Monday, September 03, 2007

प्रकाश

कविता

प्रकाश

कितनी आकाश गंगाएँ
कितने नक्षत्र
कितने कितने सौरमण्डल
ग्रह-उपग्रह और
तम के अगणित प्रकाशवर्ष

सबके बीच से हम तुम तक पहुँचे
ऐसा आसान भी नहीं था
सीधे नहीं रहे हमारे रास्ते
किरणों और तरंगों के बीच जीते
हम तुम तक पहुँचे

शुक्र करो
कि हमें नहीं ग्रसा किसी काले ग्रह ने
और हम पहुँचे
तिमिराच्छन्न अनन्त को भेदते
पिण्डों से बचते
उनके गुरुत्वाकर्षण में मुड़ते

देखो हमारे परावर्तन में
सब्ज पत्तियाँ, फूल और फल
दृश्य और चीजें
इन्द्रधनुषों के रंग
धरती, समुद्र, आकाश

वैसे तो सारे रंग तुम्हारी आखों में हैं
और हमारा अपना कोई रंग नहीं


रघुवंशमणि

1 comment:

Udan Tashtari said...

कहीं बहुत गहरे उतरे भाव हैं, हम तो नहीं नाप पाये मगर लगता है कि दमदार हैं. बधाई.