Saturday, September 01, 2007

साहित्य और जीवन में फाँक नहीं होनी चाहिए

व्याख्यान

साहित्य और जीवन में फाँक नहीं होनी चाहिए

[डॉ रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान प्राप्त करते समय दिया गया वक्तव्य]


अध्यक्ष मण्डल के सम्मानित सदस्यगण और सुधी मित्रो,

सबसे पहले मैं केदारनाथ अग्रवाल सम्मान समिति और उन्नयन पत्रिका के प्रति अपना आभार ज्ञापित करना चाहूँगा जिन्होने मुझे डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान के लिए उपयुक्त पात्र समझा और जिसके परिणामस्वरूप मैं आपके सामने दो शब्द कहने के लिए उपस्थित हूँ। प्रगतिशील लेखक संघ, बाँदा महेश अग्रवाल और परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद के प्रति भी मैं आभार व्यक्त करना चाहूूंूंॅगा जिनके योगदान का इस सारस्वत उपक्रम में अपना महत्व रहा है। अपने कवि मित्र आशुतोष दूबे को मैं केदार सम्मान पाने के लिए बधाई देता हूँ। वे इस सम्मान के उपयुक्त पात्र हैं।

मित्रो,

हमारे दौर में पुरस्कार लगातार संदेह के घेरे में आते जा रहे हैं। कुछ पुरस्कार तो ऐसे हैं कि जब किसी भी लेखक को वे मिलते हैं तो वह संदिग्ध हो जाता है। अब तो साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कार भी संदेह के घेरे में आ जा रहे हैं और वे भी विचित्र कारणों से। वीरेन डंगवाल जैसे प्रतिभाशाली कवि का मामला एक क्लासिक उदाहरण है। ऐसे में इस पुरस्कार का अपना महत्व है जो हिन्दी साहित्य के प्रसिध्द आलोचक डा.रामविलास शर्मा जी के नाम पर दिया जाता है। यह स्वाभाविक और उचित है कि डॉ रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान, बाँदा शहर से दिया जाता है जो कवि केदारनाथ अग्रवाल जी का स्थान है। जैसा हम सभी जानते हैं, डॉ रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल अभिन्न मित्र थे और एक महापुरुष को याद करना दूसरे का भी स्मरण है। लेकिन सिर्फ यही बात नहीं है जो हिन्दी साहित्य की इस महान मित्रता की याद दिलाती है। जो इससे भी महत्वपूर्ण है वह यह कि केदारनाथ अग्रवाल और डॉ रामविलास शर्मा दोनों अपने लेखन के प्रति पूरी संलग्नता रखते थे। केदार जी की कविता और उनके जीवन में कोई फाँक नहीं दिखलाई पड़ती और रामविलास जी ने वही जीवन जिया जिसकी वकालत उन्होने अपने साहित्य में की थी। मैं वैचारिक सहमतियों-असहमतियों की बात नहीं कर रहा। वे अपनी जगह पर होती ही हैं। शर्मा जी के प्रबल विरोधी भी उस जीवन शैली के समक्ष झुक जाते थे जो जीवन मूल्यों पर आधारित थी। जीवन और मूल्यों की ऐसी संलग्नता अब बहुत कम देखने को मिलती है। डॉ रामविलास जी जीवन भर जिस सादगी और ईमानदारी का जीवन जीते रहे वह साहित्य और जीवन में अपने विचारों के प्रति उनके दृढ़ विश्वास की ही अभिव्यक्ति थी।

आज के साहित्य में इस प्रकार की गंभीर संलग्नता का अभाव दिखाई देता है। हमें चारो ओर अवसरवाद की छायाएँ दिखायी पड़ती हैं। शायद यह हमारी बेगैरत संसदीय राजनीति का प्रभाव हो या फिर पूँजी के भौतिकतावाद की अधिकता का परिणाम हो जो क्षुद्र स्वार्थो की ओर ही ले जाती है। यहाँ उदाहरण विशेष द्वारा विवाद पैदा करने की जस्रत नहीं क्योंकि चीजें सामान्य लोगों के लिए भी साफ होती जा रही हैं। कुमार अंबुज ने अपनी एक भविष्यवादी लगने वाली कविता में लिखा है:

रचनाकार भ्रष्ट आचरण करते हुए रहेंगे रचनाशील
और किसी संगठन में शामिल होकर
हो जाएँगे सुरक्षित

संभवत: यह भविष्य के यथार्थ का कुछ अधिक ही भयावह चित्र है। लेकिन यह यथार्थ का एक ऐसा पक्ष अवश्य है जिसे हमारे समय में अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के अवसरवाद और समझौतों के पीछे लाभ का फार्मूला काम करता है। यह संभवत: हमारे समय की सभ्यता का विउम्बनापूर्ण प्रतिफलन है कि लेखन का भी उद्देश्य भौतिक लाभ या प्रसिध्दि होता जा रहा है। विडम्बनापूर्ण ढंग से मम्मट के शब्दों में 'यशसे अर्थकृत'े। मेरी बात का यह अर्थ कतई नहीं कि लेखक को सन्यासी या भिखमंगा होना चाहिये, मेरा आशय यह है कि साहित्य और जीवन में सिध्दान्त और व्यवहार की जो फाँक है वह साहित्य का नुकसान करेगी। साहित्य ही नहीं जीवन का भी। बल्कि कहना तो यह चाहिये कि भारी नुकसान हो चुका है और हो रहा है।

कहा जा सकता है कि किसी साहित्यकार के जीवन का उसके साहित्य से क्या लेना देना। इस सिलसिले में कुछ निहायत ही सीधे ढंग के सवाल खड़े किये जाते हैं कि एक बुरा आदमी भी तो अच्छा साहित्य लिख सकता है, तो फिर व्यक्तिगत जीवन का साहित्य के सृजन की गुणवत्ता से क्या लेना देना। लेकिन इस तथ्य को सामान्य पाठक भी जानता है, और एक आलोचक तो और भी अच्छी तरह से जानता है कि साहित्यकार के जीवन का उसकी रचनाओं की सचाई से सीधा मतलब होता है। निराला की महाप्राणता के पीछे सिर्फ वह साहित्य नहीं जिसका उन्होने सृजन किया था। निराला जी का जीवन उनकी रचनाओं के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। अभी हम सज्जाद ज़हीर की जन्मशती मना ही रहे हैं। उनका काम उनके साहित्य को रौशन करने वाला है। योरपियन साहित्य में वैन्डहम लीविस और इजरा पाउण्ड का महत्व इसलिये कम हो गया कि उन्होने फासीवाद का साथ दिया था। इस प्रकार के मूल्यांकनों से बचा नही जा सकेगा। आलोचना इसी अर्थ में रचनाकार को पुनर्जीवित करती है।

हिन्दी के सुपरिचित आलोचक विजयदेवनारायण साही ने इस विषय पर चर्चा करते हुए गुलाब और गुलकंद का उदाहरण दिया था। गुलकंद स्वास्थ के लिए अच्छा होता है मगर उसमें गुलाब की असली सुगंध नहीं होती। आजकल रचनाकारों का स्वास्थ तो अच्छा होता जा रहा है, उन्हे बड़े पुरस्कार और सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं । मगर साहित्य की सुगंध कम होती जा रही है।


इस प्रक्रिया को निर्मित करने में व्यावसायिकता का दबाव निर्णायक वना है। इधर व्यावसायिकता का गुणगाान कुछ ऐसा तेजी से उभरा है कि इसके गलत प्रभावों की ओर से पूरी तरह से ऑंख मूंद लेने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। यह अजीब है कि हिन्दी जगत में उत्तर आधुनिकता का तो विरोध है, मगर व्यावसायिकता का व्यावहारिक समर्थन बढ़ता जा रहा है। व्यावसायिकता ने साहित्य में सिर्फ प्रतिबद्वता के प्रश्न को ही कमजोर नहीं किया है बल्कि आलोचना के क्षेत्र में सतहीपन को बढाया है। समीक्षा कर्म को लगभग प्रचार में बदलते हुए उसने आलोचकों को प्रचारकों में रिडयूस करने का प्रयास किया है। इसके प्रति सचेत होना बहुत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त व्यावसायिकता के दूसरे रूप में साहित्य में लटके-झटके ज्यादा दिखाई देते हैं जो शीघ्र प्रसिध्दि पा्रप्त करने के रास्ते बनते जा रहे हैं। विवादए गाली-गलौज और झगड़े अधिक प्रकाशित हो जाते हैं। लोग न तो प्रतीक्षा के लिए तैयार हैं और न ही कठिन परिश्रम के लिए।

इस प्रकार के पतन का परिणाम यह है कि लोगों का साहित्य पर से विश्वास उठता जा रहा है। इसे भी तमाम सामाजिक साँस्कृतिक संस्थाओं की तरह गंभीरतापूर्वक नहीं लिया जाता। लोग इसे भी एक खेल मानने लगे हैं। यह बहुत ही दुभार्ग्यपूर्ण है क्योंकि साहित्य के लिए वह क्षण सबसे विनाशकारी क्षण होगा जब उसे लोग गंभीरतापूर्वक नहीं लेंगे। इसलिए मेरी बात को नैतिकतावादी प्रलाप न मानकर एक आसन्न संकट की ओर संकेत माना जाय।

अब यह सब जैसा भी है साहित्य को इसका प्रतिरोध करना ही चाहिए। इस प्रवाहपतित होते समय में आलोचना की प्रतिरोधी भूमिका का महत्व और अधिक हो जाता है। हिन्दी साहित्य को प्रतिरोध का साहित्य कहा भी जाता है मगर यह प्रतिरोध क्या सिर्फ शब्दों में रहेगा और जीवन में इसका कोई महत्व नहीं होगा? साहित्य की भूमिका यदि समाज के अन्त:करण जैसी है तो इस अन्त:करण को सारी समस्याओं के बाद भी दर्पण की तरह रहना चाहिये। इस दर्पण पर जितनी कम धूल जमी होगी चेहरा उतना ही साफ दिख सकेगा।

संभवत: इस समस्या की ओर किसी तरह से आचार्य शुक्ल जी की दृष्टि गई थी जब उन्होने सचाई की बात की थी। सचाई शब्द को सच्चाई शब्द से अलग करने के लिए उन्होने कोष्ठक में अंग्रेजी शब्द सिंसेरिटी का प्रयोग किया था। अंग्रेजी में यह शब्द संलग्नता के अर्थ में और ईमानदारी के भावार्थ में इस्तेमाल होता है। यही शुक्ल जी का भी तात्पर्य था। यहाँ रचना के मूल्याँकन में कवि के जीवन की महत्ता की ओर संकेत है।

यह पुरस्कार जिस महान आलोचक के नाम पर दिया जा रहा है उनका जीवन लेखकीय सचाई का एक अनुपम उदाहरण था। डॉ रामविलास शर्मा जी के विचारों से तो असहमति हो सकती थी, मगर उनकी लेखकीय ईमानदारी पर कभी संदेह नहीं किया गया। उनके ईमानदारी भरे विचारों के विरोध का भी एक अर्थ था। हिन्दी साहित्य में इस विरोध के बड़े सकारात्मक परिणाम निकले। लेकिन यदि किसी व्यक्ति को अपने लेखन पर इतना भी विश्वास नहीं कि वह उस पर कुछ कदम भी चल सके तो फिर उसके विरोध का भी क्या अर्थ हो सकता है? डा. रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल जी का साहित्य इसी दिशा में संकेत करता है कि साहित्य और जीवन के बीच के इस द्वैत को यथासंभव दूर करने की जरूरत है।

मैं इस मंच के माध्यम से यही बात साहित्यकारों तक पहुँचाना चाहता हूॅ। मैं स्वयं इस दुहरेपन से अपनी आलोचना को दूर रखने का प्रयास करूॅंगा।

मैं पुन: आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करता हॅूं। धन्यवाद।





रघुवंशमणि
09.04.2006
बाँदा

1 comment:

Shastri JC Philip said...

"मैं इस मंच के माध्यम से यही बात साहित्यकारों तक पहुँचाना चाहता हूॅ। मैं स्वयं इस दुहरेपन से अपनी आलोचना को दूर रखने का प्रयास करूॅंगा।"

कैसा सार्थक कथन !!!

-- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस विषय में मेरा और आपका योगदान कितना है??