Sunday, July 29, 2007

कंक्रीट में गुलाब

कविता

कंक्रीट में गुलाब


साफ धुली ठण्डी फर्श पर
उससे भी कठोर कंक्रीट का गमला
जिसमें भूमि का भ्रम पैदा करती थोड़ी सी मिट्टी
जंगल का भ्रम पैदा करती हरी पत्तियाँ और टहनी
उसकी चोटी पर एक गुलाब

घर के बाहर है गुलाब
मगर सड़क की असुरक्षा में नहीं
हवाओं के विरुध्द जीवन बीमा है चहारदीवारी
पशुओं के विरुध्द जी. पी. एफ. है गेट
थोड़ी सी खाद मिलती है मंहगाई भत्ते की तरह
हल्का सा पानी ओवरटाइम की तरह
जरूरत के मुताबिक

इसी के लिए बनाया गया है दो कमरे का फ्लैट
एक में सोते हैं बच्चे
दूसरे में पति-पत्नी
दिन में जो हो जाता है ड्राइंगरूम
इसी गुलाब की खातिर
पति रोज भीड़ चीरता जाता है आफिस
पत्नी करती है दिन भर काम
बच्चों को भेजा जाता है स्कूल

पति, पत्नी और बच्चे के बीच उगा
यह गुलाब चमकता है
आफिस से लौटे थके पति की मुस्कान में
बोर हुई पत्नी की औपचारिकताओं में
किताबों में दबे बच्चे की अस्वाभाविक हँसी में

हफ्ते में सण्डे की तरह है यह गुलाब
दीवारों पर टंगे इच्छाओं के चित्र की तरह
थकान के बाद साथ चाय पीते मित्र की तरह
समय निकाल कर देखे गये मैटिनी शो जैसा
गर्मी में बच्चे की एक आइसक्रीम की तरह

मित्रों के सामने मुस्काता है
अतिथि के सामने खिसियाता है
अफसर के आगे बिछ जाता है
तेज हवा चलने पर
मगर थोड़ा सा हिलता है

पुलिस के डण्डे की तरह है यह
हमारे और पागल कर देने वाली वानस्पतिक गंध के बीच
जो जंगलों की सघनता में ही जनमती है
जिसकी एक छाया भर नहीं है यह

हमारे और इन्द्रधनुषी रंगों के बीच
किसी शासनादेश की तरह टंकित है
धरती की सोंधी प्रफुल्लित बरसाती महक के
विस्तार के चारो ओर काँटेदार
बाड़े की तरह

एक डायवर्जन भर है
कंक्रीट में उगा
लगभग कंक्रीट सा
यह गुलाब



रघुवंशमणि

1 comment:

anil singh said...

dear raghuvanshji,apne nam ke sath yah jo chintak,alochak aur kavi ka visheshan aapane thonka hai uske bad kis mai ke lal me yah himmat hai ki apki kavitawon ki alochana kare.bahut achcha hai.lage rahiye.