Monday, October 13, 2008

झाँसी की गौरव गाथा

झाँसी की गौरव गाथा


हमारे देश के इतिहास में 1857 का स्वाधीनता संघर्ष स्वर्णाक्षरों में लिखित कालखण्ड है और इस समय की शौर्य गााथा की सबसे उज्ज्वल नक्षत्र महारानी लक्ष्मीबाई हैं। झाँसी की छोटी सी रियासत की भूमिका उस संघर्ष काल के एक दौर में केन्द्रीय हो गयी थी। हम में से अधिकतर लोग झाँसी के बारे में कम ही जानते हैं, शायद वहीं तक जहाँ तक झाँसी का इतिहास लक्ष्मीबाई से जुड़ता है। मगर झाँसी की कहानी लम्बी है और इस कहानी को झाँसी के ही निवासी और वरिष्ठ लेखक/कवि ओमशंकर खरे असर ने एक पुस्तक महारानी लक्ष्मीबाई एवं उनकी झाँसी का रूप दिया है।

यह पुस्तक वास्तव में असर साहब के लिखे गये कुछ लेखों का संकलन है जो उन्होंने जागरण अखबार के लिए एक श्रृंखला के अन्तर्गत लिखे थे। खरे साहब अपनी इस इतिहास की पुस्तक का प्रारम्भ बंगश और मराठों के बीच चल रहे संघर्ष से करते हैं जिसके चलते झाँसी एक शहर के रूप में सामने आया। पेशवा बाजीराव ने पहले-पहल इस क्षेत्र के सामरिक महत्व को देखते हुए यहाँ एक छावनी स्थापित की थी क्योंकि यहाँ से दतिया और ओरक्षा राज्य करीब पड़ते थे जिनपर नियंत्रण जरूरी था। बाद में मराठा सेनानायक मल्हारकृष्ण की हत्या के बाद नारोशंकर झाँसी के सूबेदार बने। उन्होने राज्य की सीमा को बढ़ाया और झाँसी के किले को मजबूत किया। यही नहीं उन्होने झाँसी शहर को बसाने में भी दिलचस्पी दिखायी। पेशवा द्वारा उन्हें वापस बुलाने पर माधवगोविन्द आतिया , बाबूराव कन्हाई और विश्वासराव लक्ष्मण इस के सूबेदार नियुक्त हुए। पानीपत की लड़ाई में पराजय के बाद मराठे कमजोर पड़ गये। 1762 में शुजाउद्दौला ने झाँसी के किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन 1763 में ही मराठों ने फिर झाँसी पर कब्जा कर लिया। 1766 तक विश्वास राव लक्ष्मण यहाँ शासक रहे। 1770 में रघुनाथ हरी नेवलकर को झाँसी का शासन संभालने का अवसर मिला।

रघुनाथ हरी नेवलकर से ही वह वंश चलता है जिसकी राजबधू महारानी लक्ष्मीबाई बनी। वे एक प्रतापी शासक सिध्द हुए और उन्होने झाँसी को अवध और सिन्धिया की दुर्भावनापूर्ण गतिविधियों से बचाया। उनके समय में झाँसी ने कई हमलों और षडयन्त्रों का सामना सफलतापूर्वक किया। उन्होने अपने सुशासन द्वारा जनता में अपना प्रभाव बनाते हुए झाँसी में अपने राजवंश की नींव डाली। पच्चीस वर्षो तक शासन करने के उपरांत वे काशी चले गये। उनके छोटे भाई शिवराव भाÅ ने सन 1794 में झाँसँी के सूबेदार का पद संभाला। उनके समय में मराठों की पेशवाई कमजोर हो रही थी और अंग्रेजों का दबदबा भारत में बढ़ता जा रहा था। परिणाम स्वरूप शिवराव भाÅ को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। उनकी मृत्यु के उपरांत उनका पुत्र रामचन्द्र भाÅ अपने चाचा के संरक्षण में महाराजा बने मगर अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गयी। इस दौरान अंग्रेजों का सम्पर्क झाँसी से बढ़ा और यह दौर षडयंत्रों का भी था। बढ़ते दबावों के चलते 1817 की संधि के अनुसार झाँसी में अंग्रेजी फोज का रखा जाना स्वीकार किया गया। रामचन्द राव के निघन के बाद अंग्रेजों ने रघुनाथ राव को शासक बनाया जो कुख्यात और कुष्ठ रोग का शिकार था। वह शीघ्र ही कालकवलित हो गया। उत्तराधिकार के विवादों के बीच गंगाधर राव झाँसी के महाराजा बने जिनकी पत्नी महारानी लक्ष्मीबाई थीं।

गंगाधर राव के समय अंग्रेजों ने झाँसी के किले में अपनी सेना स्थापित क्ी। लेकिन इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुध्द छुटपुट विद्रोह शुरू हो गये थे। गंगाधर राव के समय में झाँसी का विकास हुआ क्योंकि वे एक कुशल और प्रभावशाली शसक थे। मगर वे विधुर हो गये थे उनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया था। सन्तान प्राप्ति के लिए उनहोने दूसरा विवाह किया था और रानी लक्ष्मीबाई उनकी पत्नी बनकर महल में आयी थीं। असर साहब यह बताते हैं कि लक्ष्मी बाई या मनू का जीवन कितने दुखों से भरा था। इस तथ्य को अब कम ही जाना जाता है। कम ही लोग जानते हैं क्योंकि यह दुख-कथा अब महारानी लक्ष्मीबाई की ऐतिहासिक शौर्य गााथा के नीचे दब सी गयी है। चार साल की उम्र में ही लक्ष्मीबाई की माता का निधन हो गया था। विवाहोपरान्त लक्ष्मीबाई को एक पुत्र हुआ था जो तीन माह बाद चल बसा। फिर महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु का कहर उन पर वैधव्य के रूप में टूटा।

लक्ष्मीबाई बचपन से ही प्रतिभाशाली और साहसी थीं। बिठूर में निवास के दौरान उन्होंने राजशाही के कायदे कानून सीखे। व्यायाम, घुड़सवारी वगैरह वहीं से सीखी। झाँसी आने पर शासन व्यवस्था में गंगाधर राव का सक्रिय सहयोग दिया। अपने पुत्र की मृत्यु के बाद गंगाधर राव बीमार पड़ गये और उन्हें झाँसी के विलुप्त होने का भय सताने लगा। झाँसी की भीषण त्रासदी का चरण उनकी मृत्यु थी जिसने अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता की कुदृष्टि को अवसर दिया। संग्रहणी के शिकार गंगाधर राव ने अपने अन्तिम दिनों में आनन्द राव को दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार किया जिसकी उम्र पाँच वर्ष की थी। दत्तक विधान के बाद उसका नाम दामोदर राव गंगाधर रखा गया। यह 19 नवम्बर 1853 की बात है। उसी के दो दिन बाद महाराजा गंगाधर राव का निधन हो गया।

गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने लैप्स की नीति के तहत झाँसी को हड़पने की चेष्टाएँ आरम्भ कर दीं। महारानी लक्ष्मीबाई ने इसका हर प्रकार से विरोध किया। असर साहब ने अपनी पुस्तक में बतलाया है कि किस प्रकार स्लीमन ने दत्तक पुत्र के अधिकारों के प्रश्न पर दोहरा रवैया अपनाया था। इसी मुद्दे पर दो अंग्रेज प्रशासको एलिस और मैलकम में गहरे मतभेद थे । अत: सारा कुछ अन्तत: डलहौजी की सोच पर टिक गया । गोपनीय ढंग से झाँसी को जबलपुर के कमिश्नर के आधीन कर दिया गया गया और किसी को खबर तक नहीं हुई। अंग्रेजों ने कई मामले में दत्तक पुत्र के अधिकारों को स्वीकार किया था। मगर उनहोंने झाँसी के मामले में उसे नया राज्य मानकर ऐसा करने से इनकार किया। जबकि तथ्य यह है कि पेशवाई के समय से ही झाँसी एक राज्य के रूप में वर्तमान था। झाँसी को नया राज्य बताने को असर साहब अंग्रेजों की घटिया कूटनीति का उदाहरण मानते हैं।

ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर असर साहब बतलाते हैं कि महारानी लक्ष्मीबाई ने इस निर्णय के विरुध्द दो प्रार्थनापत्र कम्पनी सरकार के पास भेजे। ये दो पत्र इस बात के सबूत हैं कि महारानी में गजब की तर्क क्षमता थी। मगर अंग्रेजों ने इन्हे स्वीकार नहीं किया क्योंकि लार्ड डलहौजी की मंशा देशी राज्यों को हड़पकर अंग्रेजी राज्य में मिलाने की थी। परिणामस्वरूप रानी को किला छोड़कर रानी महल में रहना पड़ा। यह उनके लिए बेहद संकटग्रस्त समय था क्योंकि अंग्रेज सेना सभी खजानों को मोहरबंद कर हस्तगत कर रही थी और अभी रानी पति के शोक से उबर भी नहीं पायी थीं कि यह बड़ा राजनीतिक संकट सामने आन पड़ा था। इन भयानक दबावों के बीच महारानी ने हैमिल्टन से बात की जिसका जिक्र असर साहब ने विस्तारपूर्वक किया है। रानी ने अंग्रेजों की पेंशन को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसे स्वीकार करने का अर्थ था झाँसी के राज्य की समाप्ति को स्वीकार कर लेना। इसी दौर में जॉन लैंग के वर्णनों में महारानी के व्यक्तित्व, उनकी आनबान, और उनकी लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है। पुस्तक का यह अंश विशेष आकर्षित करता है।

2जून 1857 को झाँसी में सैनिकों ने विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया। मगर रानी ने सही अवसर की प्रतीक्षा की। तेज क्रान्तिकारी गतिविधियों के बीच अपनी कुशल कार्यनीति और नेतृत्व क्षमता के चलते 12 जून को महारानी ने झाँसी का शासन संभाल लिया। महारानी ने 11 माह तक झाँसी पर शासन किया और इस दौर में उनके क्रिया कलापों ने उन्हें जनता में अतिलोकप्रिय बनाया युध्द के अन्तिम दौर में अंग्रेजों ने झाँसी को बरबाद करने का पूरा प्रयास किया। आगजनी से लेकर निर्दोष जनता की हत्या तक का काम किया गया। इस प्रकार 1744 से 1858 तक चलने वाला झाँसी का सम्ध्द राज्य अंग्रेजों की सत्ता लोलुपता का शिकार हो गया। अपनी मृत्यु के समय रानी लक्ष्मीबाई ने अपने पुत्र को विश्वासपात्र सरदार रामचन्द्र राव देशमुख को सौंपा था कि वह उसकी देखरेख करे। झाँसी के राजवंश का यह चिराग लम्बे समय तक बेतवा के धने जंगलों में कुछ विश्वासपात्र लोगों के साथ भटकता रहा। पर बाद में विश्वासघात और पैसे की कमी के चलते उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा। दामोदर राव की मृत्यु 1906 में हुई।

झाँसी की कहानी का वर्णन ओमशंकर खरे असर ने आद्योपांत एक झाँसी के ऐसे नागरिक के रूप में किया है जिसे अपनी विरासत से गहरा लगाव है। इसका एक कारण उनके परिवार का स्वयं इतिहास के एक अंश से जुड़ा होना रहा है। झाँसी के इतिहास के कुछ पक्ष विवादों के घेरे में रहे हैं और उन पर इतिहासकारों में मतभेद रहा है। ओमशंकर खरे असर के लेखन की विशेषता यह रही है कि विवादित मुद्दों के सभी पक्षों को हाजिर कर अपना तर्क और पक्ष प्रस्तुत करते हैं। झाँसी और महारानी लक्ष्मीबाई से जुउे विवादों में वे निर्णय बड़े तार्किक ढंग से लेते हैं। इस सिलसिले में उदाहरण के लिए उन्होंने महारानी के जन्म वर्ष के बारे में उन्होने लम्बी छानबीन की है। इसी प्रकार विवाह के समय महारानी की उम्र को लेकर उन्होने गहराई से विचार-विमर्श किया है। उन्होने यह पाया है कि विवाह के समय वे सात वर्ष की नहीं अपितु 15 वर्ष की थीं।

ओमशंकर जी झाँसी के निवासी होने के नाते इतिहास में घटित होने वाली घटनाओं के स्थानों का बखूबी वर्णन करते हैं। वे केवल इतिहास के लेखक न होकर एक साहित्यकार भी हैं। अत: उनकी भाषा में इतिहास लेखक का सूखापन नहीं है। उनकी भाषा सर्जनात्मक है। तथापि वे अपने लेखन में ऐतिहासिक तथ्यों को ही महत्व देते हैं। वे उससे परे की चीजों, जैसे लोक में प्रचलित बातों, को रेखांकित भर ही करते हैं। संक्षेप में यह कि झाँसी के गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में रुचि रखने वालों के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है।



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समीक्षित पुस्तक: महारानी लक्ष्मीबाई एवं उनकी झाँसी
लेखक: ओम शंकर असर
संपादक: ए. के. पाण्डेय
प्रकाशन: राजकीय संग्रहालय, झाँसी

4 comments:

Vivek Gupta said...

रानी लक्ष्मी बाई के बारे में बताने के लिए धन्यवाद | अत्यन्त सुंदर वर्णन किया है |

Pramendra Pratap Singh said...

रानी झांसी के लिये जितने शब्दों का प्रयोग आपने किया है वह कम है यह ऐसी विरागना है जो देश के लिये जी रही थी और देश के लिये प्राण कुर्वान कर दिया।

आपका की लेखनी ने जो लिखा उसके लिये बधाई

अनुराग मिश्र said...

आपने पुस्तक के प्रति दिलचस्पी बढ़ा दी है. १८५७ का ग़दर इन दिनों वैसे भी चर्चा में है. रानी लक्ष्मीबाई पर काम भी पर्याप्त नही हुआ है. धन्यवाद.

Rahul said...

Jhansi kaa kila Bundelo nee basaya, Maharaja Chatrasal ki dekh-rekh mai,