Saturday, September 22, 2012

प्रतिबिम्ब


प्रतिबिम्ब

                                          रघुवंशमणि




मौत की आॅंखों में

कितनी झुर्रियाॅं होंगी

क्या इन झुर्रियों की दरारों में

कहीं कोई बूॅंद भी होगी

छिपी-खोयी

पत्थरों की घाटियों में

वर्षा के बचे जल की तरह



पहाडों से रिसते

सिसकते धार की तरह



क्या वह सारे चिन्हों को

शब्दों की तरह पहचानेगी

उन्हें पढ़ेगी इतिहास की तरह

समय की कार्बन डेटिंग में



मौत कैसी होती है

होती क्या है वह



जब झाॅंकती है आॅंखों में

तो क्या देखती है वह

तरल स्थिरता की गहराई में

अपने आप को



क्या वह प्रतिबिम्ब होती है

धीरे-धीरे करीब पहुॅंचती



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