कविता
तितलियाँ
पंख फड़फड़ाती उड़ती हैं तितलियाँ
रोककर अपने पर एकाएक
हो जाती हैं आखों से ओझल
इन्हें पकड़ना कोई कठिन नहीं
अगर ये फूलों पर बैठी हों
मेरे कोट पर आकर बैठ जाती है
मटमैली, सफेद या चमकीली तितली
भूल से या शायद आश्वस्त भाव से
घर नहीं होते तितलियों के
वे फूलों पर ही सो जाती हैं
छत्ते नहीं बनाती हैं शहद के
खुली वादियों में अक्सर
श्रंग बिखेरती हैं तितलियाँ
वतावरएा को खुशनुमा बनातीं
रघुवंशमणि
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1 comment:
bahut khoob raghuvansh, tum bhi kya titliyon ke peeche bhaage ho, kitni baar gire, haath aayee kya? bahu khoob, achha sandarbh hai
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