Monday, December 31, 2012


फैजाबाद में आनंद पटवर्धन की फिल्म 'राम के नाम' पर बवाल
                                                                                रघुवंशमणि


फैज़ाबाद शहर में इधर एक अजीब सा विवाद पैदाहुआ है जिसे सुनकर सोच-समझ वाले लोग माथा पीट लेंगे। वे यह समझ नहीं पायेंगे कि इस मसले पर रोयें या हॅंसे। उन्हें इस बात पर भी आश्चर्य होगा कि लोगों की जानकारियाँ किस कदर कम हैं और वे इसी कम जानकारी के आधार पर कैसे-कैसे विचित्र निर्णय ले लेते हैं? हमें इस तरह के पूर्वाग्रहों पर भी आश्चर्य होगा कि लोग साहित्य, कला और सिनेमा के प्रति कभी-कभी कैसे अजीबोगरीब ढर्रे अपना लेते हैं। राजनीतिक पूर्वाग्रह और संकीर्ण धार्मिक भावनाएँ कभी-कभी हमारी दृष्टि को ऐसा छेक लेती हैं कि हमारी विवेकशीलता तक बाधित हो जाती है।

बात विगत दिनों स्थानीय कामता प्रसाद सुन्दरलाल साकेत महाविद्यालय में अयोध्या फिल्म सोसाइटी द्वारा आयोजित हुए अवाम का सिनेमा में दिखायी गयी फिल्म को लेकर उ--ठा है। इस कार्यक्रम के दौरान 20 दिसम्बर 2013 को प्रसिद्ध वृत्तचित्र निर्माता आनन्द पटवर्धन की फिल्म राम के नाम का प्रदर्शन किया गया। इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने महाविद्यालय परिसर में इस फिल्म पर हमला बोल दिया। उन्होंने यह आरोप लगाया कि यह फिल्म हिन्दू देवी-देवताओं के विरुद्ध है और इस प्रकार के कार्यक्रम महाविद्यालय में फिर नहीं होने चाहिए। इसे विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र नेताओं ने भारतीय संस्कृति पर हमला बताया और कहा कि इसमें विभिन्न हिन्दू देवताओं का अपमान किया गया है, भारतीय महापुरुषों पर गलत टिप्पणी की गयी है और आपत्तिजनक दृश्य दिखलाये गये हैं। यह भी कहा गया कि इस फिल्म के माध्यम से साम्प्रदायिकता भड़काने का प्रयास किया गया है। इस प्रकरण में नारेबाजी की गयी और इस आयोजन से जुड़े हिन्दी के प्रख्यात कवि और महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रवक्ता अनिल सिंह का घेराव किया गया। मेरी दृष्टि में ये बाते इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण हैं कि ये किसी फिल्म को राजनीतिक पूर्वाग्रहग्रस्त और असहिष्णु तरीके से देखने के कारण पैदा हुई परिस्थितियाँ हैं। यह किसी फिल्म या कला से जुड़ी कृति को देखने का स्वस्थ और सही तरीका नहीं है।

फिल्म राम के नाम पर इस प्रकार के आरोप बहुत हास्यास्पद हैं। यह फिल्म उस दौर में बनायी गयी थी जब भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवानी ने रामजन्मभूमि आन्दोलन को परवान चढ़ाने के लिए अपनी रथयात्रा प्रारम्भ की थी और उनकी यात्रा को लालू यादव ने बिहार में रोक लिया था। उस समय यह चर्चा थी कि आनन्द पटवर्धन इस रथयात्रा के साथ चलकर अपनी फिल्म बना रहे हैं। कुछ लोगों ने यह दुष्प्रचार भी कर रखा था कि आनन्द तो रथयात्रा से प्रभावित हैं और वे उसे कवर कर रहे हैं। आनन्द पटवर्धन के कार्यों से कम परिचित लोगों ने इस बात को सही मान लिया था। मगर जो लोग आनन्द पटवर्धन के कार्यों से परिचित थे उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। अन्त में जब यह फिल्म सामने आयी तो लोगों ने देखा कि वास्तविकता क्या थी। यह अपने किस्म का एक प्रतिरोध का सिनेमा था जिसमें आनन्द पटवर्धन ने सामान्य लोगों से बातचीत करते हुए रामजन्मभूमि आन्दोलन से जुड़े हुए तमाम पक्षों को बेबाक तरीके से उद्धाटित किया था। इस फिल्म के अंत में प्रस्तुत किये गये स्वर्गीय बाबा लालदास के लम्बे वक्तव्य से यह स्पष्ट होता है कि वास्तव में हिन्दू धर्म क्या है और यह किस प्रकार संकीर्ण राजनीतिक हिदुत्व से अलग है।

आनन्द पटवर्धन हिन्दी के उन वृत्तचित्र निमाताओं में से रहे हैं जिनकी ख्याति पूरे विश्व में है। वे भष्टाचार, राजनीति, गरीबों की स्थिति, हाशिये पर पड़े लोगों और युद्ध जैसे विषयों पर फिल्में बनाते रहे हैं। उनकी चर्चित फिल्मों में बम्बईः हमारा शहर, अन्तरात्मा के बन्दी, युद्ध और शान्ति, जय भीम कामरेड जैसी फिल्में रही हैं। इन फिल्मों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ डाक्युमेन्ट्री फिल्मों में रखा जाता है। ऐसे विश्वस्तरीय फिल्मकार की फिल्म पर लगाये गये ये आरोप बेहद हास्यास्पद और राजनीति प्रेरित लगते हैं। हमें ऐसे फिल्मकार की कृतियों पर राष्ट्रीय स्तर पर गर्व होना चाहिए। उनकी फिल्मों की समीक्षा करते समय हमें उन फिल्मों में व्याप्त मनुष्यता के पक्ष को नहीं भूलना चाहिए। राम के नाम भी एक ऐसी ही फिल्म है जिसमें धर्म के सकीर्ण पक्ष को धर्म के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ रख कर देखा गया है। उनकी अन्य फिल्में भी क्रूरता, अमानवीयता और पूर्वाग्रह के विरुद्ध मनुष्यता का पक्ष प्रस्तुत करती हैं।

आज जब हम अपने समाज में साम्प्रदायिकता का नंगा नाच देख रहे हैं तो आश्चर्य होता है कि आनन्द पटवर्धन ने इन सभी बातों को किस प्रकार 1991 में ही ठीक से रेखांकित कर दिया था। साम्प्रदायिकता से ग्रस्त हिदुत्ववादी रामजन्मभूमि आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण में ही बहुत से ऐसे तत्व दिखायी दे रहे थे जो बाद में साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने में सहायक हुए और पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगों का कारण बनें। 2002 में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्वों ने गुजरात में भयानक साम्प्रदायिक काण्ड किया। आनन्द पटवर्धन की यह फिल्म बाबरी मस्जिद ध्वंस के पूर्व बन रही साम्प्रदायिकता की गर्म हवा के तापमान का ठीक से अनुमान लगाने वाली फिल्म थी। इसी के चलते इसे श्रेष्ठ खोजी फिल्म का पुरस्कार दिया गया था। इस वृत्तचित्र को दूरदर्शन पर प्राइम टाइम के दौरान प्रदर्शित भी किया गया था। यह तथ्य ही इस बात का प्रमाण है कि भारत के फिल्म सेंसर बोर्ड ने इसे किसी भी प्रकार से आपत्तिजनक नहीं पाया था। वैसे भी यह फिल्म अनेक स्थानों पर अनेक बार प्रदर्शित की जा चुकी है।

 अतः अब इस फिल्म पर आपत्ति उठाना नासमझी के अतिरिक्त कुछ नहीं। ऐसे में विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्रों को समझदारी से काम लेते हुए इस विवाद को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए। फैज़ाबाद शहर का सांस्कृतिक परिदृश्य पहले से ही संवेदनशील है। ऐसे में उनकी कोई भी जिद राजनीतिक और गैरजिम्मेदाराना समझी जायेगी। अयोध्या फिल्म सोसाइटी पिछले छः वर्षों से हाशिये पर पड़े लोगों का सिनेमा प्रस्तुत करती रही है। पिछले वर्षों में इस संस्था ने बहुत सी ऐसी फिल्में प्रस्तुत की हैं जिन्हें सामान्यतः सिनेमा घरों में नहीं दिखाया जाता। इस परंपरा को किसी भी तरह से रोका जाना अथवा बाधित करना वास्तव में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

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