Sunday, February 28, 2010

होली की एक स्मृति

मॉरीशस में होली बहुत अच्छी तरह से मनायी जाती है। 1968 के आस पास की घटना है। जब हम मारीशस में थे तो होली मनाने के लिए बो बासें चले जाते थे जहाँ चाचा ठाकुर प्रसाद मिश्र जी रहा करते थे। एक बार होली के दिन उनके यहँा कोई बुजुर्ग मेहमान आये हुए थे। वे कुर्सी पर बैठे हुए थे तो चाचा जी कमर पर एक बड़ा सा भगोना रखे हुए अंदर से निकले।

उन्होंने अतिथि महोदय से पूछा

''क्या आप चाय पियेंगे''

बुजुर्ग सज्जन थोड़ा संकोच में पड़े, पर फिर संभलकर कहा

''हाँ हाँ पी लेगे''

अतिथि जी के इतना कहते ही चाचा जी ने पूरा भगोना उनके सिर पर उड़ेल दिया। वे सिर से पैर तक रंग से भीग गये।

होली की यह रंगीनियत उसकी खास बात है। मुझे यह त्योहार सांस्कृतिक अधिक और धार्मिक कम लगता है। यही वजह है कि मुझे अपने तमाम मुस्लिम दोस्तों की भी शुभकामनाएॅ इस अवसर पर मिलती रहती हैं।

यह रंग का उत्सव प्रकृति से भी जुड़ने का उत्सव होता है। शायद बाहर की प्रकृति से उतना नहीं जितना की अंदर की प्रकृति से। इस मामले में यह त्योहार कुछ कम फा्यडियन नहीं। इस अवसर पर ढेर सारी वर्जनाएँ अलग रख दी जाती हैं। हमारी प्रकृति पर जो दबाव हैं वे इस अवसर पर कम हो जाते हैं।

Saturday, February 13, 2010

कल के लिए

सम्मान्य महोदय/महोदया,


हमारा समय एक कठिन दौर रहा है जिसमें समाज और संस्कृति को अनेकानेक समस्याओं से रूबरू होना पड़ रहा है। अपसंस्कृति, साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, आर्थिक और सामाजिक विसंगतियाँ लेखन को सामाजिक दायित्व समझने वाले हमारे-आप जैसें लेखकों के समक्ष कठिन चुनौतियों के रूप में रही हैं जिनसे हम लगातार जूझते रहे हैं। कल के लिए इन ज्वलंत प्रश्नों को सामने रखकर निकलने वाली अपने समय की एक महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। इसे आप जैसे प्रबुध्द साथियों का प्यार और सहयोग लगाातार प्राप्त होता रहा है जिसके चलते इस पत्रिका ने अपने संस्थापक-सम्पादक श्री जयनारायण के कुशल नेतृत्व में सफलतापूर्वक अपने सोलह वर्ष पूरे किये हैं।

पत्रिका आज भी अपनी इन्ही प्रतिबध्दताओं से जुड़ी रहते हुए समकालीन सृजनात्मकता को समृध्द करने के कार्य में सन्नध्द है। मगर भाई जयनारायण जी की स्वास्थ सम्बन्धी समस्याओं को देखते हुए मुझे और भाई अम्बर बहराईची को उनके द्वारा संयुक्त रूप से पत्रिका को सम्पादकीय सहयोग प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। उर्दू साहित्य से जुड़ी सामग्री का सम्पादन अम्बर बहराईची करेंगे। मुझे पत्रिका के लिए हिन्दी सामग्री का सम्पादन कार्य देखना है।

इस गुरुतर दायित्व का निर्वहन आप जैसे शुभेच्छु मित्रों और प्रतिबध्द एवं समर्थ लेखकों के सहयोग के बिना संभव नहीं है। पत्रिका के पहले से प्रकाश्य अगले दो विशेषांक शीघ्र ही आपके हाथो में होंगे। उसके बाद प्रकाशित होने वाले सामान्य अंकों के लिए आपके सहयोग के हम आकांक्षी हैं। विश्वास है कि आप अपनी श्रेष्ठ रचनाएँ हमें प्रेषित कर पत्रिका को अपना रचनात्मक सहयोग प्रदान करेंगे।ं

सहयोग की आशा के साथ,

आपका


रघुवंशमणि

कार्यकारी सम्पादक
कल के लिए

Friday, February 12, 2010

बाल ठाकरे को अनायास मिली चुनौती

यह संभवत: इस समय विचार का विषय नहीं है कि शाहरुख खान की फिल्म
माई नेम इज खान
किस प्रकार की फिल्म है? कला की दृष्टि से वह ठीक ठाक है या नहीं? उसकी विषयवस्तु क्या है या उसका मैसेज कैसा है? फिल्म में विषय या कहानी के साथ निर्देशक का ट्रीटमेंन्ट कैसा है? यानि कि फिल्म कैसी है यह फिलहाल महत्वपूर्ण नहीं है। हो सकता है एक सप्ताह बाद ही यह फिल्म टिकट खिड़की पर दम तोड़ दे। होने को तो इसका उल्टा भी हो सकता है, मगर इस समय इस बात का कोई मतलब नहीं है। मतलब सिर्फ इस बात का है कि यह फिल्म रिलीज हो गयी है और इसे देखने के लिए लोग बड़ी तादाद में थियेटरों में पहुँचे हैं।

लोग शिवसेना की धमकियों के बाद भी सिनेमाघरों में पहुँच रहे हैं और यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि वे बाल ठाकरे जैसे कट्टरपंथी नेताओं से अधिक महत्व अपने सिने स्टारों को देते हैं। वे फिल्म को देखने के प्रतीकात्मक प्रतिरोध का बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। शायद सामान्य परिस्थितियों में इस फिल्म को इतनी अच्छी शुरुवात न मिलती। दिल्ली में तो सिनेमाघरों में कई दिनों की एडवांस बुकिंग चल रही है। फिल्मों के इस पराभव के दौर में जब किसी एक शो का हाउस फुल जाना मुश्किल हो जाता है, यह वाकई जबर्दस्त बात है।

बाल ठाकरे और शिवसेना को यह चुनौती अनायास ही मिल गयी है। शायद स्वयं शाहरुख ने भी यह न सोचा होगा कि एक सामान्य टिप्पणी पर शिवसेना इस प्रकार प्रतिक्रिया करेगी। बात सिर्फ इतनी सी रही होगी कि उन्हे अपनी खेल सम्बन्धी सामान्य सी टिप्पणी को वापस लेना अपमानजनक लगा होगा। लेकिन यह भी उनके पक्ष में महत्वपूर्ण है क्योंकि शिवसेना की धमकी के बाद फिल्म उद्योग में शाहरुख का खुला समर्थन नहीं किया गया। कलाकारों से लेकर वितरकों तक ने संभल-संभल कर टिप्पणियाँ कीं क्योंकि उन्हे तरह-तरह के व्यावसायिक डर सता रहे थे। अभिषेक बच्चन जैसे कलाकारों ने तो साफ कहा कि वे महज कलाकार हैं और वे इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। निश्चितरुप से शाहरुख ने इन परिस्थितियों में कुछ अकेलापन जरूर महसूस किया होगा।

वैसे भी फिल्मी दुनिया में ठाकरे का आर्शिवाद चलता था। यह दादागीरी वाला आर्शीवचन हुआ करता था। फिल्मी दुनिया ने भी सरकार और सरकार राज जैसी फिल्में बना कर बाल ठाकरे को नायक का दर्जा देने में कोई कमीं नहीं रखी थी।

शाहरुख खान की इस प्रतिक्रिया को, जिसे बहादुरी कहना गलत न होगा, को हम बाल ठाकरे का अंत नहीं मान सकते। जनता की प्रतिक्रिया उन्हें गुड नाइट कहने जैसी भी नहीं है। बम्बई में ही उनके बहुत से समर्थक जरूर होंगे जो बदला लेने को उतावले होंगे। मगर इस घटना ने अनायास ही उनको एक बड़ी चुनौती दे दी है और जनता को एक प्रतीक नायक मिल गया है।