Friday, November 13, 2015

कश्मीर पर साहित्य
विभा कौल/स्वप्निल श्रीवास्तव
[ विभा कौल स्वप्निल श्रीवास्तव की ऐसी कविता है जिसमें कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से पलायन को एक पात्र के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है. विभा कौल एक वास्तविक स्त्री हैं जिनका नाम कवि ने बदल दिया है. इस कविता में करूण प्रसंग की भावुकता को स्वप्न कि संवेदनशीलता से जोड़ दिया गया है.संवेदनशील विभा के मन में पुराने कश्मीर की यादें हैं जिन्हें बाद के समय कि भयावहता से तमाम बिम्बों के माध्यम से जोड़ दिया गया है. यह कविता स्वप्निल श्रीवास्तव के कविता संग्रह ' मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए' में संगृहीत है. संग्रह में वर्णित समय के अनुसार कविता के लिखे जाने का समय १९९०-९९ के बीच का है.]


विभा कौल
[ उस लड़की के लिए जिसका नाम विभा कौल नहीं है ]

श्रीनगर से दिल्ली की कठिन
 यात्रा में बहुत रोयी  होंगी विभा कौल
अपना घर , नदी, पहाड़, जंगल
अचानक एक हादसे में छोड़ आना
उनके लिए त्रासद अनुभव है

रास्ते भर पीछे मुड़कर देखने की
 आदत अभी नहीं छूटी है
शायद दूर से दिख जाए
अपना छूटा हुआ घर

डल झील के मटमैले रंग में
ठिठके हुए शिकारे की परछाईं
उनकी आँखों में कांपती है

बीच-बीच में गोली की आवाज़ से
चिहुक उठती हैं विभा कौल

उन्हें बगीचे में सेब का गिरना
घटना की तरह याद आता है

वे अब नहीं देख पाएंगी
आँगन में लगे गुलमोहर के
पहले फूल
वहां के बसंत पतझड़

बचपन के पहाड़ों के बारिश, उससे
उठती हुए सोंधी महक उन्हें भूलनी होगी
क्या यह आसन होगा विभा कौल
के लिए


विभा कौल के साथ बहुत सी हैं
विभा कौल
वे ठण्ड के डर से पहाड़ से मैदान
में बलात उतर आयीं चिड़ियाएँ
नहीं हैं, जो मौसम के सामान्य
होने पर वापिस लौट जाएँ .

घोसला बनाने के पहले
तिनके-तिनके हो गयी विभा कौल
उन्हें करूण प्रसंग की  तरह  याद
करने से अच्छा है उन्हें अपने
सपनो में जगह दी जाय

ऐसा नहीं था उनका शहर
लोगों के हांथों में फूलों के गुच्छे
और चेहरों पर उत्फुल्लता थी

आज कन्धों पर बंदूकें
और आँखों में
 बेशुमार गुस्सा है
बाररूद के धुएं में भर गयी है
घाटी
सेब खाते हुए भय लगता है
कहीं उसमें बारूद न भरी हो

कैसे आततायी शहर में आ गए हैं
वे लोगों  को परिंदों की तरह
मार रहे हैं

चीड़ के वन में गुजरती है
सांय-सांय करती हवाएं
बर्फीले मौसम में मुश्किल से
सड़क पार कर पाती है लड़की

नदियों पहाड़ों के प्रसंग
गोली से मारे गए लोगों की
दुखद सूचनाओं से भर गए हैं

विभा कौल के पास काश्मीर के खुशगवार
और चमकीले दिनों की यादें हैं
उनकी तरह सफ़ेद बादलों की छांह में
वह आपने अकेलेपन के साथ भीगती है

दिल्ली कि भीड़-भाड़ भरी सड़कों पर
उन्हें चलते हुए देखिये
उनकी निस्संगता हतप्रभ करने
वाली होती है

जिसने सहा होगा अपनी जमीन से
बेदखल होने का दुःख वही
विभा कौल के मर्म को समझ
सकता है,
लेकिन यहाँ ज़मीन पर कौन है!





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