईश्वरचरितम्' कविता में ईश्वर इतना अधिक है कि कवि की नींद हराम है। वह ईश्वर को कोसता है। उसकी उपस्थिति अमानवीय है। ईश्वर के नाम पर सुबह से ही धूम-धड़ाका है। यह ढोंग तो है ही। अपने कुकर्मों को वैधता प्रदान करने का शक्तिपाठ है। ईश्वर ही वह प्रत्यय है जिसके द्वारा हत्याओं को वैधता दी जा सकती है। ईश्वर अदृश्य मुख्य अभियुक्त है। कविता की विडम्बना इस बात में है कि मुख्य अभियुक्त का दो अर्थ है। एक तो ईश्वर जो दिखाई नहीं देता और चारों तरफ है और दूसरी अर्थ है वह सत्ताा जो हर जगह शक्ति के रूप में स्वयं को प्रदर्शित करता है। अपने दौर में राम के नाम पर हुए उत्पातों से जुड़ी दक्षिणपंथी शक्ति सत्ताा के सापेक्ष कविता का अर्थ बहुत साफ होता है। ईश्वर, धर्म और सत्ताा के इस क्रूर और अमानवीय गठजोड़ को यह कविता अपनी चिंता का विङ्ढय बनाती है।
सत्तााएं सदैव प्रत्ययों की मदद से शासन करती हैं और उन्हें अपनी वैधता सिध्द करने के लिए इस प्रकार के उपादानों की सदा ही आवश्यकता रहती है। यह किसी धर्म अथवा नस्ल की श्रेष्ठता से लेकर स्वतंत्रता तक का मुद्दा हो सकता है। बुश जैसे सत्तााधीश यदि इराक की जनता को मुक्त कराने के नाम पर आक्रमण को वैधता प्रदान करते हैं तो हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का मुखौटा सत्तााछद्म पर पर्दे का काम करती है। इसी प्रकार 'देयर इज नो गाड बट अल्लाह' भी अपना काम करता है। ईश्वर सत्तााओं को किस प्रकार से वैधता प्रदान करता है इसका हमारे समय में इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है कि राम के नाम पर साम्प्रदायिकता के नंगे नृत्य को भी वैधता दी जाय। गुजरात के दंगों को उदार हिन्दुओं की स्वाभाविक प्रक्रिया कह कर बच चला जाय। हिन्दुओं की उदारता भी तो इसी बात द्वारा सिध्द की जाती है कि यहाँ असंख्य देवी-देवता है। अस्ल में इन देवी-देवताओं के पीछे सत्ताा एक ही है जिसके हजारों हाथ कहीं अदृश्य से प्रकट होकर जीवन घुस आते हैं और विभिन्न स्तरों पर कार्यरत हैं।
मानववादी कविता से अलग इस नये तौर की कविता दृष्टि की महत्ताा इसी में है कि वह मनुष्य और ईश्वर की सत्ता को एक नहीं देखती। यह ईश्वर की अद्वितीय और सर्वशक्तिमान सत्ताा के प्रति भी मुग्ध नहीं। यह तो और पीछे की बात है। वह दरअस्ल ईश्वर को वर्चस्वी सत्ताा के एक प्रतिनिधि के रूप में देखती है जिसके विभिन्न प्रकार के प्रयोग होते रहे हैं-खासकर भरतीय राजनीति में।
हिन्दी कविता में ईश्वर के प्रत्यय का यह इस्तेमाल अर्तक्य के विरोध में आता है। हमारे समय में उसकी एक ऐतिहासिक उपस्थिति है जिसे सांप्रदायिकता और फासीवाद के विरुध्द खड़े होते हुए देखा जा सकता है। यही कारण्ा है कि इन कविताओं मेें ईश्वर की चर्चा महज एक दार्शनिक प्रत्यय के रूप में नहीं है। यहाँ वह धर्म के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिफलनों मेें रेखांकित किया गया है। जाहिर तौर पर यह महज एक आस्था का प्रश्न नहीं बनकर रह जाता। इसके विभिन्न आयाम दिखलाई देते हैं। समाज संस्कृति में ईश्वर के प्रत्यय द्वारा एक मनुष्यता विरोधी वर्चस्वी व्यवस्था अथवा सत्ता की स्थापना का यहाँ स्पष्ट विरोध देखा जा सकता है।
प्रकृति और सामान्य जीवन की कविता लिखने वाले नरेन्द्र पुण्डरीक ईश्वर की सत्ता को नहीं स्वीकार कर पाते क्योंकि वह इश्वरीय सत्ता, आततायी सत्ता की समर्थक है ऐसे में ईश्वर की प्रार्थना के लिए शब्द कहां से आयेंगे।
''कैसे चुपचाप रोज
मेरे सपनों का रौंदता हुआ
आकाश से गुजर जाता है
इन्द्र का हाथी,
बताओ तुम्हारी सरोकारहीन
प्रार्थनाओं के लिए
कहां से जुटाऊं शब्द ईश्वर''
सत्ता और शक्ति के केन्द्र्र ईश्वर का इस्तेमाल करते हैं और राम लोगों के हृदय से बाहर कैद में रह जाते हैं- अयोध्या को लेकर चलती राजनीति की कैद में। 'कैसे छीने गये राम' कविता में ऐसे विवश और शक्तिहीन ईश्वर का क्या किया जाय। इस फालतू ईश्वर के बारे में यदि जानकारियां हों भी तो किस काम की।
''ईश्वर के पास न कोई हुनर है
न जानकारी
न वह रस्सी बर सकता है
न गांठ सकता है जूते
खटिया बुनना
बर्तन बनाना
मिट्टी तैयार करना
जैसे छोटे-छोटे काम भी
ईश्वर के बस में नहीं थे''
(ईश्वर के बारे में उसके पास पर्याप्त जानकारी थी।)
ऐसे ईश्वर का एक मेहनतकश के लिए क्या महत्व हो सकता है? सत्ता के लिए जो शोषण और उत्पीड़न का शस्त्र है वह आखिर एक मजलूम के लिए कितना अर्थपूर्ण होगाा। जाहिर सी बात है कि वह नकारात्मक ही होगा।
'ईश्वर अन्न के दाने के
भीतर वैठी पाई है
ईश्वर लकड़ी के भीतर
बैठी घुन है'
(जो इस धरती के खिलाफ है)
वह जीवन में संघर्षरत व्यक्ति के लिए भय है जिसका प्रयोग ब्राह्मणवादी पुरोहिती व्यवस्था सदियों से करती रही है। वह सत्ता के तरफ से फैलाया गया 'राज रोग' है। नरेन्द्र पुण्डरीक द्वारा प्रयुक्त शब्द 'राज रोग' के निहितार्थ गहरे और बहुआयामी हैं। अन्तत: ईश्वर वह सब कुछ है जो मनुष्यता के विरुध्द है अर्थात 'जो इस धरती के खिलाफ है।'
नरेन्द्र पुण्डरीक की ईश्वर संबंधी यह कम चर्चित कविता श्रृंखला विचारधारा के मामले में एक गंभीर हस्तक्षेप करती है। वह प्रगतिशीलता के नास्तिक दर्शन के रास्ते को वैसे ही रेखाकित करती है जैसे नागार्जुन की कविता। मगर यह बिल्कुल बदले हुए संदर्भों में ऐसा करती है। सीतामढ़ी के सांप्रदायिक दंगे का जिक्र करती उनकी कविता में ईश्वर निश्चित तौर पर हमारे समय के संदर्भ में हैं। सीतामढ़ी के सामान्य लोगों के सामान्य स्वप्न थे और उनकी इच्छाओं और संघर्षों में ईश्वर कहीं नहीं था।
'फिर भी वे मारे गये
ईश्वर के नाम पर
उनके जलाये गये घर
ईश्वर के नाम पर
ईश्वर जो कभी था ही नहीं
इस दुनिया में
केवल उसके होने को लेकर
क्यों मारे गये लोग''
यहां कविता में उपस्थित सीतामढ़ी भारत का कोई भी शहर हो सकता है और साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाले लोग कहीं भी ईश्वर के नाम पर दंगा करा सकते थे। ईश्वर ही उनके लिये वह माध्यम है जिसका इस्तेमाल वे मनुष्य के विरुध्द करते है, सामान्य जीवन का विध्वंस करते हुए।
'कुछ शब्द थे
जो ईश्वर की शक्ल से
बहुत कुछ मिलते जुलते थे
वे उतने ही घृणित
अपवित्र
और धारदार थे
जितना कि ईश्वर
इस वक्त इन शब्दाें से
सीतामढ़ी क्या
तरबूज की तरह
पूरी दुनिया काटी जा सकती है।'
हिन्दी जगत अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में निहायत ही परंपराग्रस्त रहा है। केवल कुछ लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के होने से यह सिध्द नहीं होता कि सब कुछ क्रान्तिकारी है। परंपरा अभिविन्यस्त होने में सुरक्षा और मान्यता दोनों मिलती रही है। यही कारण है कि धर्म और ईश्वर की पुनरुत्थानी स्वीकृति यहां की संसदीय राजनीति में प्रतिफलित हुई। ऐसे में ईश्वर की सत्ताा को परंपरा के प्रवाह की एक महत्वपूर्ण धारा के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके प्रति शंका, प्रश्न अथवा विद्रोह को परोक्षत: एक पूरी सत्ताा के प्रति होने वाले विद्रोह के रूप में देखा जा सकता है। हिन्दी कविता में इधर उभरते ईश्वर को सिर्फ आज की तात्कालिक सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति से अलग एक विशिष्ट ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मेें देखने पर उसका स्पष्ट अलगाव दिखाई पड़ता है। यह बात भी सच है कि इस प्रतिरोध की अपनी एक परंपरा है, ठीक वैसे ही जैसे कूपमंडूकता और जाहिल परंपरावाद की परंपरा है ही। इसी विवेक से जुड़ी प्राश्निकता की यह ईश निन्दक परंपरा रेखांकित करने योग्य है, भले ही यह धारा अल्पसंख्यक और गौण ही क्यों न हो।
ईश्वर और सत्ताा का प्रश्न हिन्दी कविता में विशिष्ब्ट तौर पर सांप्रदायिकता के सापेक्ष ही सामने आया, मगर वास्तव मेें यह सिर्फ सांप्रदायिकता के उभार भर से जुड़ा एक प्रश्न नहीं। यह उस पूरे अतार्किक के विरुध्द आवाज उठाने की बात है जो तरह-तरह से भारतीय समाज में रचा-बसा है। संस्कृति की अनेकों दैनन्दिन की गतिविधियों में यह अतार्किक विद्यमान रहता है और तमाम महत्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नों को पृष्ठभूमि में ढकेलता है।
यदि ईश्वर का प्रत्यय हिन्दी के इन कवियों के लिए सिर्फ एक दार्शनिक प्रत्यय नहीं, तो वह राजनीतिज्ञों के लिए जिस प्रकार एक नीतिगत प्रश्न है वैसा भी नहीं। संसदीय राजनीति में धर्म और ईश्वर के कुटिल प्रयोग होते रहे हैं। सांप्रदायिक दक्षिणपंथी दल उसका सीधा इस्तेमाल अपने राजनीतिक हितो के लिए करते रहे है। यहाँ तक कि टकराव और दंगों के रास्तों को भी नहीं छोड़ा गया। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद प्रकरण और गुजरात के दंगों के उदाहरण स्थूल और स्पष्टत: रेखांकित करने योग्य हैं, जिसका विरोध इस दौर की हिन्दी कविता ने जोरदार ढंग से किया। मगर धर्म निरपेक्ष राजनीति ने ईश्वर और धर्म की स्पष्ट आलोचना से बचने का ही प्रयास किया। यहॉ वोट प्राप्त करने के लिए यह एक मजबूरी थी। इस प्रकार के प्रयोग सभी राजनीतिक दलों नें किये हैं बस थोड़ा अलग अलग ढंग से।इस पगकार के 'हितसाधन' या 'स्वार्थसिध्दि' से समकालीन कवियों को कोई वास्ता नहीं रहा है हाँलांकि ऐसे कवियों की कविताएँ निहायत राजनीतिक रही है। यह तथ्य सीधी संसदीय राजनीति और नागरिक जीवन से जुड़ी राजनीति के फर्क को तो साफ रेखांकित करता ही है। कविता के सरोकार के व्यापकतर घेरे बनते हैं। यही कारण है कि कविता भक्तियुगीन सर्वशक्तिमान ईश्वर से मनुष्ब्श् में व्याप्त ईश्वर तक पहुँचकर रूक नहीं जाती। वह ईश्वर के एक छोटे से औजार के रूप् में परिवर्तित हो जाने के तथ्य कोउजागर करती है। इस अर्थ में समकालीन हिन्दी कविता हमारे हिन्दी समाज में छाये एक आध्यात्मिक रहस्यवाद का विखंडन करती है।
''लोग कहते हैं कि ईश्वर ईश्वर ईश्वर
क्या वह बना सकता है एक ऐसा बड़ा ढोका
जिसे वह दाँत पीसकर स्वयं ही न उठा सके''
बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों में ईश्वर के प्रति कविता में भाव बदलते गये हैं। भारतीय जनता पार्टी की धर्म को राजनीतिक हथकण्डे के रूप में अपनाने की नीति का सामान्य जीवन पर प्रभाव पड़ा । आस्तिक लोगों के ड्राइंग रूमों में आशीर्वाद देने की मुद्रा में अनामिका मोड़े खड़े राम के स्थान पर समुद्र को धमकाते धनुङ्ढ हाथ में ताने हुए राम के चित्र दिखाई देने लगे। संघी भाइयों के यहां तो ये चित्र अनिवार्यत: मिलने लगे जिसकी कलाकारी इस बात मे थी कि राम का क्रोध उनकी शक्तिशाली मांसपेसियों में झलकने लगा। भारत के सांप्रदायिक परिप्रेक्ष्य में यह बहुत स्पष्ट था कि 'जलधि जड़' मुसलामान ही थे। अभिवादन के लिए प्रयुक्त होने वाला राम का नाम आक्रामक और हिंसक 'जै श्रीराम' के भयानक उद्धोष मेंं बदल गया। ईश्वर के इस घटिया और स्थूल राजनीतिक प्रयोग ने किसी भी प्रकार के दार्शनिक उदात्ता के लिए स्पेस नहीं छोड़ा।
उत्पात के प्रारंभिक दौर में आयी मानबहादुर सिंह की कविता 'समकालीन ईश्वर की लाचारी' एक दूसरी अवस्थित से लिखी गयी कविता है । इस कविता का रचनाकाल वह समय है जब सांप्रदायिकता की गरज उतनी तेज नहीं थी इस कारण यह कविता अधिक महत्व की हो जाती है । यह कम पढ़ी गयी और लगभग अचर्चित कविता ईश्वर के दुरुप्योग और हिंसा से भरे माहौल में ईश्वर की लाचारी को दर्शाती है। इस मायने में ईश्वर के साथ 'समकालीन' पद का प्रयोग वाकई अर्थपूर्ण है। बाद में लिखी गयी वीरेन डंगवाल की कविता 'दुश्चक्र में स्रष्टा' से इस कविता को मिला कर देखा जा सकता है। यह कविता ईश्वर के पक्ष से प्रस्तुत एक अंधाधुंंध मोनोलाग है या कहें कि विवश ईश्वर का प्रलाप। यहां ईश्वर के मनुष्यता के विरोध में हुए प्रयोंगों को भर्त्सनात्मक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
वीरेन डंगवाल की कविता में 'दुश्चक्र में स्रष्टा' अपनी विडम्बनात्मक अभिव्यक्तियों के चलते महत्वपूर्ण है और इसी कारण उसने हिंदी के पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। कविता मे उपस्थित यह व्यंग्य और विडम्बना का स्वर कविता के अंत तक पहुंचते-पहुचते आक्रोश में बदल जाता है। 'दुश्चक्र में स्रष्टा' कविता का प्रारंभ भगवान के कारीगरी के कमाल के जिक्र के साथ होता है। समकालीन घटनाक्रम के सापेक्ष यह जिक्र व्यंग्य और विडम्बना के स्वर के साथ है।
'अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ
और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे मुखड़े पर झलती हुई'
ईश्वर के शानदार कृत्यों का यह विडम्बनापूर्ण वर्णन इस शिकायत के साथ समय के यथार्थ तक पहुंचता है कि भगवान ने अपना कामयाब कारखाना बंद कर दिया है और अब जो कुछ भी इस तथाकथित ईश्वरीय सत्ता के नाम पर है वह बुरा ही बुरा है। क्या अच्छे और आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न करने वाला ईश्वर कहीं विलुप्त हो गया है? आखिर समकालीन तबाहियों के बीच 'रहमानुर्रहीम' या 'करूणानिधान'ईश्वर के अस्तित्व के कोई चिन्ह क्यों नहीं दिखाई पड़ते?
'बाढ़ें तो आयी खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान
खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युध्द एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थना गृह जरूर उठाये गये एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
उंगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा करोबार?'
वीरेन डंगवाल की यह कविता ईश्वर के अस्तित्व और उसके कार्यों को लेकर प्रचलित मान्यताओं और परंपरागत विचारों से प्रारंभ होकर उन्हीं को प्रश्नांकित करती है।इयवर की अनुपस्थिति इस बात में है कि अब उसका इस विश्व पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है।पर सवाल यह हुआ कि यदि इस पर उसका नियंत्रण नहीं तो फिर नियंत्रण है किसका। क्या ईश्वर की कोई वास्तविक सत्ता है भी या यह महज एक परंपरागत असत्य है? क्या ईश्वर नयी क्रूर सत्ताओं सा डर कर भाग गया है? शायद उसका इन क्रूर सत्ताओं से कोई परोक्ष-अपरोक्ष समझौता हो गया हो? कुल मिलाकर कवि के लिए ईश्वर असहनीय हो गया है। यही कानण है कि कविता आक्रोश के ऐसे बिन्दु पर समाप्त होती है जहाँ ईश्वर संबंधी सारी पारंपरिक अवधारणाएँ नष्ट हो जाती हैं।
'अपना कारखना बंद करके
किस घोसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन सा है आखिर, वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करूणानिधान!!'
युवा कवि पंकज चतुर्वेदी की कविता 'ईसा, बुध्द, हज़रत मुहम्मद के लिए' ईश्वर और पैगम्बरों के नाम पर होने वाली हिंसा और मारकाट का खुलासा करती हुई उसके राजनीतिक प्रयोगों को रेखांकित करती है। भारत ने बुध्द पूर्णिमा के दिन पोकरण में परमाणु विस्फोट किया था तो संकेत का संदेश था 'बुध्द मुस्काराये'। यह विडम्बनापूर्ण संदेश इस ओर ले जाता है कि मनुष्य को नष्ट करने के ङ्ढडयंत्र में ईश्वर का इस्तेमाल हो रहा है। यहाँ ईश्वर की सत्ताा नगण्य है और महत्वपूर्ण है अमरीका, भारत ओर पाकिस्तान की शासन सत्तााएं जो बुध्द, ईसा और हजरत मोहम्मद का इस्तेमाल कर रहे है। यह यूं ही नहीं है कि हिन्दू साम्प्रदायिकता और इस्लामिक बम के साथ-साथ हटिंगटन की पुस्तक भी आ पहुंची है। धर्म और नस्ल को वैधता देने मे ईश्वर कहीं न कहीं उपस्थित होता है।
ऋतुराज के कविता संग्रह 'लीलामुखारविन्द' में ईश्वर की उपस्थिति अनेक ठोस रूपों में दिखलाई पड़ती है। यह उसका कोई भक्तियुगीन साकार रूप नहीं है, मगर है कुछ वैसा ही। वह कहीं न होते हुए भी सर्वत्र उपस्थित है। सभी प्रकार के पापाचारों में वह शरीक है। यही वह लीला है जो सत्ता और शक्ति के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक क्रियाकलापों में अन्तर्निहित है। ऋतुराज सत्ता के विभिन्न प्रकार के चेहरों के खेल में उसकी उपस्थिति पाते है- यही है 'लीला मुखारविन्द'। कविता 'ईश्वर चरितम्' में ईश्वर न होते हुए भी परेशानी का कारण है, क्योंकि वह तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों और शक्ति केन्द्रों के लिए उपकरण बन गया है। प्रात: काल में बजने वाले भजनों से लेकर रात्रि तक, हर समय उसकी उपस्थिति है।
'हत्यारा हत्या करता है ईश्वर के नाम पर
हत्यारे के पक्ष में ईश्वर गवाही देता है
क्योंकि हर अपराध में उसका हाथ होता है।'
यह सब कुछ होते हुए भी ईश्वर नाम का यह 'मुख्य अभियुक्त अदृश्य' रहता है। इस प्रकार वह निराकार और साकार दोनों है। वास्तव मे यह सत्ता प्रतिष्ठानों का वह वर्चस्वी भ्रष्ट रूप है, जो ईश्वर का इस्तेमाल करता है। यहां ईश्वर तलवार भी है और ढाल भी। और कहीं-कहीं तो वह अदृश्य सत्ताानायक है जो स्वयं ही ईश्वर बन बैठता है। यह विडम्बना ही है। अपने समय के सांप्रदायिक और वर्चस्वी शक्तियाें को देखें तो वे ईश्वर सदृश ही हैं। यह ईश्वरत्व तो धरती पर ही साकार है और उसके ठोस रूप खूंखार और डरावने हैं।
''उनके हाथों में खून सनी छडे थी'
चाकू तेजाब की बोतलें भी
अनगिनत हाथ थे जैसे तुम्हारे ही हाथ हों वे''
'श्री ईश्वरचरितम्' कविता में ईश्वर इतना अधिक है कि कवि की नींद हराम है। वह ईश्वर को कोसता है। उसकी उपस्थिति अमानवीय है। ईश्वर के नाम पर सुबह से ही धूम-धड़ाका है। यह ढोंग तो है ही। अपने कुकर्मों को वैधता प्रदान करने का शक्तिपाठ है। ईश्वर ही वह प्रत्यय है जिसके द्वारा हत्याओं को वैधता दी जा सकती है। ईश्वर अदृश्य मुख्य अभियुक्त है। कविता की विडम्बना इस बात में है कि मुख्य अभियुक्त का दो अर्थ है। एक तो ईश्वर जो दिखाई नहीं देता और चारों तरफ है और दूसरी अर्थ है वह सत्ताा जो हर जगह शक्ति के रूप में स्वयं को प्रदर्शित करता है। अपने दौर में राम के नाम पर हुए उत्पातों से जुड़ी दक्षिणपंथी शक्ति सत्ताा के सापेक्ष कविता का अर्थ बहुत साफ होता है। ईश्वर, धर्म और सत्ताा के इस क्रूर और अमानवीय गठजोड़ को यह कविता अपनी चिंता का विङ्ढय बनाती है।
सत्तााएं सदैव प्रत्ययों की मदद से शासन करती हैं और उन्हें अपनी वैधता सिध्द करने के लिए इस प्रकार के उपादानों की सदा ही आवश्यकता रहती है। यह किसी धर्म अथवा नस्ल की श्रेष्ठता से लेकर स्वतंत्रता तक का मुद्दा हो सकता है। बुश जैसे सत्तााधीश यदि इराक की जनता को मुक्त कराने के नाम पर आक्रमण को वैधता प्रदान करते हैं तो हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुत्व की श्रेष्ठता का मुखौटा सत्तााछद्म पर पर्दे का काम करती है। इसी प्रकार 'देयर इज नो गाड बट अल्लाह' भी अपना काम करता है। ईश्वर सत्तााओं को किस प्रकार से वैधता प्रदान करता है इसका हमारे समय में इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है कि राम के नाम पर साम्प्रदायिकता के नंगे नृत्य को भी वैधता दी जाय। गुजरात के दंगों को उदार हिन्दुओं की स्वाभाविक प्रक्रिया कह कर बच चला जाय। हिन्दुओं की उदारता भी तो इसी बात द्वारा सिध्द की जाती है कि यहाँ असंख्य देवी-देवता है। अस्ल में इन देवी-देवताओं के पीछे सत्ताा एक ही है जिसके हजारों हाथ कहीं अदृश्य से प्रकट होकर जीवन घुस आते हैं और विभिन्न स्तरों पर कार्यरत हैं।
मानववादी कविता से अलग इस नये तौर की कविता दृष्टि की महत्ताा इसी में है कि वह मनुष्य और ईश्वर की सत्ता को एक नहीं देखती। यह ईश्वर की अद्वितीय और सर्वशक्तिमान सत्ताा के प्रति भी मुग्ध नहीं। यह तो और पीछे की बात है। वह दरअस्ल ईश्वर को वर्चस्वी सत्ताा के एक प्रतिनिधि के रूप में देखती है जिसके विभिन्न प्रकार के प्रयोग होते रहे हैं-खासकर भरतीय राजनीति में।
हिन्दी कविता में ईश्वर के प्रत्यय का यह इस्तेमाल अर्तक्य के विरोध में आता है। हमारे समय में उसकी एक ऐतिहासिक उपस्थिति है जिसे सांप्रदायिकता और फासीवाद के विरुध्द खड़े होते हुए देखा जा सकता है। यही कारण्ा है कि इन कविताओं मेें ईश्वर की चर्चा महज एक दार्शनिक प्रत्यय के रूप में नहीं है। यहाँ वह धर्म के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिफलनों मेें रेखांकित किया गया है। जाहिर तौर पर यह महज एक आस्था का प्रश्न नहीं बनकर रह जाता। इसके विभिन्न आयाम दिखलाई देते हैं। समाज संस्कृति में ईश्वर के प्रत्यय द्वारा एक मनुष्यता विरोधी वर्चस्वी व्यवस्था अथवा सत्ता की स्थापना का यहाँ स्पष्ट विरोध देखा जा सकता है।
प्रकृति और सामान्य जीवन की कविता लिखने वाले नरेन्द्र पुण्डरीक ईश्वर की सत्ता को नहीं स्वीकार कर पाते क्योंकि वह इश्वरीय सत्ता, आततायी सत्ता की समर्थक है ऐसे में ईश्वर की प्रार्थना के लिए शब्द कहां से आयेंगे।
''कैसे चुपचाप रोज
मेरे सपनों का रौंदता हुआ
आकाश से गुजर जाता है
इन्द्र का हाथी,
बताओ तुम्हारी सरोकारहीन
प्रार्थनाओं के लिए
कहां से जुटाऊं शब्द ईश्वर''
सत्ता और शक्ति के केन्द्र्र ईश्वर का इस्तेमाल करते हैं और राम लोगों के हृदय से बाहर कैद में रह जाते हैं- अयोध्या को लेकर चलती राजनीति की कैद में। 'कैसे छीने गये राम' कविता में ऐसे विवश और शक्तिहीन ईश्वर का क्या किया जाय। इस फालतू ईश्वर के बारे में यदि जानकारियां हों भी तो किस काम की।
''ईश्वर के पास न कोई हुनर है
न जानकारी
न वह रस्सी बर सकता है
न गांठ सकता है जूते
खटिया बुनना
बर्तन बनाना
मिट्टी तैयार करना
जैसे छोटे-छोटे काम भी
ईश्वर के बस में नहीं थे''
(ईश्वर के बारे में उसके पास पर्याप्त जानकारी थी।)
ऐसे ईश्वर का एक मेहनतकश के लिए क्या महत्व हो सकता है? सत्ता के लिए जो शोषण और उत्पीड़न का शस्त्र है वह आखिर एक मजलूम के लिए कितना अर्थपूर्ण होगाा। जाहिर सी बात है कि वह नकारात्मक ही होगा।
'ईश्वर अन्न के दाने के
भीतर वैठी पाई है
ईश्वर लकड़ी के भीतर
बैठी घुन है'
(जो इस धरती के खिलाफ है)
वह जीवन में संघर्षरत व्यक्ति के लिए भय है जिसका प्रयोग ब्राह्मणवादी पुरोहिती व्यवस्था सदियों से करती रही है। वह सत्ता के तरफ से फैलाया गया 'राज रोग' है। नरेन्द्र पुण्डरीक द्वारा प्रयुक्त शब्द 'राज रोग' के निहितार्थ गहरे और बहुआयामी हैं। अन्तत: ईश्वर वह सब कुछ है जो मनुष्यता के विरुध्द है अर्थात 'जो इस धरती के खिलाफ है।'
नरेन्द्र पुण्डरीक की ईश्वर संबंधी यह कम चर्चित कविता श्रृंखला विचारधारा के मामले में एक गंभीर हस्तक्षेप करती है। वह प्रगतिशीलता के नास्तिक दर्शन के रास्ते को वैसे ही रेखाकित करती है जैसे नागार्जुन की कविता। मगर यह बिल्कुल बदले हुए संदर्भों में ऐसा करती है। सीतामढ़ी के सांप्रदायिक दंगे का जिक्र करती उनकी कविता में ईश्वर निश्चित तौर पर हमारे समय के संदर्भ में हैं। सीतामढ़ी के सामान्य लोगों के सामान्य स्वप्न थे और उनकी इच्छाओं और संघर्षों में ईश्वर कहीं नहीं था।
'फिर भी वे मारे गये
ईश्वर के नाम पर
उनके जलाये गये घर
ईश्वर के नाम पर
ईश्वर जो कभी था ही नहीं
इस दुनिया में
केवल उसके होने को लेकर
क्यों मारे गये लोग''
यहां कविता में उपस्थित सीतामढ़ी भारत का कोई भी शहर हो सकता है और साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाले लोग कहीं भी ईश्वर के नाम पर दंगा करा सकते थे। ईश्वर ही उनके लिये वह माध्यम है जिसका इस्तेमाल वे मनुष्य के विरुध्द करते है, सामान्य जीवन का विध्वंस करते हुए।
'कुछ शब्द थे
जो ईश्वर की शक्ल से
बहुत कुछ मिलते जुलते थे
वे उतने ही घृणित
अपवित्र
और धारदार थे
जितना कि ईश्वर
इस वक्त इन शब्दाें से
सीतामढ़ी क्या
तरबूज की तरह
पूरी दुनिया काटी जा सकती है।'
हिन्दी जगत अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में निहायत ही परंपराग्रस्त रहा है। केवल कुछ लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के होने से यह सिध्द नहीं होता कि सब कुछ क्रान्तिकारी है। परंपरा अभिविन्यस्त होने में सुरक्षा और मान्यता दोनों मिलती रही है। यही कारण है कि धर्म और ईश्वर की पुनरुत्थानी स्वीकृति यहां की संसदीय राजनीति में प्रतिफलित हुई। ऐसे में ईश्वर की सत्ताा को परंपरा के प्रवाह की एक महत्वपूर्ण धारा के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके प्रति शंका, प्रश्न अथवा विद्रोह को परोक्षत: एक पूरी सत्ताा के प्रति होने वाले विद्रोह के रूप में देखा जा सकता है। हिन्दी कविता में इधर उभरते ईश्वर को सिर्फ आज की तात्कालिक सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति से अलग एक विशिष्ट ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मेें देखने पर उसका स्पष्ट अलगाव दिखाई पड़ता है। यह बात भी सच है कि इस प्रतिरोध की अपनी एक परंपरा है, ठीक वैसे ही जैसे कूपमंडूकता और जाहिल परंपरावाद की परंपरा है ही। इसी विवेक से जुड़ी प्राश्निकता की यह ईश निन्दक परंपरा रेखांकित करने योग्य है, भले ही यह धारा अल्पसंख्यक और गौण ही क्यों न हो।
ईश्वर और सत्ताा का प्रश्न हिन्दी कविता में विशिष्ब्ट तौर पर सांप्रदायिकता के सापेक्ष ही सामने आया, मगर वास्तव मेें यह सिर्फ सांप्रदायिकता के उभार भर से जुड़ा एक प्रश्न नहीं। यह उस पूरे अतार्किक के विरुध्द आवाज उठाने की बात है जो तरह-तरह से भारतीय समाज में रचा-बसा है। संस्कृति की अनेकों दैनन्दिन की गतिविधियों में यह अतार्किक विद्यमान रहता है और तमाम महत्वपूर्ण सामाजिक प्रश्नों को पृष्ठभूमि में ढकेलता है।
यदि ईश्वर का प्रत्यय हिन्दी के इन कवियों के लिए सिर्फ एक दार्शनिक प्रत्यय नहीं, तो वह राजनीतिज्ञों के लिए जिस प्रकार एक नीतिगत प्रश्न है वैसा भी नहीं। संसदीय राजनीति में धर्म और ईश्वर के कुटिल प्रयोग होते रहे हैं। सांप्रदायिक दक्षिणपंथी दल उसका सीधा इस्तेमाल अपने राजनीतिक हितो के लिए करते रहे है। यहाँ तक कि टकराव और दंगों के रास्तों को भी नहीं छोड़ा गया। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद प्रकरण और गुजरात के दंगों के उदाहरण स्थूल और स्पष्टत: रेखांकित करने योग्य हैं, जिसका विरोध इस दौर की हिन्दी कविता ने जोरदार ढंग से किया। मगर धर्म निरपेक्ष राजनीति ने ईश्वर और धर्म की स्पष्ट आलोचना से बचने का ही प्रयास किया। यहॉ वोट प्राप्त करने के लिए यह एक मजबूरी थी। इस प्रकार के प्रयोग सभी राजनीतिक दलों नें किये हैं बस थोड़ा अलग अलग ढंग से।इस पगकार के 'हितसाधन' या 'स्वार्थसिध्दि' से समकालीन कवियों को कोई वास्ता नहीं रहा है हाँलांकि ऐसे कवियों की कविताएँ निहायत राजनीतिक रही है। यह तथ्य सीधी संसदीय राजनीति और नागरिक जीवन से जुड़ी राजनीति के फर्क को तो साफ रेखांकित करता ही है। कविता के सरोकार के व्यापकतर घेरे बनते हैं। यही कारण है कि कविता भक्तियुगीन सर्वशक्तिमान ईश्वर से मनुष्ब्श् में व्याप्त ईश्वर तक पहुँचकर रूक नहीं जाती। वह ईश्वर के एक छोटे से औजार के रूप् में परिवर्तित हो जाने के तथ्य कोउजागर करती है। इस अर्थ में समकालीन हिन्दी कविता हमारे हिन्दी समाज में छाये एक आध्यात्मिक रहस्यवाद का विखंडन करती है।
''लोग कहते हैं कि ईश्वर ईश्वर ईश्वर
क्या वह बना सकता है एक ऐसा बड़ा ढोका
जिसे वह दाँत पीसकर स्वयं ही न उठा सके''
Wednesday, October 08, 2008
ईश्वर, सत्ता और कविता 3
ईश्वर, सत्ता और कविता 3
चिन्तन की एक खास अवस्था में ईश्वर के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगने शुरू होते हैं और नास्तिक दर्शन का प्रारंभ होता है। भारत में भगत सिंह के प्रसिध्द लेख '' मैं नास्तिक क्यों हूँ'' से अधिकांश पाठक परिचित होंगे। यह नास्तिकता एक तरह की प्रश्नाकुलता का परिणाम होती है। ऐसी प्रश्नाकुलता जिसके पीछे कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य करती है। एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है तार्किकता की तलाश जो एक वैज्ञानिक दृष्टि का परिणाम होती है। ईश्वर प्रत्यय को लेकर होने वाली तमाम बहसाें के पीछे इसी तार्किकता की तलाश है जो किसी तथ्य को विवके सम्मत और स्वीकृति योग्य बनाता है। आध्यात्म ने सदैव इस प्रकार की तार्किक और परीक्षणधर्मी प्रवृत्ति का विरोध किया है ओर उसे सीमाबध्द बतलाने की चेष्टा की है।
इस प्रकार की प्रश्नाकुलता के चलते ही आर्य समाज एक दौर मेें ईश्वर से जुड़े ढोंगों का विरोध करता था। मगर यह विरोध अन्तत: नये किस्म के आध्यात्म में जाकर निपट गया। फिर भी यह ध्यातव्य है कि नवजागरण के प्रारंभ की यह प्रश्नाकुलता अपना महत्व रखती है जिसके तार्किक तत्व हिन्दी कविता मे तरह-तरह से उभरते है। 'देवी चबूतरा' जैसी कविता आध्यात्म के दैवीय प्रतिफलन पर चोट करती है। देवी चबूतरा पूजा का एक स्थानीय केन्द्र है लेकिन देवी जी अपने चबूतरे पर पेशाब और संभोग करने वाले कुत्ताों को भगाने तक की सामर्थ्य नहीं रखतीं।पंकज चतुर्वेदी आर्यसमाजी कवि नहीं मगर आर्यसमाजी खण्डन-मण्डन का ही यह विस्तार एक आधुनिक प्रगतिशीलता की ओर ले जाता है और ऐसे तत्व हिन्दी की बहुत सी कविताओं में विद्यमान है।
यही प्रश्नाकुलता अपने आधुनिक शिल्प में विडंबनापूर्ण हो जाती है जब शंकाएँ अविश्वास में बदलती हैं और ढोंग का विरोघ करती हैं। संजय चतुर्वेदी की कविता 'पानी में नबूवत' धर्म और ईश्वर की विसंगतिपूर्ण स्थिति को अपने संरचना के एब्सर्ड में प्रस्तुत करती है। यह संजय चतुर्वेदी के प्रारंभिक दौर की कविताओं मेें से एक है जब वे विसंगतियों के बरक्स कविता में उलट-पुलट कर रहे थे। यह कविता इण्डिया टुडे वर्ङ्ढ 1993 की वार्ङ्ढिकी में प्राकाशित हुई थी। बाद में उन्होंने यह शैली त्याग दी ओर आसानी से संप्रेङ्ढित हो सकने वाली कविताएं लिखी। 'पानी मे नबूवत' ईश्वर और धर्म सम्बन्धी सामान्यत: प्रचलित बातों को उलट-पुलट कर उनमें बैठे अतार्किक तत्वों को सामने लाती है। अर्थात विरुपों का विरुपण। कविता अपने अतारतम्य में ईश्वर की उपस्थिति उसकी तथाकथित तारतम्यता का मजाक उड़ाती है और सब कुछ एक झकझकी सा लगता है।
'सृष्टिकर्ता का दूरदर्शन बूंदों से उतरता है घास पर
सताई हुई धरती पर इलहाम बरसता है।''
खुदा को पाने का रास्ता मसखरी है, ईश्वर ने अवतार नहीं लिया मगर उस पर श्रीमद्भगवत् कृपा रही होगी। 'पालक और सृष्टिपालक का समुचित सेवन/दीन और दुनिया दोनों को फिट रखता है'। फिर खुदा के होते हुए धरती पर सभी नेक लोग पीड़ित है और दुष्ट लोग सुखी तो जरूर वह खुदा अखबार नहीं पढ़ता होगा। कवि छोटा मोटा नबी होता है तो उसकी कविता में नबूवत गर्म तवे पर रखी वर्फ से निकलती भाप की तरह होती है। प्रकृति ईश्वर का काव्य है- वगैरह, वगैरह। कविता के लगभग अराजक माहौल में धार्मिक विचारों की अराजकता बेपर्दा होती है और ईश्वर को लेकर फैलायी गयी वैचारिक बाजीगीरी भूलुंठित होती है। संजय चतुर्वेदी की यह जटिल और कम पढ़ी गयी कविता धर्म और ईश्वर से जुड़ी अवधारणाओं को विखण्डित करने वाली है।
चिन्तन की एक खास अवस्था में ईश्वर के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगने शुरू होते हैं और नास्तिक दर्शन का प्रारंभ होता है। भारत में भगत सिंह के प्रसिध्द लेख '' मैं नास्तिक क्यों हूँ'' से अधिकांश पाठक परिचित होंगे। यह नास्तिकता एक तरह की प्रश्नाकुलता का परिणाम होती है। ऐसी प्रश्नाकुलता जिसके पीछे कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य करती है। एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है तार्किकता की तलाश जो एक वैज्ञानिक दृष्टि का परिणाम होती है। ईश्वर प्रत्यय को लेकर होने वाली तमाम बहसाें के पीछे इसी तार्किकता की तलाश है जो किसी तथ्य को विवके सम्मत और स्वीकृति योग्य बनाता है। आध्यात्म ने सदैव इस प्रकार की तार्किक और परीक्षणधर्मी प्रवृत्ति का विरोध किया है ओर उसे सीमाबध्द बतलाने की चेष्टा की है।
इस प्रकार की प्रश्नाकुलता के चलते ही आर्य समाज एक दौर मेें ईश्वर से जुड़े ढोंगों का विरोध करता था। मगर यह विरोध अन्तत: नये किस्म के आध्यात्म में जाकर निपट गया। फिर भी यह ध्यातव्य है कि नवजागरण के प्रारंभ की यह प्रश्नाकुलता अपना महत्व रखती है जिसके तार्किक तत्व हिन्दी कविता मे तरह-तरह से उभरते है। 'देवी चबूतरा' जैसी कविता आध्यात्म के दैवीय प्रतिफलन पर चोट करती है। देवी चबूतरा पूजा का एक स्थानीय केन्द्र है लेकिन देवी जी अपने चबूतरे पर पेशाब और संभोग करने वाले कुत्ताों को भगाने तक की सामर्थ्य नहीं रखतीं।पंकज चतुर्वेदी आर्यसमाजी कवि नहीं मगर आर्यसमाजी खण्डन-मण्डन का ही यह विस्तार एक आधुनिक प्रगतिशीलता की ओर ले जाता है और ऐसे तत्व हिन्दी की बहुत सी कविताओं में विद्यमान है।
यही प्रश्नाकुलता अपने आधुनिक शिल्प में विडंबनापूर्ण हो जाती है जब शंकाएँ अविश्वास में बदलती हैं और ढोंग का विरोघ करती हैं। संजय चतुर्वेदी की कविता 'पानी में नबूवत' धर्म और ईश्वर की विसंगतिपूर्ण स्थिति को अपने संरचना के एब्सर्ड में प्रस्तुत करती है। यह संजय चतुर्वेदी के प्रारंभिक दौर की कविताओं मेें से एक है जब वे विसंगतियों के बरक्स कविता में उलट-पुलट कर रहे थे। यह कविता इण्डिया टुडे वर्ङ्ढ 1993 की वार्ङ्ढिकी में प्राकाशित हुई थी। बाद में उन्होंने यह शैली त्याग दी ओर आसानी से संप्रेङ्ढित हो सकने वाली कविताएं लिखी। 'पानी मे नबूवत' ईश्वर और धर्म सम्बन्धी सामान्यत: प्रचलित बातों को उलट-पुलट कर उनमें बैठे अतार्किक तत्वों को सामने लाती है। अर्थात विरुपों का विरुपण। कविता अपने अतारतम्य में ईश्वर की उपस्थिति उसकी तथाकथित तारतम्यता का मजाक उड़ाती है और सब कुछ एक झकझकी सा लगता है।
'सृष्टिकर्ता का दूरदर्शन बूंदों से उतरता है घास पर
सताई हुई धरती पर इलहाम बरसता है।''
खुदा को पाने का रास्ता मसखरी है, ईश्वर ने अवतार नहीं लिया मगर उस पर श्रीमद्भगवत् कृपा रही होगी। 'पालक और सृष्टिपालक का समुचित सेवन/दीन और दुनिया दोनों को फिट रखता है'। फिर खुदा के होते हुए धरती पर सभी नेक लोग पीड़ित है और दुष्ट लोग सुखी तो जरूर वह खुदा अखबार नहीं पढ़ता होगा। कवि छोटा मोटा नबी होता है तो उसकी कविता में नबूवत गर्म तवे पर रखी वर्फ से निकलती भाप की तरह होती है। प्रकृति ईश्वर का काव्य है- वगैरह, वगैरह। कविता के लगभग अराजक माहौल में धार्मिक विचारों की अराजकता बेपर्दा होती है और ईश्वर को लेकर फैलायी गयी वैचारिक बाजीगीरी भूलुंठित होती है। संजय चतुर्वेदी की यह जटिल और कम पढ़ी गयी कविता धर्म और ईश्वर से जुड़ी अवधारणाओं को विखण्डित करने वाली है।
Tuesday, October 07, 2008
ईश्वर, सत्ता और कविता 2
ईश्वर, सत्ता और कविता 2
ईश्वर और धर्म को लेकर प्रचलित मानववादी दृष्टि का हिन्दी कविता में अभाव नहीं। गांधीवाद के दौर मेें इस व्यापक दृष्टि की राजनीति भी बड़ी व्यापक थी जिसका सैध्दान्तिक प्रतिफलन 'सर्वधर्म समभाव' में देखा गया। धर्म निरपेक्षता का यह व्यापक तौर पर स्वीकृत रूप था और यह रूप उस समय के साहित्य मेंे पर्याप्त दृष्टिगोचर है। सांप्रदायिकता के विरुध्द लड़ने का यह भी एक शस्त्र रहा। अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य के चलते यह एक सकारात्मक विजन भी बना रहा जिसके तहत मनुष्य को ईश्वर में और ईश्वर को मनुष्य में देख पाने की अवधारणा विकसित हुई। यह विजन इतना पुराना है कि इसकी परिपाटी भक्ति युग के सूफी और निर्गुण कवियों तक जायेगी। यदि थोड़ी जबर्दस्ती की जाय तो वेद से भी प्रारंभ किया जा सकता है - अर्थात कविता के प्रारंभ से ही प्रारंभ।
लेकिन इन मानववादी कवियाें की तुलना वैदिक अथवा भक्ति युग के कवियो से करना गलता होगा। ईश्वर की सम्पूर्ण सत्ताा और उसके आगे निरा समर्पित रहने वाला भक्तिभाव इन कवियो में नहीं। न ही यह ईश्वर उनकी कविता का केन्द्रीय विङ्ढय बनता है जैसा कि भक्ति युग के साहित्य में है। नवजागरण पर चल रही सारी खींचा-तानी के बाद भी यह स्वीकार तो करना ही पड़ेगा कि ईश्वर प्रत्यय सम्बन्धी दार्शनिक सोच के मामले में भक्ति कवि, सन्त अगस्ताइन जैसे यूरोपियन मध्ययुगीनों से बहुत आगे नहीं। मगर ये मानवतावादी कवि तो आधुनिकता में पाँव डाले हुए हैं। भक्तियुग की अन्तिम परछायीं हिन्दी साहित्य में निराला की कविता में दिखलायी पड़ती है और वहीं से उससे मुक्त होने का मार्ग भी दृष्टिगोचर होता है। वैसे निराला स्वयं भक्ति के कवि तो कतई नहीं। भक्ति है भी तो छायावाद और आधुनिकता के फार्मे में। अत: इस पूरे विश्लेङ्ढण में निराला से पहले के समय में जाने की जरूरत नहीं महसूस होती।
इस मानववादी दृष्टि की विशेङ्ढता यह है कि इस दार्शनिक अवस्थिति में ईश्वर की सत्ता मनुष्य की सत्ता से जुड़ जाती है। हरिजन, दलित, मजदूर, किसानों में ईश्वर की प्राप्ति इसी अर्थ मे है और रवीन्द्रनाथ टैगोर ऐसी कविताएं लिखने वाले एकमात्र कवि नहीं। ऐसी कविताएं हिन्दी में कम नहीं जिनमें मनुष्य को ईश्वर का रूप बतलाया गया हो और उसकी अवहेलना करके होने वाली ईश्वर भक्ति को पाखण्ड और ढोंग बताया गया हो। ईश्वर की इस मानवीय सत्ता के दर्शन की आवश्यकता हमारे समय में साम्प्रदायिकता के बरक्स बार-बार दिखाई दी और धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों द्वारा बार-बार पीछे जाकर इन कवियों में अपनी परंपरा तलाशने की बेचैनी इसी का प्रतिफलन है। यह देखने की बात है कि टैगोर एक तरफ ईश्वर को सामान्य जनता में तलाशते हैं तो दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता के अंधकार को भाई-भाई के बीच हो रहे अज्ञानतापूर्ण अनुचित संघर्ङ्ढ के रूप में देखते है। ये दोनाें विचार दार्शनिक संस्तर पर नाभिनाल बध्द हैं।
राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद से प्रादुर्भूत साम्प्रदायिक वैमनस्य के दौर मे इस दृष्0श्निV की ओर पुनर्वापसी स्वाभाविक थी। अनिल सिंह अपनी बहुचर्चित कविता 'अयोध्या' में उसे इस प्रकार रखते हैं।
'' मनुष्; रहते हैं इस शहर में
जिनमें रहता है भगवान
और चूंकी भगवान मनुष्; में रहता है
इसलिए वह अल्लाह भी हो सकता है''
फिर मनुष्; और उसका सामान्य नागरिक जीवन ईश्वर से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि-
''इतना ही यथार्थ है यह शहर जितना यह कि
आदमी का कलेजा काटकर उसकी जगह
शिवलिंग रख देने से वह मर जायेगा''
ईश्वर और मनुष्य की सत्ताा का एकाकार होना मानववादी कविता की एक प्रमुख विशेङ्ढता है। यह भी कहा जा सकता है कि इस कविता में मनुष्य ही ईश्वर हो जाता है। आगे चलें तो यह तथ्य सामने आता है कि मनुष्य के तिरस्कार पर ईश्वर और उसकी भक्ति ही निरर्थक हो जाती है। ऐसे में उसके प्रति भक्ति या श्रध्दा का कोई महत्व नहीं। बाह्याडम्बरों पर हुए आक्रमण इसी के चलते हैें। देखें तो ईश्वर और धर्म के प्रति यही सोच भारत मेें धर्मनिरपेक्षता का मूल बनती है और जिसके कुछ तत्व भक्ति युग में प्राप्त होते हैं। मनुष्य के कारण ही तो ईश्यर का अस्तित्व है वगर्ना धर्म का सारा ताना-बाना बेकार है। आध्यात्म के अखण्ड भाव में पूरे विश्व का समा जाना जरूरी है और मनुष्य तो वही है जो मनुष्य के लिए मरे।
इस मानववाद की अभिव्यक्ति हमारे समय की साम्प्रदायिकता विरोधी हिन्दी कविता में तरह-तरह से हुई। नवल शुक्ल स्वयं को ईश्वर से अधिक पाते है क्योंकि ईश्वर युगों में पृथ्वी की सुधि लेते हैं जबकि कवि (मनुष्य) ''किसी भी जगह जनम लेकर'' पूरे ब्रह्माण्ड के बारे में सोचता है और ''अपनी क्षमता से अधिक रहने की कोशिश करता'' है। साम्प्रदायिकता के इस विकट दौर से पहले आने वाले कवि सर्वेश्वर के लिए-
'' इस दुनिया में
आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
न संविधान
इसके नाम पर कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन के भीतर गाड़ी जा सकती है''
केदारनाथ सिंह की कविताओं में ईश्वर का जिक्र एक मुहावरे के रूप में आता है। ऐसा सिर्फ केदारनाथ सिंह की कविता में नहीं अपितु बहुत से अन्य कवियों की भी कविताओं में है। वहां यह 'ईश्वर' एक भाव बोधक शब्द भी है, जो कविता से बाहर जीवन में घनघोर प्रचलन रखता है। इस अर्थ में यह शब्द 'ईश्वर' के दार्शनिक अथवा धार्मिक अर्थ सन्दर्भों से बिल्कुल अलग अस्तित्वमान है। 'हे राम' या 'राम नाम सत्य है' या 'खुदा कसम' जैसे वाक्यांशाें की तरह यह भाङ्ढा में विद्यमान है। यह एक जटिल प्रश्न है कि यह सत्ताा भाङ्ढा के इस प्रकार के स्वतंत्र लगने वाले प्रयोगों मेें किस प्रकार लगातार क्रियाशील करती है? इस लगातार बरकरार भाङ्ढायी तत्व में क्या कहीं दार्शनिक प्रत्ययों को भी वैधता तो नहीं प्राप्त होती? कैन्टरबरी के एनसेल्म ने ईश्वर के अस्तित्वमान होने का प्रमाण देते हुए कहा था कि 'ईश्वर' शब्द का होना ही उसके अस्तित्वमान होने का सबूत है। यह सत्ताा शब्दों के माध्यम से बनी रहती है। मेरे एक उर्दू पढ़ाने वाले मित्र ने बताया था कि किस प्रकार प्रारंभिक कक्षाओं में भाङ्ढा ज्ञान कराते समय ही बच्चों को शब्दों के माध्यम से ईश्वर और धर्म की घुट्टी पिला दी जाती है। लेकिन ईश्वर को गंभीरतापूर्वक न लेने वालों के बीच भी ईश्वर शब्द बना रहता है और प्रयोग से बाहर नहीं होता। यही वजह है कि ईश्वर संबन्धी कविताओं के गहरे अर्थों तक पहुंचने की जरूरत महसूस होती है।
मुहावरे की ही तरह ही ईश्वर के प्रति प्रार्थना के शिल्प में लिखी गयीं कविताएं किस प्रकार प्रार्थना की सीमा से बाहर निकलती है उसका उदाहरण है निराला की वे अन्तिम कविताएं जो सिर्फ प्रार्थनाएं न होकर स्वातंत्रोत्तर भारत की बदलती परिस्थितियाें में एक संवेदनशील कवि के मोहभंग की विशिष्ट कोटि की अभिव्यक्ति है। इस विङ्ढय पर कवि एवं आलोचक केदारनाथ सिंह ने एक बहुत प्रभावशाली लेख लिखा है। निराला अपनी इन कविताओं में ईश्वर के संदर्भ को अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर सूक्ष्म राजनीतिक अर्थ प्रदान करते हैैं।
'जय तुम्हारी देख भी ली
रूप की गुण की, सुरीली।
वृध्द हूँ मैं, ऋध्दि की क्या,
साधना की, सिध्दि की क्या?
खिल चुका है फूल मेरा,
पखड़ियाँ हो गयीं ढीली।
चढ़ी थी जो ऑंख मेरी,
बज रही थी जहाँ भेरी,
वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है,
बढ़ रही है रेख नीली।
आग सारी फुक चुकी है,
रागिनी वह रुक चुकी है,
याद करता हुआ जीवन,
जीर्ण जर्जर आज तीली।'
यही प्रार्थना का सबवर्जिव काव्य प्रारूप किस प्रकार ईश्वर के प्रति नकारात्मक रुख अख्तियार करता है यह यदि देखना हो तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'ईश्वर' पर लिखित कविता देखने योग्य होगी। 'गर्म हवाएं' संग्रह में आयी यह कविता ऐसी अन्य कविताओं से घिरी है जो कवि के अपने व्यक्तिगत दु:खों, सामाजिक मोहभंग और व्यथित चुनावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। संग्रह 'धीरे-धीरे' जैसी राजनीतिक कविता से प्रारंभ होता है जिसमें सर्वेश्वर एक 'क्रांतियात्रा' को 'शवयात्रा' में बदलते हुए देखते हैं। पत्नी की मृत्यु पर लिखी गयी एक अत्यन्त ही भावपूर्ण कविता के बाद आती है प्रार्थना कविताओं की ऋृंखला जिनमें कवि ईश्वर से शक्ति नहीं मांगता (प्रार्थना-1) 'दुर्गम पथ' मांगता है जिस पर उसके 'थके चरण' हों (प्रार्थना-2), अपनी सीमाओं का ध्यान और दुर्बलताओं का अभियान मांगता है (प्रार्थना-3)। पर अपनी कविता 'प्रार्थना-4' में वह ईश्वर का लगभग निङ्ढेध करता है।
'यही प्रार्थना है प्रभु तुमसे
जब हारा हूं तब न आइये।'
कवि अपने शौर्य की तो सराहना चाहता है, मगर वह ईश्वर के चरणों में नहीं गिरना चाहता। वह जानता है कि संसार में दु:ख की ऑंखें बहुत बड़ी है और उसके एक अश्रु की आयु के सामने कल्पचक्र अस्वीकार्य है। और इन प्रार्थनाओं के बाद आती है कविता 'ईश्वर'। सर्वेश्वर की यह कविता निश्चित रूप से दु:ख से भीगी हुई है। व्यक्तिगत दु:ख और मोहभंग से घिरी हुई यह कविता ईश्वर को एक ठोस रूप में प्रस्तुत करती है जो एक व्यापारी या बॉस की तरह 'बहुत लम्बी जेबों वाला कोट' पहनकर आता है और कवि की माँ, पिता, पत्नी और बच्चे को खिलौनों की तरह जेब में रखकर चला जाता है। कवि के लिए दुनियाँ छोड़ जाता है, जिसमें उसे बहलाने के लिए और बहुत से खिलौने हैं। आगे कवि लिखता है,
'मैंने सुना है
उसने कहीं खोल रखी है
खिलौनो की दूकान,
अभागे के पास
कितनी जरा सी पूँजी है
रोजगार चलाने के लिए।'
एक खिलौने के व्यापारी के रूप में ईश्वर का अवमूल्यन उसे हास्यास्पद बना देता है। ईश्वर की इतनी ठोस उपस्थिति सिर्फ उसके लम्बे कोट की वजह से बन पड़ी है, जो प्रभु की इमेज को इस कविता में सुनिश्चित करता है। यह सर्वेश्वर की प्रार्थना श्रृंखला की कविताओं में उपस्थित पारंपरिक प्रार्थनाभाव की बची-खुची संभावनाओं को भी ध्वस्त कर देता है और उनमें निहित दूसरे प्रतिरोधी भावों को आलोकित करता है। यह प्रश्न भी उठता है कि वह जो कुछ भी है- ईश्वर है भी या कोई और। सर्वेश्वर की ये कविताएं उस अस्पष्ट भूमि पर खड़ी है, जहाँ ईश्वर सत्ता का प्रतीक बनता दिखाई देता है। ईश्वर की सत्ता के प्रति प्रार्थना के ही शिल्प में व्यंगाात्मक सूक्ष्म कटाक्ष भरे प्रयोग किस प्रकार प्रभावपूर्ण हो सकते हैं इसका एक उदाहरण है शमशेर बहादुर सिेह की द्वारा भजन के शिल्प में प्रस्तुत यह कविता:
हरि मोरी आड़, हरि ही मोरी आड़॥
हरि मोरी झाँकी, हरि ही केंवाड़॥
हरि जमुना-मंथन मोरे, हरि ही
थाम्हे दुख के पहाड़॥
हरि संग ज्ञान-ध्यान मोहे मधुऋतु
हरि बिन सकल उजाड़॥
मज्जा-भेद बसे हरि अंतर
हरि संबल मोरे हाड़॥
जग बाड़व में जनम-जनम लौं
झोंक्यों कितने भाड़॥
तब आयो समसेरु मुकति को
परलौ मास असाढ़॥
हरि मोरी आड़, हरि ही मोरी आड़॥
सांप्रदायिक उन्माद के भीषण दौर से पूर्वं, अर्थात 1990 से पहले के समय की समकालीन हिन्दी कविता में ईश्वर की उपस्थिति की तुलना मेें बाद की कविताओं में उसकी उपस्थिति काबिले गौर है। स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताओं मे ईश्वर की उपस्थिति एक वैचाारिक द्वंद्व का परिणाम है। 'ईश्वर एक लाठी है' कविता इस अर्थ में ध्यातव्य है। यहां कवि अपने पिता जैसे बूढे लोगाें के लिए ईश्वर के निहितार्थ को समझने की कोशिश करता है। इस कविता में यदि पिता के ईश्वर में विश्वास के प्रति सहानुभूति है तो उस विश्वास की व्यर्थता का भी एहसास है। ईश्वर पिता के लिए एक ऐसी लाठी है जिसे वे अक्सर तान देते है। उन्होंने इस लाठी को जिन्दगी भर मजबूत रखने की कोशिश की है, मगर उन्हें लाठी में घुन के चालने की आवाज सुनायी देती है। अपनी जीवन भर की आस्था के बाद भी वे यह नहीं जान सके हैं कि ईश्वर आखिर किस कोठ की लाठी है। स्वप्निल श्रीवास्तव की इस कविता के तमाम निहितार्थ निकलते हैं, विशेषरूप से इस कारण कि कवि के काव्यानुशासन में कविता के अर्थ एक दिशा में चलते हुए भी विभिन्न संस्तरों पर खुलते है। एक आस्तिक पिता के द्वंद को यह बखूबी रेखांकित करने वाली कविता है जिसके लिए ईश्वर एक ऐसा सहारा है जो कमजोर होता जा रहा है, मगर जिसे त्याग पाना उसके तर्क स्वभाव में कहीं दूर-दूर तक नहीं।
ईश्वर और धर्म को लेकर प्रचलित मानववादी दृष्टि का हिन्दी कविता में अभाव नहीं। गांधीवाद के दौर मेें इस व्यापक दृष्टि की राजनीति भी बड़ी व्यापक थी जिसका सैध्दान्तिक प्रतिफलन 'सर्वधर्म समभाव' में देखा गया। धर्म निरपेक्षता का यह व्यापक तौर पर स्वीकृत रूप था और यह रूप उस समय के साहित्य मेंे पर्याप्त दृष्टिगोचर है। सांप्रदायिकता के विरुध्द लड़ने का यह भी एक शस्त्र रहा। अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य के चलते यह एक सकारात्मक विजन भी बना रहा जिसके तहत मनुष्य को ईश्वर में और ईश्वर को मनुष्य में देख पाने की अवधारणा विकसित हुई। यह विजन इतना पुराना है कि इसकी परिपाटी भक्ति युग के सूफी और निर्गुण कवियों तक जायेगी। यदि थोड़ी जबर्दस्ती की जाय तो वेद से भी प्रारंभ किया जा सकता है - अर्थात कविता के प्रारंभ से ही प्रारंभ।
लेकिन इन मानववादी कवियाें की तुलना वैदिक अथवा भक्ति युग के कवियो से करना गलता होगा। ईश्वर की सम्पूर्ण सत्ताा और उसके आगे निरा समर्पित रहने वाला भक्तिभाव इन कवियो में नहीं। न ही यह ईश्वर उनकी कविता का केन्द्रीय विङ्ढय बनता है जैसा कि भक्ति युग के साहित्य में है। नवजागरण पर चल रही सारी खींचा-तानी के बाद भी यह स्वीकार तो करना ही पड़ेगा कि ईश्वर प्रत्यय सम्बन्धी दार्शनिक सोच के मामले में भक्ति कवि, सन्त अगस्ताइन जैसे यूरोपियन मध्ययुगीनों से बहुत आगे नहीं। मगर ये मानवतावादी कवि तो आधुनिकता में पाँव डाले हुए हैं। भक्तियुग की अन्तिम परछायीं हिन्दी साहित्य में निराला की कविता में दिखलायी पड़ती है और वहीं से उससे मुक्त होने का मार्ग भी दृष्टिगोचर होता है। वैसे निराला स्वयं भक्ति के कवि तो कतई नहीं। भक्ति है भी तो छायावाद और आधुनिकता के फार्मे में। अत: इस पूरे विश्लेङ्ढण में निराला से पहले के समय में जाने की जरूरत नहीं महसूस होती।
इस मानववादी दृष्टि की विशेङ्ढता यह है कि इस दार्शनिक अवस्थिति में ईश्वर की सत्ता मनुष्य की सत्ता से जुड़ जाती है। हरिजन, दलित, मजदूर, किसानों में ईश्वर की प्राप्ति इसी अर्थ मे है और रवीन्द्रनाथ टैगोर ऐसी कविताएं लिखने वाले एकमात्र कवि नहीं। ऐसी कविताएं हिन्दी में कम नहीं जिनमें मनुष्य को ईश्वर का रूप बतलाया गया हो और उसकी अवहेलना करके होने वाली ईश्वर भक्ति को पाखण्ड और ढोंग बताया गया हो। ईश्वर की इस मानवीय सत्ता के दर्शन की आवश्यकता हमारे समय में साम्प्रदायिकता के बरक्स बार-बार दिखाई दी और धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों द्वारा बार-बार पीछे जाकर इन कवियों में अपनी परंपरा तलाशने की बेचैनी इसी का प्रतिफलन है। यह देखने की बात है कि टैगोर एक तरफ ईश्वर को सामान्य जनता में तलाशते हैं तो दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता के अंधकार को भाई-भाई के बीच हो रहे अज्ञानतापूर्ण अनुचित संघर्ङ्ढ के रूप में देखते है। ये दोनाें विचार दार्शनिक संस्तर पर नाभिनाल बध्द हैं।
राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद से प्रादुर्भूत साम्प्रदायिक वैमनस्य के दौर मे इस दृष्0श्निV की ओर पुनर्वापसी स्वाभाविक थी। अनिल सिंह अपनी बहुचर्चित कविता 'अयोध्या' में उसे इस प्रकार रखते हैं।
'' मनुष्; रहते हैं इस शहर में
जिनमें रहता है भगवान
और चूंकी भगवान मनुष्; में रहता है
इसलिए वह अल्लाह भी हो सकता है''
फिर मनुष्; और उसका सामान्य नागरिक जीवन ईश्वर से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि-
''इतना ही यथार्थ है यह शहर जितना यह कि
आदमी का कलेजा काटकर उसकी जगह
शिवलिंग रख देने से वह मर जायेगा''
ईश्वर और मनुष्य की सत्ताा का एकाकार होना मानववादी कविता की एक प्रमुख विशेङ्ढता है। यह भी कहा जा सकता है कि इस कविता में मनुष्य ही ईश्वर हो जाता है। आगे चलें तो यह तथ्य सामने आता है कि मनुष्य के तिरस्कार पर ईश्वर और उसकी भक्ति ही निरर्थक हो जाती है। ऐसे में उसके प्रति भक्ति या श्रध्दा का कोई महत्व नहीं। बाह्याडम्बरों पर हुए आक्रमण इसी के चलते हैें। देखें तो ईश्वर और धर्म के प्रति यही सोच भारत मेें धर्मनिरपेक्षता का मूल बनती है और जिसके कुछ तत्व भक्ति युग में प्राप्त होते हैं। मनुष्य के कारण ही तो ईश्यर का अस्तित्व है वगर्ना धर्म का सारा ताना-बाना बेकार है। आध्यात्म के अखण्ड भाव में पूरे विश्व का समा जाना जरूरी है और मनुष्य तो वही है जो मनुष्य के लिए मरे।
इस मानववाद की अभिव्यक्ति हमारे समय की साम्प्रदायिकता विरोधी हिन्दी कविता में तरह-तरह से हुई। नवल शुक्ल स्वयं को ईश्वर से अधिक पाते है क्योंकि ईश्वर युगों में पृथ्वी की सुधि लेते हैं जबकि कवि (मनुष्य) ''किसी भी जगह जनम लेकर'' पूरे ब्रह्माण्ड के बारे में सोचता है और ''अपनी क्षमता से अधिक रहने की कोशिश करता'' है। साम्प्रदायिकता के इस विकट दौर से पहले आने वाले कवि सर्वेश्वर के लिए-
'' इस दुनिया में
आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
न संविधान
इसके नाम पर कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन के भीतर गाड़ी जा सकती है''
केदारनाथ सिंह की कविताओं में ईश्वर का जिक्र एक मुहावरे के रूप में आता है। ऐसा सिर्फ केदारनाथ सिंह की कविता में नहीं अपितु बहुत से अन्य कवियों की भी कविताओं में है। वहां यह 'ईश्वर' एक भाव बोधक शब्द भी है, जो कविता से बाहर जीवन में घनघोर प्रचलन रखता है। इस अर्थ में यह शब्द 'ईश्वर' के दार्शनिक अथवा धार्मिक अर्थ सन्दर्भों से बिल्कुल अलग अस्तित्वमान है। 'हे राम' या 'राम नाम सत्य है' या 'खुदा कसम' जैसे वाक्यांशाें की तरह यह भाङ्ढा में विद्यमान है। यह एक जटिल प्रश्न है कि यह सत्ताा भाङ्ढा के इस प्रकार के स्वतंत्र लगने वाले प्रयोगों मेें किस प्रकार लगातार क्रियाशील करती है? इस लगातार बरकरार भाङ्ढायी तत्व में क्या कहीं दार्शनिक प्रत्ययों को भी वैधता तो नहीं प्राप्त होती? कैन्टरबरी के एनसेल्म ने ईश्वर के अस्तित्वमान होने का प्रमाण देते हुए कहा था कि 'ईश्वर' शब्द का होना ही उसके अस्तित्वमान होने का सबूत है। यह सत्ताा शब्दों के माध्यम से बनी रहती है। मेरे एक उर्दू पढ़ाने वाले मित्र ने बताया था कि किस प्रकार प्रारंभिक कक्षाओं में भाङ्ढा ज्ञान कराते समय ही बच्चों को शब्दों के माध्यम से ईश्वर और धर्म की घुट्टी पिला दी जाती है। लेकिन ईश्वर को गंभीरतापूर्वक न लेने वालों के बीच भी ईश्वर शब्द बना रहता है और प्रयोग से बाहर नहीं होता। यही वजह है कि ईश्वर संबन्धी कविताओं के गहरे अर्थों तक पहुंचने की जरूरत महसूस होती है।
मुहावरे की ही तरह ही ईश्वर के प्रति प्रार्थना के शिल्प में लिखी गयीं कविताएं किस प्रकार प्रार्थना की सीमा से बाहर निकलती है उसका उदाहरण है निराला की वे अन्तिम कविताएं जो सिर्फ प्रार्थनाएं न होकर स्वातंत्रोत्तर भारत की बदलती परिस्थितियाें में एक संवेदनशील कवि के मोहभंग की विशिष्ट कोटि की अभिव्यक्ति है। इस विङ्ढय पर कवि एवं आलोचक केदारनाथ सिंह ने एक बहुत प्रभावशाली लेख लिखा है। निराला अपनी इन कविताओं में ईश्वर के संदर्भ को अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर सूक्ष्म राजनीतिक अर्थ प्रदान करते हैैं।
'जय तुम्हारी देख भी ली
रूप की गुण की, सुरीली।
वृध्द हूँ मैं, ऋध्दि की क्या,
साधना की, सिध्दि की क्या?
खिल चुका है फूल मेरा,
पखड़ियाँ हो गयीं ढीली।
चढ़ी थी जो ऑंख मेरी,
बज रही थी जहाँ भेरी,
वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है,
बढ़ रही है रेख नीली।
आग सारी फुक चुकी है,
रागिनी वह रुक चुकी है,
याद करता हुआ जीवन,
जीर्ण जर्जर आज तीली।'
यही प्रार्थना का सबवर्जिव काव्य प्रारूप किस प्रकार ईश्वर के प्रति नकारात्मक रुख अख्तियार करता है यह यदि देखना हो तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'ईश्वर' पर लिखित कविता देखने योग्य होगी। 'गर्म हवाएं' संग्रह में आयी यह कविता ऐसी अन्य कविताओं से घिरी है जो कवि के अपने व्यक्तिगत दु:खों, सामाजिक मोहभंग और व्यथित चुनावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। संग्रह 'धीरे-धीरे' जैसी राजनीतिक कविता से प्रारंभ होता है जिसमें सर्वेश्वर एक 'क्रांतियात्रा' को 'शवयात्रा' में बदलते हुए देखते हैं। पत्नी की मृत्यु पर लिखी गयी एक अत्यन्त ही भावपूर्ण कविता के बाद आती है प्रार्थना कविताओं की ऋृंखला जिनमें कवि ईश्वर से शक्ति नहीं मांगता (प्रार्थना-1) 'दुर्गम पथ' मांगता है जिस पर उसके 'थके चरण' हों (प्रार्थना-2), अपनी सीमाओं का ध्यान और दुर्बलताओं का अभियान मांगता है (प्रार्थना-3)। पर अपनी कविता 'प्रार्थना-4' में वह ईश्वर का लगभग निङ्ढेध करता है।
'यही प्रार्थना है प्रभु तुमसे
जब हारा हूं तब न आइये।'
कवि अपने शौर्य की तो सराहना चाहता है, मगर वह ईश्वर के चरणों में नहीं गिरना चाहता। वह जानता है कि संसार में दु:ख की ऑंखें बहुत बड़ी है और उसके एक अश्रु की आयु के सामने कल्पचक्र अस्वीकार्य है। और इन प्रार्थनाओं के बाद आती है कविता 'ईश्वर'। सर्वेश्वर की यह कविता निश्चित रूप से दु:ख से भीगी हुई है। व्यक्तिगत दु:ख और मोहभंग से घिरी हुई यह कविता ईश्वर को एक ठोस रूप में प्रस्तुत करती है जो एक व्यापारी या बॉस की तरह 'बहुत लम्बी जेबों वाला कोट' पहनकर आता है और कवि की माँ, पिता, पत्नी और बच्चे को खिलौनों की तरह जेब में रखकर चला जाता है। कवि के लिए दुनियाँ छोड़ जाता है, जिसमें उसे बहलाने के लिए और बहुत से खिलौने हैं। आगे कवि लिखता है,
'मैंने सुना है
उसने कहीं खोल रखी है
खिलौनो की दूकान,
अभागे के पास
कितनी जरा सी पूँजी है
रोजगार चलाने के लिए।'
एक खिलौने के व्यापारी के रूप में ईश्वर का अवमूल्यन उसे हास्यास्पद बना देता है। ईश्वर की इतनी ठोस उपस्थिति सिर्फ उसके लम्बे कोट की वजह से बन पड़ी है, जो प्रभु की इमेज को इस कविता में सुनिश्चित करता है। यह सर्वेश्वर की प्रार्थना श्रृंखला की कविताओं में उपस्थित पारंपरिक प्रार्थनाभाव की बची-खुची संभावनाओं को भी ध्वस्त कर देता है और उनमें निहित दूसरे प्रतिरोधी भावों को आलोकित करता है। यह प्रश्न भी उठता है कि वह जो कुछ भी है- ईश्वर है भी या कोई और। सर्वेश्वर की ये कविताएं उस अस्पष्ट भूमि पर खड़ी है, जहाँ ईश्वर सत्ता का प्रतीक बनता दिखाई देता है। ईश्वर की सत्ता के प्रति प्रार्थना के ही शिल्प में व्यंगाात्मक सूक्ष्म कटाक्ष भरे प्रयोग किस प्रकार प्रभावपूर्ण हो सकते हैं इसका एक उदाहरण है शमशेर बहादुर सिेह की द्वारा भजन के शिल्प में प्रस्तुत यह कविता:
हरि मोरी आड़, हरि ही मोरी आड़॥
हरि मोरी झाँकी, हरि ही केंवाड़॥
हरि जमुना-मंथन मोरे, हरि ही
थाम्हे दुख के पहाड़॥
हरि संग ज्ञान-ध्यान मोहे मधुऋतु
हरि बिन सकल उजाड़॥
मज्जा-भेद बसे हरि अंतर
हरि संबल मोरे हाड़॥
जग बाड़व में जनम-जनम लौं
झोंक्यों कितने भाड़॥
तब आयो समसेरु मुकति को
परलौ मास असाढ़॥
हरि मोरी आड़, हरि ही मोरी आड़॥
सांप्रदायिक उन्माद के भीषण दौर से पूर्वं, अर्थात 1990 से पहले के समय की समकालीन हिन्दी कविता में ईश्वर की उपस्थिति की तुलना मेें बाद की कविताओं में उसकी उपस्थिति काबिले गौर है। स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताओं मे ईश्वर की उपस्थिति एक वैचाारिक द्वंद्व का परिणाम है। 'ईश्वर एक लाठी है' कविता इस अर्थ में ध्यातव्य है। यहां कवि अपने पिता जैसे बूढे लोगाें के लिए ईश्वर के निहितार्थ को समझने की कोशिश करता है। इस कविता में यदि पिता के ईश्वर में विश्वास के प्रति सहानुभूति है तो उस विश्वास की व्यर्थता का भी एहसास है। ईश्वर पिता के लिए एक ऐसी लाठी है जिसे वे अक्सर तान देते है। उन्होंने इस लाठी को जिन्दगी भर मजबूत रखने की कोशिश की है, मगर उन्हें लाठी में घुन के चालने की आवाज सुनायी देती है। अपनी जीवन भर की आस्था के बाद भी वे यह नहीं जान सके हैं कि ईश्वर आखिर किस कोठ की लाठी है। स्वप्निल श्रीवास्तव की इस कविता के तमाम निहितार्थ निकलते हैं, विशेषरूप से इस कारण कि कवि के काव्यानुशासन में कविता के अर्थ एक दिशा में चलते हुए भी विभिन्न संस्तरों पर खुलते है। एक आस्तिक पिता के द्वंद को यह बखूबी रेखांकित करने वाली कविता है जिसके लिए ईश्वर एक ऐसा सहारा है जो कमजोर होता जा रहा है, मगर जिसे त्याग पाना उसके तर्क स्वभाव में कहीं दूर-दूर तक नहीं।
ईश्वर, सत्ता और कविता (1)
ईश्वर, सत्ता और कविता
(1)
आपातकाल के पश्चात्, प्र्रकाशित हुए अपने कविता संग्रह 'हजार हजार बाहों वाली' में जनकवि नागार्जुन की एक कविता थी 'कल्पना के पुत्र हे भगवान'। अपने शीर्ङ्ढक को सार्थक करती हुई यह कविता ईश्वर के अस्तित्व पर लिखी गयी उस कालखंड की एक महत्वपूर्ण कविता थी। कल्पनाजनित ईश्वर को संबोधित करती यह कविता कुछ इस प्रकार प्रारम्भ होती है-
''कल्पना के पुत्र हे भगवान
चाहिए मुझको नहीं वरदान
दे सको तो दो मुझे अभिशाप
प्रिय मुझे है जलन प्रिय संताप
चाहिए मुझको नहीं यह शान्ति
चाहिए संदेह उलझन भ्रांति''
आस्था के स्थान पर संदेह की माँग करती यह कविता बेहद चुनौतीपूर्ण है। संग्रह में दिये गये विवरण के अनुसार इस कविता का रचना समय 1946 है। उस समय के पारंपरिक समाज को देखते हुए यह तथ्य इस कविता के ऐतिहासिक महत्व को और बढ़ा देता है। पारंपरिक तौर पर ईश्वर से होने वाली आस्था की माँग के बरक्स अनास्था की मॉग करने वाली यह कविता एक प्रकार का वैचारिक साहस थी। बरबस ध्यान खींच लेने वाली बाबा की यह कविता या तो आश्चर्य मिश्रित उत्साह के साथ पढ़ी गयी या फिर भयाक्रांत निन्दाभाव से। वह दौर हमारे आज के अभी-अभी गुजरे फासीवादी दौर के दु:स्वप्न से बिल्कुल अलग था, वगर्ना संघी भाई लाठी लेकर नागार्जुन को खोजते और बाबा अपनी खास मुद्रा में कोई अटपटा सा उत्तर देते। फासीवादियों को केवल गर्मी और उत्तेजना से मतलब होता है, जिसे वे विचार के लोहे में ढालकर हथियार के तौर पर जनता में ट्रांसफर कर अपना उल्लू सीधा करते है। उन्हें कविता अथवा किसी भी कला के अर्थ, भाव या अभिव्यक्ति की सूक्ष्मताओं से कुछ खास लेना देना नहीं होता। यदि ऐसा न होता तो वे बर्बर दंगाइयों में क्यों तब्दील होते और पिछले तीस वङ्र्ढों का भारतीय इतिहास आदमीयत के खून से सराबोर न होता।
इस कविता के सिलसिले में ध्यान देने वाली बात यह है कि इसे कविता के पेशेवर पाठकों तक ने उस सूक्ष्मता में नहीं देखा जिस सूक्ष्मता मेें यह कविता अपने पाठ की अपेक्षा रखती है। इसे नागार्जुन की 'प्रतिबध्द हॅू' या फिर 'प्रतिहिंसा स्थायीभाव है' वाली सीधी कविताओं की ही तरह देखा गया। नागार्जुन की यह कविता अपनी अभिधा में ईश्वर को सम्बोधित है जिसको वह स्वयं कल्पना का पुत्र बतलाती है। जिसके अस्तित्व पर ही शंका है या जिसके न होने पर पूरा विश्वास है, उसे संबोधित करने का औचित्य सिध्द करना थोड़ा विचित्र लगेगा। इस कविता के निहितार्थ को कविता की बाद की पंक्तियों में तलाशने पर ही कविता के वास्तविक मंतव्य से मिला जा सकेगा और वह भी कविता के व्यंग्यार्थ में। कविता में 'निन्दा' और 'पाप' करने का जी खोल अभिशाप माँगा गया है। जो सुनिश्चित तौर पर किसी नैतिक वरदान की अभिलाङ्ढा रखने वालों के लिए अच्छा खासा धक्का साबित होगा, पर कविता का वास्तविक केन्द्र वह स्थान है जहांॅ कवि पारंपरिक तौर पर ईश्वर के सामने कान पकड़कर नाक नहीं रगड़ना चाहता।
''बाप-दादों की तरह रगडू न मैं निज नाक
मंदिर की देहली पर पकड़ दोनों कान''
यह साफ है कि यहाँ ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता से इन्कार है। नागार्जुन की यह कविता सिर्फ कल्पना सृजित ईश्वर के दार्शनिक विरोध तक ही सीमित नहीं अपितु ईश्वर की अवधारणा से जुड़ी तमाम परंपरागत और अविवेकी बातों का भी प्रतिकार थी जिन्हें आस्था, धर्म और नैतिकता के नाम पर लादा या स्वीकार किया जाता रहा है। ये सभी बातें हमारे समय के मनुष्य को उसकी वास्तविक समस्याओं से दूर ले जाती हैं,
'सड़ गमी है ऑंत
दिखाए जा रहे है दांत''
नागार्जुन समाज में धर्म और ईश्वर के नाम पर पैदा किये जाने वाले भय का प्रतिकार करते है। इस धर्मभीरुता अथवा पारंपरिक कायरता के प्रतिवाद के संदर्भ मे वे धर्म के वर्चस्व को नहीं स्वीकार करते। वे धर्म के इस प्रतिगामी पक्ष की ओर संकेत करते है, जब वे लिखते है कि 'छोड़कर प्रासाद खोजूं खोह/कह रहा है पूर्वजों का मोह'।
इस प्रतिकार भाव को ध्यान में रखें तो यह कविता हिन्दी साहित्य में अपना ऐतिहासिक महत्व रखती है। नागार्जुन की कविता के सामान्य पाठक को भी यह बात अवश्य आकर्ङ्ढित करती है कि वहां व्यर्थ के आध्यात्म के लिए स्पेस लगभग नहीं है। अपने सारे प्रकार-प्रकार के सर्जनात्मक मुद्रा-मुखौटों के उपरांत भी नागार्जुन की कविता विवेक सम्मतता की ही विजय का धर्मनिरपेक्ष उद्धोङ्ढ है। यहां मैं धर्मनिरपेक्षता को महज ईश्वर विरोध तक सीमित करने का कोई उपक्रम नहीं कर रहा। धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित तौर पर एक अधिक व्यापक प्रत्यय है। इतनी व्यापक कि इतिहास के प्रवाह में वह धर्म से लेकर विज्ञान तक में विकसित होती दिखायी दे। यहाँ मैं उस अवस्थिति की चर्चा कर रहा हूं, जो इधर लिखी गयी हिन्दी कविता का एक महत्वपूर्ण पक्ष है और जहां से एक पूरे कालखंड में लिखी गयी ढेर सारी कविताओं का निर्वचन संभव है।
अपनी दूसरी कविता 'थकित-चकित-भ्रमित-भग्नमन' में वे ईश्वर को एक सहारे के रूप में भी स्वीकार करने से इन्कार करते हैं। यद्यपि वे जानते है कि बहुतों के लिए ईश्वर जैसे 'समर्थ' का सहारा स्फूर्ति देता है। फिर वृध्दावस्था के डूबते के लिए तो तिनके का सहारा ही बहुत होता है। वृध्दावस्था में बहुत से प्रगतिशील तार्किकजन ईश्वर को स्वीकार कर लेते हैं, क्योकि बुढ़ापे के कमजोर तन-मन को आस्था का कोई आश्रय चाहिए होता है। इसके अतिरिक्त फिर सुविधा के भी तो अपने तर्क होते ही होते हैं जो मनुष्य को ललचाते हैं।
'सुख-सुविधा और ऐश-आराम के साधन
डाल देते हैं दरार प्रखर नास्तिकता की भीत मेें
बड़ा ही मादक होता है, 'यथास्थिति' का शहद
बड़ी ही मीठी होती है 'गतानुगतिकता' की संजीवनी'
नागार्जुन की यह कविता अपने अंतिम पड़ाव में स्वयं से और अपने जैसे तमाम तार्किकों से यह प्रश्न करती है कि क्या जीवन के अंतिम दौर में उन्हें किसी धार्मिक मठ की शरण लेनी पड़ेगी? इस प्रश्न की भाङ्ढायी नकार और व्यंग में नागार्जुन अपनी स्पष्ट अवस्थिति और दृढ़ निश्चय की ओर ही संकेत करते है।
' तो क्या मुझे भी बुढ़ापे में 'पुष्टई' के लिए
वापस नहीं जाना है किसी मठ के अन्दर '
यह एक रोचक प्रश्न हो सकता है कि क्या नागार्जुन अपनी इस कविता में निराला की अन्तिम कविताओं की ओर संकेत कर रहे हैं जिनमें निराला ईश्वर के प्रति प्रार्थनाभाव की कविताएं लिखते हैं। संभवत: यह नागार्जुन का संकेत नहीं, लेकिन हिन्दी के कई आलोचकाें ने निराला के इस अन्तिम दौर के भागवतवाद पर टिप्पणियाँ की हैं। लेकिन निराला के अन्तिम दौर की प्रार्थनापरक कविताएं इस तरह सरलीकृत नहीं हैं और उनकी जटिलता में निराला के जीवन, उनके नैराश्य, पत्नी प्रेम, मृत्यु छाया और उनका अपना समय परोक्ष पढ़ा जा सकता है। यहां प्रार्थना महज आस्था की अभिव्यक्ति नहीं एक रचना प्रविधि भी है।
नागार्जुन की इस कविता के सापेक्ष हिन्दी की उस पहली दलित कविता का जिक्र जरूरी लगता है जिसमें ईश्वर को 'भगवनवा' कहा गया है, अथवा निराला के उस लघु उपन्यास का जिक्र जिसका नायक ईश्वर पर लाठी चला देता हैं। मगर ये दोनाें ही कृतियाँ नागार्जुन की इस कविता से थोड़ा अलग हैं। हिन्दी की प्रसिध्द ऐतिहासिक महत्व की पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशित और यहां संदर्भित हीरा डोम की कविता अपने वक्तव्यों में पात्र अथवा कवि की विवशता और शिकायत को व्यक्त करती है जो अपनी जीवन स्थितियों से तंग है। यहां वर्ण व्यवस्था के प्रति आक्रोश पढ़ा जा सकता है । लेकिन देखें तो वास्तव में वही मुख्य बात है और ऐसा होना भी चाहिए, क्याेंंकि वर्ण व्यवस्था के प्रति यह आक्रोश ही उसे उद्वेलित कर ईश्वर की ओर ले जाता है और उसकी लानत-मलामत तक उतारता है। मगर वर्ण व्यवस्था की परिधि से बाहर खड़ा यह डोम ईश्वर की सत्ता से इन्कार नहीं करता। यहां ईश्वर के प्रति निङ्ढेध नहीं अपितु एक विडम्बना पूर्ण और विवश धिक्कार है। महाप्राण निराला की उपन्यासिका में यह प्रतिकिया दूसरे प्रकार की है। मगर दोनों जगह ईश्वर के प्रत्यय को सत्ता से प्रछन्नत: जोड़ा गया है- छल-छद्म और वर्ण व्यवस्था की सत्ताा। हीरा डोम की कविता में तो ईश्वर वर्ण व्यवस्था का पोङ्ढक लगता है। यहां चूकि संदर्भ कविता का है इसलिए निराला की उपन्यासिका का जिक्र छोड़ना पडेग़ा। इस लेख में हिन्दी कविता में ईश्वर के प्रत्यय का प्रयोग निराला के बाद के कवियों ने किस प्रकार किया है और उसके क्या व्यापक निहितार्थ हैं, यही मूल चर्चा का विङ्ढय है। इस प्रश्न के मौजू होने के ऐतिहासिक कारण हैं जो हिन्दी कविता के किसी भी सतर्क पाठक से छिपे नहीं है।
हमारे समय में धर्म का सांप्रदायिक और मनुष्य विरोधी स्वरूप काफी स्पष्ट हो गया है। बीसवीं शताब्दि के आखिरी दशकों से लेकर यदि नयी शताब्दी के प्रारंभिक वङ्र्ढो तक को ध्यान मे रखें तो धर्म को लेकर हुए उत्पातों में जितने निर्दोङ्ढ लोग मारे गये उतने किसी भी प्राकृतिक आपदा अथवा अन्य किसी मानवीय त्रासदी मेें नहीं मारे गये। यह सांप्रदायिकता विभिन्न प्रकार से उभरी और हिन्दू साम्प्रदायिकता का नग्न नृत्य इसका चरमोत्कर्ङ्ढ है। पंजाब के सिख आतंकवाद, कश्मीर के मुस्लिम आतंकवाद और हिन्दू सांप्रदायिकता की आग में अपनी जान खो देने वाले निर्दोङ्ढ लोगों की संख्या का आंकड़ा रख पाना कठिन है। सिर्फ एक गुजरात के दंगों में 6000 से अधिक लोगो के मारे जाने के आंकड़े है। यह संख्या कम अथवा अधिक हो सकती है और यह बहस का मुद्दा नहीं। मुद्दा यह है कि मनुष्य को सदाचार और मानवीयता का पाठ पढ़ाने का दावा करने वाला धर्म आज राजनीतिज्ञों द्वारा किस प्रकार इस्तेमाल हो रहा है और धर्म तधा ईश्वर के ठेकेदार किस प्रकार इस अमानवीय कृत्य में लिप्त हैं और किस प्रकार इसे अपना मुद्दा बनाये हुए है। धर्म की राजनीति करने वाले लोग हत्याओं तर्क तलाशने में जुटे हुए है। स्वयं को सहिष्णु बताने वाले धर्मो के इस प्रकार सामने आने वाले हिंसक रूप किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए चिन्ता का विषय होंगें।
'किसी धर्मस्थल के
विवाद में
तीन हजार लोग बम से
दो हजार गोली से
और पाँच सौ
जलाकर मार डाले जाते हैं
चार सौ महिलाओं की
इज्ज़त लूटी जाती है
और तीन सौ शिशुओं को
बलि का बकरा बनाया जाता है
धर्म में
सहिष्णुता का
प्रतिशत ज्ञात कीजिए'
-अष्टभुजा शुक्ल
इस प्रकार की परिस्थितियाें में हिन्दी कविता में ईश्वर के प्रति विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं दिखलाई देती हैं। यह ईश्वर ही वह दार्शनिक प्रत्यय है जिसके इर्द-गिर्द धर्म का तानाबाना बुना हुआ है। यही वह दार्शनिक केंन्द्र है जिसके चारो ओर फैला प्रपंच धर्म के नाम पर होने वाली तमाम अमानवीय गतिविधियों को वैधता प्रदान करता है। एक प्रकार से यह सांप्रदायिकता को भी वैधता प्रदान करने वाला आधार है जिसकी जन्मभूमि के विवाद को राजनीतिक सीढ़ी बनाकर भाजपा के लिए केंद्र की सत्ता पर आसीन होना संभव हुआ। यह महज एक इत्तिाफाक नहीं कि ऐसे समय में ऋतुराज अपना संग्रह 'लीला मुखारविंद' उन नास्तिकों को समर्पित करते हैं जो ईश्वर अथवा धर्म में विश्वास नहीं करते मगर जो मनुष्यता के सुखद और बेहतर भविष्य के लिए संघष्र् ारत हैं, 'जो बिना निराश हुए अपने विवेक की दृढ़ता मेंं साहसपूर्वक संघष्र् ारत है। मानव जाति का सुखमय भविष्य ही जिनका परलोक है।' वैसे भी देखे तो इधर धर्म ओर नस्ल के नाम पर पूरी दुनिया में इतने दंगे और खून खराबे हुए हैं कि नीत्शे का यह वाक्य प्रासंगिक लगता है, ' ईश्वर मर चुका है और मैंने उसे दफन होते हुए देखा है.' ऋतुराज की तरह हर संवेदनशील और विवेकवान व्यक्ति इस साम्प्रदायिक उन्माद और उसके फासीवादी विस्तार के दौर में ईश्वर प्रत्यय और उससे जुड़े धर्म के हत्यारे प्रयोगों को प्रश्न के घेरे मेें रख सकता है। यदि इस दौर का सांप्रदायिक अमानवीय धर्म ही बचा है, तो इस धर्म के रास्ते पर न चलना ही वास्तविक धर्म होगा।
(1)
आपातकाल के पश्चात्, प्र्रकाशित हुए अपने कविता संग्रह 'हजार हजार बाहों वाली' में जनकवि नागार्जुन की एक कविता थी 'कल्पना के पुत्र हे भगवान'। अपने शीर्ङ्ढक को सार्थक करती हुई यह कविता ईश्वर के अस्तित्व पर लिखी गयी उस कालखंड की एक महत्वपूर्ण कविता थी। कल्पनाजनित ईश्वर को संबोधित करती यह कविता कुछ इस प्रकार प्रारम्भ होती है-
''कल्पना के पुत्र हे भगवान
चाहिए मुझको नहीं वरदान
दे सको तो दो मुझे अभिशाप
प्रिय मुझे है जलन प्रिय संताप
चाहिए मुझको नहीं यह शान्ति
चाहिए संदेह उलझन भ्रांति''
आस्था के स्थान पर संदेह की माँग करती यह कविता बेहद चुनौतीपूर्ण है। संग्रह में दिये गये विवरण के अनुसार इस कविता का रचना समय 1946 है। उस समय के पारंपरिक समाज को देखते हुए यह तथ्य इस कविता के ऐतिहासिक महत्व को और बढ़ा देता है। पारंपरिक तौर पर ईश्वर से होने वाली आस्था की माँग के बरक्स अनास्था की मॉग करने वाली यह कविता एक प्रकार का वैचारिक साहस थी। बरबस ध्यान खींच लेने वाली बाबा की यह कविता या तो आश्चर्य मिश्रित उत्साह के साथ पढ़ी गयी या फिर भयाक्रांत निन्दाभाव से। वह दौर हमारे आज के अभी-अभी गुजरे फासीवादी दौर के दु:स्वप्न से बिल्कुल अलग था, वगर्ना संघी भाई लाठी लेकर नागार्जुन को खोजते और बाबा अपनी खास मुद्रा में कोई अटपटा सा उत्तर देते। फासीवादियों को केवल गर्मी और उत्तेजना से मतलब होता है, जिसे वे विचार के लोहे में ढालकर हथियार के तौर पर जनता में ट्रांसफर कर अपना उल्लू सीधा करते है। उन्हें कविता अथवा किसी भी कला के अर्थ, भाव या अभिव्यक्ति की सूक्ष्मताओं से कुछ खास लेना देना नहीं होता। यदि ऐसा न होता तो वे बर्बर दंगाइयों में क्यों तब्दील होते और पिछले तीस वङ्र्ढों का भारतीय इतिहास आदमीयत के खून से सराबोर न होता।
इस कविता के सिलसिले में ध्यान देने वाली बात यह है कि इसे कविता के पेशेवर पाठकों तक ने उस सूक्ष्मता में नहीं देखा जिस सूक्ष्मता मेें यह कविता अपने पाठ की अपेक्षा रखती है। इसे नागार्जुन की 'प्रतिबध्द हॅू' या फिर 'प्रतिहिंसा स्थायीभाव है' वाली सीधी कविताओं की ही तरह देखा गया। नागार्जुन की यह कविता अपनी अभिधा में ईश्वर को सम्बोधित है जिसको वह स्वयं कल्पना का पुत्र बतलाती है। जिसके अस्तित्व पर ही शंका है या जिसके न होने पर पूरा विश्वास है, उसे संबोधित करने का औचित्य सिध्द करना थोड़ा विचित्र लगेगा। इस कविता के निहितार्थ को कविता की बाद की पंक्तियों में तलाशने पर ही कविता के वास्तविक मंतव्य से मिला जा सकेगा और वह भी कविता के व्यंग्यार्थ में। कविता में 'निन्दा' और 'पाप' करने का जी खोल अभिशाप माँगा गया है। जो सुनिश्चित तौर पर किसी नैतिक वरदान की अभिलाङ्ढा रखने वालों के लिए अच्छा खासा धक्का साबित होगा, पर कविता का वास्तविक केन्द्र वह स्थान है जहांॅ कवि पारंपरिक तौर पर ईश्वर के सामने कान पकड़कर नाक नहीं रगड़ना चाहता।
''बाप-दादों की तरह रगडू न मैं निज नाक
मंदिर की देहली पर पकड़ दोनों कान''
यह साफ है कि यहाँ ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता से इन्कार है। नागार्जुन की यह कविता सिर्फ कल्पना सृजित ईश्वर के दार्शनिक विरोध तक ही सीमित नहीं अपितु ईश्वर की अवधारणा से जुड़ी तमाम परंपरागत और अविवेकी बातों का भी प्रतिकार थी जिन्हें आस्था, धर्म और नैतिकता के नाम पर लादा या स्वीकार किया जाता रहा है। ये सभी बातें हमारे समय के मनुष्य को उसकी वास्तविक समस्याओं से दूर ले जाती हैं,
'सड़ गमी है ऑंत
दिखाए जा रहे है दांत''
नागार्जुन समाज में धर्म और ईश्वर के नाम पर पैदा किये जाने वाले भय का प्रतिकार करते है। इस धर्मभीरुता अथवा पारंपरिक कायरता के प्रतिवाद के संदर्भ मे वे धर्म के वर्चस्व को नहीं स्वीकार करते। वे धर्म के इस प्रतिगामी पक्ष की ओर संकेत करते है, जब वे लिखते है कि 'छोड़कर प्रासाद खोजूं खोह/कह रहा है पूर्वजों का मोह'।
इस प्रतिकार भाव को ध्यान में रखें तो यह कविता हिन्दी साहित्य में अपना ऐतिहासिक महत्व रखती है। नागार्जुन की कविता के सामान्य पाठक को भी यह बात अवश्य आकर्ङ्ढित करती है कि वहां व्यर्थ के आध्यात्म के लिए स्पेस लगभग नहीं है। अपने सारे प्रकार-प्रकार के सर्जनात्मक मुद्रा-मुखौटों के उपरांत भी नागार्जुन की कविता विवेक सम्मतता की ही विजय का धर्मनिरपेक्ष उद्धोङ्ढ है। यहां मैं धर्मनिरपेक्षता को महज ईश्वर विरोध तक सीमित करने का कोई उपक्रम नहीं कर रहा। धर्मनिरपेक्षता सुनिश्चित तौर पर एक अधिक व्यापक प्रत्यय है। इतनी व्यापक कि इतिहास के प्रवाह में वह धर्म से लेकर विज्ञान तक में विकसित होती दिखायी दे। यहाँ मैं उस अवस्थिति की चर्चा कर रहा हूं, जो इधर लिखी गयी हिन्दी कविता का एक महत्वपूर्ण पक्ष है और जहां से एक पूरे कालखंड में लिखी गयी ढेर सारी कविताओं का निर्वचन संभव है।
अपनी दूसरी कविता 'थकित-चकित-भ्रमित-भग्नमन' में वे ईश्वर को एक सहारे के रूप में भी स्वीकार करने से इन्कार करते हैं। यद्यपि वे जानते है कि बहुतों के लिए ईश्वर जैसे 'समर्थ' का सहारा स्फूर्ति देता है। फिर वृध्दावस्था के डूबते के लिए तो तिनके का सहारा ही बहुत होता है। वृध्दावस्था में बहुत से प्रगतिशील तार्किकजन ईश्वर को स्वीकार कर लेते हैं, क्योकि बुढ़ापे के कमजोर तन-मन को आस्था का कोई आश्रय चाहिए होता है। इसके अतिरिक्त फिर सुविधा के भी तो अपने तर्क होते ही होते हैं जो मनुष्य को ललचाते हैं।
'सुख-सुविधा और ऐश-आराम के साधन
डाल देते हैं दरार प्रखर नास्तिकता की भीत मेें
बड़ा ही मादक होता है, 'यथास्थिति' का शहद
बड़ी ही मीठी होती है 'गतानुगतिकता' की संजीवनी'
नागार्जुन की यह कविता अपने अंतिम पड़ाव में स्वयं से और अपने जैसे तमाम तार्किकों से यह प्रश्न करती है कि क्या जीवन के अंतिम दौर में उन्हें किसी धार्मिक मठ की शरण लेनी पड़ेगी? इस प्रश्न की भाङ्ढायी नकार और व्यंग में नागार्जुन अपनी स्पष्ट अवस्थिति और दृढ़ निश्चय की ओर ही संकेत करते है।
' तो क्या मुझे भी बुढ़ापे में 'पुष्टई' के लिए
वापस नहीं जाना है किसी मठ के अन्दर '
यह एक रोचक प्रश्न हो सकता है कि क्या नागार्जुन अपनी इस कविता में निराला की अन्तिम कविताओं की ओर संकेत कर रहे हैं जिनमें निराला ईश्वर के प्रति प्रार्थनाभाव की कविताएं लिखते हैं। संभवत: यह नागार्जुन का संकेत नहीं, लेकिन हिन्दी के कई आलोचकाें ने निराला के इस अन्तिम दौर के भागवतवाद पर टिप्पणियाँ की हैं। लेकिन निराला के अन्तिम दौर की प्रार्थनापरक कविताएं इस तरह सरलीकृत नहीं हैं और उनकी जटिलता में निराला के जीवन, उनके नैराश्य, पत्नी प्रेम, मृत्यु छाया और उनका अपना समय परोक्ष पढ़ा जा सकता है। यहां प्रार्थना महज आस्था की अभिव्यक्ति नहीं एक रचना प्रविधि भी है।
नागार्जुन की इस कविता के सापेक्ष हिन्दी की उस पहली दलित कविता का जिक्र जरूरी लगता है जिसमें ईश्वर को 'भगवनवा' कहा गया है, अथवा निराला के उस लघु उपन्यास का जिक्र जिसका नायक ईश्वर पर लाठी चला देता हैं। मगर ये दोनाें ही कृतियाँ नागार्जुन की इस कविता से थोड़ा अलग हैं। हिन्दी की प्रसिध्द ऐतिहासिक महत्व की पत्रिका 'सरस्वती' में प्रकाशित और यहां संदर्भित हीरा डोम की कविता अपने वक्तव्यों में पात्र अथवा कवि की विवशता और शिकायत को व्यक्त करती है जो अपनी जीवन स्थितियों से तंग है। यहां वर्ण व्यवस्था के प्रति आक्रोश पढ़ा जा सकता है । लेकिन देखें तो वास्तव में वही मुख्य बात है और ऐसा होना भी चाहिए, क्याेंंकि वर्ण व्यवस्था के प्रति यह आक्रोश ही उसे उद्वेलित कर ईश्वर की ओर ले जाता है और उसकी लानत-मलामत तक उतारता है। मगर वर्ण व्यवस्था की परिधि से बाहर खड़ा यह डोम ईश्वर की सत्ता से इन्कार नहीं करता। यहां ईश्वर के प्रति निङ्ढेध नहीं अपितु एक विडम्बना पूर्ण और विवश धिक्कार है। महाप्राण निराला की उपन्यासिका में यह प्रतिकिया दूसरे प्रकार की है। मगर दोनों जगह ईश्वर के प्रत्यय को सत्ता से प्रछन्नत: जोड़ा गया है- छल-छद्म और वर्ण व्यवस्था की सत्ताा। हीरा डोम की कविता में तो ईश्वर वर्ण व्यवस्था का पोङ्ढक लगता है। यहां चूकि संदर्भ कविता का है इसलिए निराला की उपन्यासिका का जिक्र छोड़ना पडेग़ा। इस लेख में हिन्दी कविता में ईश्वर के प्रत्यय का प्रयोग निराला के बाद के कवियों ने किस प्रकार किया है और उसके क्या व्यापक निहितार्थ हैं, यही मूल चर्चा का विङ्ढय है। इस प्रश्न के मौजू होने के ऐतिहासिक कारण हैं जो हिन्दी कविता के किसी भी सतर्क पाठक से छिपे नहीं है।
हमारे समय में धर्म का सांप्रदायिक और मनुष्य विरोधी स्वरूप काफी स्पष्ट हो गया है। बीसवीं शताब्दि के आखिरी दशकों से लेकर यदि नयी शताब्दी के प्रारंभिक वङ्र्ढो तक को ध्यान मे रखें तो धर्म को लेकर हुए उत्पातों में जितने निर्दोङ्ढ लोग मारे गये उतने किसी भी प्राकृतिक आपदा अथवा अन्य किसी मानवीय त्रासदी मेें नहीं मारे गये। यह सांप्रदायिकता विभिन्न प्रकार से उभरी और हिन्दू साम्प्रदायिकता का नग्न नृत्य इसका चरमोत्कर्ङ्ढ है। पंजाब के सिख आतंकवाद, कश्मीर के मुस्लिम आतंकवाद और हिन्दू सांप्रदायिकता की आग में अपनी जान खो देने वाले निर्दोङ्ढ लोगों की संख्या का आंकड़ा रख पाना कठिन है। सिर्फ एक गुजरात के दंगों में 6000 से अधिक लोगो के मारे जाने के आंकड़े है। यह संख्या कम अथवा अधिक हो सकती है और यह बहस का मुद्दा नहीं। मुद्दा यह है कि मनुष्य को सदाचार और मानवीयता का पाठ पढ़ाने का दावा करने वाला धर्म आज राजनीतिज्ञों द्वारा किस प्रकार इस्तेमाल हो रहा है और धर्म तधा ईश्वर के ठेकेदार किस प्रकार इस अमानवीय कृत्य में लिप्त हैं और किस प्रकार इसे अपना मुद्दा बनाये हुए है। धर्म की राजनीति करने वाले लोग हत्याओं तर्क तलाशने में जुटे हुए है। स्वयं को सहिष्णु बताने वाले धर्मो के इस प्रकार सामने आने वाले हिंसक रूप किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए चिन्ता का विषय होंगें।
'किसी धर्मस्थल के
विवाद में
तीन हजार लोग बम से
दो हजार गोली से
और पाँच सौ
जलाकर मार डाले जाते हैं
चार सौ महिलाओं की
इज्ज़त लूटी जाती है
और तीन सौ शिशुओं को
बलि का बकरा बनाया जाता है
धर्म में
सहिष्णुता का
प्रतिशत ज्ञात कीजिए'
-अष्टभुजा शुक्ल
इस प्रकार की परिस्थितियाें में हिन्दी कविता में ईश्वर के प्रति विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं दिखलाई देती हैं। यह ईश्वर ही वह दार्शनिक प्रत्यय है जिसके इर्द-गिर्द धर्म का तानाबाना बुना हुआ है। यही वह दार्शनिक केंन्द्र है जिसके चारो ओर फैला प्रपंच धर्म के नाम पर होने वाली तमाम अमानवीय गतिविधियों को वैधता प्रदान करता है। एक प्रकार से यह सांप्रदायिकता को भी वैधता प्रदान करने वाला आधार है जिसकी जन्मभूमि के विवाद को राजनीतिक सीढ़ी बनाकर भाजपा के लिए केंद्र की सत्ता पर आसीन होना संभव हुआ। यह महज एक इत्तिाफाक नहीं कि ऐसे समय में ऋतुराज अपना संग्रह 'लीला मुखारविंद' उन नास्तिकों को समर्पित करते हैं जो ईश्वर अथवा धर्म में विश्वास नहीं करते मगर जो मनुष्यता के सुखद और बेहतर भविष्य के लिए संघष्र् ारत हैं, 'जो बिना निराश हुए अपने विवेक की दृढ़ता मेंं साहसपूर्वक संघष्र् ारत है। मानव जाति का सुखमय भविष्य ही जिनका परलोक है।' वैसे भी देखे तो इधर धर्म ओर नस्ल के नाम पर पूरी दुनिया में इतने दंगे और खून खराबे हुए हैं कि नीत्शे का यह वाक्य प्रासंगिक लगता है, ' ईश्वर मर चुका है और मैंने उसे दफन होते हुए देखा है.' ऋतुराज की तरह हर संवेदनशील और विवेकवान व्यक्ति इस साम्प्रदायिक उन्माद और उसके फासीवादी विस्तार के दौर में ईश्वर प्रत्यय और उससे जुड़े धर्म के हत्यारे प्रयोगों को प्रश्न के घेरे मेें रख सकता है। यदि इस दौर का सांप्रदायिक अमानवीय धर्म ही बचा है, तो इस धर्म के रास्ते पर न चलना ही वास्तविक धर्म होगा।
Sunday, July 20, 2008
कविता
हम मॉंझी हुए फटी नाव के
प्रेमशंकर मिश्र
धूप के हुए न हुए छझांव के
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
चलना फिरना हंसना बोलना
किस्त किस्त क़रजो की वापसी
इनकी उनकी पीली नीली बातें
ऑंच चढ़े उड़ जाती भाप सी
ऐसे में कैसे कोई पंक्षी पर साधे
छिन पछुवा, छिन पछियांव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
खेतों से कटना, बोझा बनना
दाने दाने की मजबूरी
रेह देह लहरों का आमंत्रण
बान बिंधी घायल कस्तूरी
बूंद बूंद रिस चुके बनमोहन
गंध के हुए न हुए भाव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
गलती फसलें, चटके ताल हैं
अंधा सूखा, बहरी बाढ़
लूले को काम कुऑं खोदना
लंगड़े को लांधना पहाड़
धुएं धुएं धोखे के घनपॉंखी
शहर के हुए न हुए गॉंव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
आओ रुकें क्षण दम लें
इतना ज्यादा है थोड़ा कम लें
पिंजरे की मैना से कुछ सीखें
खुशियॉं बॉंटें सारा गम लें
सििद्धहीन मंत्रों से क्या हासिल
अर्थ के हुए न हुए भाव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के
प्रेमशंकर मिश्र
धूप के हुए न हुए छझांव के
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
चलना फिरना हंसना बोलना
किस्त किस्त क़रजो की वापसी
इनकी उनकी पीली नीली बातें
ऑंच चढ़े उड़ जाती भाप सी
ऐसे में कैसे कोई पंक्षी पर साधे
छिन पछुवा, छिन पछियांव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
खेतों से कटना, बोझा बनना
दाने दाने की मजबूरी
रेह देह लहरों का आमंत्रण
बान बिंधी घायल कस्तूरी
बूंद बूंद रिस चुके बनमोहन
गंध के हुए न हुए भाव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
गलती फसलें, चटके ताल हैं
अंधा सूखा, बहरी बाढ़
लूले को काम कुऑं खोदना
लंगड़े को लांधना पहाड़
धुएं धुएं धोखे के घनपॉंखी
शहर के हुए न हुए गॉंव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
आओ रुकें क्षण दम लें
इतना ज्यादा है थोड़ा कम लें
पिंजरे की मैना से कुछ सीखें
खुशियॉं बॉंटें सारा गम लें
सििद्धहीन मंत्रों से क्या हासिल
अर्थ के हुए न हुए भाव के।
हम मॉंझी हुए फटी नाव के।
पं. प्रेमशंकर मिश्र का अवसान
पं. प्रेमशंकर मिश्र का अवसान
डॉ. रमाशंकर तिवारी त्रिभुवन ट्रस्ट
10, गंधमादन, लक्ष्मणपुरी फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
शोक प्रस्ताव
कल 16.07.2008 की रात हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण कवि और संस्कृतिकमी पं. प्रेमशंकर मिश्र जी का 83 वषZ की अवस्था में फैज़ाबाद के जिला चिकित्सालय में एक सप्ताह की बीमारी के बाद निधन हो गया। पं. प्रेमशंकर मिश्र को कविता अपने पिता द्विजेष जी से परम्परा में प्राप्त हुई थी। प्रारिम्भक दौर की पारम्परिक कविताओं के बाद वे नयी कविता और नवगीत आन्दोलनों से जुड़े और पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसिद्ध नवगीतकार शंभुनाथ सिंह ने मिश्र जी की कविताओं को अपने नवगीत संकलन नवगीत अर्धशती में स्थान देकर आपके महत्व को दषZया था। जीवन के अन्तिम दिनों तक वे कविता और संस्कृति के प्रति समर्पित रहे। सामान्य जीवन के सुखों और दुखों को अभिव्यक्ति देने वाली प्रेमशंकर मिश्र जी की कविता में साहित्य की कई परम्पराएं एक साथ चलती दिखायी देती हैं। पं. मिश्र जी के निधन से कविता की इन धाराओं की गंभीर क्षति हुई है।
संस्कृतिक परिवेश के निर्माण के उद्देश के प्रति समर्पित पं. प्रेमशंकर मिश्र जी की संस्था सम्पर्क ने फैजाबाद में साहित्य और संस्कृति से जुड़ी कई पीढ़ियों के लिए आगे बढ़ने का आधार निर्मित किया। अपनी संवादधमी प्रकृति के चलते वे विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े लोगों से विचार-विमष करते रहे। मनोविनोद की उनकी जीवन्त प्रवृत्ति ने साहित्यजगत में ही नहीं वरन् सामान्य जीवन में भी उन्हें लोकप्रिय बनाया। फैज़ाबाद के साहित्य और संस्कृति जगत में उनका अविस्मरणीय योगदान सदा याद किया जायेगा।
वे डॉ. रमाशंकर तिवारी त्रिभुवन ट्रस्ट के प्रारिम्भक सदस्यों में से थे। उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान के साहित्य भूषण सम्मान मिलने के अवसर पर ट्रस्ट ने भी उन्हें सम्मानित किया था। कुछ समय पूर्व ट्रस्ट के तत्वावधान में पं. प्रेमशंकर मिश्र जी का एकल काव्यपाठ आयोजित किया गया था जिसे सहित्य प्रेमियों ने बहुत सराहा था। शोकाकुल मन से हमें यह कहना पड़ रहा है कि उनके अवसान से ट्रस्ट ने अपना अतिमहत्वपूर्ण और विशष्सनीय सहयोगी खो दिया है। यह हमारे लिए एक अपूरणीय क्षति है। पं. प्रेमशंकर मिश्र जी की स्मृतियॉं हमारे लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत रहेंगी।
रघुवंश मणि
साहित्य सचिव
डॉ. रमाशंकर तिवारी त्रिभुवन ट्रस्ट
10, गंधमादन, लक्ष्मणपुरी फैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
शोक प्रस्ताव
कल 16.07.2008 की रात हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण कवि और संस्कृतिकमी पं. प्रेमशंकर मिश्र जी का 83 वषZ की अवस्था में फैज़ाबाद के जिला चिकित्सालय में एक सप्ताह की बीमारी के बाद निधन हो गया। पं. प्रेमशंकर मिश्र को कविता अपने पिता द्विजेष जी से परम्परा में प्राप्त हुई थी। प्रारिम्भक दौर की पारम्परिक कविताओं के बाद वे नयी कविता और नवगीत आन्दोलनों से जुड़े और पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसिद्ध नवगीतकार शंभुनाथ सिंह ने मिश्र जी की कविताओं को अपने नवगीत संकलन नवगीत अर्धशती में स्थान देकर आपके महत्व को दषZया था। जीवन के अन्तिम दिनों तक वे कविता और संस्कृति के प्रति समर्पित रहे। सामान्य जीवन के सुखों और दुखों को अभिव्यक्ति देने वाली प्रेमशंकर मिश्र जी की कविता में साहित्य की कई परम्पराएं एक साथ चलती दिखायी देती हैं। पं. मिश्र जी के निधन से कविता की इन धाराओं की गंभीर क्षति हुई है।
संस्कृतिक परिवेश के निर्माण के उद्देश के प्रति समर्पित पं. प्रेमशंकर मिश्र जी की संस्था सम्पर्क ने फैजाबाद में साहित्य और संस्कृति से जुड़ी कई पीढ़ियों के लिए आगे बढ़ने का आधार निर्मित किया। अपनी संवादधमी प्रकृति के चलते वे विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े लोगों से विचार-विमष करते रहे। मनोविनोद की उनकी जीवन्त प्रवृत्ति ने साहित्यजगत में ही नहीं वरन् सामान्य जीवन में भी उन्हें लोकप्रिय बनाया। फैज़ाबाद के साहित्य और संस्कृति जगत में उनका अविस्मरणीय योगदान सदा याद किया जायेगा।
वे डॉ. रमाशंकर तिवारी त्रिभुवन ट्रस्ट के प्रारिम्भक सदस्यों में से थे। उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान के साहित्य भूषण सम्मान मिलने के अवसर पर ट्रस्ट ने भी उन्हें सम्मानित किया था। कुछ समय पूर्व ट्रस्ट के तत्वावधान में पं. प्रेमशंकर मिश्र जी का एकल काव्यपाठ आयोजित किया गया था जिसे सहित्य प्रेमियों ने बहुत सराहा था। शोकाकुल मन से हमें यह कहना पड़ रहा है कि उनके अवसान से ट्रस्ट ने अपना अतिमहत्वपूर्ण और विशष्सनीय सहयोगी खो दिया है। यह हमारे लिए एक अपूरणीय क्षति है। पं. प्रेमशंकर मिश्र जी की स्मृतियॉं हमारे लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत रहेंगी।
रघुवंश मणि
साहित्य सचिव
Sunday, April 06, 2008
लेखक और प्रकाशक
लेखक और प्रकाशक
हिन्दी जगत में लेखक और प्रकाशक के बीच बनते बिगड़ते सम्बन्धों पर अक्सर अनौपचारिक चर्चाएँ होती रही हैं। बातचीत के दौरान लेखकगण पारिश्रमिक कम मिलने या न मिलने की शिकायत करते रहे हैं। इसके विपरीत प्रकाशक पुस्तकों के न बिकने का रोना रोते रहते हैं। वे यह दलील देते रहे हैं कि पुस्तकें बिकतीं ही नहीं हैं अत: पारिश्रमिक वे दें भी तो कैसे? इधर रायल्टी के मुद्दे पर गगन गिल और महाश्वेतादेवी के वक्तव्यों को लेकर लेखकों और प्रकाशकों के बीच के सम्बन्ध पुन: बहस में आ गये हैं। इस प्रकरण को किसी एक हिन्दी प्रकाशक से जोड़कर देखने के बजाय हिन्दी जगत की सामान्य समस्या के रूप में देखा ताना चाहिए। मेरे विचार से प्रकाशकों की ओर से इस विषय पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करने की जरूरत है।
साहित्य के समुचित विकास के लिए लेखकों और प्रकाशकों के बीच सकारात्मक सम्बन्ध होना जरूरी है। साहित्य जगत में प्रकाशन एक व्यवसाय है, मगर यह अन्य व्यवसायों से थोड़ा अलग होना चाहिए क्योंकि साहित्य स्वयं में आदर्शों की वकालत करता है। यदि आदर्श शब्द थोड़ा पुरातनपंथी लगे तो मूल्य की बात की जा सकती है। जीवन मूल्यों के संवाहक साहित्य के प्रकाशकों में लेखकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है।
यह विचित्र सी बात है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी के प्रकाशक बेहतर पारिश्रमिक देते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि अंग्रेजी पुस्तकों का व्यापार अधिक लम्बा-चौड़ा है जिसके चलते वे अच्छा पारिश्रमिक दे लेते हैं। लेकिन यह कोई बहुत मतलब का तर्क नहीं क्योंकि हिन्दी पुस्तकों की खरीद कोई कम नहीं। पुस्तकालयों और सरकारी खरीद ही काफी होती है। अंग्रेजी प्रकाशकों के यहाँ पुस्तक प्रकाशन के समय जहाँ सारी बातें लिखित तौर पर होती हैं वहाँ हिन्दी में अधिकांशत: यह सारा कार्यकलाप मौखिक और आश्वासनधर्मी होता है। एक अंग्रेजी के लेखक ने बताया कि वह पहले हिन्दी में ही लिखता था लेकिन प्रकाशकों का रवैया ऐसा था कि उसने अंग्रेजी में लिखना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वहाँ पैसा ही नहीं सम्मान भी अधिक है।
डॉ मैनेजर पाण्डेय ने एक बार कहा था कि हिन्दी के प्रकाशक वस्तुत: हिन्दी के अन्धकारक हैं। कारण यह कि वे बिक्री के लिए पाठकों पर बहुत निर्भर नहीं करते। इधर वितरण की एक ऐसी व्यवस्था विकसित हुई है जिसमें पाठक आनुसंगिक महत्व का रह गया है। पाठक के महत्व के घटने के साथ-साथ लेखक का महत्व भी घट गया है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक भारी सांस्कृतिक समस्या है जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी है। प्रकाशक यह समझता है कि जब सब काम वही कर रहा है तो फिर लेखक को पैसे क्यों दिये जाँय।
हिन्दी के एक लेखक ने जब अपने प्रकाशक से रायल्टी का हिसाब माँगा तो उसने उत्तर में लिखा कि यदि लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तकों की सभी प्रतियाँ खरीद ले तो वह रायल्टी दे देगा। यह बेहद अपमानजनक उत्तर था जो किसी भी तरह से उचित नहीं। रायल्टी के लफड़े से तंग आकर बहुत से हिन्दी लेखक अब 'लंप सम' मांगते हैं क्योंकि पुस्तकों की बिक्री का कुछ भी पता लगा पाना लेखक के लिए संभव नहीं होता।
सवाल यह है कि जिन लेखकों को प्रकाशकगण छापते हैं, उनके अधिकारों और सम्मान का ख्याल रखना क्या उनका भी धर्म नहीं है?
हिन्दी जगत में लेखक और प्रकाशक के बीच बनते बिगड़ते सम्बन्धों पर अक्सर अनौपचारिक चर्चाएँ होती रही हैं। बातचीत के दौरान लेखकगण पारिश्रमिक कम मिलने या न मिलने की शिकायत करते रहे हैं। इसके विपरीत प्रकाशक पुस्तकों के न बिकने का रोना रोते रहते हैं। वे यह दलील देते रहे हैं कि पुस्तकें बिकतीं ही नहीं हैं अत: पारिश्रमिक वे दें भी तो कैसे? इधर रायल्टी के मुद्दे पर गगन गिल और महाश्वेतादेवी के वक्तव्यों को लेकर लेखकों और प्रकाशकों के बीच के सम्बन्ध पुन: बहस में आ गये हैं। इस प्रकरण को किसी एक हिन्दी प्रकाशक से जोड़कर देखने के बजाय हिन्दी जगत की सामान्य समस्या के रूप में देखा ताना चाहिए। मेरे विचार से प्रकाशकों की ओर से इस विषय पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करने की जरूरत है।
साहित्य के समुचित विकास के लिए लेखकों और प्रकाशकों के बीच सकारात्मक सम्बन्ध होना जरूरी है। साहित्य जगत में प्रकाशन एक व्यवसाय है, मगर यह अन्य व्यवसायों से थोड़ा अलग होना चाहिए क्योंकि साहित्य स्वयं में आदर्शों की वकालत करता है। यदि आदर्श शब्द थोड़ा पुरातनपंथी लगे तो मूल्य की बात की जा सकती है। जीवन मूल्यों के संवाहक साहित्य के प्रकाशकों में लेखकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है।
यह विचित्र सी बात है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी के प्रकाशक बेहतर पारिश्रमिक देते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि अंग्रेजी पुस्तकों का व्यापार अधिक लम्बा-चौड़ा है जिसके चलते वे अच्छा पारिश्रमिक दे लेते हैं। लेकिन यह कोई बहुत मतलब का तर्क नहीं क्योंकि हिन्दी पुस्तकों की खरीद कोई कम नहीं। पुस्तकालयों और सरकारी खरीद ही काफी होती है। अंग्रेजी प्रकाशकों के यहाँ पुस्तक प्रकाशन के समय जहाँ सारी बातें लिखित तौर पर होती हैं वहाँ हिन्दी में अधिकांशत: यह सारा कार्यकलाप मौखिक और आश्वासनधर्मी होता है। एक अंग्रेजी के लेखक ने बताया कि वह पहले हिन्दी में ही लिखता था लेकिन प्रकाशकों का रवैया ऐसा था कि उसने अंग्रेजी में लिखना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वहाँ पैसा ही नहीं सम्मान भी अधिक है।
डॉ मैनेजर पाण्डेय ने एक बार कहा था कि हिन्दी के प्रकाशक वस्तुत: हिन्दी के अन्धकारक हैं। कारण यह कि वे बिक्री के लिए पाठकों पर बहुत निर्भर नहीं करते। इधर वितरण की एक ऐसी व्यवस्था विकसित हुई है जिसमें पाठक आनुसंगिक महत्व का रह गया है। पाठक के महत्व के घटने के साथ-साथ लेखक का महत्व भी घट गया है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक भारी सांस्कृतिक समस्या है जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी है। प्रकाशक यह समझता है कि जब सब काम वही कर रहा है तो फिर लेखक को पैसे क्यों दिये जाँय।
हिन्दी के एक लेखक ने जब अपने प्रकाशक से रायल्टी का हिसाब माँगा तो उसने उत्तर में लिखा कि यदि लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तकों की सभी प्रतियाँ खरीद ले तो वह रायल्टी दे देगा। यह बेहद अपमानजनक उत्तर था जो किसी भी तरह से उचित नहीं। रायल्टी के लफड़े से तंग आकर बहुत से हिन्दी लेखक अब 'लंप सम' मांगते हैं क्योंकि पुस्तकों की बिक्री का कुछ भी पता लगा पाना लेखक के लिए संभव नहीं होता।
सवाल यह है कि जिन लेखकों को प्रकाशकगण छापते हैं, उनके अधिकारों और सम्मान का ख्याल रखना क्या उनका भी धर्म नहीं है?
Monday, January 14, 2008
एक स्त्रीवादी चुटकुला
एक स्त्रीवादी चुटकुला
एक दिन उल्लू बहुत उदास था। वह रात भर चुप्पी साधे रहा। लक्ष्मी जी ने उससे पूछा, ''प्रिय उल्लू तुम इतने उदास क्यों हो? अपनी उदासी का कारण मुझे बतलाओ।''
उलूक महोदय ने जवाब दिया, '' लक्ष्मी जी मैं आपको रोज ढोता रहता हूँ। आपकी इतनी सेवा करता हँ। मगर मेरा कोई महत्व नहीं हो पाया है। दीपावली के दिन सारी दुनिया में आपकी पूजा होती है, मगर मुझे कोई नहीं पूँछता। अब ये क्या बात हुई? उल्टे लोग मुझे उल्लू कहकर चिढ़ाते हैं। मुझे बड़ा बुरा लगता है।''
लक्ष्मी जी ने अपने वाहन के दुख को समझा और किंचित विचार करते हुए बोलीं ,'' ठीक है प्रिय उलूक। तुम्हारी बात बिल्कुल सही है। मैं तुम्हें आशिर्वाद देती हूँ कि अब तुम्हारी पूजा मुझसे पहले हुआ करेगी। तुम्हारी पूजा दीपावली से पहले करवा चौथ के दिन हुआ करेगी।
तभी से करवा चौथ मनाया जाने लगा।
एक दिन उल्लू बहुत उदास था। वह रात भर चुप्पी साधे रहा। लक्ष्मी जी ने उससे पूछा, ''प्रिय उल्लू तुम इतने उदास क्यों हो? अपनी उदासी का कारण मुझे बतलाओ।''
उलूक महोदय ने जवाब दिया, '' लक्ष्मी जी मैं आपको रोज ढोता रहता हूँ। आपकी इतनी सेवा करता हँ। मगर मेरा कोई महत्व नहीं हो पाया है। दीपावली के दिन सारी दुनिया में आपकी पूजा होती है, मगर मुझे कोई नहीं पूँछता। अब ये क्या बात हुई? उल्टे लोग मुझे उल्लू कहकर चिढ़ाते हैं। मुझे बड़ा बुरा लगता है।''
लक्ष्मी जी ने अपने वाहन के दुख को समझा और किंचित विचार करते हुए बोलीं ,'' ठीक है प्रिय उलूक। तुम्हारी बात बिल्कुल सही है। मैं तुम्हें आशिर्वाद देती हूँ कि अब तुम्हारी पूजा मुझसे पहले हुआ करेगी। तुम्हारी पूजा दीपावली से पहले करवा चौथ के दिन हुआ करेगी।
तभी से करवा चौथ मनाया जाने लगा।
साहित्य/संस्कृतिकर्म और राजनीति
साहित्य और संस्कृतिकर्म की अवस्थिति को यदि सूक्ष्मतापूर्वक देखें तो वह राजनीति की अपनी अवस्थिति से अलग केन्द्रित मिलेगी। राजनीतिक लोगों की प्राथमिकताएँ भिन्न प्रकार की होती हैं। अपनी व्यावहारिक अपरिहार्यताओं के चलते वे तमाम साहित्यिक/सांसकृतिक मूल्यों को अनदेखा कर देते हैं। हमारे समय में वोटों की राजनीति का यही अर्थ बनता है। वोटों के लिए सारे मूल्य और सिध्दान्त ताक पर रख दिये जाते हैं।
यदि बिल्कुल ऐसा न भी हो तो राजनीतिक संगठन अक्सर विभिन्न मौकों पर ऐसे समझौते करते हैं जो विसंगतिपूर्ण लगते हैं। समाजवाद से लेकर साम्यवाद तक की विचारसरणि में इस प्रकार के समझौते किये गये कि इन विचाारधाराओं से जुड़े मूल्यों का कोई बहुत मतलब नहीं रह गया। साम्यवाद किस प्रकार रूष में स्आलिनवाद में बदल गया इसकी कहानी बड़ी अजीब है। भारत में लोहियावाद कैसे जातिवाद में बदल गया और अम्बेडकरवाद किस प्रकार ब्राहम्ण दलित गठजोड़ में बदल गया इसे बताना बहुत कठिन नहीं। मैं यह नहीं कहता कि किसी विचार या विचारधारा को लेकर जड़ता या कट्टरता होनी चाहिये। मेरा सिर्फ यह कहना है कि ऐसे समझौते नहीं होने चाहिए जिससे विचारधारा में अन्तर्निहित मूल्य ही गायब हो जायँ।
इस बात को हम अनेक ऐतिहासिक सन्दर्भों में साफ रेखांकित कर सकते हैं। कुछ बर्षों पहले भाजपा सरकार के सन्दर्भ में यह देखा गया कि दक्षिणपंथी सांस्कृतिक संगठनों और राजनीतिक पार्टी के बीच का अन्तराल स्पष्ट था। सांस्कृतिक संगठन राजनीतिज्ञों से संतुष्ट न थे। इस बात को हम स्वाधीनता की लड़ाई के दौर में प्रेमचनद के लेखन और कांग्रेसी राजनीति के बीच के अन्तरों में देख सकते हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत लोग अक्सर परिवर्तनों को पहले देख लेते हैं।
मैं यहाँ यह तो नहीं कहना चाहता कि साहित्य को राजनीति से अलग देखा जाय। हमारे आज के दौर में यह विल्कुल संभव नहीं। मगर साहित्य की अपनी अस्मिता का प्रश्न इसीलिए महत्वपूर्ण है।
यदि बिल्कुल ऐसा न भी हो तो राजनीतिक संगठन अक्सर विभिन्न मौकों पर ऐसे समझौते करते हैं जो विसंगतिपूर्ण लगते हैं। समाजवाद से लेकर साम्यवाद तक की विचारसरणि में इस प्रकार के समझौते किये गये कि इन विचाारधाराओं से जुड़े मूल्यों का कोई बहुत मतलब नहीं रह गया। साम्यवाद किस प्रकार रूष में स्आलिनवाद में बदल गया इसकी कहानी बड़ी अजीब है। भारत में लोहियावाद कैसे जातिवाद में बदल गया और अम्बेडकरवाद किस प्रकार ब्राहम्ण दलित गठजोड़ में बदल गया इसे बताना बहुत कठिन नहीं। मैं यह नहीं कहता कि किसी विचार या विचारधारा को लेकर जड़ता या कट्टरता होनी चाहिये। मेरा सिर्फ यह कहना है कि ऐसे समझौते नहीं होने चाहिए जिससे विचारधारा में अन्तर्निहित मूल्य ही गायब हो जायँ।
इस बात को हम अनेक ऐतिहासिक सन्दर्भों में साफ रेखांकित कर सकते हैं। कुछ बर्षों पहले भाजपा सरकार के सन्दर्भ में यह देखा गया कि दक्षिणपंथी सांस्कृतिक संगठनों और राजनीतिक पार्टी के बीच का अन्तराल स्पष्ट था। सांस्कृतिक संगठन राजनीतिज्ञों से संतुष्ट न थे। इस बात को हम स्वाधीनता की लड़ाई के दौर में प्रेमचनद के लेखन और कांग्रेसी राजनीति के बीच के अन्तरों में देख सकते हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत लोग अक्सर परिवर्तनों को पहले देख लेते हैं।
मैं यहाँ यह तो नहीं कहना चाहता कि साहित्य को राजनीति से अलग देखा जाय। हमारे आज के दौर में यह विल्कुल संभव नहीं। मगर साहित्य की अपनी अस्मिता का प्रश्न इसीलिए महत्वपूर्ण है।
Saturday, December 22, 2007
मंदी और मसीहा
डायरी
मंदी और मसीहा
19.12.2007 को विकास परिषद को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वैश्विक मंदी की संभावना व्यक्त की और आगाह किया कि आने वाले समय में भारत भी इससे प्रभावित हो सकता है। अमेरिका और दूसरे बड़े विकसित देशों में अर्थव्यवस्था की मंदी है जिसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है। ऐसे में कीमतें बढ़ सकती हैं। इन परिस्थितियों में निर्यातकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि खाद्य संरक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। अनाज, दाल, और खाद्य तेलों का भंडारण होना चाहिए। लेकिन उन्होने यह भी कहा कि इस वैश्विक मंदी के डर से निराश नहीं होना चाहिए। विकास और वृध्दि के लक्ष्यों को लेकर कम महत्वाकांक्षी होने की जरूरत नहीं है। उन्होने कहा कि इस संकट से देश को आगाह करना उनका कर्तव्य है।
डॉ. मनमोहन सिंह सिर्फ देश के प्रघानमंत्री ही नहीं है बल्कि एक विद्वान अर्थशास्त्री भी हैं। उनकी छवि एक इमानदार व्यक्ति की है। अत: उनके द्वारा कही गयी ये बातें ऐसी है कि उन्हें बहुत गंभीरतापूर्वक लिया जाय। वैसे भी पश्चिमी देशों में घटती विकास दर कोई ऐसी बात नहीं जो छिपी हुई हो। इस घटती विकास दर के ही चलते विकसित देश अपनी पूँजी को कम विकसित देशों के बाजार में लगााना चाहते हैं। इसी कारण वे विश्वबैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से विकासशील देशों की नीतियों को बदलने का प्रयास करते रहे हैं। इस काम में उन्हें सफलता भी मिलती रही है। इस प्रयास में वे कभी एशियन टाइगर्स को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्सहित करते रहे हैं, तो कभी भारत और चीन जैसे देशों को जिनके यहाँ पूॅजी के निवेश और विस्तार की संभावनाएँ बनी हुई हैं।
वैश्विक मंदी से तात्पर्य किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद में कमी या वास्तविक आर्थिक प्रगति की नकारात्मकता है। यह वास्तविक आर्थिक गतिविधियों का घटना या गिरना है। इससे रोजगार निवेश और कारपोरेट क्षेत्र के लाभों में गिरावट आ सकती है। इसमें दाम बड़ी तेजी से बढ़ते या घटते हैं जिसे स्फीति या विस्फीति कहते हैं। इस प्रक्रिया को निष्पंदन कहते हैं। सामान्य शब्दों में यह एक प्रकार का आर्थिक अवरोध है जिसमें रोजगाार के अवसर कम होते हैं और सामान्य जनता के लिए जीवन दूभर हो जाता है। याद करने की बात है कि अमेरिका की प्रसिध्द मंदी के सन्दर्भ में ही जॉन मेनयार्ड केन्स का कल्याणकारी राज्य का सिध्दांत आया था जिसमें उन्होने राज्य के हस्तक्षेप की वकालत की थी। उन्होने यहाँ तक लिखा था कि यदि राज्य के पास कोई काम न हो तो उसे चाहिए कि वह दिन में गङ्ढा खोदने का कार्य करावे और रात में उसे पटवा दे। तात्पर्य यह कि हर प्रकार से राज्य को आर्थिक गतिविधियों में अपनी कल्याणकारी भूमिका निभानी चाहिए।
मगर आज हमारे देश में राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका लगातार कम करता जा रहा है। अब तो शिक्षा जैसे क्षेत्र से भी वह पल्ला झाड़ने जा रहा है। तो फिर मंदी आने पर क्या होगा? किसको आयेगी मसीहाई?
मंदी और मसीहा
19.12.2007 को विकास परिषद को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वैश्विक मंदी की संभावना व्यक्त की और आगाह किया कि आने वाले समय में भारत भी इससे प्रभावित हो सकता है। अमेरिका और दूसरे बड़े विकसित देशों में अर्थव्यवस्था की मंदी है जिसका प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है। ऐसे में कीमतें बढ़ सकती हैं। इन परिस्थितियों में निर्यातकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि खाद्य संरक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। अनाज, दाल, और खाद्य तेलों का भंडारण होना चाहिए। लेकिन उन्होने यह भी कहा कि इस वैश्विक मंदी के डर से निराश नहीं होना चाहिए। विकास और वृध्दि के लक्ष्यों को लेकर कम महत्वाकांक्षी होने की जरूरत नहीं है। उन्होने कहा कि इस संकट से देश को आगाह करना उनका कर्तव्य है।
डॉ. मनमोहन सिंह सिर्फ देश के प्रघानमंत्री ही नहीं है बल्कि एक विद्वान अर्थशास्त्री भी हैं। उनकी छवि एक इमानदार व्यक्ति की है। अत: उनके द्वारा कही गयी ये बातें ऐसी है कि उन्हें बहुत गंभीरतापूर्वक लिया जाय। वैसे भी पश्चिमी देशों में घटती विकास दर कोई ऐसी बात नहीं जो छिपी हुई हो। इस घटती विकास दर के ही चलते विकसित देश अपनी पूँजी को कम विकसित देशों के बाजार में लगााना चाहते हैं। इसी कारण वे विश्वबैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से विकासशील देशों की नीतियों को बदलने का प्रयास करते रहे हैं। इस काम में उन्हें सफलता भी मिलती रही है। इस प्रयास में वे कभी एशियन टाइगर्स को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्सहित करते रहे हैं, तो कभी भारत और चीन जैसे देशों को जिनके यहाँ पूॅजी के निवेश और विस्तार की संभावनाएँ बनी हुई हैं।
वैश्विक मंदी से तात्पर्य किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद में कमी या वास्तविक आर्थिक प्रगति की नकारात्मकता है। यह वास्तविक आर्थिक गतिविधियों का घटना या गिरना है। इससे रोजगार निवेश और कारपोरेट क्षेत्र के लाभों में गिरावट आ सकती है। इसमें दाम बड़ी तेजी से बढ़ते या घटते हैं जिसे स्फीति या विस्फीति कहते हैं। इस प्रक्रिया को निष्पंदन कहते हैं। सामान्य शब्दों में यह एक प्रकार का आर्थिक अवरोध है जिसमें रोजगाार के अवसर कम होते हैं और सामान्य जनता के लिए जीवन दूभर हो जाता है। याद करने की बात है कि अमेरिका की प्रसिध्द मंदी के सन्दर्भ में ही जॉन मेनयार्ड केन्स का कल्याणकारी राज्य का सिध्दांत आया था जिसमें उन्होने राज्य के हस्तक्षेप की वकालत की थी। उन्होने यहाँ तक लिखा था कि यदि राज्य के पास कोई काम न हो तो उसे चाहिए कि वह दिन में गङ्ढा खोदने का कार्य करावे और रात में उसे पटवा दे। तात्पर्य यह कि हर प्रकार से राज्य को आर्थिक गतिविधियों में अपनी कल्याणकारी भूमिका निभानी चाहिए।
मगर आज हमारे देश में राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका लगातार कम करता जा रहा है। अब तो शिक्षा जैसे क्षेत्र से भी वह पल्ला झाड़ने जा रहा है। तो फिर मंदी आने पर क्या होगा? किसको आयेगी मसीहाई?
Sunday, October 28, 2007
मुग़ल-ए-आजम और साधू
डायरी
मुग़ल-ए-आजम और साधू
बात बहुत पुरानी नहीं है, मगर बहुत नयी भी नहीं।
मुगले-ए-आजम फिल्म रंगीन होकर आ रही थी और यह फिल्म प्रेमियों के बीच काफी चर्चा का मामला था। हमारे परम मित्र स्वप्निल श्रीवास्तव हैं जो मनोरंजनकर अधिकारी हैं। वे हिन्दी के जाने-माने कवि हैं और साहित्य जगत में उन्हे इसी रूप में जाना जाता है। उनके साथ ही मैं फैजाबाद के पैराडाइज सिनेमा हाल के मैनेजर के कमरे में बैठा था। दूसरे ही दिन रंगीन मुग़ल-ए-आजम प्रदर्शित होने वाली थी। पोस्टर पहले से ही चिपका दिये गये थे जिससे लोगों को यह भ्रम हो रहा था कि शायद यह फिल्म पहले से ही उस सिनेमाघर में लगी है। लोग पूछ रहे थे कि आखिर फिल्म लग कब रही है। एक सुखद आश्चर्य था कि फिल्मों के इस पतन काल में भी दर्शक इस पुरानी फिल्म के नये रूप को देखने के लिए बेताब थे। आखिर कहा ही गया है कि ओल्ड इज गोल्ड।
इतने में एक साधू महाराज वहाँ पधारे। सभी को आश्चर्य हुआ कि ये महोदय गेरुवा वस्त्रधारी, चिमटाहस्त यहाँ क्या कर रहे हैं। दाढ़ी पूरी बढी हुई थी और लग रहा था कि सीधे अयोध्या के किसी मंदिर से आ रहे हैं। वे कमरे में घुस आये और जब उन्होंने भी पूछा कि मुग़ल-ए-आजम कब लग रही है तो सभी लोग बिना हल्के से मुस्कराए न रह सके। स्वप्निल जी ने सिनेमाघर के मालिक होने के अंदाज में सप्रेम कहा, 'बाबा कल लग रही है।'
साधू ने प्रसन्न होकर सिर हिलाया।
उन्होने फिर मुस्कराते हुए पूछा, 'क्या आप देखेंगे?'
'हाँ' साधू ने जवाब दिया।
फिर कुछ देर तक वैसे ही खड़े रहने के बाद उसने कहा, 'फिल्म बहुत अच्छी है।'
अब तो चारो तरफ से टिप्पणियाँ शुरू हो गयीं।
'इसमें क्या दो राय। अपने जमाने की सबसे मशहूर फिल्म रही है।'
'जब भी कहीं लगती थी हाउस फुल जाती थी।'
'संवाद गजब के हैं।'
'अभिनय का तो कोई जवाब नहीं।'
'मैने यह फिल्म बहुत पहले देखी थी।' साधू ने कहा।
'अच्छा!'
'तब मैं साधू नही ंथा। गृहस्थ था।'
'हूॅ।'
'यह फिल्म मैने अपनी पत्नी के साथ देखी थी।' साधू ने कहा और थोड़ा उदास हो गया।
एक बेवजह सी चुप छा गयी।
वह फिर बोला, कुछ इस तरह जैसे किसी ने उससे पूछा हो, 'अब वह इस दुनिया में नहीं है। मैं यह फिल्म जरूर देखूँगा।'
वह अकेला सा मुड़ा और चला गया।
उसने दूसरे दिन जरूर वह फिल्म देखी होगी। उसे साधू भेष में फिल्म देखते हुए लोगों ने क्या सोचा होगा? कुछ लोग हँसे होंगे। कुछ लोगों ने सोचा होगा कि इस देश में भी क्या गजब-गजब के फिल्म प्रेमी पड़े हैं।
लेकिन मैं सोचता हॅँ कि हम चीजों को किन-किन कारणों से पसंद करते हैं, इसे सुनिश्चित कर पाना कितना कठिन है? हमारे जीवन का इतिहास भी हमारी अभिरुचि के साथ जुड़ा होता है। घटनाएँ और भावनाएँ तक कभी-कभी हमारी पसंद और नापसंद का कारण बनती हैं।
रघुवंशमणि
मुग़ल-ए-आजम और साधू
बात बहुत पुरानी नहीं है, मगर बहुत नयी भी नहीं।
मुगले-ए-आजम फिल्म रंगीन होकर आ रही थी और यह फिल्म प्रेमियों के बीच काफी चर्चा का मामला था। हमारे परम मित्र स्वप्निल श्रीवास्तव हैं जो मनोरंजनकर अधिकारी हैं। वे हिन्दी के जाने-माने कवि हैं और साहित्य जगत में उन्हे इसी रूप में जाना जाता है। उनके साथ ही मैं फैजाबाद के पैराडाइज सिनेमा हाल के मैनेजर के कमरे में बैठा था। दूसरे ही दिन रंगीन मुग़ल-ए-आजम प्रदर्शित होने वाली थी। पोस्टर पहले से ही चिपका दिये गये थे जिससे लोगों को यह भ्रम हो रहा था कि शायद यह फिल्म पहले से ही उस सिनेमाघर में लगी है। लोग पूछ रहे थे कि आखिर फिल्म लग कब रही है। एक सुखद आश्चर्य था कि फिल्मों के इस पतन काल में भी दर्शक इस पुरानी फिल्म के नये रूप को देखने के लिए बेताब थे। आखिर कहा ही गया है कि ओल्ड इज गोल्ड।
इतने में एक साधू महाराज वहाँ पधारे। सभी को आश्चर्य हुआ कि ये महोदय गेरुवा वस्त्रधारी, चिमटाहस्त यहाँ क्या कर रहे हैं। दाढ़ी पूरी बढी हुई थी और लग रहा था कि सीधे अयोध्या के किसी मंदिर से आ रहे हैं। वे कमरे में घुस आये और जब उन्होंने भी पूछा कि मुग़ल-ए-आजम कब लग रही है तो सभी लोग बिना हल्के से मुस्कराए न रह सके। स्वप्निल जी ने सिनेमाघर के मालिक होने के अंदाज में सप्रेम कहा, 'बाबा कल लग रही है।'
साधू ने प्रसन्न होकर सिर हिलाया।
उन्होने फिर मुस्कराते हुए पूछा, 'क्या आप देखेंगे?'
'हाँ' साधू ने जवाब दिया।
फिर कुछ देर तक वैसे ही खड़े रहने के बाद उसने कहा, 'फिल्म बहुत अच्छी है।'
अब तो चारो तरफ से टिप्पणियाँ शुरू हो गयीं।
'इसमें क्या दो राय। अपने जमाने की सबसे मशहूर फिल्म रही है।'
'जब भी कहीं लगती थी हाउस फुल जाती थी।'
'संवाद गजब के हैं।'
'अभिनय का तो कोई जवाब नहीं।'
'मैने यह फिल्म बहुत पहले देखी थी।' साधू ने कहा।
'अच्छा!'
'तब मैं साधू नही ंथा। गृहस्थ था।'
'हूॅ।'
'यह फिल्म मैने अपनी पत्नी के साथ देखी थी।' साधू ने कहा और थोड़ा उदास हो गया।
एक बेवजह सी चुप छा गयी।
वह फिर बोला, कुछ इस तरह जैसे किसी ने उससे पूछा हो, 'अब वह इस दुनिया में नहीं है। मैं यह फिल्म जरूर देखूँगा।'
वह अकेला सा मुड़ा और चला गया।
उसने दूसरे दिन जरूर वह फिल्म देखी होगी। उसे साधू भेष में फिल्म देखते हुए लोगों ने क्या सोचा होगा? कुछ लोग हँसे होंगे। कुछ लोगों ने सोचा होगा कि इस देश में भी क्या गजब-गजब के फिल्म प्रेमी पड़े हैं।
लेकिन मैं सोचता हॅँ कि हम चीजों को किन-किन कारणों से पसंद करते हैं, इसे सुनिश्चित कर पाना कितना कठिन है? हमारे जीवन का इतिहास भी हमारी अभिरुचि के साथ जुड़ा होता है। घटनाएँ और भावनाएँ तक कभी-कभी हमारी पसंद और नापसंद का कारण बनती हैं।
रघुवंशमणि
Tuesday, October 09, 2007
चे ग्वेरा की अन्तिम यात्रा
अनुवाद
चे ग्वेरा की अन्तिम यात्रा
[गार्जियन के लिए रिचर्ड गॉट की रिर्पोट का हिन्दी अनुवाद]
वेलेग्राण्ड, 10 अक्टूबर 1967
पिछली रात पाँच बजे चे ग्वेरा का पार्थिव शरीर दक्षिणी-पश्चिमी बोलीविया के इस पहाड़ी कस्बे में लाया गया।
हेलिकाप्टर से स्ट्रेचर पर बंधे छोटे शरीर के लैंडिंग रेलिंग पर उतरने के साथ ही बाद की सारी कार्रवाही का दायित्व एक सैनिक वर्दी वाले व्यक्ति को सौंप दिया गया जिसके बारे में सभी पत्रकारों का मत है कि वह नि:सन्देह अमेरिका की किसी गुप्तचर एजेन्सी का प्रतिनिधि है। वह सम्भवत: कोई क्यूबन निर्वासित है और इस प्रकार जीवन भर अकेले ही संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुध्द युध्द छेड़ने वाले चे ग्वेरा ने मृत्यु के पश्चात स्वयम् को अपने प्रमुख शत्रु के सामने पाया।
हेलिकाप्टर को जानबूझ कर उस जगह से दूर उतारा गया जहाँ भीड़ एकत्रित थी और मृत गोरिल्ला युध्द के नायक के शरीर को जल्दी से एक वैन में पहुँचाया गया। हमने एक जीप से उसका पीछा करने को कहा और ड्राइवर उस हास्पिटल के गेट से निकलने में सफल रहा जहाँ उनके शरीर को एक छोटे से रंगीन वाश हट में ले जाया गया जो शवगृह के रूप में इस्तेमाल होता था।
वैन के दरवाजे खुले और अमेरिकी एजेन्ट चीखते हुए बाहर कूदा और चिल्लाया 'इसे जल्दी से बाहर करो।' एक पत्रकार ने उससे पूछा कि वह कहाँ से आया है। उसने गुस्से में जवाब दिया, 'कहीं से नहीं।'
ओलिव हरे रंग की फैटिग और जिपर्ड जैकेट पहने पार्थिव शरीर को उस झोपड़ी में ले जाया गया। यह सुनिश्चित तौर पर चे ग्वेरा का ही पार्थिव शरीर था। जब पहली बार मैने जनवरी में उनके बोलिविया में होने की बात अपनी रिर्पोट में लिखी थी, तभी से मैं लोगों की इस बात पर यकीन नहीं करता था कि वे कहीं और हैं।
मैं सम्भवत: उन कतिपय लोगों में से हूँ जिन्होने उन्हें जीवित देखा था। मैने उन्हे क्यूबा में 1963 में एम्बेसी के एक रिसेप्शन पर देखा था और मुझे कोई सन्देह नहीं कि यह चे ग्वेरा का ही पार्थिव शरीर है। काली घुंघराली दाढ़ी, उलझे बाल और दायीं कनपटी पर एक घाव है जो शायद जुलाई की एक दुर्घटना का परिणाम है जब उन्हें एक राइफल की गोली छूकर निकल गयी थी।
उनके पैरों मे मोकासिन्स थीं मानों जंगल में तेजी से दौड़ते समय उन्हे गोली मारी गयी हो। उनके गर्दन के निचले हिस्से में दो गोलियों के लगने के निशान थे और शायद एक गोली उनके पेट में भी मारी गयी थी। ऐसा विश्वास है कि उन्हे तब पकड़ा गया जब वे गंभीर रूप से घायल थे, लेकिन उन्हे युध्द क्षेत्र से बाहर निकालने वाले हेलिकाप्टर के आने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी थी।
मुझे केवल एक बात को लेकर उनकी पहचान पर संदेह था। मेरी स्मृति की तुलना में चे पहले से काफी दुबले हो गये थे, लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि महीनों जंगल में रहने के कारण उनके पहले के भारी शरीर में यह बदलाव आया होगा।
जैसे ही पार्थिव शरीर शवगृह में पहुँचा डाक्टरों ने उसमें प्रिजर्वेटिवस डालने और अमेरिकन एजेन्ट ने लोगों को दूर रखने के निष्फल प्रयास करने प्रारम्भ किये। वह बहुत परेशान था और जब भी उसकी ओर कैमरा होता था, वह क्रुध्द हो जाता था। उसे पता था कि मैं जानता हॅॅूं कि वह कौन है। उसे यह भी पता था कि मैं जानता हॅॅूं कि उसे यहाँ नहीं होना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा युध्द था जिसमें अमेरिकी लोगों के होने की आशा नहीं की जाती था।
फिर भी यह शख्स उपस्थित था जो वेलेग्राण्ड में सेना के साथ था और अफसरों से परिचितों की तरह बातें कर रहा था।
शायद ही कोई यह कहे कि चे को ये बातें मालूम न थीं क्योंकि उनका उद्देश्य ही अमेरिका को लाटिन अमेरिका में हस्तक्षेप के लिए उत्तेजित करना था ताकि युध्द पीड़ित वियतनाम को मदद मिल सके। लेकिन वे निश्चित रूप से महाद्वीप में अमेरिकी गुप्तचर एजेसियों की ताकत और पहुँच का ठीक-ठीक अंदाजा लगाने में चूक गये और यही उनके और वोलीवियायी गुरिल्लाओं की असफलता का प्रमुख कारण बना।
अब उनकी मृत्यु हो चुकी है। जब उनके शरीर में प्रिजवेटिव्स भरे जा रहे हैं और भीड़ अन्दर आने के लिए चीख रही है, यह सोचना कठिन है कि यह व्यक्ति एक समय लाटिन अमेरिका के महान लोगों में से एक था।
वह मात्र एक महान गुरिल्ला नायक नहीं थे, वे क्रान्तिकारियों और राष्ट्रपति के मित्र भी थे। उनकी आवाज को अन्तर-अमेरिकी कौंसिल्स के अतिरिक्त जंगलों में भी सुना-समझा जाता था। वे एक डाक्टर, गैरपेशेवर अर्थशास्त्री, क्रान्तिकारी क्यूबा में उद्योग मंत्री और फिडल कास्त्रो के दाये हाथ थे। सम्भवत: उन्हे इतिहास में बोलिवर के बाद का सबसे महत्वपूर्ण महाद्वीपीय व्यक्तित्व माना जाय। उनके नाम के चारो ओर गाथाएँ रची जानी हैं।
वे चीनियों और रूसियों के बीच चल रहे सैध्दान्तिक झगड़ों से परेशान र्माक्सवादी थे। वे सम्भवत: अन्तिम व्यक्ति थे जिन्होने दोनों के बीच का रास्ता खोजने की कोशिश की और सभी जगहों पर संयुक्त राज्य के विरुध्द क्रान्तिकारी ताकतों को एकत्र करने की मुहिम चलायी। वे अब मृत हैं लेकिन यह सोचना कठिन है कि उनके विचार भी उनके साथ मर जायेंगे।
अनुवाद: रघुवंशमणि
चे ग्वेरा की अन्तिम यात्रा
[गार्जियन के लिए रिचर्ड गॉट की रिर्पोट का हिन्दी अनुवाद]
वेलेग्राण्ड, 10 अक्टूबर 1967
पिछली रात पाँच बजे चे ग्वेरा का पार्थिव शरीर दक्षिणी-पश्चिमी बोलीविया के इस पहाड़ी कस्बे में लाया गया।
हेलिकाप्टर से स्ट्रेचर पर बंधे छोटे शरीर के लैंडिंग रेलिंग पर उतरने के साथ ही बाद की सारी कार्रवाही का दायित्व एक सैनिक वर्दी वाले व्यक्ति को सौंप दिया गया जिसके बारे में सभी पत्रकारों का मत है कि वह नि:सन्देह अमेरिका की किसी गुप्तचर एजेन्सी का प्रतिनिधि है। वह सम्भवत: कोई क्यूबन निर्वासित है और इस प्रकार जीवन भर अकेले ही संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुध्द युध्द छेड़ने वाले चे ग्वेरा ने मृत्यु के पश्चात स्वयम् को अपने प्रमुख शत्रु के सामने पाया।
हेलिकाप्टर को जानबूझ कर उस जगह से दूर उतारा गया जहाँ भीड़ एकत्रित थी और मृत गोरिल्ला युध्द के नायक के शरीर को जल्दी से एक वैन में पहुँचाया गया। हमने एक जीप से उसका पीछा करने को कहा और ड्राइवर उस हास्पिटल के गेट से निकलने में सफल रहा जहाँ उनके शरीर को एक छोटे से रंगीन वाश हट में ले जाया गया जो शवगृह के रूप में इस्तेमाल होता था।
वैन के दरवाजे खुले और अमेरिकी एजेन्ट चीखते हुए बाहर कूदा और चिल्लाया 'इसे जल्दी से बाहर करो।' एक पत्रकार ने उससे पूछा कि वह कहाँ से आया है। उसने गुस्से में जवाब दिया, 'कहीं से नहीं।'
ओलिव हरे रंग की फैटिग और जिपर्ड जैकेट पहने पार्थिव शरीर को उस झोपड़ी में ले जाया गया। यह सुनिश्चित तौर पर चे ग्वेरा का ही पार्थिव शरीर था। जब पहली बार मैने जनवरी में उनके बोलिविया में होने की बात अपनी रिर्पोट में लिखी थी, तभी से मैं लोगों की इस बात पर यकीन नहीं करता था कि वे कहीं और हैं।
मैं सम्भवत: उन कतिपय लोगों में से हूँ जिन्होने उन्हें जीवित देखा था। मैने उन्हे क्यूबा में 1963 में एम्बेसी के एक रिसेप्शन पर देखा था और मुझे कोई सन्देह नहीं कि यह चे ग्वेरा का ही पार्थिव शरीर है। काली घुंघराली दाढ़ी, उलझे बाल और दायीं कनपटी पर एक घाव है जो शायद जुलाई की एक दुर्घटना का परिणाम है जब उन्हें एक राइफल की गोली छूकर निकल गयी थी।
उनके पैरों मे मोकासिन्स थीं मानों जंगल में तेजी से दौड़ते समय उन्हे गोली मारी गयी हो। उनके गर्दन के निचले हिस्से में दो गोलियों के लगने के निशान थे और शायद एक गोली उनके पेट में भी मारी गयी थी। ऐसा विश्वास है कि उन्हे तब पकड़ा गया जब वे गंभीर रूप से घायल थे, लेकिन उन्हे युध्द क्षेत्र से बाहर निकालने वाले हेलिकाप्टर के आने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी थी।
मुझे केवल एक बात को लेकर उनकी पहचान पर संदेह था। मेरी स्मृति की तुलना में चे पहले से काफी दुबले हो गये थे, लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि महीनों जंगल में रहने के कारण उनके पहले के भारी शरीर में यह बदलाव आया होगा।
जैसे ही पार्थिव शरीर शवगृह में पहुँचा डाक्टरों ने उसमें प्रिजर्वेटिवस डालने और अमेरिकन एजेन्ट ने लोगों को दूर रखने के निष्फल प्रयास करने प्रारम्भ किये। वह बहुत परेशान था और जब भी उसकी ओर कैमरा होता था, वह क्रुध्द हो जाता था। उसे पता था कि मैं जानता हॅॅूं कि वह कौन है। उसे यह भी पता था कि मैं जानता हॅॅूं कि उसे यहाँ नहीं होना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा युध्द था जिसमें अमेरिकी लोगों के होने की आशा नहीं की जाती था।
फिर भी यह शख्स उपस्थित था जो वेलेग्राण्ड में सेना के साथ था और अफसरों से परिचितों की तरह बातें कर रहा था।
शायद ही कोई यह कहे कि चे को ये बातें मालूम न थीं क्योंकि उनका उद्देश्य ही अमेरिका को लाटिन अमेरिका में हस्तक्षेप के लिए उत्तेजित करना था ताकि युध्द पीड़ित वियतनाम को मदद मिल सके। लेकिन वे निश्चित रूप से महाद्वीप में अमेरिकी गुप्तचर एजेसियों की ताकत और पहुँच का ठीक-ठीक अंदाजा लगाने में चूक गये और यही उनके और वोलीवियायी गुरिल्लाओं की असफलता का प्रमुख कारण बना।
अब उनकी मृत्यु हो चुकी है। जब उनके शरीर में प्रिजवेटिव्स भरे जा रहे हैं और भीड़ अन्दर आने के लिए चीख रही है, यह सोचना कठिन है कि यह व्यक्ति एक समय लाटिन अमेरिका के महान लोगों में से एक था।
वह मात्र एक महान गुरिल्ला नायक नहीं थे, वे क्रान्तिकारियों और राष्ट्रपति के मित्र भी थे। उनकी आवाज को अन्तर-अमेरिकी कौंसिल्स के अतिरिक्त जंगलों में भी सुना-समझा जाता था। वे एक डाक्टर, गैरपेशेवर अर्थशास्त्री, क्रान्तिकारी क्यूबा में उद्योग मंत्री और फिडल कास्त्रो के दाये हाथ थे। सम्भवत: उन्हे इतिहास में बोलिवर के बाद का सबसे महत्वपूर्ण महाद्वीपीय व्यक्तित्व माना जाय। उनके नाम के चारो ओर गाथाएँ रची जानी हैं।
वे चीनियों और रूसियों के बीच चल रहे सैध्दान्तिक झगड़ों से परेशान र्माक्सवादी थे। वे सम्भवत: अन्तिम व्यक्ति थे जिन्होने दोनों के बीच का रास्ता खोजने की कोशिश की और सभी जगहों पर संयुक्त राज्य के विरुध्द क्रान्तिकारी ताकतों को एकत्र करने की मुहिम चलायी। वे अब मृत हैं लेकिन यह सोचना कठिन है कि उनके विचार भी उनके साथ मर जायेंगे।
अनुवाद: रघुवंशमणि
Saturday, October 06, 2007
बौध्दिक घृणा के दौर में गाँधी जी
डायरी
बौध्दिक घृणा के दौर में गाँधी जी
अंग्रेजी के प्रसिध्द कवि डब्लू. बी. यीट्स ने लिखा है कि बौध्दिक घृणा सबसे बुरी चीज होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात की प्रासंगिकता हमारे आतंकवादग्रस्त समय में यीट्स के समय से थोड़ा ज्यादा ही है। हालांकि हम यह नहीं भूल सकते कि यीट्स का समय द्वितीय विश्वयुध्द और नाजीवाद से ग्रस्त समय था। शायद हम अपने समय को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि हम स्वयं उसमें अस्तित्वमान होते हैं। एक विचारक के रूप में मैं भी इस नियम का अपवाद नहीं।
यह बात इधर गाँधी जी के विचारों के सिलसिले में ज्यादा समझ में आयी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में विश्व अहिंसा दिवस के सिलसिले में बोलते हुए कहा कि महात्मा गाँधी ने हमें एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखलाया। पता नहीं क्यों अब लगता है कि समय बीतने के साथ-साथ गाँधी के विचाार नये तरह से प्रासंगिकता प्राप्त करने लगे हैं। हम चाहे जितना कहें कि चारो तरफ हिंसा ही हिंसा है, भ्रष्टाचार का बोलबाला है, प्रजातांत्रिक मूल्यों का रास्ता हर हाल में गाँधी जी के विचारों से होता हुआ ही गुजरता है। पश्चिम द्वारा अब उन्हें महज एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र द्वारा उनको दिया गया सम्मान यही दर्शाता है।
गाँधी जी के लिए बौध्दिक सहिष्णुता का महत्व बहुत अधिक था। आज हमने इस मूल्य को पूरी तरह से खो दिया है। धर्म और जाति के झगड़े हमें किस दिया में ले जा रहे हैं? इस बारे में कट्टरतावादियों की क्या सोच है? इस विषय पर खुले मन से विचार नहीं ही हो पा रहा।
लेकिन सबसे बड़ी बात तो साधन की पवित्रता की है जिसकी ओर गाँधी जी ने संकेत किया था। संकेत ही नहीं व्यवहार भी। इस बात के महत्व को अभी हम नहीं समझ सके हैं। सम्भवत: अभी और नुकसान उठाने के बाद ही हम इस बात के महत्व को ठीक से समझ सकेंगे।
बौध्दिक घृणा के दौर में गाँधी जी
अंग्रेजी के प्रसिध्द कवि डब्लू. बी. यीट्स ने लिखा है कि बौध्दिक घृणा सबसे बुरी चीज होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात की प्रासंगिकता हमारे आतंकवादग्रस्त समय में यीट्स के समय से थोड़ा ज्यादा ही है। हालांकि हम यह नहीं भूल सकते कि यीट्स का समय द्वितीय विश्वयुध्द और नाजीवाद से ग्रस्त समय था। शायद हम अपने समय को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि हम स्वयं उसमें अस्तित्वमान होते हैं। एक विचारक के रूप में मैं भी इस नियम का अपवाद नहीं।
यह बात इधर गाँधी जी के विचारों के सिलसिले में ज्यादा समझ में आयी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में विश्व अहिंसा दिवस के सिलसिले में बोलते हुए कहा कि महात्मा गाँधी ने हमें एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखलाया। पता नहीं क्यों अब लगता है कि समय बीतने के साथ-साथ गाँधी के विचाार नये तरह से प्रासंगिकता प्राप्त करने लगे हैं। हम चाहे जितना कहें कि चारो तरफ हिंसा ही हिंसा है, भ्रष्टाचार का बोलबाला है, प्रजातांत्रिक मूल्यों का रास्ता हर हाल में गाँधी जी के विचारों से होता हुआ ही गुजरता है। पश्चिम द्वारा अब उन्हें महज एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र द्वारा उनको दिया गया सम्मान यही दर्शाता है।
गाँधी जी के लिए बौध्दिक सहिष्णुता का महत्व बहुत अधिक था। आज हमने इस मूल्य को पूरी तरह से खो दिया है। धर्म और जाति के झगड़े हमें किस दिया में ले जा रहे हैं? इस बारे में कट्टरतावादियों की क्या सोच है? इस विषय पर खुले मन से विचार नहीं ही हो पा रहा।
लेकिन सबसे बड़ी बात तो साधन की पवित्रता की है जिसकी ओर गाँधी जी ने संकेत किया था। संकेत ही नहीं व्यवहार भी। इस बात के महत्व को अभी हम नहीं समझ सके हैं। सम्भवत: अभी और नुकसान उठाने के बाद ही हम इस बात के महत्व को ठीक से समझ सकेंगे।
Sunday, September 30, 2007
प्रजातंत्र के पराभव की कहानी
समीक्षा
प्रजातंत्र के पराभव की कहानी
-
रघुवंशमणि
हिंदी साहित्य में व्यंग लेखन की स्थिति पहले से ही बहुत अच्छी नहीं रही है। इसलिए यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा रहा है और अक्सर व्यंग के नाम पर बेहद सतही चीजें ही सामने आती रही हैं। हिन्दी व्यंग लेखन को समृध्द करने वाले हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के दिवंगत होने के बाद इस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंगकारों में से एक हैं। श्रीलाल शुक्ल के नाम राग दरबारी जैसा उपन्यास है जिसकी स्थिति व्यंग की उनकी अपनी भंगिमा के कारण हिन्दी उपन्यासों में बिल्कुल अलग रही है। राजकमल प्रकाशन ने हाल में उनके लेखों का एक संग्रह जहालत के पचास साल प्रकाशित किया है जिसमें शुक्ल जी के छोटे बड़े व्यंगों को इकठ्ठा छापा गया है। उनके द्वारा पिछले पचास सालों में लिखे गये इन लेखो को पढने का एक अलग ही आनन्द है। साथ ही हिन्दी के एक महत्वपूर्ण व्यंगकार के रचनात्मक विकास के विभिन्न पक्षों को देखने समझने का अवकाश भी यह संग्रह देता है। यह जरूर है कि श्रीलाल शुक्ल के पुराने पाठकों को इसमें प्रकाशित बहुत सी रचनाएँ पूर्व परिचित ही लगेंगी। अंगद के पाँव, यहाँ से वहाँ, उमराव नगर में कुछ दिन, कुछ जमीन की कुछ हवा में, आओ बैठें कुछ देर जैसी चर्चित और पठित रचनाओं के पाछकों के लिए जहालत के पचास साल व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल का कलेक्टेड वर्क जैसा होगाा। इस अर्थ में इसका प्रकाशन वास्तव में एक घटना है।
जहालत के पचास साल के व्यंग काफी व्यापक जमीन रखते हैं। वे वाकई पिछले पचास सालों के बारे में काफी कुछ कह जाते हैं। बातें टुकड़ों में अवश्य आती हैं क्योंकि व्यंगों की साइज आम तौर पर छोटी हैं लेकिन दुकड़ों 2 में ही देश के पिछले पचास साले का अच्छा खासा लेख जोखा है। भ्रष्टाचार और कुशिक्षा अधिकतर व्यंगों के मूल में है। नौकरशाही से पूरी तरह परिचित और उसी में जीवन गुजारने वाले शुक्ल जी का यह प्रिय विषय है। जाहिर है कि इस संग्रह में ऐसे व्यंग बहुतायत में हैं जिनका नौकरशाही से किसी न किसी प्रकार लेना देना है। राजनीति तो ऐसी चीज हो गयी है कि उसपर कलम चलाए बिना किसी भी व्यंगकार को मुक्ति नहीं। श्रीलाल शुक्ल किसी राजनीतिक प्रतिबध्दता से जुड़े रचनाकार नहीं हैं मगर सामाजिक यथार्थ से वे बचने का प्रयास कतई नहीं करते। वे वस्तुस्थितियों में भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियों की खोज करने वाले लेखक हैं, अपनी सारी विनोदप्रियता और मस्ती के बाद भी वे हिन्दी समाज के इस बुरे पक्ष को प्रस्तुत करने से बच नहीं पाते। ये विसंगतियॉ अंतत: सामान्य आदमी को ही अपना शिकार बनाती हैं। जहालत के पचास साल भारतीय प्रजातंत्र के पिछले पचास सालों की पतनगाथा है।
ऐसा लगता है कि श्रीलाल शुक्ल इस बात का ध्यान रखते हैं कि रचना में वैचारिकता का बोझ न आने पाये, मगर अपनी सामाजिक चेतना के चलते वे विचारात्मकता को अपनी रचनाओं मेें स्थान देते हैं। वे स्वयं ऐसा मानते रहे हैं कि उनकी प्रारंभिक रचनाओं में सामग्री ऐसी थी जिससे किसी का बहुत नफा नुकसान नहीं होना था। मगर बाद की रचनाओं में व्यंग पर सान प्रखर वैचारिकता ही चढ़ा सकी है। जहालत के पचास साल की रचनाएँ इस ओर संकेत करती हैं कि श्रीलाल शुक्ल के व्यंग लेखन का रास्ता एक यात्रा की तरह है जिसमें विभिन्न पड़ाव हैं। इन पड़ावों को कोई भी सूक्ष्मपाठ रेखांकित कर सकता है। शुरू के व्यंगों का हार्स लाफ्टर बाद में गंभीर होता गया है और उमरावनगर में कुछ दिन तक पहुँचते पहुँचते रचना में एक गहरा अनुशासन झलकने लगता है। इस प्रकार दृष्ठि और शैली दोनों के फर्क लेखक के विकास की दिशा को संकेतित करते हैं
श्रीलाल शुक्ल के काफी व्यंग ऐसे हैं जिनमें विषयवस्तु साहित्य है और साहित्य में भी खासकर कविता। यह कविता का एक व्यंग लेखक द्वारा किया गया पाठ है। यदि यह कविता का उत्तरपाठ है तो इसे हास्योत्तरपाठ कहना बेहतर होगा। आधुनिक कविता का भक्तिकाल, धुड़सरी का काव्यपाठ, साहित्योद्यानसुमनगुच्छा आदि कविता की संस्कृति की बखिया उधेड़ते हैं। निराला के बहाने साहित्य चर्चा में उनका निशाना साहित्य की सत्तावादी संस्कृति है जिसका शिकार स्वयं निराला का साहित्य हो गया है। साहित्यिक सन्दर्भ श्रीलाल जी के यहाँ भरे पड़े हैं और वे उन्हे जमकर व्यंग और हास्य के स्त्रोत के रूप में करते हैं। 'स्वर्णग्रंाम और वर्षा','बया और बन्दर की कहानी','कालिदास का संक्षिप्त इतिहास' जैसे व्यंग यह बतातें हैं कि साहित्य को व्यंग के प्रहारो ंसे नहीं बचाया जा सकता क्योंकि विसंगतियाँ बहॉ कुछ कम नहीं। लेकिन यह सब उनके साहित्य के गंभीर पाठक होने के अगंभीर लगने वाले प्रमाण हैं।
व्यंग एक ऐसी चीज है जो विधाओं की सीमा को अतिक्रांत करती है यद्यपि यह एक सच है कि व्यंग अपने में गद्य की एक विधा भी है, यह उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि विधाओं में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करती रहती है। श्रीलाल शुक्ल का लेखन भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन उनके किसी भी सुधी पाठक के लिए वे मुख्यत: गल्प विधा के ही दायरे में व्यंग लिखने वाले लेखक हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो राग दरबारी ही होगा मगर जहालत के पचास साल में भी प्रमुखता इसी प्रकार के व्यंगों की है। उनके कुछ व्यंग जरूर शोध पत्र से लेकर आलोचना और समीक्षा तक की शैली में लिखे गये हैं। तथापि इस पुस्तक में संकलित तमाम व्यंग कहानी पढने जैसा आनन्द देते हैं। 'द ग्रैंड मोटर डाइविंग स्कूल', 'अंगद के पाँव','कुत्ते और कुत्ते',और 'धोखा' जैसे व्यंगों का पाठानन्द कहानी जैसा ही है। उमरावनगर में कुछ दिन तो लगभग उपन्यासिका जैसी चीज है। 'अंगद के पाँव' जैसी रचना में लोगों की प्रतिक्षण की मानसिकता को श्रीलाल शुक्ल किसी मनोवैज्ञानिक लेखक की तरह उकेरते जाते हैं।
श्रीलाल शुक्ल के व्यंगों में अक्सर हास्य के तत्व अधिक प्रबल हो जाते हैं। हास्य और व्यंग का मिश्रण तो सामान्य बात है और अक्सर इनमे फर्क कर पाना भी बहुत सरल नहीं होता। दोनों के लक्ष्य भी लगभग एक जैसे होते हैं। हास्य का पुट रचना को ज्यादा स्वीकृति योग्य बनाता है और लेखक के विरोधियों तक के लिए वह पठनीय हो जाती है। ऐसे में मनोरंजन के चलते जनसामान्य तक के लिए शुक्ल जी के निबन्ध अधिक ग्राह्य होजाते हैं। मगर इससे कहीं कहीं लेखन में गंभीरता की क्षति भी होती है। यही कारण है कि परसाई जैसे लेखक की ऊॅंचाई बनी रहती है। श्रीलाल शुक्ल में हर जगह ऐसा भी नहीं, वे गंभीर भी हैं जैसे अपने 'पंडित, ठाकुर, लाला, बाबू, मुशी आदि' जैसे व्यंग में, मगर इधर के हिन्दी व्यंगकारों को पढ़ते समय एक कमी सी महसूस होती है जिसका नाम हरिशंकर परसाई है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि व्यंग की धार नहीं बनी है। वह लगातार बनी रहती है और समाज की विसंगतियों पर लगाातार प्रहार करती रहती है। पिछले पचास वर्षें के भारतीय समाज की विसंगतियों की पूरी खोज खबर लेने वाले व्यंग, मूल्यों के लिए ही एक सीधा संघर्ष हैं। 'दि ग्रैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल' जैसी रचना का निरंतर हास्य, अंत में निहायत ही राजनीतिक हो जाता है जिसमें उस्ताद ट्रेनर कार के बोनट पर झुककर एक झटकू व्याख्यान दे डालते है कि हर जगह गलत आदमी है तो फिर उनके गलत होने पर आपत्ति क्यों? वाकई यथार्थ भी तो यही है। यह व्यंग यथार्थ का अन्वेषण कहाँ तक, किस तरह और कितने प्रभावी ढंग से कर पाता है, यही महत्वपूर्ण है। कहीं कहीं व्यंग की धार जोनाथन स्विफ्ट जैसे व्यंगकारों की याद दिला देती है। अगली शताब्दि का शहर का आफिसर अध्यक्ष रिहाइशी कालोनी में सुअरों की अनिवार्यता पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि रिटायरमेंट के बाद वे कालोनी में रहेंगे तो सुअरों की कमी पूरी हो जायेगी।
हास्य व्यंग की एक शैली के रूप में श्रीलाल शुक्ल कैरीकेचरिंग का इस्तेमाल करते हैं। वे पात्रों को विरुपित करते हैं और उनके अवगुणों को प्रस्तुत करने के लिए उन्हें इसी तरह सामने करते हैं। वे चीजों को कुछ इसतरह बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि पाठकों के समक्ष विद्रूप स्पष्ट हो जाते हैं। यह एक तरह से वास्तविकता का यथातथ्य चित्रण नहीं है अपितु उसे अपनी अवस्थिति से प्रस्तुत करना है। श्रीलाल शुक्ल के लेखन की एक विशेषता या गड़बडी यह होगी कि वे वस्तुस्थ्िति को इस परिहासप्रियता के साथ प्रस्तुत करते हैं कि साहित्य की आलोचनात्मक रूढ़ियों से परे वे समाज के पात्रों के साथ खडे होकर वर्चस्वी व्यवस्था की आलोचना करनें का प्रयास करते लगते हैं। इस कार्य में अक्सर उनकी परिहासप्रियता उन्हें इनसाइडर जैसा बनाये रखती है। परिणामत: पाठकों में व्यवस्था के प्रति विरक्ति के स्थान पर आनन्दभाव आ जाता है। मगर यदि पाठक विचारशील है तो वह हँसने के बाद सोचेगाा कि वह किस बात पर हंस रहा है। संभव है कि वह ऐसा न भी करे।
जहालत के पचास साल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संकलित व्यंगों को यदि एक तरफ से पढ़ा जाय तो हमें गुजरे पचास सालों की कुछ छायाएँ दिखाई देंगी। ये छायाएँ बीते हुए समय से इन व्यंगों में उतरती हैं। व्यंग लेखन वैसे भी ऐकांतिक नहीं होते मगर श्रीलाल के इन व्यंगों में इतिहास के निशान सीधे मिल जाते हैं। चन्द ख़तूत-जो हसीनों के नही हैं में सलमान रुश्दी के सैटनिक वर्सेज का हवाला आता है तो होरी और उन्नीस सौ चौरासी में जार्ज ऑरवेल के उपन्यास का जिक्र है जिसकी चर्चा 1984 में बड़े पैमाने पर हुई थी। लकीर का साँप में फैजाबाद के सहमत प्रदशर्नी का हवाला है जिसमें धर्मिक कट्टरतावादियों नें प्रदर्शनी पर हल्ला बोल दिया था। राजीव गााँधी, हर्षद मेहता, मंदिर आन्दोलन की सब्जी पूड़ी आदि का जिक्र श्री लाल शुक्ल के व्यंगों को समय की पृष्ठभूमि प्रदान करता है।
श्रीलाल शुक्ल की भाषा को लेकर काफी चर्चा होती रही है, विशेषकर उनके उपन्यास राग दरबारी की भाषा को लेकर। उनके वाक्य अक्सर सीधी गति में न चलकर सर्पीले रास्ते अख्तियार करते हैं। मगर कहीं सादगी भी पाठकों को लुभा जाती है। कहीं कहीं तो पूरी नाटकीयता वाक्य संरचना में ही दिखती है जिसकी तिर्यकता पाठकों को प्रभावित करती है। भाषा का प्रवाह कई जगह गल्पकारों जैसा सफल है और यह व्यंग की पठनीयता का प्रमुख कारण है। अलग अलग व्यंगों में भाषा का वैभिन्य होते हुए भी यहाँ अभिव्यक्ति का चुटीलापन प्रभावोत्पादक है। यह हिन्दी के उस पुष्ट गद्य का उदाहरण है जिसमें प्रयोगधर्मिता की कोई कमी नहीं। यह निहायत ही आश्चर्यजनक है कि इस पुस्तक में वर्तनी की बहुत सी अशुध्दियाँ रह गयी हैं। आखिर एक व्यंगकार की कुति में इतनी विडंबना के लिए स्थान बचना ही चाहिए वगर्ना बाकी लिखे पढ़े से फर्क ही कैसा?
आज के दौर में व्यंग लेखन एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयीं हैं कि व्यंग का प्रभाव कम होता जा रहा है। समाज में वास्तविक परिस्थितियाँ ही इतनी विडंबनापूर्ण हो गयी हैं कि व्यंग की धार को बनाये रखना बहुत कठिन होता जा रहा है। बार बार यह बात दिमाग में आती है कि अब नये शस्त्रों की जरूरत है। मगर यदि सामाजिक परिथितियाँ ही ऐसी हैं तो उसके लिए व्यंगकार को कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल के पिछले पचास सालों के दौरान लिखे गये ये व्यंग इसी ओर संकेत करते हैं कि समाज में जो सुधार होने चाहिए थे, वे नहीं हो पाये हैं। यह हमारे प्रजातंत्र का पराभव है, हमारे लेखक का नहीं।
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समीक्षित कृति: जहालत के पचास साल
रचनाकार: श्रीलाल शुक्ल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 395 रूपये मात्र
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प्रजातंत्र के पराभव की कहानी
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रघुवंशमणि
हिंदी साहित्य में व्यंग लेखन की स्थिति पहले से ही बहुत अच्छी नहीं रही है। इसलिए यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा रहा है और अक्सर व्यंग के नाम पर बेहद सतही चीजें ही सामने आती रही हैं। हिन्दी व्यंग लेखन को समृध्द करने वाले हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के दिवंगत होने के बाद इस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंगकारों में से एक हैं। श्रीलाल शुक्ल के नाम राग दरबारी जैसा उपन्यास है जिसकी स्थिति व्यंग की उनकी अपनी भंगिमा के कारण हिन्दी उपन्यासों में बिल्कुल अलग रही है। राजकमल प्रकाशन ने हाल में उनके लेखों का एक संग्रह जहालत के पचास साल प्रकाशित किया है जिसमें शुक्ल जी के छोटे बड़े व्यंगों को इकठ्ठा छापा गया है। उनके द्वारा पिछले पचास सालों में लिखे गये इन लेखो को पढने का एक अलग ही आनन्द है। साथ ही हिन्दी के एक महत्वपूर्ण व्यंगकार के रचनात्मक विकास के विभिन्न पक्षों को देखने समझने का अवकाश भी यह संग्रह देता है। यह जरूर है कि श्रीलाल शुक्ल के पुराने पाठकों को इसमें प्रकाशित बहुत सी रचनाएँ पूर्व परिचित ही लगेंगी। अंगद के पाँव, यहाँ से वहाँ, उमराव नगर में कुछ दिन, कुछ जमीन की कुछ हवा में, आओ बैठें कुछ देर जैसी चर्चित और पठित रचनाओं के पाछकों के लिए जहालत के पचास साल व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल का कलेक्टेड वर्क जैसा होगाा। इस अर्थ में इसका प्रकाशन वास्तव में एक घटना है।
जहालत के पचास साल के व्यंग काफी व्यापक जमीन रखते हैं। वे वाकई पिछले पचास सालों के बारे में काफी कुछ कह जाते हैं। बातें टुकड़ों में अवश्य आती हैं क्योंकि व्यंगों की साइज आम तौर पर छोटी हैं लेकिन दुकड़ों 2 में ही देश के पिछले पचास साले का अच्छा खासा लेख जोखा है। भ्रष्टाचार और कुशिक्षा अधिकतर व्यंगों के मूल में है। नौकरशाही से पूरी तरह परिचित और उसी में जीवन गुजारने वाले शुक्ल जी का यह प्रिय विषय है। जाहिर है कि इस संग्रह में ऐसे व्यंग बहुतायत में हैं जिनका नौकरशाही से किसी न किसी प्रकार लेना देना है। राजनीति तो ऐसी चीज हो गयी है कि उसपर कलम चलाए बिना किसी भी व्यंगकार को मुक्ति नहीं। श्रीलाल शुक्ल किसी राजनीतिक प्रतिबध्दता से जुड़े रचनाकार नहीं हैं मगर सामाजिक यथार्थ से वे बचने का प्रयास कतई नहीं करते। वे वस्तुस्थितियों में भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियों की खोज करने वाले लेखक हैं, अपनी सारी विनोदप्रियता और मस्ती के बाद भी वे हिन्दी समाज के इस बुरे पक्ष को प्रस्तुत करने से बच नहीं पाते। ये विसंगतियॉ अंतत: सामान्य आदमी को ही अपना शिकार बनाती हैं। जहालत के पचास साल भारतीय प्रजातंत्र के पिछले पचास सालों की पतनगाथा है।
ऐसा लगता है कि श्रीलाल शुक्ल इस बात का ध्यान रखते हैं कि रचना में वैचारिकता का बोझ न आने पाये, मगर अपनी सामाजिक चेतना के चलते वे विचारात्मकता को अपनी रचनाओं मेें स्थान देते हैं। वे स्वयं ऐसा मानते रहे हैं कि उनकी प्रारंभिक रचनाओं में सामग्री ऐसी थी जिससे किसी का बहुत नफा नुकसान नहीं होना था। मगर बाद की रचनाओं में व्यंग पर सान प्रखर वैचारिकता ही चढ़ा सकी है। जहालत के पचास साल की रचनाएँ इस ओर संकेत करती हैं कि श्रीलाल शुक्ल के व्यंग लेखन का रास्ता एक यात्रा की तरह है जिसमें विभिन्न पड़ाव हैं। इन पड़ावों को कोई भी सूक्ष्मपाठ रेखांकित कर सकता है। शुरू के व्यंगों का हार्स लाफ्टर बाद में गंभीर होता गया है और उमरावनगर में कुछ दिन तक पहुँचते पहुँचते रचना में एक गहरा अनुशासन झलकने लगता है। इस प्रकार दृष्ठि और शैली दोनों के फर्क लेखक के विकास की दिशा को संकेतित करते हैं
श्रीलाल शुक्ल के काफी व्यंग ऐसे हैं जिनमें विषयवस्तु साहित्य है और साहित्य में भी खासकर कविता। यह कविता का एक व्यंग लेखक द्वारा किया गया पाठ है। यदि यह कविता का उत्तरपाठ है तो इसे हास्योत्तरपाठ कहना बेहतर होगा। आधुनिक कविता का भक्तिकाल, धुड़सरी का काव्यपाठ, साहित्योद्यानसुमनगुच्छा आदि कविता की संस्कृति की बखिया उधेड़ते हैं। निराला के बहाने साहित्य चर्चा में उनका निशाना साहित्य की सत्तावादी संस्कृति है जिसका शिकार स्वयं निराला का साहित्य हो गया है। साहित्यिक सन्दर्भ श्रीलाल जी के यहाँ भरे पड़े हैं और वे उन्हे जमकर व्यंग और हास्य के स्त्रोत के रूप में करते हैं। 'स्वर्णग्रंाम और वर्षा','बया और बन्दर की कहानी','कालिदास का संक्षिप्त इतिहास' जैसे व्यंग यह बतातें हैं कि साहित्य को व्यंग के प्रहारो ंसे नहीं बचाया जा सकता क्योंकि विसंगतियाँ बहॉ कुछ कम नहीं। लेकिन यह सब उनके साहित्य के गंभीर पाठक होने के अगंभीर लगने वाले प्रमाण हैं।
व्यंग एक ऐसी चीज है जो विधाओं की सीमा को अतिक्रांत करती है यद्यपि यह एक सच है कि व्यंग अपने में गद्य की एक विधा भी है, यह उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि विधाओं में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करती रहती है। श्रीलाल शुक्ल का लेखन भी इसका अपवाद नहीं। लेकिन उनके किसी भी सुधी पाठक के लिए वे मुख्यत: गल्प विधा के ही दायरे में व्यंग लिखने वाले लेखक हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो राग दरबारी ही होगा मगर जहालत के पचास साल में भी प्रमुखता इसी प्रकार के व्यंगों की है। उनके कुछ व्यंग जरूर शोध पत्र से लेकर आलोचना और समीक्षा तक की शैली में लिखे गये हैं। तथापि इस पुस्तक में संकलित तमाम व्यंग कहानी पढने जैसा आनन्द देते हैं। 'द ग्रैंड मोटर डाइविंग स्कूल', 'अंगद के पाँव','कुत्ते और कुत्ते',और 'धोखा' जैसे व्यंगों का पाठानन्द कहानी जैसा ही है। उमरावनगर में कुछ दिन तो लगभग उपन्यासिका जैसी चीज है। 'अंगद के पाँव' जैसी रचना में लोगों की प्रतिक्षण की मानसिकता को श्रीलाल शुक्ल किसी मनोवैज्ञानिक लेखक की तरह उकेरते जाते हैं।
श्रीलाल शुक्ल के व्यंगों में अक्सर हास्य के तत्व अधिक प्रबल हो जाते हैं। हास्य और व्यंग का मिश्रण तो सामान्य बात है और अक्सर इनमे फर्क कर पाना भी बहुत सरल नहीं होता। दोनों के लक्ष्य भी लगभग एक जैसे होते हैं। हास्य का पुट रचना को ज्यादा स्वीकृति योग्य बनाता है और लेखक के विरोधियों तक के लिए वह पठनीय हो जाती है। ऐसे में मनोरंजन के चलते जनसामान्य तक के लिए शुक्ल जी के निबन्ध अधिक ग्राह्य होजाते हैं। मगर इससे कहीं कहीं लेखन में गंभीरता की क्षति भी होती है। यही कारण है कि परसाई जैसे लेखक की ऊॅंचाई बनी रहती है। श्रीलाल शुक्ल में हर जगह ऐसा भी नहीं, वे गंभीर भी हैं जैसे अपने 'पंडित, ठाकुर, लाला, बाबू, मुशी आदि' जैसे व्यंग में, मगर इधर के हिन्दी व्यंगकारों को पढ़ते समय एक कमी सी महसूस होती है जिसका नाम हरिशंकर परसाई है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि व्यंग की धार नहीं बनी है। वह लगातार बनी रहती है और समाज की विसंगतियों पर लगाातार प्रहार करती रहती है। पिछले पचास वर्षें के भारतीय समाज की विसंगतियों की पूरी खोज खबर लेने वाले व्यंग, मूल्यों के लिए ही एक सीधा संघर्ष हैं। 'दि ग्रैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल' जैसी रचना का निरंतर हास्य, अंत में निहायत ही राजनीतिक हो जाता है जिसमें उस्ताद ट्रेनर कार के बोनट पर झुककर एक झटकू व्याख्यान दे डालते है कि हर जगह गलत आदमी है तो फिर उनके गलत होने पर आपत्ति क्यों? वाकई यथार्थ भी तो यही है। यह व्यंग यथार्थ का अन्वेषण कहाँ तक, किस तरह और कितने प्रभावी ढंग से कर पाता है, यही महत्वपूर्ण है। कहीं कहीं व्यंग की धार जोनाथन स्विफ्ट जैसे व्यंगकारों की याद दिला देती है। अगली शताब्दि का शहर का आफिसर अध्यक्ष रिहाइशी कालोनी में सुअरों की अनिवार्यता पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि रिटायरमेंट के बाद वे कालोनी में रहेंगे तो सुअरों की कमी पूरी हो जायेगी।
हास्य व्यंग की एक शैली के रूप में श्रीलाल शुक्ल कैरीकेचरिंग का इस्तेमाल करते हैं। वे पात्रों को विरुपित करते हैं और उनके अवगुणों को प्रस्तुत करने के लिए उन्हें इसी तरह सामने करते हैं। वे चीजों को कुछ इसतरह बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि पाठकों के समक्ष विद्रूप स्पष्ट हो जाते हैं। यह एक तरह से वास्तविकता का यथातथ्य चित्रण नहीं है अपितु उसे अपनी अवस्थिति से प्रस्तुत करना है। श्रीलाल शुक्ल के लेखन की एक विशेषता या गड़बडी यह होगी कि वे वस्तुस्थ्िति को इस परिहासप्रियता के साथ प्रस्तुत करते हैं कि साहित्य की आलोचनात्मक रूढ़ियों से परे वे समाज के पात्रों के साथ खडे होकर वर्चस्वी व्यवस्था की आलोचना करनें का प्रयास करते लगते हैं। इस कार्य में अक्सर उनकी परिहासप्रियता उन्हें इनसाइडर जैसा बनाये रखती है। परिणामत: पाठकों में व्यवस्था के प्रति विरक्ति के स्थान पर आनन्दभाव आ जाता है। मगर यदि पाठक विचारशील है तो वह हँसने के बाद सोचेगाा कि वह किस बात पर हंस रहा है। संभव है कि वह ऐसा न भी करे।
जहालत के पचास साल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें संकलित व्यंगों को यदि एक तरफ से पढ़ा जाय तो हमें गुजरे पचास सालों की कुछ छायाएँ दिखाई देंगी। ये छायाएँ बीते हुए समय से इन व्यंगों में उतरती हैं। व्यंग लेखन वैसे भी ऐकांतिक नहीं होते मगर श्रीलाल के इन व्यंगों में इतिहास के निशान सीधे मिल जाते हैं। चन्द ख़तूत-जो हसीनों के नही हैं में सलमान रुश्दी के सैटनिक वर्सेज का हवाला आता है तो होरी और उन्नीस सौ चौरासी में जार्ज ऑरवेल के उपन्यास का जिक्र है जिसकी चर्चा 1984 में बड़े पैमाने पर हुई थी। लकीर का साँप में फैजाबाद के सहमत प्रदशर्नी का हवाला है जिसमें धर्मिक कट्टरतावादियों नें प्रदर्शनी पर हल्ला बोल दिया था। राजीव गााँधी, हर्षद मेहता, मंदिर आन्दोलन की सब्जी पूड़ी आदि का जिक्र श्री लाल शुक्ल के व्यंगों को समय की पृष्ठभूमि प्रदान करता है।
श्रीलाल शुक्ल की भाषा को लेकर काफी चर्चा होती रही है, विशेषकर उनके उपन्यास राग दरबारी की भाषा को लेकर। उनके वाक्य अक्सर सीधी गति में न चलकर सर्पीले रास्ते अख्तियार करते हैं। मगर कहीं सादगी भी पाठकों को लुभा जाती है। कहीं कहीं तो पूरी नाटकीयता वाक्य संरचना में ही दिखती है जिसकी तिर्यकता पाठकों को प्रभावित करती है। भाषा का प्रवाह कई जगह गल्पकारों जैसा सफल है और यह व्यंग की पठनीयता का प्रमुख कारण है। अलग अलग व्यंगों में भाषा का वैभिन्य होते हुए भी यहाँ अभिव्यक्ति का चुटीलापन प्रभावोत्पादक है। यह हिन्दी के उस पुष्ट गद्य का उदाहरण है जिसमें प्रयोगधर्मिता की कोई कमी नहीं। यह निहायत ही आश्चर्यजनक है कि इस पुस्तक में वर्तनी की बहुत सी अशुध्दियाँ रह गयी हैं। आखिर एक व्यंगकार की कुति में इतनी विडंबना के लिए स्थान बचना ही चाहिए वगर्ना बाकी लिखे पढ़े से फर्क ही कैसा?
आज के दौर में व्यंग लेखन एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हो गयीं हैं कि व्यंग का प्रभाव कम होता जा रहा है। समाज में वास्तविक परिस्थितियाँ ही इतनी विडंबनापूर्ण हो गयी हैं कि व्यंग की धार को बनाये रखना बहुत कठिन होता जा रहा है। बार बार यह बात दिमाग में आती है कि अब नये शस्त्रों की जरूरत है। मगर यदि सामाजिक परिथितियाँ ही ऐसी हैं तो उसके लिए व्यंगकार को कितना जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल के पिछले पचास सालों के दौरान लिखे गये ये व्यंग इसी ओर संकेत करते हैं कि समाज में जो सुधार होने चाहिए थे, वे नहीं हो पाये हैं। यह हमारे प्रजातंत्र का पराभव है, हमारे लेखक का नहीं।
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समीक्षित कृति: जहालत के पचास साल
रचनाकार: श्रीलाल शुक्ल
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: 395 रूपये मात्र
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Friday, September 28, 2007
बिछलन भरी जमीन पर आलोचना का संतुलन
बिछलन भरी जमीन पर आलोचना का संतुलन
रघुवंशमणि
कुछ दिनों पहले हिन्दी साहित्य में ज्ञानोदय पत्रिका में प्रकाशित विजय कुमार के लेख पर लम्बा विवाद छिड़ा। इस विवाद में हिन्दी आलोचना के कई काले पक्ष नज़र आये। विवादों में न केवल अतिरेकपूर्ण बातें सामने आयीं बल्कि आपसी आरोप-प्रत्यारोप बढ़कर गाली-गलौज के स्तर तक पहुँचे। स्वस्थ वाद-विवाद किसी भी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण होता है पर अतिरेकपूर्ण वक्तव्यों और अपशब्दों तक पहुँचने वाले आरोपों-प्रत्यारोपों से साहित्य का कुछ भला नहीं होने वाला। बस होता इतना ही है कि कुछ लोग इस प्रकार चर्चा में आ जाने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में यदि कोई आलोचक चुपचाप और गंभीरतापूर्वक अपने कार्य में सन्नध्द है और अपने दायित्वों का जिम्मेदारी के साथ पालन कर रहा है तो यह सराहनीय है। आलोक गुप्त हिन्दी के ऐसे ही आलोचक हैं जो हिन्दी क्षेत्र से थोड़ा अलग बैठे आलोचना के कार्यभार का गंभीरतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।
आलोक गुप्त की इधर प्राकशित आलोचना पुस्तकों में मुक्तिबोध: युगचेतना की अभिव्यक्ति रेखांकित करने योग्य कृति है। इस आलोचना कृति में उन्होने मुक्तिबोध जैसे लेखक के विभिन्न पक्षों पर विचार किया है जिनकी रचनाएँ विवाद का विषय रही हैं। अक्सर मुक्तिबोध की रचनाओं को लेकर विभिन्न प्रकार के आलोचना विमर्श बनते रहे हैं। डॉ राम विलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह में मुक्तिबोध को लेकर मतान्तर रहे है। अपनी प्रतिबध्दताओं के साथ आलोक गुप्त मुक्तिबोध की कविताओं पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करते हैं।
यह कृति मुक्तिबोध के समस्त कृतित्व पर एक व्यवस्थित कार्य है जिसमें उनकी सर्जनात्मक कृतियों से लेकर उनकी आलोचनात्मक कृतियों तक को अध्ययन के दायरे में लाया गया है। आलोक गुप्त मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के लिए उसकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाते हैं। फिर वे मुक्तिबोध के साहित्य चिन्तन, उनकी कविता, उनके कथा साहित्य पर विचाार करते हुए उनके युगबोध तक पहुँचते हैं। यहाँ एक शोधकर्ता की सन्नध्दता और आलोचक का तीक्ष्ण विवेक दोनों एक साथ सक्रिय दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मुक्तिबोध के बारे में फैले कई आग्रहों का परिहार भी होता है।
आलोक गुप्त मुक्तिबोध की रचनाओं को वर्गीय चेतना के आधार पर देखते हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध मध्यवर्ग के लेखक हैं। मध्यवर्ग में भी निम्नमध्यवर्ग के। अपने वर्ग से गहराई से जुड़े होने के कारण ही वे उसकी सीमाओं और संभावनाओं को सही तरीके से जान सके हैं। उनके सामने मघ्यवर्ग का एक बड़ा समुदाय था जो अपनी जिजीविषा और मानवीयता के होते भी सुविधापरस्त होता जा रहा था। उसकी सुविधापरस्ती पर चिढ़ने या नाराज होने के बजाय मुक्तिबोध उसके कारणों की खोज करते हैं। इसी कारण वे इस जीवन के विभिन्न कोणों को पकड़ पाते हैं। सत्ता के भयानक चित्र भी इसी कारण उनकी कविताओं में आते हैं। क्लाडइथरली जैसी कहानियों में भी चेतनशील मनुष्य को पंगु बनाने वाली व्यवस्था है जो क्लाड ईथरली को एक बार हीरो का खिताब देती है और फिर पागलखाने में कैद कर देती है। परन्तु इस बोध के साथ साथ मुक्तिबोध में मनुष्य शक्ति के प्रति अनन्य आस्था भी है जो उन्हे सकारात्मक के चयन की ओर ले जाता है और उनके साहित्य में मनुष्य निरन्तर भीरुता को छोड़ता हुआ आगे बढ़कर अपना ऐतिहासिक दायित्व भी निभाता है।
मुक्तिबोध के प्रति अपनायी गयी यह संतुलित दृष्टि उनके अन्य आलोचनात्मक विमर्शों में भी दिखलायी पड़ती है। आलोक गुप्त छायावाद पर टिप्पणी करते हुए उसके अन्तर्विरोध के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि यह नयी शिक्षा और राजनीतिक आदर्शवाद तथा प्रतिष्ठित सामन्तीय मूल्यों का अन्तर्विरोध था जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी विद्रोह और निराशा में होती है। प्रगतिवाद को वे कहीं से भी विदेशी न मानते हुए उसे हिन्दी काव्य परम्परा की देन मानते हैं। उत्तरछायावाद की मस्ती और फक्कड़पन के तत्व बच्चन के हालावाद में हैं तो दिनकर की राष्ट्रीय चेतना की कविताओं में भी। वे आधुनिक कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसके लौकिक होने में देखते हैं।
एक आलोचक के रूप में आलोक गुप्त साहित्यिक आन्दोलनों को प्रतिक्रियाओं भर का परिणाम मानने से इंकार करते हैं। वे लिखते हैं:
'हिन्दी आलोचना में सामान्यत: नये आन्दोलनों को पुराने का प्रतिक्रियास्वरूप मान लिया जाता रहा है। जैसे छायावाद की अतिभावुकता और कल्पनाप्रवणता के प्रतिक्रियास्वरूप प्रगतिवाद और प्रगतिवाद की शुष्कता और नारेबाजी के प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवाद या नयी कविता। अब आलोचक इस सरलीकरण से बचने लगे हैं और मानने लगे हैं कि प्रतिक्रिया के अतिरिक्त आन्दोलन का एक ऐतिहासिक महत्व होता है। जिस प्रयोगवाद को प्रगतिवाद का प्रतिक्रियास्वरूप माना जाता है उसमें प्रगतिवाद के स्वरों की प्रबलता है।'
इसी परिप्रेक्ष्य में वे नयी कविता में सिर्फ नये मूल्य, नये भावबोध, नया शिल्प ही नहीं देखते। उनके अनुसार इसमें यदि वैयक्तिक अनुभूति को स्थान मिला तो यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी । वे मानते हैं कि नयी कविता का स्वर एक नहीं विविध है। साठोत्तरी कविता पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि साठोत्तरी कविता में व्यंग और विडम्बना का स्वर काफी प्रभावकारी है, विशेषकर धूमिल, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के यहाँ। लेकिन इन कविताओं की अर्थवत्ता फिर इसमें है कि विद्रोह, खीज और बौखलाहट के पीछे शोषित मनुष्य के प्रति गहरी आत्मीयता है। सातवें दशक की कविता के खीज, विद्रोह के विकास के ही रूप में वे आठवें दशक को देखते हैं जहाँ आक्रामकता और विद्रोह का स्वर मंद पड़ जाता है और पूर्ववर्ती आत्मीयता में से ही सकारात्मक दृष्टि विकसित होती है।
नवें दशक की कविता पर टिप्पणी करते हुए आलोक गुप्त कुछ रोचक बातें कहते हैं। मसलन विचारधारा सीधे कविता की सहायता नहीं करती जब तक कि उसे कवि द्वारा आत्मसंघर्ष के द्वारा अर्जित न किया जाय। कहने के लिए यदि कुछ न हो तो शिल्प साधना बेकार होती हॅै। इस दौर की कविताएँ उनके अनुसार माक्र्सवाद और आधुनिकतावाद के प्रचलित और पारम्परिक द्वैतसाँचे को अस्वीकार करती हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि अपनी काव्यवस्तु क्या चुनता है, महत्वपूर्ण यह ळै कि कवि कहाँ खड़ा है, किस जगह से बातें कर रहा है। सहज काव्य भाषा समकालीन कविता का विशेष गुण बन गया है, लेकिन यह सरलता और सहजता, सूक्ष्मता और जटिलता का विलोम नहीं।
आलोक गुप्त ने केदारनाथ सिंह, सुल्तान अहमद, फूलचन्द गुप्ता जैसे कवियों पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत की हैं। गुजरात से जुड़े होने के कारण उन्होंने गुजरात की समकालीन कविता पर भी लिखा है। कविता का अनुवाद, प्रेमचंद की कहानियाँ, राग दरबारी की प्रति ऑंचलिकता, रामकथा और स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, मिथक का कलात्मक विनियोग, परती परिकथा, स्वातंत्र्योत्तर ग्राम जीवन और हिन्दी गुजराती उपन्यास, गुजरात का स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लेखन आदि उनके अन्य महत्वपूर्ण लेख हैं।
इस प्रकार देखें तो आलोक गुप्त की आलोचना में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्थान छिपे हुए हैं। आलोक फतवेबाजी के अतिरेकों से बचते हैं और निष्कर्षात्मक जल्दबाजी से बचते हुए अपनी विश्लेषण क्षमता का प्रयोग करते हैं। जहाँ वे हिन्दी के पूर्ववर्ती आलोचकों से स्वयं को सहमत पाते हैं, उसे बताने में वे कतई संकोच नहीं करते। वे दूसरे की बातों पर अपनी मोहर लगाकर बेचने में विश्वास नहीं करते। इसी कारण उनकी बातें अक्सर पूरी आलोचना परम्परा से छन कर आती हैं और उसे समृध्द बनाने में अपने आलोचकीय श्रम को सार्थक समझती हैं। उन्हे प्रदान किया जा रहा डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान एक संतुलित आलोचना दृष्टि के आलोचक का सम्मान है जिनसे हिन्दी आलोचना को गंभीर और विचारोत्तेजक लेखन की उम्मीद है। डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान प्राप्त करने के अवसर पर मैं उन्हें बधाई देता हूँ।
रघुवंशमणि
बाँदा
23-09-2007
रघुवंशमणि
कुछ दिनों पहले हिन्दी साहित्य में ज्ञानोदय पत्रिका में प्रकाशित विजय कुमार के लेख पर लम्बा विवाद छिड़ा। इस विवाद में हिन्दी आलोचना के कई काले पक्ष नज़र आये। विवादों में न केवल अतिरेकपूर्ण बातें सामने आयीं बल्कि आपसी आरोप-प्रत्यारोप बढ़कर गाली-गलौज के स्तर तक पहुँचे। स्वस्थ वाद-विवाद किसी भी साहित्य के लिए महत्वपूर्ण होता है पर अतिरेकपूर्ण वक्तव्यों और अपशब्दों तक पहुँचने वाले आरोपों-प्रत्यारोपों से साहित्य का कुछ भला नहीं होने वाला। बस होता इतना ही है कि कुछ लोग इस प्रकार चर्चा में आ जाने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में यदि कोई आलोचक चुपचाप और गंभीरतापूर्वक अपने कार्य में सन्नध्द है और अपने दायित्वों का जिम्मेदारी के साथ पालन कर रहा है तो यह सराहनीय है। आलोक गुप्त हिन्दी के ऐसे ही आलोचक हैं जो हिन्दी क्षेत्र से थोड़ा अलग बैठे आलोचना के कार्यभार का गंभीरतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।
आलोक गुप्त की इधर प्राकशित आलोचना पुस्तकों में मुक्तिबोध: युगचेतना की अभिव्यक्ति रेखांकित करने योग्य कृति है। इस आलोचना कृति में उन्होने मुक्तिबोध जैसे लेखक के विभिन्न पक्षों पर विचार किया है जिनकी रचनाएँ विवाद का विषय रही हैं। अक्सर मुक्तिबोध की रचनाओं को लेकर विभिन्न प्रकार के आलोचना विमर्श बनते रहे हैं। डॉ राम विलास शर्मा और डॉ नामवर सिंह में मुक्तिबोध को लेकर मतान्तर रहे है। अपनी प्रतिबध्दताओं के साथ आलोक गुप्त मुक्तिबोध की कविताओं पर निष्पक्षतापूर्वक विचार करते हैं।
यह कृति मुक्तिबोध के समस्त कृतित्व पर एक व्यवस्थित कार्य है जिसमें उनकी सर्जनात्मक कृतियों से लेकर उनकी आलोचनात्मक कृतियों तक को अध्ययन के दायरे में लाया गया है। आलोक गुप्त मुक्तिबोध के साहित्य को समझने के लिए उसकी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में जाते हैं। फिर वे मुक्तिबोध के साहित्य चिन्तन, उनकी कविता, उनके कथा साहित्य पर विचाार करते हुए उनके युगबोध तक पहुँचते हैं। यहाँ एक शोधकर्ता की सन्नध्दता और आलोचक का तीक्ष्ण विवेक दोनों एक साथ सक्रिय दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ मुक्तिबोध के बारे में फैले कई आग्रहों का परिहार भी होता है।
आलोक गुप्त मुक्तिबोध की रचनाओं को वर्गीय चेतना के आधार पर देखते हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध मध्यवर्ग के लेखक हैं। मध्यवर्ग में भी निम्नमध्यवर्ग के। अपने वर्ग से गहराई से जुड़े होने के कारण ही वे उसकी सीमाओं और संभावनाओं को सही तरीके से जान सके हैं। उनके सामने मघ्यवर्ग का एक बड़ा समुदाय था जो अपनी जिजीविषा और मानवीयता के होते भी सुविधापरस्त होता जा रहा था। उसकी सुविधापरस्ती पर चिढ़ने या नाराज होने के बजाय मुक्तिबोध उसके कारणों की खोज करते हैं। इसी कारण वे इस जीवन के विभिन्न कोणों को पकड़ पाते हैं। सत्ता के भयानक चित्र भी इसी कारण उनकी कविताओं में आते हैं। क्लाडइथरली जैसी कहानियों में भी चेतनशील मनुष्य को पंगु बनाने वाली व्यवस्था है जो क्लाड ईथरली को एक बार हीरो का खिताब देती है और फिर पागलखाने में कैद कर देती है। परन्तु इस बोध के साथ साथ मुक्तिबोध में मनुष्य शक्ति के प्रति अनन्य आस्था भी है जो उन्हे सकारात्मक के चयन की ओर ले जाता है और उनके साहित्य में मनुष्य निरन्तर भीरुता को छोड़ता हुआ आगे बढ़कर अपना ऐतिहासिक दायित्व भी निभाता है।
मुक्तिबोध के प्रति अपनायी गयी यह संतुलित दृष्टि उनके अन्य आलोचनात्मक विमर्शों में भी दिखलायी पड़ती है। आलोक गुप्त छायावाद पर टिप्पणी करते हुए उसके अन्तर्विरोध के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि यह नयी शिक्षा और राजनीतिक आदर्शवाद तथा प्रतिष्ठित सामन्तीय मूल्यों का अन्तर्विरोध था जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी विद्रोह और निराशा में होती है। प्रगतिवाद को वे कहीं से भी विदेशी न मानते हुए उसे हिन्दी काव्य परम्परा की देन मानते हैं। उत्तरछायावाद की मस्ती और फक्कड़पन के तत्व बच्चन के हालावाद में हैं तो दिनकर की राष्ट्रीय चेतना की कविताओं में भी। वे आधुनिक कविता की सबसे बड़ी विशेषता उसके लौकिक होने में देखते हैं।
एक आलोचक के रूप में आलोक गुप्त साहित्यिक आन्दोलनों को प्रतिक्रियाओं भर का परिणाम मानने से इंकार करते हैं। वे लिखते हैं:
'हिन्दी आलोचना में सामान्यत: नये आन्दोलनों को पुराने का प्रतिक्रियास्वरूप मान लिया जाता रहा है। जैसे छायावाद की अतिभावुकता और कल्पनाप्रवणता के प्रतिक्रियास्वरूप प्रगतिवाद और प्रगतिवाद की शुष्कता और नारेबाजी के प्रतिक्रियास्वरूप प्रयोगवाद या नयी कविता। अब आलोचक इस सरलीकरण से बचने लगे हैं और मानने लगे हैं कि प्रतिक्रिया के अतिरिक्त आन्दोलन का एक ऐतिहासिक महत्व होता है। जिस प्रयोगवाद को प्रगतिवाद का प्रतिक्रियास्वरूप माना जाता है उसमें प्रगतिवाद के स्वरों की प्रबलता है।'
इसी परिप्रेक्ष्य में वे नयी कविता में सिर्फ नये मूल्य, नये भावबोध, नया शिल्प ही नहीं देखते। उनके अनुसार इसमें यदि वैयक्तिक अनुभूति को स्थान मिला तो यथार्थवादी दृष्टिकोण को भी । वे मानते हैं कि नयी कविता का स्वर एक नहीं विविध है। साठोत्तरी कविता पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि साठोत्तरी कविता में व्यंग और विडम्बना का स्वर काफी प्रभावकारी है, विशेषकर धूमिल, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा के यहाँ। लेकिन इन कविताओं की अर्थवत्ता फिर इसमें है कि विद्रोह, खीज और बौखलाहट के पीछे शोषित मनुष्य के प्रति गहरी आत्मीयता है। सातवें दशक की कविता के खीज, विद्रोह के विकास के ही रूप में वे आठवें दशक को देखते हैं जहाँ आक्रामकता और विद्रोह का स्वर मंद पड़ जाता है और पूर्ववर्ती आत्मीयता में से ही सकारात्मक दृष्टि विकसित होती है।
नवें दशक की कविता पर टिप्पणी करते हुए आलोक गुप्त कुछ रोचक बातें कहते हैं। मसलन विचारधारा सीधे कविता की सहायता नहीं करती जब तक कि उसे कवि द्वारा आत्मसंघर्ष के द्वारा अर्जित न किया जाय। कहने के लिए यदि कुछ न हो तो शिल्प साधना बेकार होती हॅै। इस दौर की कविताएँ उनके अनुसार माक्र्सवाद और आधुनिकतावाद के प्रचलित और पारम्परिक द्वैतसाँचे को अस्वीकार करती हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि अपनी काव्यवस्तु क्या चुनता है, महत्वपूर्ण यह ळै कि कवि कहाँ खड़ा है, किस जगह से बातें कर रहा है। सहज काव्य भाषा समकालीन कविता का विशेष गुण बन गया है, लेकिन यह सरलता और सहजता, सूक्ष्मता और जटिलता का विलोम नहीं।
आलोक गुप्त ने केदारनाथ सिंह, सुल्तान अहमद, फूलचन्द गुप्ता जैसे कवियों पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ प्रस्तुत की हैं। गुजरात से जुड़े होने के कारण उन्होंने गुजरात की समकालीन कविता पर भी लिखा है। कविता का अनुवाद, प्रेमचंद की कहानियाँ, राग दरबारी की प्रति ऑंचलिकता, रामकथा और स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास, मिथक का कलात्मक विनियोग, परती परिकथा, स्वातंत्र्योत्तर ग्राम जीवन और हिन्दी गुजराती उपन्यास, गुजरात का स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लेखन आदि उनके अन्य महत्वपूर्ण लेख हैं।
इस प्रकार देखें तो आलोक गुप्त की आलोचना में अनेक महत्वपूर्ण प्रस्थान छिपे हुए हैं। आलोक फतवेबाजी के अतिरेकों से बचते हैं और निष्कर्षात्मक जल्दबाजी से बचते हुए अपनी विश्लेषण क्षमता का प्रयोग करते हैं। जहाँ वे हिन्दी के पूर्ववर्ती आलोचकों से स्वयं को सहमत पाते हैं, उसे बताने में वे कतई संकोच नहीं करते। वे दूसरे की बातों पर अपनी मोहर लगाकर बेचने में विश्वास नहीं करते। इसी कारण उनकी बातें अक्सर पूरी आलोचना परम्परा से छन कर आती हैं और उसे समृध्द बनाने में अपने आलोचकीय श्रम को सार्थक समझती हैं। उन्हे प्रदान किया जा रहा डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान एक संतुलित आलोचना दृष्टि के आलोचक का सम्मान है जिनसे हिन्दी आलोचना को गंभीर और विचारोत्तेजक लेखन की उम्मीद है। डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान प्राप्त करने के अवसर पर मैं उन्हें बधाई देता हूँ।
रघुवंशमणि
बाँदा
23-09-2007
Thursday, September 27, 2007
कुपत्र
कुपत्र
प्रिय मणि जी 21.9.07
नमस्कार
आषा हेै आप साहित्य कर्म में लीन होंगे। निराला की तोड़ती पत्थर वाली कविता की मजदूरनी की तरह। यह उपमा यदि ठीक नहीं लगी तो मैं आप को मर्दवादी समझूंगा और किसी ब्लागिये से मिल कर आप को बदनाम भी कर सकता हूु। इसलिये इसे स्वीकार करने मे ही आप अपना भला समझेंगे।ऐसा मेरा विष्वास है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप को नारी समर्थक कहा जाएगा और आप की प्रगतिषीलता पर अगर किसी को किसी कारण कभी संदेह रहा होगा तो वह अपने आप को ठीक करने के लिये बाध्य होगा क्योकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे नारी विरोधी समझा जाएगा। इस प्रकार, आप समझ सकते हैं ंकि मेरे द्वारा आप को जो उपमा दी गई है, वह नारी कल्याण्ा की दिषा में एक ऐसी क्रा्रंति का सूत्रपात करेगा ंकि सारे मर्दाें में नारी समर्थक होने या दिखने की होड़ लग जाएगी और देखते ही देखते नारी आंदोलन अपनी प्रत्याषित या अप्रत्याषित परिणति तक अतिषीध्र पहुंच जाएगा। हां, यह जरूर है ंकि इस परिणति की तीब्रता मर्दों की आंखो में इतनी भभ्भाहट पैदा करेगी ंकि बहुत से मर्द अपनी आंखों पर काला चष्मा चढा कर नारियों को घूरते हुए उनकी प्रषंसा का प्रगतिगान करेंगें। परिण्ााम यह होगा ंकि यह नारी आंदोलन जितनी तेजी से उत्थान की सीढ़ियां चढ़ कर अपने एवरेस्ट का निर्माण करनें में कामयाब होगा, उतनी ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो जाएगा। नारी आंदोलन की अग्रणी नारियां अपनी आजादी की नषीली सफलता से बोर होकर पुन: अपने घरों में लौट जाएंगी और आप तो जानते ही हैं ंकि नारी घर में लौटी नहीं ंकि उसे गृहिणी बनाने में पुरूष को तनिक भी देर नहीं लगेगी।
मणि जी, मुझे क्षमा करेंगे ंकि अपने को उपमावादी कालिदास का आधुनिक वंषज सावित करने के लोभ में आप के साहित्य कर्म को मैंने जिस उपमा से नवाजा, मैं नहीं जानता था ंकि उसका तार्किक परिणाम इतना द्विधर्मी या विधर्मी होगा ंकि प्रगतिषील और प्रतिक्रियावादी --दोनों इसका अपने अपने ढंग से मजा लेंने का अवसर पा लेंगे। मुझसे सबसे बड़ी भूल यह हुई ंकि मैं यह भूल ही गया ंकि तुलसी के इस देष में ऐसा कोई नहीं है जो घ्अवसर चूके पुनि पछितैहैं वाला उपदेष गांठ बांध कर नहीं चलता । यकीन मानें, यदि यह जानता तो ऐसा कदापि न करता । मगर अब तो क्षमा याचना के अलावे कोई रास्ता भी नहीं बचा है। जो लिख चुका उसे वापस कैसे लिया जाता है, यह हमें अभी सीखना है। यह सीखने में कितना सफल हो पाउंगा ओैर कितना योगाभ्यास करना पड़गा, यह अभी भविष्य के गर्त में है।फिलहाल तो मै यही कहना चाहता हूं ंकि आप मुझे इस अपराध के लिए साहित्य के गर्त में (गर्तवादी साहित्य का उभार इस दषक की ताजी घटना है।)जाने का अभिषाप दे डालें , इसके पहले मैने आप से माफी मांग लिया है। मैने सुना है आप ने बहुत से साहित्यिक अजामिलों को माफ करने का कीर्तिमान स्थापित ंकिया है। यदि आप ने माफ कर दिया तो आप के कीर्तिमान के तापमान में इजाफा ही होगा और हमारा साहित्यजगत आप की कीर्तिश्री के चकाचौंध से बचने के लिये नीचता का फोटोका्रेमिक चष्मा लगाने मे तनिक देर नहीं करेगा, यह भी मैं जानता हँॅू। बहरहाल, अपनी मूर्खता के आवेग में मैनें साहित्य के सीधे से सवालों पर सीधे-सीधे सोचने, या कहें ंकि बनी बनाई लीक को पीटकर संतुष्ट हो जाने के आजमाए रास्ते को र्छोड़कर तर्क के जिस लपेटे में अपने को फंसा दिया है उसी का परिण्ााम है ंकि बात कहां से चलकर कहां पहुंच गई और अंतहीन हरिकथा का अंत यह हुआ ंकि अपनी नारी विरोधी छवि से निकलने की हमारी हर चेष्टा हमें अंतत: वहीं पहुंचा देती है जहां से निकल भागना मेरा स्वप्न रहा है। साहित्य में तर्क की यही सबसे बडी ख़ूबी या खामी है ंकि इसकी आंत जटिल रूप से इतने पेंचोखम में उलझी होती है कि इसकी वास्तविक लम्बाई का अंदाजा पाना तो दूर की बात है, यह तक नहीं पता चल पाता ंकि इसका मॅुह ंकिधर है। कहां से चलेेंगे तो कहां पहुंचेंगे। सो अपनी बात को कहीं न कहीं अधूरा ही छोड़ना पड़ता है--जैसे रामचरितमानस की इतनी मोटी पोथी लिखनेवाले तुलसी को भी आखिर कहना ही पड़ा। मै कोई तुलसी नहीं । मगर उनके बाद के जमाने मे पैदा होने का एक यह लाभ तो मिला ही है ंकि जो बात उन्होंने इतनी मोटी पोथी लिख कर सीखी उसे मैने उनसे ही विना कोई पोथी लिखने का जहमत उठाए ही सीख लिया। उनकी सीख का ही प्रभाव है ंकि इस षैतान की आंत को यहीं काट रहा हूं। अच्छा हो आप हम मिलजुल कर एक दूसरे की खामियों की सरे-आम बखिया उधेडें । घ्यान बस इतना रहे ंकि हम एक क्षण के लिये भी न भूलें ंकि यह एक खेल है जिसे अगर समझदारी से ओैर फाउल होने के खतरों से बचते हुए खेला जाय तो यह आपसी मेलजोल को ओैर अधिक बेलौस ओैर प्रौढ़ बनाता है । आजकल इसी का नाम हिन्दी साहित्य है। सुप्त भारतीय मनीषा को नये ज्ञानोदय से आलोकित करने का नया प्रयास।
सादर
साहित्य का छिद्रान्वेषी
कपिलदेव
प्रिय मणि जी 21.9.07
नमस्कार
आषा हेै आप साहित्य कर्म में लीन होंगे। निराला की तोड़ती पत्थर वाली कविता की मजदूरनी की तरह। यह उपमा यदि ठीक नहीं लगी तो मैं आप को मर्दवादी समझूंगा और किसी ब्लागिये से मिल कर आप को बदनाम भी कर सकता हूु। इसलिये इसे स्वीकार करने मे ही आप अपना भला समझेंगे।ऐसा मेरा विष्वास है। यदि आप ऐसा करते हैं तो आप को नारी समर्थक कहा जाएगा और आप की प्रगतिषीलता पर अगर किसी को किसी कारण कभी संदेह रहा होगा तो वह अपने आप को ठीक करने के लिये बाध्य होगा क्योकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसे नारी विरोधी समझा जाएगा। इस प्रकार, आप समझ सकते हैं ंकि मेरे द्वारा आप को जो उपमा दी गई है, वह नारी कल्याण्ा की दिषा में एक ऐसी क्रा्रंति का सूत्रपात करेगा ंकि सारे मर्दाें में नारी समर्थक होने या दिखने की होड़ लग जाएगी और देखते ही देखते नारी आंदोलन अपनी प्रत्याषित या अप्रत्याषित परिणति तक अतिषीध्र पहुंच जाएगा। हां, यह जरूर है ंकि इस परिणति की तीब्रता मर्दों की आंखो में इतनी भभ्भाहट पैदा करेगी ंकि बहुत से मर्द अपनी आंखों पर काला चष्मा चढा कर नारियों को घूरते हुए उनकी प्रषंसा का प्रगतिगान करेंगें। परिण्ााम यह होगा ंकि यह नारी आंदोलन जितनी तेजी से उत्थान की सीढ़ियां चढ़ कर अपने एवरेस्ट का निर्माण करनें में कामयाब होगा, उतनी ही जल्दी अप्रासंगिक भी हो जाएगा। नारी आंदोलन की अग्रणी नारियां अपनी आजादी की नषीली सफलता से बोर होकर पुन: अपने घरों में लौट जाएंगी और आप तो जानते ही हैं ंकि नारी घर में लौटी नहीं ंकि उसे गृहिणी बनाने में पुरूष को तनिक भी देर नहीं लगेगी।
मणि जी, मुझे क्षमा करेंगे ंकि अपने को उपमावादी कालिदास का आधुनिक वंषज सावित करने के लोभ में आप के साहित्य कर्म को मैंने जिस उपमा से नवाजा, मैं नहीं जानता था ंकि उसका तार्किक परिणाम इतना द्विधर्मी या विधर्मी होगा ंकि प्रगतिषील और प्रतिक्रियावादी --दोनों इसका अपने अपने ढंग से मजा लेंने का अवसर पा लेंगे। मुझसे सबसे बड़ी भूल यह हुई ंकि मैं यह भूल ही गया ंकि तुलसी के इस देष में ऐसा कोई नहीं है जो घ्अवसर चूके पुनि पछितैहैं वाला उपदेष गांठ बांध कर नहीं चलता । यकीन मानें, यदि यह जानता तो ऐसा कदापि न करता । मगर अब तो क्षमा याचना के अलावे कोई रास्ता भी नहीं बचा है। जो लिख चुका उसे वापस कैसे लिया जाता है, यह हमें अभी सीखना है। यह सीखने में कितना सफल हो पाउंगा ओैर कितना योगाभ्यास करना पड़गा, यह अभी भविष्य के गर्त में है।फिलहाल तो मै यही कहना चाहता हूं ंकि आप मुझे इस अपराध के लिए साहित्य के गर्त में (गर्तवादी साहित्य का उभार इस दषक की ताजी घटना है।)जाने का अभिषाप दे डालें , इसके पहले मैने आप से माफी मांग लिया है। मैने सुना है आप ने बहुत से साहित्यिक अजामिलों को माफ करने का कीर्तिमान स्थापित ंकिया है। यदि आप ने माफ कर दिया तो आप के कीर्तिमान के तापमान में इजाफा ही होगा और हमारा साहित्यजगत आप की कीर्तिश्री के चकाचौंध से बचने के लिये नीचता का फोटोका्रेमिक चष्मा लगाने मे तनिक देर नहीं करेगा, यह भी मैं जानता हँॅू। बहरहाल, अपनी मूर्खता के आवेग में मैनें साहित्य के सीधे से सवालों पर सीधे-सीधे सोचने, या कहें ंकि बनी बनाई लीक को पीटकर संतुष्ट हो जाने के आजमाए रास्ते को र्छोड़कर तर्क के जिस लपेटे में अपने को फंसा दिया है उसी का परिण्ााम है ंकि बात कहां से चलकर कहां पहुंच गई और अंतहीन हरिकथा का अंत यह हुआ ंकि अपनी नारी विरोधी छवि से निकलने की हमारी हर चेष्टा हमें अंतत: वहीं पहुंचा देती है जहां से निकल भागना मेरा स्वप्न रहा है। साहित्य में तर्क की यही सबसे बडी ख़ूबी या खामी है ंकि इसकी आंत जटिल रूप से इतने पेंचोखम में उलझी होती है कि इसकी वास्तविक लम्बाई का अंदाजा पाना तो दूर की बात है, यह तक नहीं पता चल पाता ंकि इसका मॅुह ंकिधर है। कहां से चलेेंगे तो कहां पहुंचेंगे। सो अपनी बात को कहीं न कहीं अधूरा ही छोड़ना पड़ता है--जैसे रामचरितमानस की इतनी मोटी पोथी लिखनेवाले तुलसी को भी आखिर कहना ही पड़ा। मै कोई तुलसी नहीं । मगर उनके बाद के जमाने मे पैदा होने का एक यह लाभ तो मिला ही है ंकि जो बात उन्होंने इतनी मोटी पोथी लिख कर सीखी उसे मैने उनसे ही विना कोई पोथी लिखने का जहमत उठाए ही सीख लिया। उनकी सीख का ही प्रभाव है ंकि इस षैतान की आंत को यहीं काट रहा हूं। अच्छा हो आप हम मिलजुल कर एक दूसरे की खामियों की सरे-आम बखिया उधेडें । घ्यान बस इतना रहे ंकि हम एक क्षण के लिये भी न भूलें ंकि यह एक खेल है जिसे अगर समझदारी से ओैर फाउल होने के खतरों से बचते हुए खेला जाय तो यह आपसी मेलजोल को ओैर अधिक बेलौस ओैर प्रौढ़ बनाता है । आजकल इसी का नाम हिन्दी साहित्य है। सुप्त भारतीय मनीषा को नये ज्ञानोदय से आलोकित करने का नया प्रयास।
सादर
साहित्य का छिद्रान्वेषी
कपिलदेव
Friday, September 21, 2007
प्रारम्भ
कविता
प्रारम्भ
एक बच्चा
खींचता है
एक पड़ी लकीर
और एक बेंड़ी
बायीं ओर एक गोला
दायीं ओर एक पूँछ
बना देता है
'क'
यहीं से
शुरू होती है
कविता
इसी तरह
लिखा जाता है
इतिहास
रघुवंशमणि
प्रारम्भ
एक बच्चा
खींचता है
एक पड़ी लकीर
और एक बेंड़ी
बायीं ओर एक गोला
दायीं ओर एक पूँछ
बना देता है
'क'
यहीं से
शुरू होती है
कविता
इसी तरह
लिखा जाता है
इतिहास
रघुवंशमणि
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