Sunday, August 12, 2007

यह सब बेहद शर्मनाक है

डायरी

यह सब बेहद शर्मनाक है

हैदराबाद में मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन की कारस्तानियों ने पूरे देश को शर्र्मसार कर दिया है। उनके विवेकहीन नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जिस तरह से तसलीमा पर आक्रमण करने की कोशिश की और एक विमोचन कार्यक्रम में उत्पात मचाया वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इस कार्यक्रम में अयोजकों और पत्रकारों ने किसी प्रकार लेखिका को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। इस सब में हाल के शीशे फोड़ दिये गये और कई फोटोग्राफर और पत्रकार घायल हुए।

लेकिन यह सब काफी नहीं था। इस्लाम को बदनाम करने वाले इन हिंसक लोगों ने बंगला लेखिका पर हमला करने की घटना के बाद लेखिका का सर कलम करने की धमकी भी दी है। इस को क्या कहा जाय? इसे बर्बर, धर्मांध, असहिष्णु और विवेकहीन ही कहा जा सकता है। संभवत: ये शब्द भी कम कड़े ही कहे जायेंगे। सबसे शर्मसार करने वाली बात यह है कि ये लोग कानून बनाने वाले राजनेता हैं।

सबसे अजीब बात यह है कि कांग्रेस सरकार के साथ इनका गठजोड़ है।

अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों की बुध्दि पर तरस ही खाया जा सकता है। उनके अनुसार मुसलमानों को राजनेताओं और कार्यकर्ताओं के कृत्यों पर गर्व है। ये मियाँ पूरे मुस्लिम समुदाय के स्वयम्भू नेता बन बैठे हैं। अब इन्हें कौन समझाये की भाई आप इतने ही बड़े नेता होते तो आपको 294 सीटों की असेम्बली में 5 सीटें ही क्यों मिलती? फिलहाल अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू बनने में क्या परेशानी है। जिन तीन विधायकों ने यह काम किया था उन्हें कानून ने जमानत पर छोड़ दिया। और उनका स्वागत धर्मधुरन्धरों ने मालाओं के साथ किया। कानून ने औपचारिकताएँ पूरी कीं।

मगर देश भर के मुस्लिम नेताओं ने इस कृत्य का अपनी-अपनी तरह से विरोध किया। जमायते उलेमा-ए-हिन्द के जनरल सेक्रेटरी मौलाना महमूद मदानी ने कहा कि यह विरोध प्रकट करने का सही तरीका नहीं है। उन्होने कहा कि इस्लाम इस प्रकार के प्रदर्शनों की इजाजत नहीं देता। लेकिन उन्होने यह भी कहा कि जमायत के अनुसार तसलीमा नसरीन और सलमान रश्दी जैसे लोंगों को देश में रहने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने हमेशा इस्लाम और मुस्लिमों को बदनाम करने की चेष्टा की है। एक दूसरे देवबंदी विद्वान मौलाना वारिस मजहरी ने भी इस घटनाकी निन्दा की है और कहा है कि यह सब इस्लाम की शिक्षाओं के प्रतिकूल है।

मुस्लिम बुध्दिजीवियों का एक बड़ा समूह भी तस्लीमा पर हुए हमले की निन्दा करने के लिए आगे आया। हबीब तनवीर और असगर वजाहत ने इसकी घोर निन्दा की। शबनम हाशमी ने कहा कि इन मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन के नेताओं को क्षमा माँगनी चाहिए। मुसलिम सोशल फोरम ने भी इस घटनाकी आलोचना की।

विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी इस घटना की भर्त्सना की।



तस्लीमा को 1994 में लज्जा के प्रकाशन के बाद हुए कट्टरतावादी विरोध और हत्या की धमकियों के बाद बंगलादेश छोड़ना पड़ा था। लेखन समूह पेन और एमनेस्टी इण्टरनेशनल की मदद से वे बाहर जा सकीं। उन्हे स्वीडन में शरण मिली। तब से वे जर्मनी फ्रांस और अमेरिका में बतौर शरणार्थी रह चुकी हैं। भारत में तस्लीमा को दो वर्ष पहले अस्थायी शरण दी गयी है और इस प्रकार वे हिन्दुस्तान में एक शरणार्थी या अतिथि के रूप में हैं। इस तथ्य को देखते हुए यह घटना और भी शर्मनाक लगती है।

सरकार ने कहा है कि वह उनके वीजा पर पुनर्विचार करेगी। अब यदि तस्लीमा को विश्व की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी में शरण नहीं मिलेगी तो कहाँ मिलेगी। तस्लीमा ने यह कहा कि वह भारत में एक प्रजातंत्रवादी अर्थात डेमोक्रेट के रूप में रहना चाहती हैं जिसका सीधा अर्थ यह है कि वे भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ रहना चाहती हैं। फिलहाल वे पूरे विश्व भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गयी हैं जिनकी तमाम पुस्तकों पर बैन है और उन्हे अनेक अवसरों पर मौत की धमकियाँ मिलती रही हैं। लखनउ के ही कुछ कट्टरपंथियों ने उनकी हत्या करने वाले के लिए 12000 अमेरिकी डालर का इनाम घोषित किया था। लेकिन वे कभी भी कट्टरपंथियों के सामने झुकी नहीं हैं और कट्टरतावाद के विरुध्द लगाातार लिखती रही हैं।

भारत में मुस्लिमों का एक बड़ा समुदाय है जो कट्टरतावादियों के क्रिया कलापों के विरुध्द है और यह मानता है कि इस प्रकार की हिंसक गतिविधियाँ गलत हैं। मगर वहाँ भी तस्लीमा के लेखन को स्वीकार नहीं किया जाता। उनका मानना है कि तसलीमा के भारत में रहने से समस्याएँ बरकरार रहेंगी। उदाहरण के लिए कलकत्ता के इमाम नूरुल रहमान बरकती का यह कहना है कि तस्लीमा को मारा नहीं जाना चाहिए मगर वह भारत में एक परेशानी का कारण हैं। उनके अनुसार वह एक भयानक महिला हैं और उनका भारत से बाहर निकल जाना ही देश के लिए बेहतर होगा।

यह एक ऐसा विचार बिन्दु है जहाँ इस्लाम के प्रति कट्टरतावादी हिन्दुओं को आलोचना का अवसर मिलता है। भाजपा जैसे दल यही कहते हैं कि भारत के मुसलमान किसी भी कीमत पर अपने धर्म की आलोचना सुनने को तैयार नहीं। तस्लीमा ने हिन्दू धर्म के विरुध्द भी काफी कुछ लिखा है।

यह बड़ी अजीब और विडम्बना से भरी बात है कि वे कट्टर मुस्लिम जो लोग आर. एस. एस. और बी. जे.पी. की आलोचना करते हैं, वे अपने व्यवहार में वैसे ही हैं और प्रजातांत्रिक तत्वों का समर्थन नहीं करते। वे तभी तक सेकुलर हैं जब तक वह उनकी सुरक्षा का मामला रहता है। जब मामला दूसरे की सुरक्षा का हो तो वे अपने विरोधियों जितने ही कट्टर दिखाई पड़ते हैं। इसलिए उदारवादी मुस्लिमों को इन कट्टरपंथियों का विरोध करना ही होगा।

इधर यह देखा जा रहा है कि राजनीतिक दल थोड़े से राजनीतिक लाभ के लिए कट्टरपंथी ताकतों के साथ हो लेते हैं। मगर इस के परिणाम भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक सिध्द होते हैं क्योंकि ये ताकतें प्रगतिशील मानसिकता वाले लोगों पर हावी हो जाती हैं। पिछले कुछ वर्षें में किसी प्रगतिशील मुस्लिम को प्रतिनिधि मुस्लिम के रूप में प्रस्तुत न करके मुस्लिम धार्मिक नेताओं को ही मुस्लिमों के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है जिसका दुष्परिणाम हमारे सामने है। ऐसा करने के पीछे वोट बटोरने की राजनीति रही है। इस तरह की तदर्थ राजनीति की जरूरत राजनीति में कमजोर विचारों और कमजोर नैतिक प्रतिबध्दताओं की वजह से रही है। राजनीतिक दलों की स्थिति यह है कि वे ऐसी परंपरावादी विचारधारा वाले लोगों का विरोध करने के बजाय वे उनका समर्थन ही करते हैं। हिन्दू कट्टरता के विरुध्द जिन लोगों को आगे किया जाता रहा है वे सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष नहीं रहे हैं। कुछ अर्थों में वे असहिष्णु भी हो जाते हैं। राजनीतिक दल ऐसा करते हैं तो सिर्फ तात्कालिक लाभ के लिए।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बगैर किसी प्रकार के लोकतंत्र की कल्पना करना ही संभव नहीं। जहाँ स्वतंत्ररूप से विचार की अभिव्यक्ति संभव नहीं होगी, वहाँ लोकतंत्र कैसे आगे बढ़ सकेगा। तस्लीमा पर आक्रमण का प्रयास करने वालों को भारत के संविधान में विश्वास नहीं । वे कहते हैं कि वे पहले मुसलमान हैं और फिर विधायक। वास्तव में वे मुसलमान भी नहीं हैं वे कट्टरतावादी और आतंक के समर्थक हैं। यदि आप इंसा नही नही ंतो फिर मुसलमान कैसे हो सकते हैं। उनसे सरकार को कानूनी ढंग से निपटना चाहिए। भारत में मुस्लिम कट्टरता को निरुत्साहित करना जरूरी है। केवल हिन्दू कट्टरता का सामना ही काफी नहीं। इस प्रकार के कट्टर मुस्लिम संगठनों से हिन्दू कट्टरतावादियों को वैचारिक समर्थन मिलता है।

मगर कानून का इस्तेमाल हमारे देश में कौन करता है। इस पूरे प्रकरण में कानून का इस्तेमाल सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिए किया गया। दूसरी तरफ कट्टरतावादियों ने कानून का इस्तेमाल करते हुए तस्लीमा पर मुकदमा दायर कर दिया जिसे पुलिस ने तत्परता से स्वीकार कर लिया। इसके पीछे भी राजनीतिक दबाव और स्वार्थ ही काम कर रहा है।

भारत सरकार को इस मामले में स्पष्टत: तस्लीमा का समर्थन करना चाहिए। ऐसे तमाम अवसरों पर कमजोरी का प्रर्दशन कट्टरवादियों के समर्थन में गया है। हम शाहबानों और सलमान रुश्दी के मामलों को याद कर सकते हैं जिसमें भारत सरकार द्वारा दिखलायी गयी कमजोरी का लाभ हिन्दू कट्टरपंथियों को मिला था। मुसलमानो का एक बड़ा वर्ग उदारवादी है सरकार को उस वर्ग को आगे आने देने का अवसर देना चाहिये। लेकिन लगता है कि सरकार कट्टरतावादियों को ही संतुष्ट करना चाहती है। कम से कम कांग्रेस सरकार का मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन से गठजोड़ यही दर्शाता है। कांग्रेस को ऐसे कट्टरतावादी संगठनों से तुरंत सम्पर्क खत्म करना चाहिए और उनके खिलाफ कानूनी कारर्वाही करनी चाहिए।


रघुवंशमणि
12/8/2007


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3 comments:

ePandit said...

आपसे स‌हमत हूँ। स‌रकार को कट्टरपंथियों के आगे न झुकते हुए अपनी दृढ़ता का परिचय देना चाहिए।

अभय तिवारी said...

सही लिखा आप ने..

Ram Krishna Singh said...

I fully agree with your views about the incident.
The new talibanis rising from within the Indian democratic system and asserting themselves violently have to be tackled firmly.
R.K.Singh