प्रतिबिम्ब
रघुवंशमणि
मौत की आॅंखों में
कितनी झुर्रियाॅं होंगी
क्या इन झुर्रियों की दरारों में
कहीं कोई बूॅंद भी होगी
छिपी-खोयी
पत्थरों की घाटियों में
वर्षा के बचे जल की तरह
पहाडों से रिसते
सिसकते धार की तरह
क्या वह सारे चिन्हों को
शब्दों की तरह पहचानेगी
उन्हें पढ़ेगी इतिहास की तरह
समय की कार्बन डेटिंग में
मौत कैसी होती है
होती क्या है वह
जब झाॅंकती है आॅंखों में
तो क्या देखती है वह
तरल स्थिरता की गहराई में
अपने आप को
क्या वह प्रतिबिम्ब होती है
धीरे-धीरे करीब पहुॅंचती
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