लेखक और प्रकाशक
हिन्दी जगत में लेखक और प्रकाशक के बीच बनते बिगड़ते सम्बन्धों पर अक्सर अनौपचारिक चर्चाएँ होती रही हैं। बातचीत के दौरान लेखकगण पारिश्रमिक कम मिलने या न मिलने की शिकायत करते रहे हैं। इसके विपरीत प्रकाशक पुस्तकों के न बिकने का रोना रोते रहते हैं। वे यह दलील देते रहे हैं कि पुस्तकें बिकतीं ही नहीं हैं अत: पारिश्रमिक वे दें भी तो कैसे? इधर रायल्टी के मुद्दे पर गगन गिल और महाश्वेतादेवी के वक्तव्यों को लेकर लेखकों और प्रकाशकों के बीच के सम्बन्ध पुन: बहस में आ गये हैं। इस प्रकरण को किसी एक हिन्दी प्रकाशक से जोड़कर देखने के बजाय हिन्दी जगत की सामान्य समस्या के रूप में देखा ताना चाहिए। मेरे विचार से प्रकाशकों की ओर से इस विषय पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करने की जरूरत है।
साहित्य के समुचित विकास के लिए लेखकों और प्रकाशकों के बीच सकारात्मक सम्बन्ध होना जरूरी है। साहित्य जगत में प्रकाशन एक व्यवसाय है, मगर यह अन्य व्यवसायों से थोड़ा अलग होना चाहिए क्योंकि साहित्य स्वयं में आदर्शों की वकालत करता है। यदि आदर्श शब्द थोड़ा पुरातनपंथी लगे तो मूल्य की बात की जा सकती है। जीवन मूल्यों के संवाहक साहित्य के प्रकाशकों में लेखकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है।
यह विचित्र सी बात है कि हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी के प्रकाशक बेहतर पारिश्रमिक देते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि अंग्रेजी पुस्तकों का व्यापार अधिक लम्बा-चौड़ा है जिसके चलते वे अच्छा पारिश्रमिक दे लेते हैं। लेकिन यह कोई बहुत मतलब का तर्क नहीं क्योंकि हिन्दी पुस्तकों की खरीद कोई कम नहीं। पुस्तकालयों और सरकारी खरीद ही काफी होती है। अंग्रेजी प्रकाशकों के यहाँ पुस्तक प्रकाशन के समय जहाँ सारी बातें लिखित तौर पर होती हैं वहाँ हिन्दी में अधिकांशत: यह सारा कार्यकलाप मौखिक और आश्वासनधर्मी होता है। एक अंग्रेजी के लेखक ने बताया कि वह पहले हिन्दी में ही लिखता था लेकिन प्रकाशकों का रवैया ऐसा था कि उसने अंग्रेजी में लिखना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वहाँ पैसा ही नहीं सम्मान भी अधिक है।
डॉ मैनेजर पाण्डेय ने एक बार कहा था कि हिन्दी के प्रकाशक वस्तुत: हिन्दी के अन्धकारक हैं। कारण यह कि वे बिक्री के लिए पाठकों पर बहुत निर्भर नहीं करते। इधर वितरण की एक ऐसी व्यवस्था विकसित हुई है जिसमें पाठक आनुसंगिक महत्व का रह गया है। पाठक के महत्व के घटने के साथ-साथ लेखक का महत्व भी घट गया है। इस दृष्टि से देखें तो यह एक भारी सांस्कृतिक समस्या है जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी है। प्रकाशक यह समझता है कि जब सब काम वही कर रहा है तो फिर लेखक को पैसे क्यों दिये जाँय।
हिन्दी के एक लेखक ने जब अपने प्रकाशक से रायल्टी का हिसाब माँगा तो उसने उत्तर में लिखा कि यदि लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तकों की सभी प्रतियाँ खरीद ले तो वह रायल्टी दे देगा। यह बेहद अपमानजनक उत्तर था जो किसी भी तरह से उचित नहीं। रायल्टी के लफड़े से तंग आकर बहुत से हिन्दी लेखक अब 'लंप सम' मांगते हैं क्योंकि पुस्तकों की बिक्री का कुछ भी पता लगा पाना लेखक के लिए संभव नहीं होता।
सवाल यह है कि जिन लेखकों को प्रकाशकगण छापते हैं, उनके अधिकारों और सम्मान का ख्याल रखना क्या उनका भी धर्म नहीं है?
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2 comments:
रघुवंशमणि जी,आप ने बिलकुल सही फरमाया है। इस का समाधान क्या है ?....इंटरनैट में इस फ्री-फंड की बलागिंग के इलावा भी जो तरीके हैं थोड़ी कमाई-वाई करने के ( हिंदी लेखकों के लिये) ...हो सके तो कभी उन पर भी प्रकाश डालिये। यकीन मानिये, मैं तो सर्च कर कर के हार गया हूं...अन्य ब्लागर बंधुओं के विचार चाहे कैसे भी हों, मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि अब तो इस फ्री-बाजी से भी बदबू सी ही आने लगी है। हिंदी से ही ऐसा सौतेले बेटे जैसा व्यवहार क्यों ?...जब सोचता हूं तो सिर दुःखता है।
hi,acha lega,mohan rakesh ki ladayi yaad hai is per gyanodaye se.kabeer daas ko yaad kijiye.
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