Sunday, October 28, 2007

मुग़ल-ए-आजम और साधू

डायरी

मुग़ल-ए-आजम और साधू

बात बहुत पुरानी नहीं है, मगर बहुत नयी भी नहीं।

मुगले-ए-आजम फिल्म रंगीन होकर आ रही थी और यह फिल्म प्रेमियों के बीच काफी चर्चा का मामला था। हमारे परम मित्र स्वप्निल श्रीवास्तव हैं जो मनोरंजनकर अधिकारी हैं। वे हिन्दी के जाने-माने कवि हैं और साहित्य जगत में उन्हे इसी रूप में जाना जाता है। उनके साथ ही मैं फैजाबाद के पैराडाइज सिनेमा हाल के मैनेजर के कमरे में बैठा था। दूसरे ही दिन रंगीन मुग़ल-ए-आजम प्रदर्शित होने वाली थी। पोस्टर पहले से ही चिपका दिये गये थे जिससे लोगों को यह भ्रम हो रहा था कि शायद यह फिल्म पहले से ही उस सिनेमाघर में लगी है। लोग पूछ रहे थे कि आखिर फिल्म लग कब रही है। एक सुखद आश्चर्य था कि फिल्मों के इस पतन काल में भी दर्शक इस पुरानी फिल्म के नये रूप को देखने के लिए बेताब थे। आखिर कहा ही गया है कि ओल्ड इज गोल्ड।

इतने में एक साधू महाराज वहाँ पधारे। सभी को आश्चर्य हुआ कि ये महोदय गेरुवा वस्त्रधारी, चिमटाहस्त यहाँ क्या कर रहे हैं। दाढ़ी पूरी बढी हुई थी और लग रहा था कि सीधे अयोध्या के किसी मंदिर से आ रहे हैं। वे कमरे में घुस आये और जब उन्होंने भी पूछा कि मुग़ल-ए-आजम कब लग रही है तो सभी लोग बिना हल्के से मुस्कराए न रह सके। स्वप्निल जी ने सिनेमाघर के मालिक होने के अंदाज में सप्रेम कहा, 'बाबा कल लग रही है।'

साधू ने प्रसन्न होकर सिर हिलाया।

उन्होने फिर मुस्कराते हुए पूछा, 'क्या आप देखेंगे?'

'हाँ' साधू ने जवाब दिया।

फिर कुछ देर तक वैसे ही खड़े रहने के बाद उसने कहा, 'फिल्म बहुत अच्छी है।'

अब तो चारो तरफ से टिप्पणियाँ शुरू हो गयीं।

'इसमें क्या दो राय। अपने जमाने की सबसे मशहूर फिल्म रही है।'

'जब भी कहीं लगती थी हाउस फुल जाती थी।'

'संवाद गजब के हैं।'

'अभिनय का तो कोई जवाब नहीं।'

'मैने यह फिल्म बहुत पहले देखी थी।' साधू ने कहा।

'अच्छा!'

'तब मैं साधू नही ंथा। गृहस्थ था।'

'हूॅ।'

'यह फिल्म मैने अपनी पत्नी के साथ देखी थी।' साधू ने कहा और थोड़ा उदास हो गया।

एक बेवजह सी चुप छा गयी।

वह फिर बोला, कुछ इस तरह जैसे किसी ने उससे पूछा हो, 'अब वह इस दुनिया में नहीं है। मैं यह फिल्म जरूर देखूँगा।'

वह अकेला सा मुड़ा और चला गया।

उसने दूसरे दिन जरूर वह फिल्म देखी होगी। उसे साधू भेष में फिल्म देखते हुए लोगों ने क्या सोचा होगा? कुछ लोग हँसे होंगे। कुछ लोगों ने सोचा होगा कि इस देश में भी क्या गजब-गजब के फिल्म प्रेमी पड़े हैं।

लेकिन मैं सोचता हॅँ कि हम चीजों को किन-किन कारणों से पसंद करते हैं, इसे सुनिश्चित कर पाना कितना कठिन है? हमारे जीवन का इतिहास भी हमारी अभिरुचि के साथ जुड़ा होता है। घटनाएँ और भावनाएँ तक कभी-कभी हमारी पसंद और नापसंद का कारण बनती हैं।



रघुवंशमणि

Tuesday, October 09, 2007

चे ग्वेरा की अन्तिम यात्रा

अनुवाद

चे ग्वेरा की अन्तिम यात्रा

[गार्जियन के लिए रिचर्ड गॉट की रिर्पोट का हिन्दी अनुवाद]

वेलेग्राण्ड, 10 अक्टूबर 1967

पिछली रात पाँच बजे चे ग्वेरा का पार्थिव शरीर दक्षिणी-पश्चिमी बोलीविया के इस पहाड़ी कस्बे में लाया गया।

हेलिकाप्टर से स्ट्रेचर पर बंधे छोटे शरीर के लैंडिंग रेलिंग पर उतरने के साथ ही बाद की सारी कार्रवाही का दायित्व एक सैनिक वर्दी वाले व्यक्ति को सौंप दिया गया जिसके बारे में सभी पत्रकारों का मत है कि वह नि:सन्देह अमेरिका की किसी गुप्तचर एजेन्सी का प्रतिनिधि है। वह सम्भवत: कोई क्यूबन निर्वासित है और इस प्रकार जीवन भर अकेले ही संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुध्द युध्द छेड़ने वाले चे ग्वेरा ने मृत्यु के पश्चात स्वयम् को अपने प्रमुख शत्रु के सामने पाया।

हेलिकाप्टर को जानबूझ कर उस जगह से दूर उतारा गया जहाँ भीड़ एकत्रित थी और मृत गोरिल्ला युध्द के नायक के शरीर को जल्दी से एक वैन में पहुँचाया गया। हमने एक जीप से उसका पीछा करने को कहा और ड्राइवर उस हास्पिटल के गेट से निकलने में सफल रहा जहाँ उनके शरीर को एक छोटे से रंगीन वाश हट में ले जाया गया जो शवगृह के रूप में इस्तेमाल होता था।

वैन के दरवाजे खुले और अमेरिकी एजेन्ट चीखते हुए बाहर कूदा और चिल्लाया 'इसे जल्दी से बाहर करो।' एक पत्रकार ने उससे पूछा कि वह कहाँ से आया है। उसने गुस्से में जवाब दिया, 'कहीं से नहीं।'

ओलिव हरे रंग की फैटिग और जिपर्ड जैकेट पहने पार्थिव शरीर को उस झोपड़ी में ले जाया गया। यह सुनिश्चित तौर पर चे ग्वेरा का ही पार्थिव शरीर था। जब पहली बार मैने जनवरी में उनके बोलिविया में होने की बात अपनी रिर्पोट में लिखी थी, तभी से मैं लोगों की इस बात पर यकीन नहीं करता था कि वे कहीं और हैं।

मैं सम्भवत: उन कतिपय लोगों में से हूँ जिन्होने उन्हें जीवित देखा था। मैने उन्हे क्यूबा में 1963 में एम्बेसी के एक रिसेप्शन पर देखा था और मुझे कोई सन्देह नहीं कि यह चे ग्वेरा का ही पार्थिव शरीर है। काली घुंघराली दाढ़ी, उलझे बाल और दायीं कनपटी पर एक घाव है जो शायद जुलाई की एक दुर्घटना का परिणाम है जब उन्हें एक राइफल की गोली छूकर निकल गयी थी।

उनके पैरों मे मोकासिन्स थीं मानों जंगल में तेजी से दौड़ते समय उन्हे गोली मारी गयी हो। उनके गर्दन के निचले हिस्से में दो गोलियों के लगने के निशान थे और शायद एक गोली उनके पेट में भी मारी गयी थी। ऐसा विश्वास है कि उन्हे तब पकड़ा गया जब वे गंभीर रूप से घायल थे, लेकिन उन्हे युध्द क्षेत्र से बाहर निकालने वाले हेलिकाप्टर के आने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी थी।

मुझे केवल एक बात को लेकर उनकी पहचान पर संदेह था। मेरी स्मृति की तुलना में चे पहले से काफी दुबले हो गये थे, लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि महीनों जंगल में रहने के कारण उनके पहले के भारी शरीर में यह बदलाव आया होगा।

जैसे ही पार्थिव शरीर शवगृह में पहुँचा डाक्टरों ने उसमें प्रिजर्वेटिवस डालने और अमेरिकन एजेन्ट ने लोगों को दूर रखने के निष्फल प्रयास करने प्रारम्भ किये। वह बहुत परेशान था और जब भी उसकी ओर कैमरा होता था, वह क्रुध्द हो जाता था। उसे पता था कि मैं जानता हॅॅूं कि वह कौन है। उसे यह भी पता था कि मैं जानता हॅॅूं कि उसे यहाँ नहीं होना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा युध्द था जिसमें अमेरिकी लोगों के होने की आशा नहीं की जाती था।

फिर भी यह शख्स उपस्थित था जो वेलेग्राण्ड में सेना के साथ था और अफसरों से परिचितों की तरह बातें कर रहा था।

शायद ही कोई यह कहे कि चे को ये बातें मालूम न थीं क्योंकि उनका उद्देश्य ही अमेरिका को लाटिन अमेरिका में हस्तक्षेप के लिए उत्तेजित करना था ताकि युध्द पीड़ित वियतनाम को मदद मिल सके। लेकिन वे निश्चित रूप से महाद्वीप में अमेरिकी गुप्तचर एजेसियों की ताकत और पहुँच का ठीक-ठीक अंदाजा लगाने में चूक गये और यही उनके और वोलीवियायी गुरिल्लाओं की असफलता का प्रमुख कारण बना।

अब उनकी मृत्यु हो चुकी है। जब उनके शरीर में प्रिजवेटिव्स भरे जा रहे हैं और भीड़ अन्दर आने के लिए चीख रही है, यह सोचना कठिन है कि यह व्यक्ति एक समय लाटिन अमेरिका के महान लोगों में से एक था।

वह मात्र एक महान गुरिल्ला नायक नहीं थे, वे क्रान्तिकारियों और राष्ट्रपति के मित्र भी थे। उनकी आवाज को अन्तर-अमेरिकी कौंसिल्स के अतिरिक्त जंगलों में भी सुना-समझा जाता था। वे एक डाक्टर, गैरपेशेवर अर्थशास्त्री, क्रान्तिकारी क्यूबा में उद्योग मंत्री और फिडल कास्त्रो के दाये हाथ थे। सम्भवत: उन्हे इतिहास में बोलिवर के बाद का सबसे महत्वपूर्ण महाद्वीपीय व्यक्तित्व माना जाय। उनके नाम के चारो ओर गाथाएँ रची जानी हैं।

वे चीनियों और रूसियों के बीच चल रहे सैध्दान्तिक झगड़ों से परेशान र्माक्सवादी थे। वे सम्भवत: अन्तिम व्यक्ति थे जिन्होने दोनों के बीच का रास्ता खोजने की कोशिश की और सभी जगहों पर संयुक्त राज्य के विरुध्द क्रान्तिकारी ताकतों को एकत्र करने की मुहिम चलायी। वे अब मृत हैं लेकिन यह सोचना कठिन है कि उनके विचार भी उनके साथ मर जायेंगे।


अनुवाद: रघुवंशमणि

Saturday, October 06, 2007

बौध्दिक घृणा के दौर में गाँधी जी

डायरी

बौध्दिक घृणा के दौर में गाँधी जी

अंग्रेजी के प्रसिध्द कवि डब्लू. बी. यीट्स ने लिखा है कि बौध्दिक घृणा सबसे बुरी चीज होती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बात की प्रासंगिकता हमारे आतंकवादग्रस्त समय में यीट्स के समय से थोड़ा ज्यादा ही है। हालांकि हम यह नहीं भूल सकते कि यीट्स का समय द्वितीय विश्वयुध्द और नाजीवाद से ग्रस्त समय था। शायद हम अपने समय को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि हम स्वयं उसमें अस्तित्वमान होते हैं। एक विचारक के रूप में मैं भी इस नियम का अपवाद नहीं।


यह बात इधर गाँधी जी के विचारों के सिलसिले में ज्यादा समझ में आयी। श्रीमती सोनिया गाँधी ने संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में विश्व अहिंसा दिवस के सिलसिले में बोलते हुए कहा कि महात्मा गाँधी ने हमें एक दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखलाया। पता नहीं क्यों अब लगता है कि समय बीतने के साथ-साथ गाँधी के विचाार नये तरह से प्रासंगिकता प्राप्त करने लगे हैं। हम चाहे जितना कहें कि चारो तरफ हिंसा ही हिंसा है, भ्रष्टाचार का बोलबाला है, प्रजातांत्रिक मूल्यों का रास्ता हर हाल में गाँधी जी के विचारों से होता हुआ ही गुजरता है। पश्चिम द्वारा अब उन्हें महज एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र द्वारा उनको दिया गया सम्मान यही दर्शाता है।

गाँधी जी के लिए बौध्दिक सहिष्णुता का महत्व बहुत अधिक था। आज हमने इस मूल्य को पूरी तरह से खो दिया है। धर्म और जाति के झगड़े हमें किस दिया में ले जा रहे हैं? इस बारे में कट्टरतावादियों की क्या सोच है? इस विषय पर खुले मन से विचार नहीं ही हो पा रहा।

लेकिन सबसे बड़ी बात तो साधन की पवित्रता की है जिसकी ओर गाँधी जी ने संकेत किया था। संकेत ही नहीं व्यवहार भी। इस बात के महत्व को अभी हम नहीं समझ सके हैं। सम्भवत: अभी और नुकसान उठाने के बाद ही हम इस बात के महत्व को ठीक से समझ सकेंगे।