Sunday, September 02, 2007

प्रक्रिया

कविता

प्रक्रिया

आप कैसे हैं मैने पूछा था
तुमने कहा था कैसे हैं आप

इसी तरह हमने बातें शुरू की थी
जो कि एक कर्मकाण्डी प्रारम्भ था शब्दों को
व्यर्थ की ध्वनियों में बदलने का

आप इसे एकालाप न कहें तो आपका मन
और मन भर गरू बातों के बाद भी
मैं नहीं जान पाया आपका मन और आप मेरा

संभवत: ऐसी कोई आकांक्षा भी न थी
मैंने अपनी हाँकी और तुमने अपनी
हाँकने को ड्राइंगरूम जो था सुसज्जित

उन पति, पत्नी और बच्चों के बारे में
जिनसे हमारा कोई सम्बन्ध बनता था
या नहीं भी बनता था तो क्या

जोर-शोर से हमने चर्चाएँ की
पुस्तकें पढ़ीं और फिल्में देखीं जागकर
बड़े लोगों के बारे में बातें की उत्साहपूर्वक

अखबार हम पढ़ते रहे नियमित
पहले हम रेडियो सुनने के आदी थे
बाद में हमें दूरदर्शन का नशा हुआ

कवि, राजनेता, कलाकार और दार्शनिक
डकैत, दलाल, भ्रष्ट और उच्चके सामान्यत:
हमारी बातों में समरस आते रहे लगातार

नाश्ते के साथ चाय, पान और सिगरेट
हमें इण्टलेक्चुवल सिध्द करने को कम न थे
व्यर्थ और क्षुद्र लोगों के परिवेश में

हम अपने समय में रहे समूचे के समूचे
पत्नियों के द्वारा धुली शर्ट की कालर खड़ी किये
ऑंखों में समय की उदासी का गर्व लिए

वैसे तुम एक सीधे-सादे आदमी थे
मैं भी एक साधारण सा व्यक्ति लगता था
और अनजाने में ही हम धूर्त होते चले गये


रघुवंशमणि

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