Tuesday, August 28, 2007

रघुवंशमणि का आलोचनाकर्म

स्वप्निल श्रीवास्तव

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का एक बहुपठित वाक्य है जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जाएगा कविकर्म कठिन होता जायेगा। यह बात आज की आलोचना पर भी लागू होती है। थोड़ा आगे चलकर कहा जा सकता है कि साहित्य की सभी विधाओं के समक्ष खतरे और चुनौतियाँ हैं। आलोचना एक गंभीर कर्म है। आलोचक, लेखक और पाठक के बीच सम्पर्क मार्ग की तरह है। हमारे समय की महत्वपूर्ण कृतियाँ आलोचकों के जरिये पाठकों तक पहुँचती रही हैं, चाहे वह मुक्तिबोध का कामायनी का पुनर्मूल्यांकन हो अथवा डॉ रामविलास शर्मा की निराला की साहित्य साधना। वस्तुत: आलोचक ही पाठकों को महत्वपूर्ण कृतियों से परिचित कराता है, आलोचक अपनी अन्तर्दृष्टि से रचना को सही परिप्रेक्ष्य में देखता है और उसका मूल्यांकन करता है।

इधर के जिन युवा आलोचकों ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है उनमें रघुवंशमणि प्रमुख हैं। वे ऐसे आलोचक हैं जिनके पास चीजों को देखने की एक वैचारिक दृष्टि है। वे विचार से होकर आलोचना की दुनिया में आये हैं। अभी हाल में प्रकाशित उनकी पुस्तक समय में हस्तक्षेप इस तथ्य की पुष्टि करती है। यह पुस्तक हमारे समय के महत्वपूर्ण विचारक एडोर्नो, हाबरमास, फ्रेडरिक जेम्सन एवं एजाज अहमद के महत्वपूर्ण लेखों का अनुवाद है। ये सभी हमारे समय के उन प्रसिध्द विचारकों में से हैं जिन्होने साहित्य और संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला है। रघुवंशमणि ने अनुवाद करते समय मूल आशय को अनूदित करने की कोशिश की है, इसलिए इन लेखों की पठनीयता बनी रहती है।

रघुवंशमणि समय और समाज के ज्वलंत प्रश्नों से टकराते हैं और अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता उनका प्रिय विषय है। आजादी के बाद इन पर इतनी बहस हो चुकी है कि ये शब्द अपना मूल अर्थ खो चुके हैं। साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता ऐसे शब्द हैं जिनकी व्याख्या पक्ष और विपक्ष के राजनीतिक अपने सीमित स्वार्थो को ध्यान में रखकर करते हैं। ये दोनो शब्द दंगों के पहले और दंगों के बाद प्रयोग किये जाने वाले शब्द हैं, इसलिए आजादी के इतने वर्षों बाद असंदिग्ध नहीं हो पाये हैं। अपने लेख धर्मनिरपेक्षता की संस्कृति में रघुवंशमणि कहते हैं किसी भी शब्द के अर्थ को नष्ट करने का सबसे कारगर तरीका है उसे गलत अर्थ प्रदान कर देना। सही अर्थ न मिलने की स्थिति में वह स्वयं बेमतलब हो जायेगा।

रघुवंशमणि धर्मनिरपेक्षता का उद्गम खोजते हैं, उसकी विभिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विस्तृत व्याख्या करते है। वह बताते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का अवसरवादी संसदीय राजनीति में किस तरह इस्तेमाल किया जाता है, किस तरह वोटों की राजनीति के चलते इस शब्द का सरलीकरण हुआ, कैसे धर्मनिरपेक्षता आधुनिकता से अलग है। धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद के अन्तर्सम्बंध क्या हैं। यह भी कि मुस्लिमों के हिन्दुस्तान में आने के बाद धर्मनिरपेक्षता शब्द का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है।

अपने एक अन्य लेख साम्प्रदायिकता संस्कृति के वस्त्र पहनकर आती है में वे तफसील से बताते हैं कि किस प्रकार फासिस्ट शक्तियाँ हमारे सांस्कृतिक जीवन को नष्ट कर रही हैं। उनकी यह भी स्थापना है कि इराक पर अमेरिकी हमले और गुजरात के नरसंहार की घटनाओं को अलग-अलग न देखकर उन्हें एक क्रम में देखा जाना चाहिये। दोनों में नाभिनाल सम्बन्ध है।

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता जैसे विषयों को समझने से ज्यादा विरूपित किये जाने के प्रयास किये गये हैं। ये दोनों शब्द राजनीति के अचूक उपकरण हैं।

भीष्म साहनी के उपन्यास तमस पर लिखा गया उनका लेख दास्ताने खिजर उर्फ शैतानियत की ऑंखें अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह साम्प्रदायिकता की समस्या और उसके मूल कारणों को सम्यक परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास है। उनका यह लेख आलोचना के गुरुडम को तोड़ता है और एक किस्सागो शैली में शुरू होता है। तमस पर विचार करते समय वे विभाजन की त्रासदी की भयावहता को हमारे सामने लाते हैं और उसे गुजरात के दंगों से जोड़कर तमस की प्रासंगिकता को सिध्द करते हैं। उनका मानना है कि साम्प्रदायिक उन्माद के वातावरण को जन्म देने और उसे हवा देने में सामाजिक कारक उतने महत्वपूर्ण नहीं होते जितने कि राजनीतिक।

भीष्म साहनी का तमस हमारे आसपास मौजूद है, चाहे वह अयोध्या की घटना हो अथवा गुजरात का नरसंहार। रघुवंशमणि तमस का मूल्यांकन एक कृति के रूप में ही नहीं, एक इतिहास के रूप में भी करते हैं और बताते हैं कि तमस हमारे सामने बहुत सारे राजनीतिक प्रश्न उठाता है।

दरअस्ल एक आलोचक का सरोकार किसी कृति की समीक्षा नहीं बल्कि उसे अपने समाज में जानना है, उसकी प्रासंगिकता पर नये सिरे से विचार करना है। यदि आलोचक का विजन स्पष्ट नहीं है तो उससे यह माँग नहीं की जा सकती। रघुवंशमणि आलोचना में हस्तक्षेप करते हैं और उसे सार्थक अभीष्ट तक पहुँचाते हैं।

रघुवंशमणि ने हावर्ड फास्ट, वी.एस. नायपाल और राही मासूम रज़ा पर अपने ढंग से विचार किया है। नायपाल पर लिखते समय वे एन एरिया ऑफ डार्कनेस में मुस्लिम और ब्राहमण सम्बन्धी अवधारणाओं पर ज्यादा उलझते नहीं हैं, बल्कि अपना ध्यान नायपाल के साहित्यिक अवदान पर ही केन्द्रित करते हैं। वे नायपाल का मूल्यांकन करते हुए यह बताते हैं कि नायपाल के भारत सम्बन्धी लेखन को उनकी स्वयम् की वैचारिक अवस्थिति के सापेक्ष देखते हुए सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। आग्रहों और अवस्थिति के तमाम उलझे सवालों के बीच नायपाल की भारत सम्बंधी कृतियों को सच के रूप में स्वीकार करने के अपने खतरे होंगे।

इसी तरह राही मासूम रजा के अत्यंत विवादास्पद उपन्यास टोपी शुक्ला के नायक के जीवन की त्रासद और विडंबनापूर्ण स्थिति की समीक्षा करते हुए वे साम्प्रदायिक सवालों से टकराते हैं। वे बताते हैं कि टोपी शुक्ला न हिन्दू बन पाता है और न मुसलमान। समाज में उसके मनुष्य रह कर जीने की सम्भावना भी नहीं रह जाती।

किसी आलोचक के काम का मूल्यांकन करते हुए यह जानना जरूरी है कि वह किस प्रकार की कृतियों और लेखकों का चुनाव करता है। रघुवंशमणि यदि नायपाल भीष्म साहनी , राही मासूम रज़ा का चुनाव करते हैं तो उनकी प्रतिबध्दता में सन्देह नहीं रह जाता।

रघुवंशमणि ने समकालीन कविता पर अपनी आलोचना को केन्द्रित किया है। समकालीन कविता को समझने के लिए उनकी प्रस्थापनाएँ काम आ सकती हैं। अपने लेख क्यों नहीं समझ में आती कविता में कविता के उत्स, पाठक संसार और सम्प्रेषणीयता पर वे सम्यक विचार करते हैं। आज की कविता को ठीक से जानने बूझने के लिए इस लेख में विचार सूत्र मिल सकते हैं। वे मानते हैं, 'हिन्दी कविता अपने सूक्ष्म अर्थो में अतिशय राजनीतिक है और संसदीय राजनीति की आक्रामक और हिंसक मानव विरोधी भाषा के स्थान पर एक विनम्र मगर सघन मानवीय प्रयास में लगी है। यह सब कुछ कविता के उपलब्ध सामाजिक, साँकृतिक क्रिया कलापों की सीमा में हो रहा है।'

हम जिस तरह के खतरनाक समय में रह रहे हैं, उसमें राजनीति से बचा नहीं जा सकता है, वह जीवन हो या कविता, आज के समय में लिखी जा रही कविताओं में नक्सलबाड़ी के दौर की कविताओं से ज्यादा स्पष्ट राजनीतिक आशय हैं। 1980 के आसपास माँ, चिड़िया, बच्चे, घर, व फूल जैसी कविताओं में राजनीतिक विचार सूत्र दिखाई देते हैं।

हमारे सामने फासिज्म के खतरे हैं। साँस्कृतिक साम्राज्यवाद अपने पंख फैला रहा है। मीडिया का प्रभामंडल लगातार विस्तृत हो रहा है। चीजों का मूलस्वभाव बदल रहा है। जीवन में बाजार का प्रवेश हो गया है। किताबों की दुनिया से पाठक अनुपस्थित हो रहे हैं। साहित्य के स्थान पर सूचना का एक प्रतिसंसार निर्मित हो रहा है। इधर उत्तरआधुनिकता का भी हो हल्ला है। केवल समय ने छलांग नहीं लगाायी है, साहित्य की दुनिया भी बदली है। कुरू कुरू स्वाहा, दीवार में एक खिड़की थी, आखिरी कलाम, कलिकथा वाया बाइपास जैसे उपन्यासों का मूल्यांकन क्या आलोचना की पुरानी रीति पर किया जायेगा या उसके उपकरण बदले जायेंगे? कुल मिलाकर यह सोचना कि क्या आलोचना के सौदर्यशास्त्र को बदलना जरूरी है?

मेरी जिज्ञासाओं का कुछ जवाब रघुवंशमणि के लेख सौन्दर्यशास्त्र की समस्याग्रस्तता से मिल जाता है। लेकिन बहुत सारे सवाल फिर भी जीवित रहते हैं। दरअस्ल यह हम जैसे पाठकों के सवाल हैं जिसका जवाब रघुवंशमणि जैसे युवा आलोचकों के पास खोजा जाना चाहिये।

अयोध्या काण्ड और गुजरात के नरसंहार के बाद बहुत सारा पानी और खून सरजू नदी में बह चुका है। सत्ताएँ मृतकों के ढेर पर अपना सिंहासन रखकर सत्ता का संचालन कर रही हैं। यह एक जादुई यथार्थ है कि कुछ लोग भजन कीर्तन करते हुए आये और सत्ता बदल गयी।

इस प्रश्नगत दौर में सत्ता और ईश्वर के बारे में अत्यंत गंभीर विमर्श हुए हैं। मंदिरों में रहने वाले ईश्वर को बाजार में खड़ा कर दिया गया है। राजनीति ने ईश्वर को एक वस्तु में बदल दिया है। इस संदर्भ में रघुवंशमणि के विचारोत्तेजक लेख ईश्वर सत्ता और कविता को पढ़ना एक दिलचस्प अनुभव हो सकता है। इस लेख में नागार्जुन, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह, ऋतुराज, अष्टभुजा शुक्ल और अनिल कुमार सिंह के ईश्वर विषयक कविताओं की चर्चा की गयी है। हिन्दी कविता में ईश्वर की उपस्थितियाँ अनेक रूपों में प्रकट होती हैं। यह भी पता चलता है कि किस तरह सत्ताएँ अपने हित के लिए ईश्वर का इस्तेमाल करती हैं।

रघुवंशमणि ने विष्णु खरे, पंकज सिंह, ऋतुराज जैसे कवियों पर भी लिखा है। वे विष्णु खरे की कविता में गद्यात्मकता को अपरंपरागत काव्यविषयों की स्वीकृति मानते हैं। लेकिन अभी विष्णु खरे जैसे कवियों की कविता की प्रयोगधर्मिता पर विस्तृत चर्चा की जानी है भले ही यह उत्कट यथार्थ का मामला हो। लेकिन कविता में जब सम्प्रेषणीयता का सवाल उठेगा बहुत सारे सवालों के जवाब दिये जाने होंगे।

पंकज सिंह के संग्रह पर विचार करते समय वे पंकज सिंह की कविता के उत्स नक्सलबाड़ी आन्दोलन में खोजते हैं और उनके समकालीनों के काव्य सरोकारों का जायजा लेते हैं। दरअस्ल नक्सलबाड़ी की वैचारिक पृष्ठभूमि और इस आन्दोलन से जुड़े हुए कवियों के सरोकारों पर अभी तक सम्यक विचार नहीं हो पाया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि रघुवंशमणि किसी कृति की आलोचना करते वक्त उसके समय और संस्कृति के बारे में भी गंभीर टिप्पणी करते हैं, इससे एकांगी आलोचना का खतरा नहीं रहता है। उनकी समग्र आलोचना की पद्वति उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। आलोचना उनके लिए तात्कालिक कर्म नहीं एक उत्तरदायित्व है।

आज के आलोचक के लिए अतिक्रमण औंर हस्तक्षेप बहुत आवश्यक है, लेकिन इसे सार्थक रूप में ही संभव किया जाना चाहिए ताकि अराजक स्थिति न पैदा हो। आलोचक यदि अभिव्यक्ति के खतरे नहीं उठाता है तो उसकी साहित्य में मुक्ति संभव नहीं है।

मुझे उम्मीद है रघुवंशमणि अभिव्यक्ति के खतरे उठायेंगे और अपने आलोचनात्मक विमर्श को विस्तृत करेंगे।




बाँदा
9.4.2006

2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अरे भाई स्वप्निल जी आप हैं कहाँ इन दिनों?

Harish K. Thakur said...

Swapnil ne achha vistrit lekh likha hai Raghuvansh ke pustak ke baare mein. Main to Raghuvansh ko bada samajhdaar bhai ke taur par janata hun. unki teekshan drishti vakyi kaafi kuch saamne laati hai. Ishwar aise logon ko aur mukhar kare...