ईश्वर, सत्ता और कविता 3
चिन्तन की एक खास अवस्था में ईश्वर के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगने शुरू होते हैं और नास्तिक दर्शन का प्रारंभ होता है। भारत में भगत सिंह के प्रसिध्द लेख '' मैं नास्तिक क्यों हूँ'' से अधिकांश पाठक परिचित होंगे। यह नास्तिकता एक तरह की प्रश्नाकुलता का परिणाम होती है। ऐसी प्रश्नाकुलता जिसके पीछे कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ कार्य करती है। एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है तार्किकता की तलाश जो एक वैज्ञानिक दृष्टि का परिणाम होती है। ईश्वर प्रत्यय को लेकर होने वाली तमाम बहसाें के पीछे इसी तार्किकता की तलाश है जो किसी तथ्य को विवके सम्मत और स्वीकृति योग्य बनाता है। आध्यात्म ने सदैव इस प्रकार की तार्किक और परीक्षणधर्मी प्रवृत्ति का विरोध किया है ओर उसे सीमाबध्द बतलाने की चेष्टा की है।
इस प्रकार की प्रश्नाकुलता के चलते ही आर्य समाज एक दौर मेें ईश्वर से जुड़े ढोंगों का विरोध करता था। मगर यह विरोध अन्तत: नये किस्म के आध्यात्म में जाकर निपट गया। फिर भी यह ध्यातव्य है कि नवजागरण के प्रारंभ की यह प्रश्नाकुलता अपना महत्व रखती है जिसके तार्किक तत्व हिन्दी कविता मे तरह-तरह से उभरते है। 'देवी चबूतरा' जैसी कविता आध्यात्म के दैवीय प्रतिफलन पर चोट करती है। देवी चबूतरा पूजा का एक स्थानीय केन्द्र है लेकिन देवी जी अपने चबूतरे पर पेशाब और संभोग करने वाले कुत्ताों को भगाने तक की सामर्थ्य नहीं रखतीं।पंकज चतुर्वेदी आर्यसमाजी कवि नहीं मगर आर्यसमाजी खण्डन-मण्डन का ही यह विस्तार एक आधुनिक प्रगतिशीलता की ओर ले जाता है और ऐसे तत्व हिन्दी की बहुत सी कविताओं में विद्यमान है।
यही प्रश्नाकुलता अपने आधुनिक शिल्प में विडंबनापूर्ण हो जाती है जब शंकाएँ अविश्वास में बदलती हैं और ढोंग का विरोघ करती हैं। संजय चतुर्वेदी की कविता 'पानी में नबूवत' धर्म और ईश्वर की विसंगतिपूर्ण स्थिति को अपने संरचना के एब्सर्ड में प्रस्तुत करती है। यह संजय चतुर्वेदी के प्रारंभिक दौर की कविताओं मेें से एक है जब वे विसंगतियों के बरक्स कविता में उलट-पुलट कर रहे थे। यह कविता इण्डिया टुडे वर्ङ्ढ 1993 की वार्ङ्ढिकी में प्राकाशित हुई थी। बाद में उन्होंने यह शैली त्याग दी ओर आसानी से संप्रेङ्ढित हो सकने वाली कविताएं लिखी। 'पानी मे नबूवत' ईश्वर और धर्म सम्बन्धी सामान्यत: प्रचलित बातों को उलट-पुलट कर उनमें बैठे अतार्किक तत्वों को सामने लाती है। अर्थात विरुपों का विरुपण। कविता अपने अतारतम्य में ईश्वर की उपस्थिति उसकी तथाकथित तारतम्यता का मजाक उड़ाती है और सब कुछ एक झकझकी सा लगता है।
'सृष्टिकर्ता का दूरदर्शन बूंदों से उतरता है घास पर
सताई हुई धरती पर इलहाम बरसता है।''
खुदा को पाने का रास्ता मसखरी है, ईश्वर ने अवतार नहीं लिया मगर उस पर श्रीमद्भगवत् कृपा रही होगी। 'पालक और सृष्टिपालक का समुचित सेवन/दीन और दुनिया दोनों को फिट रखता है'। फिर खुदा के होते हुए धरती पर सभी नेक लोग पीड़ित है और दुष्ट लोग सुखी तो जरूर वह खुदा अखबार नहीं पढ़ता होगा। कवि छोटा मोटा नबी होता है तो उसकी कविता में नबूवत गर्म तवे पर रखी वर्फ से निकलती भाप की तरह होती है। प्रकृति ईश्वर का काव्य है- वगैरह, वगैरह। कविता के लगभग अराजक माहौल में धार्मिक विचारों की अराजकता बेपर्दा होती है और ईश्वर को लेकर फैलायी गयी वैचारिक बाजीगीरी भूलुंठित होती है। संजय चतुर्वेदी की यह जटिल और कम पढ़ी गयी कविता धर्म और ईश्वर से जुड़ी अवधारणाओं को विखण्डित करने वाली है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
हम कुछ ज़्यादा नहीं चाहते
सिवा इसके
कि हमें भी मनुष्य समझें आप!
= कवि अनिल सिंह की ये पंक्तियाँ निचोड़ हैं इस पूरी बहस का!!
Post a Comment