Tuesday, September 04, 2007

आगमन

कविता

आगमन

कहीं कोई रिक्ति नहीं

जमीन फोड़ झंडियाँ गाड़े
घास की हरी सेना
ईंटों के बीच बची मिट्टी में
दबी लेटी दूब दुध्दी छापामार टोलियाँ
अनजानी वनस्पतियों की मिलीशिया
कोने-अतरे, अलग-अलग वर्दियों में
और काई के कई-कई नगर

बिखरी खाली डिब्बियाँ फटे कागज
बुझी पत्रिकाएँ छत-विछत सामान
छोड़ गये जिन्हें जाने वाले गैरजरूरी
पालिथीन की खाली झिल्लियाँ

बासी कलेण्डर कमरे की दीवारों पर
समय के बोझ से लटक आये
मकड़ी के जाले कोनों में
धुएँ के निशान काले

और जहाँ कुछ नहीं था हवा थी
जिसमें चले गये लोगों की गंध

कहीं कोई रिक्ति न थी
हर कहीं से हटानी पड़ी चीजें

थोड़ी मिट्टी लेकर निकलीं घासें लहूलुहान
दूब को नोचना पडा बलपूर्वक रक्तरंजित
ढूँढ-ढूँकर निकाला गया बेनामी वनस्पतियों को
और उचारी गयीं बेरहम खुरपी से
काईयों की परतें
फिर रगड़ कर साफ हुए
जाले और धुएँ के धब्बे

बाहर फूँके गये अनुपयोगी अखबार
कलेंडर पत्रिकाओं सहित बेकार डिब्बे
कंकड़ पत्थर फेंके गये भर कर टोकरियों में

और फिर पोती गयीं दीवारें घायल
धुला गया विवश फर्श

अंत में बची हवा
जिसके लिए जलायी गयी
तेज गंध अगरबत्ती

तब आया सामान परिचित
बिठाया गया जगह-जगह

इतने के बाद और फिर भी
कहाँ जाएगा अहसास
दूसरे किसी के घर होने का



रघुवंशमणि

No comments: