Friday, September 07, 2007

छप्पन के श्रीप्रकाश मिश्र

डायरी

छप्पन के श्रीप्रकाश मिश्र


साहित्यकारों पर चर्चा की कुछ विशेष अवस्थाएँ होती हैं। हिन्दी साहित्य जगत में जब कोई साहित्यकार साठ साल का होता है तो यह उसकी चर्चा का उचित समय माना जाता है। इसी प्रकार पचहत्तर साल का होना और अस्सी साल का होना चर्चा के लिए सबसे उपयुक्त हो जाना होता है। यह पचहत्तर या अस्सी साला होना तो एक सांस्कृतिक मामला होता है। मगर साठ साल का होना तो बिल्कुल सरकारी मामला है क्योंकि यह सरकारी रूप से सेवा मुक्त होने का समय होता है। वैसे इसे भी एक रूढ़ि ही माना जाना चाहिए क्योंकि कोई अठ्ठावन वर्ष का होने पर रिटायर होता है तो कोई बासठ पर।

फिलहाल श्रीप्रकाश मिश्र जी पर चर्चा का कारण यह है कि उन्होने इन सारी रूढ़ियों को धता बताते हुए छप्पन पर ही अपना निपट लेना निर्धारित किया। फैज़ाबाद शहर से उन्होने आज ही आई. बी. के अपने कार्यालय कम आवास से अपना समान बटोरकर अपने प्रिय शहर इलाहाबाद जाना सुनिश्िचित किया। अब वहाँ वे किताबों के बीच रहते हुए कागज कारे करेंगे। वैसे इलाहाबाद का काफी हाउस उनके लिए विशेष आकर्षण है और वह भी अपने प्रतिभागियों के साथ उनकी प्रतीक्षा में बेसब्र होगा। श्रीप्रकाश जी की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में ही हुई है और उन्होने वहाँ लम्बा समय गुजारा है।

साहित्य में श्रीप्रकाश मिश्र का योगदान कई तरह से है। उन्नयन लघु पत्रिका के सम्पादक के रूप में एक पूरी कवि पीढ़ी को आगे लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये कवि अपने प्ररम्भिक समय में इसी पत्रिका में महत्वपूर्ण तरीके से प्रकाशित हुए। इन कवियों में देवीप्रसाद मिश्र, बद्रीनारायण, हरीशचन्द्र पाण्डेय, अष्टभुजा शुक्ल, विश्वरंजन, हीरालाल, जितेन्द्र श्रीवास्तव, निशांत जैसे महत्वपूर्ण कवि रहे हैं। मेरी भी प्रारम्भिक कविताएँ उन्नयन में ही विशेषतौर से प्रकाशित हुई थीं। यह पत्रिका विभिन्न भारतीय भाषाओं की कविताओं पर भी अपने अंक केन्द्रित करती रही है।

श्रीप्रकाश मिश्र स्वयं भी कवि हैं और उनका संग्रह मौन पर शब्द काफी पहले प्रकाशित हुआ है। बाद में उन्होने जहाँ बाँस फूलते हैं और रूपतिल्ली की कथा जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास लिखे जिनमें मिजो और खासी जनजातियों के जीवन पर काफी कुछ महत्वपूर्ण मिलता है। उनकी कम चर्चित नवें दशक की हिन्दी कविता पर लिखी गयी आलोचना पुस्तक यह जो आ रहा है हरा भी कम महत्वपूर्ण नहीं। हिन्दी जगत में वे अपनी अलग अभिरुचियों की वजह से थोड़ा विवाद में भी रहे हैं। मिश्र जी बहुपठ हैं। वे संवाद और वाद विवाद के लिए सदा तैयार रहते हैं। फैजाबाद में उनकी उपस्थिति से साहित्यिक वातावरण काफी जीवन्त रहा।

स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का उनका यह निर्णय हिन्दी के लिए शुभ ही होगा क्योंकि वे इस समय अपने दो उपन्यासों पर काम कर रहे हैं। उनकी एक आलोचना पुस्तक प्रकाश्य है। यह फैसला उनकी निर्भयता का ही द्योतक है। इसी बात पर एक अजनबी कवि की कविता लीजिये:

किसी को डर है पचाससाले से
किसी को डर है साठसाले से
{किसी को डर है छप्पनसाले से}
मुझे डर नहीं है किसी साले से




रघुवंशमणि

1 comment:

बोधिसत्व said...

रघुवंश जी
आप लगातार और अच्छा लिख रहे हैं। बीच में मैं आप के लिखे पर लिख नहीं पाया। पर लिखते रहे हैं। अच्छा लगता है आपको पढ़ना।
श्री प्रकाश जी को मेरी बधाइयाँ दें। उनसे हम सब को बहुत कुछ पाना है।
हो सके तो उनका फोन नंबर भी दें। कई सारे फसाने हैं जो उनको सुनाने हैं। नके हमदाबाद के दिनों के कुछ लोग मिल गए थे जो उनको बहुत चाहते हैं। हो सके तो आप भी अपना नंबर दें।
आप सब का
बोधिसत्व